मध्यकाल की स्त्री रचनाकारों से जुड़ी जनश्रुतियाँ
पीएच।डी। शोधार्थी, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, नयी दिल्ली, फ़ोन न। 8447782321, ईमेल: jyotijprasad@gmail।com
शोध लेख सारांश– प्रस्तुत शोध लेख में मध्यकालीन समय में प्रसिद्ध दो कवयित्रियों के साथ जुड़ी जनश्रुतियों का ज़िक्र किया गया है। इन श्रुतियों ने समय के साथ लोकस्मृति में अपना स्थान बदलते स्वरुप के साथ बनाए रखा है। ये जनश्रुतियां आज तक जीवित हैं। लोगों में ये कथाएँ, क़िस्सों के रूप में कही-सुनी जाती हैं। प्रायः लोककथाओं में स्त्री चरित्र के हिस्से उतने बेहतर व्यक्तित्व के तत्व नहीं आते। उन्हें बदनामी के साथ जल्दी जोड़ दिया जाता है। परन्तु इन दो कवयित्रियों से जुड़ी जनश्रुतियों में स्त्री चरित्र के प्रति सकारात्मकता है। एक बात और सोचने के लिए रखी जा सकती है कि क्या जनश्रुति, किस्सागोई और लोककथाओं में फ़र्क है? यदि है, तो वो क्या हैं? क्या ये तीनों एक हैं? इसके अतिरिक्त समानताओं के बारे में भी सोचा जा सकता है।
बीज शब्द: मीरा, ताज, जनश्रुति, चमत्कार, भक्ति, मध्यकाल, क़िस्सागोई
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हम रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों को अनुपम क़िस्सागोई के रूप में भी ले सकते हैं या मानते हैं। ठीक इसी प्रकार पंचतंत्र की कहानियाँ भी अनूठी क़िस्सागोई हैं, जिनमें एक कहानी से दूसरी कहानी के बीज उगते जाते हैं। क़िस्सागोई आदिम समाज से शुरू होकर और हम तक पहुंची है। यह हमारी स्मृति की दुनिया की धरोहर है। ‘अलिफ़ लैला’ अथवा ‘अरबी रातें’ भला कौन भूल सकता है! इन सब में एक समानता है। मूल में कथानक का धागा बना रहता है और वह लगातार दिलचस्प मोड़ों से होता हुआ नया क़िस्सा बनता जाता है। हम सब अपने मनुष्य जीवन में एक ख़ासियत रखते हैं। हम सब अपने-अपने स्तर पर क़िस्सागोह होते हैं। चाहे भले या बुरे, लेकिन हम क़िस्सा गढ़ सकते हैं और क़िस्सा आगे बढ़ा भी सकते हैं। इस पर एक छोटी ही सही सभी की सहमति हो सकती है। दादी और नानी की कहानियों में जो सहज और सरल क़िस्सागोई की शैली होती है वह रचनात्मक होती है। जब वही कहानी सुनने वाली छोटी बच्ची बड़ी होती है तब वह अपनी रचनात्मकता को जोड़कर ताज़ा कहानी बनाती है जिसका मूल वही होता है। हम सब अपने स्तर पर दास्तानगोई कर सकते हैं।
इस लेख में दो स्त्री भक्त लेखिकाओं या कवयित्रियों के संदर्भ में लोक में प्रचलित जनश्रुति क़िस्सों पर प्रकाश डाला जाएगा जिनका साहित्य के क्षेत्र में आज भी महत्त्व है। परन्तु उन पर स्त्री दृष्टि से चर्चा और आगे ले जाने की ज़रुरत है। पहली स्त्री मीराबाई हैं। शोध लेख में उनसे जुड़ी जनश्रुतियाँ का उल्लेख होगा। दूसरी स्त्री ताज होंगी जिनके बारे में भी एक कहानी कही जाती है। ये दोनों स्त्रियाँ कृष्ण भक्त थीं और अनूठे कवित्त और सवैया लिखती थीं। हिंदी साहित्य में ताज लगभग गुमशुदा स्त्री भक्त कवयित्री हैं। दोनों ने अपने-अपने स्तर पर विद्रोह किया था।
