हीरादेवी चतुर्वेदी : ‘रंगीन पर्दा’ और स्त्रियाँ
आरती यादव पीएचडी जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, नई दिल्ली 8840006497 aratiy10@gmail.com
सारांश (Abstract) :
इस शोध-पत्र में प्रमुख हिंदी लेखिका हीरादेवी चतुर्वेदी की एकांकी संग्रह ‘रंगीन पर्दा’ में उठाये गए विभिन्न समस्याओं विशेष रूप से स्त्री-प्रश्नों का मूल्यांकन करने का प्रयास किया गया है। ‘रंगीन पर्दा’ इनकी एकांकियों का संग्रह है, जो 1952 ई. प्रकाशित हुआ था। लेकिन इस संग्रह के अधिकांश एकांकी आज़ादी से पहले विभिन्न पत्रिकाओं में समय-समय पर प्रकाशित हो चुके थे। हीरादेवी चतुर्वेदी की इस एकांकी संग्रह में हम स्त्रियों की राष्ट्रीय भावनाओं उनके संघर्षों तथा भारत-पाक विभाजन का स्त्रियों पर पड़े प्रभाव विशेष रूप से पितृसत्तात्मक समाज में अपने अस्तित्व को बचाएं रखने की जद्दोजहद करती स्त्रियों के संघर्ष को देख सकते हैं।
बीज शब्द : साम्राज्यवाद, स्त्रियाँ, पितृसत्तात्मक समाज, शिक्षा, यथार्थ, भावुकता, विभाजन, मध्यवर्गीय इत्यादि
भूमिका (Introduction) :
उन्नीसवीं और बीसवीं (पूर्वार्द्ध) शताब्दी के दौरान जब हिंदी भाषा और साहित्य में सृजनात्मक साहित्य की रचना की शुरुआत होती है, तो उस समय ज्यादातर लखिकाओं ने कथा-साहित्य को अपनी अभिव्यक्ति की विधा के रूप में अपनाया। कुछ ही लेखिकाएं साहित्य के अन्य गद्य रूपों को अपनी रचना के लिए प्रयोग करती है। एकाध ही संख्या में सही लेखिकाओं ने गद्य के अधिकांश रूपों को अपनी रचना के लिए प्रयोग किया। हीरादेवी चतुर्वेदी, जो ‘मनोरमा’ की सम्पादिका भी थी, ने कविता, कहानी, निबंध-संग्रह के साथ ही एकांकी विधा को भी अपनी रचनाओं के लिए अपनाया। इस दौर की लेखिकाएं एक तरफ साम्राज्यवादी ताकतों से लड़ रही थी तो दूसरी तरफ पितृसत्तात्मक समाज से भी दो चार हो रही थी।
शोध आलेख
हीरादेवी चतुर्वेदी के एकांकी के विषय-वस्तु के सम्बन्ध में प्रो. रामचरण महेंद्र ने लिखा है कि-
“आपके एकांकी नाटक उच्च और मध्य वर्ग की नाना समस्याओं से सम्बद्ध है, जैसे सभ्य समाज में शिक्षितों का मिथ्याचार, गरीबों की यातनाएँ, सचाई, शील आदि गुणों के प्रति उनकी विरक्ति, सभ्यता की छाया में पनपने वाली धोखेबाजी, तरुणाई के प्रवाह में की जाने वाली मूर्खताएँ, रोमांस के संसार में मधुरता के पीछे से झाँकनेवाली कुरूपता, मिथ्या दम्भ, छल-छ्न्द माध्यम वर्ग का खोखलापन, सम्बन्धियों की पारस्परिक खटपट, साझे के व्यापार का दिवालियापन, नौकरों पर किए जानेवाले अत्याचार आदि समाज के मिथ्या व्यवहारों की आप आलोचक हैं और उनकी यथार्थता प्रकट करना आपका ध्येय है| सभ्य जगत की अनेक दुर्बलताओं के फोड़े पर आपने अँगुली रख दी है| इनके नाटकों में म जीवन का वह पहलू पाते हैं, जिसके प्रति हम अनजान है| समाज का वह लड़खड़ाता पहलू आपने चित्रित किया है, जिसकी बुनियादें खोखली हो चुकी हैं|”1
हीरादेवी चतुर्वेदी ने अपनी एकांकियों के लिए किस तरह की विषय-वस्तु का चयन किया हैं, इसे कुछ बिन्दुओं के माध्यम से आसानी से समझा जा सकता है-
शिक्षित स्त्रियों के प्रति मानसिकता
