भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महिलाओं की भूमिका

सुबोध कुमार गुप्ता
शोधार्थी
इतिहास विभाग 
टी.एम. भागलपुर विश्वविद्यालय, भागलपुर
इमेल- mr.subodhkumar2012@gmail.com
मोबाईल- 9939743304

आजादी की लड़ाई में महिलाओं ने न सिर्फ अंग्रेजों से जमकर लोहा लिया बल्कि क्रांति की जो आग लगाई उसी से घबड़ाकर अंग्रेजों ने अपने कदम पीछे हटाए.

इतिहास के पन्नो को पलटते हुए ज्यों-ज्यों हम पीछे जायेंगे महिलाओं के साहस से भरी कई कहानियाँ हमारे देश के गौरव को बढ़ाती दिखाई दे जाएगी. भारतीय वीरांगनाओं का जिक्र किए बिना 1857 से 1947 तक की स्वाधीनता की दास्तान शायद अधूरी रह जाएगी. यह भारत की नारी ही थी जिन्होंने अंग्रेजों को लोहे के चने चबवा दिए.

राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी स्वतंत्रता आन्दोलन में महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित करते है. उन्होंने परतंत्र भारत से आह्वाहन किया था कि देश को आज़ाद कराने के लिए माताएं, बहिने सामने आये.

हम इतिहास उठाकर देखें तो ज्ञात होता है कि स्वतंत्रता आन्दोलन की सुगबुगाहट सन् 1857 से पहले ही आरंभ हो चुकी थी. इस सुगबुगाहट को विचारों और कर्तव्यों से पुष्ट करने के उत्तर दायित्व को महिलाओं ने निभाया था. सर्वप्रथम स्वतंत्रता की जंग लड़ने वाली स्त्रियों में बेगम हजरत महल का नाम आता है. बेगम युद्ध क्षेत्र का दौरा हाथी पर सवार होकर करती जिससे अंग्रेज चिढ़ जाते. इनकी सेना का नाम भी मुक्तिसेना था जिसने अंग्रेजों की लखनऊ रेजीडेंसी को घेर लिया था. लखनऊ पर जब अंग्रेजों ने अपना अधिपत्य जमा लिया तो वे नेपाल से भी सेना संचालन करती रही. स्वतंत्रता की भावना उनके भीतर कैसी थी, बेगम हजरत की कविता से ज्ञात हो जाता है:-

साथ दुनिया ने न दिया न मुकद्दर ने दिया,

रहने जंगल ने कब दिया जो शहर ने न दिया,

एक तमन्ना थी कि आज़ाद वतन हो जाए,

जिसने जीने दिया न चैन से मरने न दिया,

जमीन से आग बुझाने ये घटा उमड़ी थी,

हाँ, मगर उल्टी हवाओं ने ठहरने न दिया,

बिखर चला वो काफिला मकामें बौडी से,

चाल दुश्मन की कुछ ऐसी कि उभरने न दिया,

जुल्म की आंधियाँ बढ़ती रही लम्हा-लम्हा,

फिर भी परचम को आसमा से उतरने न दिया.

इतिहास में और पीछे चले तो एक और नाम सुनने को मिलेगा, वह नाम है वर्ष 1824 में फिरंगियों भारत छोड़ों का बिगुल बजाने वाली कित्तूर (कर्नाटक) की रानी चेनम्मा का.

जिन्होंने रणचंडी का रूप घरकर अपने अदम्य साहस व फौलादी संकल्प की बदौलत अंग्रेजी से छक्के छुड़ा दिए.

रायगढ़ की रानी अवंती बाई ने अंग्रेजों की नीतियों से चिढ़कर उनके विरुद्ध संघर्ष का ऐलान कर दिया और मंडला के खेटी गाँव में मोर्चा जमाया. उन्होंने अंग्रेज सेनापति वार्टर के घोड़े के दो टुकड़े कर दिए और उसके वो छक्के छुड़ाए कि वार्टर रानी के पैरों पर गिरकर प्राणों की भीख मांगने लगा.

रानी ने उसे माफ़ तो किया पर फिर उसी के हाथों धोखा खा गई. फिर उन्होंने जंगलों में रहते हुए सैन्य संचालन किया. जब ऐसा लगा कि अब तो अंग्रेजों की विशाल सेना से समक्ष समर्पण करना ही होगा. तो उन्होंने समर्पण करने के बजाय तलवार अपने सीने में उतार ली और प्राणोंत्सर्ग किए.