महिला लेखन से जुड़ी मुंशी देवीप्रसाद ‘मुंसिफ़’ द्वारा सम्पादित एक अनूठी पुस्तक ‘महिला मृदुवाणी’ मीराबाई से जुड़ी एक घटना को यहाँ उद्धृत करना अच्छा होगा। पुस्तक में इस (क़िस्सा) प्रसंग से मीरा और उनके साथ जुड़ी जादुई घटना के बारे में पता चलता है। ‘मीराबाई संवत् 1573 में मेवाड़ के मशहूर महाराजा साँगा जी के कुँवर भोजराज को ब्याही गई थीं परन्तु शीघ्र ही विधवा होकर भगवत भजन करने लगीं। इनके देवर महाराणा रतनसिंह, विक्रमाजीत और उदैसिंह तीनों एक के पीछे एक इनके पिता की गद्दी पर बैठे, इनमें से रतनसिंह और विक्रमाजीत, इनकी ड्योढ़ी पर साध-संतों का आना जाना देखकर चिढ़ते थे और इनको इस बात से रोकते थे। परन्तु ये भगवत भक्ति से उनका कहना नहीं मानती थीं। तब राणा विक्रमाजीत ने अपने दीवान की सलाह से इनके पास चरणामृत के नाम से विष भेजा। ये माथे चढ़ाकर उसको पी गईं। परंतु वह विष इनको नहीं चढ़ा और राणा जी का मुँह उतर गया।’1 यह जनश्रुति इतनी मशहूर है कि आम लोग भी मीराबाई के गुणगान में इसका इस्तेमाल करते हैं। मीराबाई भगवान कृष्ण की परम भक्त थीं। विष पीने के बाद भी मीराबाई का जीवित रहना एक चमत्कार तो था ही इसके अतिरिक्त कृष्ण का अदृश्य रूप और उनकी गतिविधि पृष्ठभूमि में उभरती है। सच्ची आत्मा, भक्ति या पवित्रता का उदहारण देने के लिए लोगों में यह क़िस्सा अथवा कहानी कही-सुनी जाती है। लोग आम बोलचाल में कह भी देते हैं कि भक्त हो तो मीरा जैसी, मीरा कृष्ण की बहुत बड़ी भक्त थीं, मीरा जैसा भक्त आज तक कोई नहीं हुआ। ये पंक्तियाँ जनश्रुतियों से एक तरह का जनसंवाद हैं।
अन्य जनश्रुतियों पर भी एक दृष्टि डालना ठीक रहेगा। ‘मेकालिफ ने भी अपनी पुस्तक लीजेंड ऑव मीराबाई में लिखा है कि राणा ने मीरा को तलवार के घाट उतारना चाहा; पर स्त्री का वध करना महापाप होता है, अतः उन्होंने मीरा को तालाब में डूब मरने की आज्ञा दी। मीरा ने उनकी आज्ञा का पालन किया। गिरधर की सहायता का संबल ले वह निर्भय होकर पुष्कर में कूद पड़ीं, परन्तु एक दिव्य पुरुष ने उन्हें अथाह जल से निकाल, उन्हें वृन्दावन जाने की आज्ञा दी।’2 इसके अलावा भी अन्य गुजराती, बंगीय और मराठी जनश्रुतियां हैं। उनमें मूल कथानक वही है पर वे स्थिति और स्थान के अनुसार बदल कर दूसरी कथा में परिवर्तित हो रहे हैं। जैसे ‘गुजराती में जनश्रुति यह है कि जब मीरा पर विष का असर नहीं पड़ा तब राणा ने मारने के लिए तलवार उठाई। पर हाथ उठाने के साथ ही मीरा के चार रूप दिखाई देने लगे।’3 जनश्रुतियां क़िस्सागोई के पहलू को मज़बूत कर उसे लोक में प्रचारित कर देती हैं। आज के समय में टेलीविज़न पर आने वाले विज्ञापन जिस तरह से किसी उत्पाद अथवा व्यक्ति को केंद्र में रख देते हैं ठीक इसी प्रकार जनश्रुतियां सुनने और गूंथने के क्रम में व्यक्ति और घटना को केंद्र में स्थापित कर देती हैं जिससे सभी का ध्यान उन पर केन्द्रित हो जाता है। इससे कहानी दिलचस्प बन जाती है।