वीरांगनाओं की सूची को आगे बढ़ाये तो मुग़ल सम्राट बहादुर शाह जफ़र की बेगम जीनत महल का नाम भी सामने आएगा जिन्होंने दिल्ली और आस-पास के क्षेत्रों में योद्धाओं को संगठित किया और देश प्रेम का परिचय दिया.

“खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी|” अस्त्र-शस्त्र चलाने में माहिर रानी लक्ष्मी बाई नाना साहेब और तात्या टोपे के कुशल निर्देशन में साहसी रानी की परवरिश हुई थी.

“मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी” एस कथन का उद्धोष करने वाली रानी लक्ष्मी बाई ने अंग्रेजों की जमकर खबर ली थी. झाँसी का नेतृत्व करते हुए रानी लक्ष्मी बाई तमाम विपरीत परिस्थितियों के होते हुए भी कर्तव्य पथ से विमुख नहीं हुई. अपने छोटे से पुत्र को पीठ पर बाँधकर एक हाथ से घोड़े की रास संभाले तथा एक हाथ से तलवार भांजती रानी की तस्वीर आँख के सामने उभर जाती है. रानी को केवल अंग्रेजों का ही नहीं अपने ही भू-भाग के अन्य राजाओं का भी विरोध झेलना पड़ा था जो अंग्रेजों से मिले हुए थे या जिनकी झाँसी पर नजर थी. रानी लक्ष्मी बाई ने महिलाओं की एक अलग टुकड़ी- “दुर्गा दल” बनायी हुई थी. इसका नेतृत्व कुश्ती, घुड़सवारी और धनुर्विधा में माहिर झलकारी बाई के हाथों में था. झलकारी बाई ने कसम उठायी थी, कि जब तक झाँसी स्वतंत्र नहीं होगी, न ही मैं श्रृंगार करुँगी और न ही सिंदूर लगाऊँगी. अंग्रेजों ने जब झाँसी का किला घेरा तो झलकारी बाई जोशो-खरोश से साथ लड़ी. चूँकि उसका चेहरा और कद-काठी रानी लक्ष्मी बाई से काफी मिलता जुलता था, सो जब उसने रानी लक्ष्मी बाई को घिरते देखी तो उन्हें महल से बाहर निकल जाने को कही और स्वयं घायल सिंहनी की तरह अंग्रेजों पर टूट पड़ी और शहीद हो गई. कानपुर 1857 की क्रांति का प्रमुख गवाह रहा है. पेशे से तवायफ अजीजन बाई ने यहाँ क्रांतिकारियों की संगत में 1857 की क्रांति में लौ जलाई. 01 जून 1857 को जब कानपुर में नाना-साहेब ने नेतृत्व में तात्या टोपे, अजीमुल्लाह खान, बाला साहेब, सूबेदार टीका सिंह और शमसुद्दीन खान क्रांति की योजना बना रहे थे, तो उनके साथ उस बैठक में अजीजन बाई भी थी. इन क्रांतिकारियों की प्रेरणा से अजीजन ने मस्तानी टोली के नाम से 400 महिलाओं की एक टोली बनाई जो मर्दाना भेष में रहती थी. बिठुर के युद्ध में पराजित होने पर नाना साहेब और तात्या टोपे तो पलायन कर गए लेकिन अजीजन पकड़ी गई. युद्ध बंदी के रूप में उसे जनरल हैवलॉक के समक्ष पेश किया गया. जनरल हैवलॉक उसके सौन्दर्य पर रीझे हुए बिना न रह सका और प्रस्ताव रखा कि यदि वह क्षमा माँग ले तो उसे माफ़ कर दिया जायेगा. किन्तु अजीजन ने प्रस्ताव ठुकरा दिया और पलट कर कही कि माफ़ी तो अंग्रेजों को माँगनी चाहिए, जिन्होंने इतने जुल्म ढाये. इतने पर आग बबूला हो हैवलॉक ने अजीजन को गोली मारने के आदेश दे दिए. क्षणभर में अजीजन को गोली मार दी गई. कानपुर के स्वाधीनता संग्राम में मस्तानी बाई की भूमिका भी कम नही है. सौंदर्य कि मल्लिका मस्तानी बाई अंग्रेजों का मनोरंजन करने के बहाने उनसे ख़ुफ़िया जानकारी हासिल करती थी.