जनश्रुतियों में यह अद्भुत बात जुड़ जाती है कि यहाँ लेखक का पता नहीं चलता। मुख्य कथानक के इर्द-गिर्द कुछ इस तरह की रचनात्मकता जुड़ती जाती है जिससे मूल घटना या कहानी के बारे में सटीक रूप से पता नहीं चल पाता। मूल कथानक इन क़िस्सों में कुछ इस तरह उभरकर सामने आता है जो सभी को आकर्षित करने के साथ-साथ कुछ न कुछ जोड़ने का निमंत्रण भी देता है। इनमें तथ्य और कल्पना को अलग करना मुश्किल होता है। मीराबाई से जुड़े इन क़िस्सों में मीराबाई का व्यक्तित्व बेहद मज़बूती से उभरकर सामने आता है। इसके साथ ही उनके व्यक्तित्व में दिव्य तत्व का जुड़ाव भी मुख्य घटना का हिस्सा बन जाता है। मीराबाई के एक पद में विष-कथा के अंश का ज़िक्र आता है। संभवतः कालांतर में यही मूल कथा आगे चलकर विभिन्न लोक स्मृतियों और उपकरणों के माध्यम से बदलती रही है। वह पद इस प्रकार है-
गोविन्द का गुण गास्यां
राणो जी रूसैला तो गांम राखैला, हरि रूठ्यां कुमलास्यां
राम नाम की जहाज चलास्यां, भवसागर तिर जास्यां
चरणामृत को नेम हमारो, मित उठि दरसण पास्यां
बिषरा प्याला राणो भेज्या, इमरत करि गटकास्यां
यो संसार विनास जानिकै, ताको संग छिटकास्यां
लोक लाज कुल कानिहु तजिकै, निरभै निसांण घुरास्यां
मीरा के प्रभु हरि अविनाशी, चरणकमल बलि जास्यां4
इस पद से यह पता चलता है कि मूल घटना संपन्न हुई है। वो कह भी रही हैं कि विष का प्याला वे अमृत समझ कर गटक गईं। इस पंक्ति के बाद की पंक्तियों में दार्शनिकता का बोध होता है। मीराबाई विष का प्याला ग्रहण करने के बाद जीवित रहीं, यही घटना या चमत्कार लोगों को उनके बारे में कई कहानियाँ गढ़ने का रचनात्मक अवसर उपलब्ध करवाता है। इन जनश्रुतियों की विशेषता यह है कि इनसे मीराबाई के व्यक्तिव का विस्तृत फलक जनसमुदाय की स्मृति में मिलता है। इस घटना के चलते लोगों में यह विश्वास भी गहराई से बढ़ा कि मीराबाई एक महान भक्त स्त्री हैं। उन पर स्वयं भगवान कृष्ण की कृपा है। विकट समय में स्वयं भगवान उनकी सहयता करने आते हैं। उनका जीवन बचा लेते हैं।
किसी संत स्त्री के नाम से इतनी अधिक जनश्रुतियों का होना क़िस्सा परम्परा के लम्बे इतिहास का इशारा ही हैं। स्त्रियों के संदर्भ में अमूमन लोक में अमंगल कर देने वाली मिथक कहानियाँ अधिक तैरती हैं। भूतनी, चुड़ैल या डायन नाम से स्त्रियों को नकारात्मक फ्रेम मुहैया होता रहा है। लेकिन ठीक यही नाम पुरुष के सन्दर्भ में कम मिलते हैं। उदहारण के रूप में भूत शब्द या भूतों की कहानियाँ मिलती हैं पर ‘पुरुष चुड़ैल’ या ‘पुरुष डायन’ शब्द नहीं बना है। विजयदान देथा की कहानी ‘दुविधा’ (मणि कौल ने इसी नाम से फ़िल्म बनाई थी और बाद में ‘पहेली’ फ़िल्म बनी थी) में भूत का बढ़िया उदहारण मिलता है। यह भूत कहानी की मुख्य स्त्री पात्र के लिए भयानक और ख़तरनाक नहीं है बल्कि वह तो उसे देखते ही उसे प्रेम करने लगता है। स्त्रियाँ भूतनी भी बनती हैं तो वे भयानक और खून की प्यासी दिखाई जाती हैं। यह बात लोकमन में भी अनुभव की जा सकती है।