यह भी कम ही लोगो को पता होगा कि बैरकपुर में मंगल पाण्डेय को चर्बी वाले कारतूसों के बारे में सर्वप्रथम मातादीन ने बताया और मातादीन को इसकी जानकारी उसकी पत्नी लज्जों ने दी. लज्जों अंग्रेज अफसरों के यहाँ काम करती थी, जहाँ उसे यह सुराग मिला कि अंग्रेज गाय की चर्बी वाले कारतूस इस्तेमाल करने जा रहे है. इतना ही अगर यह कहा जाए कि 1857 की जंग की चिंगारी भड़काने और उसे हवा देने का काम नारीशक्ति ने किया तो यह भी अतिश्योक्ति नहीं होगी.

ऐसी ही वीरांगना ऊदा देवी थी, जिन्होंने पीपल के घने पेड़ पर छिपकर लगभग 32 अंग्रेज सैनिकों को मार गिराया. अंग्रेज असमंजस में पड़ गए और जब हल-चल होने पर कैप्टन वेल्स ने पेड़ पर गोली चलायी तो ऊपर से एक मानवाकृति गिरी. नीचे गिरने से उसकी लाल जैकट का उपरी हिस्सा खुल गया, जिससे पता चला कि वह महिला है. उस महिला का साहस देख कैप्टन वेल्स की आँखे नम हो गई, तब उसने कहा कि यदि मुझे पता होता कि वह महिला है तो मैं कभी गोली नहीं चलाता. नाना साहेब की पुत्री नैना देवी के त्याग को भला कौन विस्मृत कर सकता है? मैना को क्रांति का एक महत्वपूर्ण कार्य सौपा गया था. एक दिन मैना अंग्रेजों के द्वारा पकड़ ली गई. उसे बहुत प्रताड़ना दी गई वह अपने साथियों के नाम बता दें. किन्तु मैना देवी ने नहीं बताया. परिणामतः मैना देवी को अंग्रेजों ने जिन्दा जला डाला था. ऐसी कितनी वीरांगनाएँ है जिनका नाम तक इतिहास को पता नहीं है, पर इन सब लोगों ने अपना मूक त्याग किया है. इतना ही नहीं, अपरोक्ष रूप से अपने कपड़े जेवर आदि के द्वारा सिपाहियों को सहयोग देने वाली स्त्रियों को तो हम नामवार जानते भी नहीं है. खाना, कपड़ा देना ही नहीं सैनिकों के लिए कपड़े सिलना, बुनना भी एक महत्वपूर्ण प्राथमिक कार्य था जिसे महिलाओं ने देश की आजादी के लिए किया.

इतिहास गवाह है कि महिलाओं ने समय-समय पर अपनी बहादुरी और साहस का प्रयोग कर पुरुषों के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर चली है, आजादी की लड़ाई में जो महिलाएं बढ़-चढ़ कर हिस्सा ली है उसमें सावित्री बाई फूले, दुर्गा बाई देशमुख, अरुणा आसफ अली, सुचेता क्रिपलानी, विजय लक्ष्मी पंडित, कमला नेहरु, सरोजनी नायडी, कस्तूरबा गाँधी, मैडम भिकाजी कामा, एनी बेसेंट, डॉ० लक्ष्मी सेहगल के नाम को भुला नहीं जा सकता.

गाँधी की आजीवन संगिनी कस्तूरबा की पहचान सिर्फ यह नहीं थी, आजादी की लड़ाई में उन्होंने हर कदम पर अपने पति का साथ दी थी. आजादी की लड़ाई में पर्दें के पीछे रहकर सराहनीय कार्य की. कस्तूरबा गाँधी तथा कमला नेहरु के संघर्ष भी तो बेहद महत्वपूर्ण थे. इनका त्याग मूक था. इंदिरा गाँधी ने जब अंग्रेजों के विरुद्ध लोहा लेना चाही तो उनकी टोलको वानर सेना का नाम दिया गया जो विदेशी कपड़ो की होली जलने में सहयोगी सिद्ध हुई.

इतिहास के पन्नो में न जाने ऐसी कितनी दास्तान है, जहाँ वीरांगनाओं ने अपने साहस और जीवटता के दम पर अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए. 1857 की ग़दर में भारतीय महिलाओं में गजब की देश भक्ति देखने को मिली. अंग्रेजों की गुलामी से देश को आजाद कराने में न जाने कितने महिलाओं ने जान की बजी लगा दी अपना लहू बहायी और शहीद हो गई.

आजादी के 69 वर्षों के बाद भी भारतीयों के दिलों में उन वीरांगनाओं के लिए इज्जत कम नहीं हुई है, जिन्होंने भारत को आजाद करवाने में अहम भूमिका निभाई थी इन वीरांगनाओं से जुडी सम्मान, साहस और देशभक्ति की कहानियाँ आज भी हमारी आँखों को नम कर देती है.

 

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