मीराबाई के बाद जिस मध्यकालीन स्त्री संत और कवयित्री के साथ एक लोककथा जुड़ी है, वे भी चर्चित हैं। ताज, कृष्ण भक्त कवयित्री थीं। इनका समय मुंशी देवीप्रसाद ‘मुंसिफ़’ ने संवत् 1700 के लगभग माना है।5 स्त्री कवयित्रियों के संदर्भ में यह भी देखने को मिलता है कि उन्हें हिंदी साहित्य की इतिहास संबंधी पुस्तकों में पुरुष मान लिया गया है। हिंदी साहित्य इतिहास पुस्तक ‘शिवसिंह सरोज’ में ताज का मामूली परिचय दिया गया है और वह भी पुरुष रूप में।6 इनके जीवन से सम्बंधित एक क़िस्सा लोक में प्रचलित है। इसका ज़िक्र ‘महिला मृदुवाणी’, ‘स्त्री कवि कौमुदी’, ‘मध्यकालीन हिंदी कवयित्रियाँ’ आदि पुस्तकों में मिलता है। इस लोक कहानी से ताज की परम स्त्री भक्त के रूप में स्थापना होती हैं। कथा में चमत्कारिक घटना के बाद उनकी पूजा, अर्चना और भक्ति में आने वाली बाधा हट जाती हैं। ताज मुसलमान स्त्री थीं और उनका मुस्लिम होना वैष्णव धर्म के कट्टर लोगों के लिए रास नहीं आता था।
‘स्त्री-कवि कौमुदी’ पुस्तक में गोविन्द गिल्लाभाई के ख़त को उद्धृत करते हुए ताज के बारे में उस लोककथा ज़िक्र किया गया है। सारांश में वह कथा यह कि ‘ताज नाम की एक मुसलमान स्त्री-कवि करौली ग्राम में हुई थीं। वे नहा धोकर मंदिर में भगवान का नित्यप्रति दर्शन करती थीं; इसके पश्चात् भोजन ग्रहण करती थीं। किन्तु एक दिन वैष्णवों ने उन्हें विधार्मिणी समझ कर मंदिर में दर्शन करने से रोक दिया। इससे ताज उपवास करके मंदिर के आँगन में ही बैठ गईं और कृष्ण नाम का जाप करने लगीं। जब रात हो गई तब ठाकुर जी स्वयं मनुष्य के रूप में भोजन का थाल लेकर ताज के पास आये और खाने का आग्रह किया। और कहा कि जब कल वैष्णव आयें तो कहना कि तुम लोगों ने मुझे कल ठाकुर जी का प्रसाद और दर्शन का सौख्य नहीं दिया, इससे आज रात को ठाकुर जी स्वयं मुझे प्रसाद दे गए हैं। और तुम लोगों को सन्देश दे गए हैं कि ताज को परम वैष्णव भक्त समझो। कभी इसकी भक्ति में बाधा मत डालो। नहीं तो ठाकुर जी नाराज़ हो सकते हैं। जब सुबह वैष्णव आये तो ताज ने यह बात उन्हें बताई। खाने की थाल देखने के बाद वे उनके चरणों में गिर पड़े। इस घटना के बाद ताज सबसे पहले मंदिर में प्रवेश कर प्रसाद ग्रहण करती थीं।’7
इस जनश्रुति कहानी के अन्य वर्जन खोजने पर अवश्य मिल जाएंगे। इस कहानी के द्वारा स्त्री और मुसलमान धर्म की ताज के व्यक्तित्व का चमत्कारिक रूप उभरता है। हालाँकि ताज ख़ुद से कोई चमत्कार नहीं करतीं। चमत्कार यह है कि ठाकुर जी ख़ुद उनके लिए भोजन की थाल लेकर आते हैं। ताज के साथ चमत्कार नहीं जुड़ा है पर इससे ताज की महिमा और भक्ति का पता चलता है। मीराबाई की जनश्रुति कहानियों की तरह स्वयं भगवान उन्हें बचाने आते हैं। ताज के लिखे कवित्तों में इस चमत्कार के बारे में कोई बात नहीं मिलती लेकिन उनके प्रत्येक पद में कृष्ण के बारे में ज़िक्र मिलता है। भक्तिमय ताज उन्हें अपने जीवन का आधार मानती हैं। वे उन पर भरोसा करती हैं-
काहू को भरोसो बद्रीनाथ जाय पायं परे
काहू को भरोसो जगन्नाथ जू के मान को
काहू को भरोसो काशी गया में ही पिंड भरे
काहू को भरोसो प्राग देखै वट पात को
काहू को भरोसो सेतबंध जाय पूजा करे
काहू को भरोसो द्वारवती गये जात को
काहू को भरोसो ताज पुस्कर में दान दिये
मो को तो भरोसो एक नन्द जी के लाल को8
निष्कर्ष के तौर पर कह सकते हैं कि इन दो उदाहरणों से यह समझा जा सकता है कि लोक में प्रचलित लोक कथाओं ने स्त्री संबंधी दृष्टियों में बहुत फ़र्क लाने की कोशिश की है। ‘लोक साहित्य और युग में संधि नहीं होती।’9 इसलिए इन जनश्रुति कथाओं अथवा क़िस्सों ने काल के पार जाकर स्त्रियों के लिए वह स्थान बनाकर तैयार किया जो जीवंत हैं। इसने लोक मन में इस बात की स्थापना की, यदि किसी स्त्री का पति मर जाता है तो वह उसके शव के साथ चिता पर न जलकर कोई घोर अपराध नहीं करती। कम से कम राजघरानों की स्त्रियों को मीराबाई की इन जनश्रुतियों से आत्मिक बल मिला होगा। दूसरी ओर ताज के उदहारण से यह समझ आता है कि इस सनातन धर्म में सीमा रेखाएं अवश्य खिंची जाती रही हैं पर सच्चा ह्रदय और आत्मिक भक्ति इस बाधा को पार करता रहा है। यह जनश्रुतियां लोकतान्त्रिक लोकमन की उदहारण हैं। स्मृतियाँ धर्म और लिंग के परे दोनों कवयित्रियों को सम्मान की निगाह से देख रही हैं। इन स्त्रियों से जुड़ी जनश्रुतियों के अतिरिक्त भी अन्य जनश्रुतियां लोक में विद्यमान हैं। इन्हीं के चलते लोक स्मृति में ये स्त्रियाँ आज तक जीवित हैं और आज तक श्वास ले रही हैं। हिंदी साहित्य में तो ताज को बहुत कम रेखांकित किया गया है पर लोगों की कथाओं में वे रहीं और उन्हीं कथाओं से कुछ लोगों ने उनके बारे में जानकारी प्राप्त करना शुरू किया। इसलिए क़िस्सागोई, जनश्रुतियां और लोककथाएँ, स्त्री इतिहास दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हैं।
सन्दर्भ:
- प्रसाद, देवीप्रसाद ‘मुंसिफ़’ (सं।), (1904), महिला मृदुवाणी, काशी: नागरी प्रचारिणी सभा, पृ। 59
- सिन्हा, सावित्री, (1953), मध्यकालीन हिंदी कवयित्रियाँ, दिल्ली: हिंदी अनुसंधान परिषद्, पृ। 113
- वही, पृ। 113
- सिंह, फतह (सं।), (1968), मीरा बृहत्पदावली प्रथम भाग, जोधपुर: राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, पृ। 63
- प्रसाद, देवीप्रसाद ‘मुंसिफ़’ (सं।), (1904), महिला मृदुवाणी, काशी: नागरी प्रचारिणी सभा, पृ। 2
- सेंगर, शिवसिंह, (1926), शिवसिंह सरोज, लखनऊ: नवल किशोर प्रेस, सातवाँ संस्करण, पृ। 430
- मिश्र, ज्योतिप्रसाद ‘निर्मल’, (1931), स्त्री कवि कौमुदी, प्रयाग: गाँधी पुस्तक भंडार, पृ। 19-20
- सिन्हा, सावित्री, (1953), मध्यकालीन हिंदी कवयित्रियाँ, दिल्ली: हिंदी अनुसंधान परिषद्, पृ। 189
- राजे, सुमन, (2004), हिंदी साहित्य का आधा इतिहास, दिल्ली: भारतीय ज्ञान पीठ, दूसरा संस्करण, पृ। 171