इसके अंतर्गत हीरादेवी की दो एकांकी एक ‘रंगा सियार’ और दूसरा ‘बड़ी बहु’ को लिया जा सकता है। ‘रंगा सियार’ में एक ऐसे युवक रमेश का चरित्र- चित्रण किया गया है, जो पढ़ी-लिखी स्त्रियों को अपने छुठे प्रेम के जाल में फँसाकर; कुछ दिन उनके साथ रहने के बाद, छोड़कर चला जाता है। शिक्षिता स्त्रियों के प्रति उसकी कैसी मानसिकता है, इसे रमा के लिए रमेश द्वारा लिखी गई चिट्ठी के माध्यम से समझा जा सकता है। इसे रमा की सहेली कमला पढ़ कर सुनाती है, जिसमें लिखा हुआ है कि-
“ कमला- (पत्र पढ़कर) देखा, इस रंगे सियार को! लिख रहा है, अब मैं वापस नहीं आऊँगा| तुम आशा भी न करना| मैं अपने जीवन में यही खेल खेल रहा हूँ। पढ़ी-लिखी लड़कियों को बेवकूफ बनाने में मुझे आनन्द आता है। तरुणाई की लहरों पर बहकर तुम अपना विवेक खो बैठती हो न! मैं उसी का लाभ उठता हूँ, रमा!”2
यहाँ पर सवाल मात्र यह नहीं है कि तरुणाई की लहरों पर बहकर लड़कियां अपना विवेक खो बैठती है| सवाल यह है कि एक पढ़ा-लिखा युवक पढ़ी-लिखी, लड़कों के साथ खुलकर बात करने वाली, अपनी पसंद नापसंद के अनुसार जीवन जीने वाली, अपनी ज़िन्दगी के अहम फैसले जैसे विवाह इत्यादि का निर्णय खुद लेनेवाली लकड़ियों को किस तरह से चारित्रिक हनन करता है। रमेश मानसिक रूप से बीमार, पितृसत्तात्मक व्यवस्था का पोषक एक ऐसा पढ़ा-लिखा युवक है, जो लड़कियों को खासकर ,जो शिक्षित है, उन्हें इसलिए अपने प्रेम के झूठे जल में फसाता है क्योंकि उसकी दृष्टि में शिक्षिता लड़कियां तरुणाई में अपना विवेक खो बैठती है। रमेश जैसे लड़के यह कभी नहीं समझ सकते हैं कि पढ़ी-लिखी लड़कियां तरुणाई में बहकर नहीं बल्कि अपने विवेक का इस्तेमाल करके अपनी जिन्दगी से जुड़े अहम फैसले खुद करने लगी है और यह कुछ रमेश जैसे मानसिकता वाले लड़कों के लिए सहय नहीं है।
दूसरी बात यह कि लेखिका ने इस एकांकी के माध्यम से लड़कियों को सोच- समझकर, देख- भालकर विवाह करने की नसीहत जरूर देने की कोशिश की है लेकिन इसका निर्णय वो लड़कियों के पास ही सुरक्षित रखती है। इसके माध्यम से लेखिका लड़कियों की तरुणाई को वश में रखने का नहीं बल्कि उन्हें यह समझाने की कोशिश करती है कि समाज में रमेश जैसे धूर्त और मक्कार लोग भी रहते है जो प्रेम के नाम पर लड़कियों के साथ विश्वासघात करने से बाज नहीं आते। अत: रमेश जैसे युवकों से सावधान रहने की जरूरत है।
रमा की सहेली कमला जब रमा को समझाते हुए कहती है कि-
“कमला- बुरा न मानना, रमा! कदाचित यही कारण है कि हमारे माता-पिता वर का चुनाव स्वयं करते है, और लड़कियों की इच्छा- अनिच्छा की परवा नहीं करते।”3
इस पर रमा प्रेम में छले जाने के बावजूद भी इस बात से इतेफाक नहीं रखती है और कहती है कि-
“रमा – इन रँगे सियारों से कुमारियों की रक्षा का जहाँ तक सम्बन्ध है, यह ठीक है। परन्तु अधिकांश कुमारियों का जीवन इस प्रथा के कारण सुखी नहीं रहता, कमला!”4
जाहिर है कि लेखिका धूर्त पुरुषों से सावधान रहने की सलाहियत तो देती है लेकिन विवाह का निर्णय लड़कियों पर होना चाहिए इसका विरोध नहीं करती है।
इनकी दूसरी एकांकी ‘बड़ी बहु’ में एक पढ़ी-लिखी स्त्री के प्रति उसके ससुरालवालों की कैसी मानसिकता है; उसके बारे में किस तरह से धारणा बनाकर बैठे हुए है, इसी को लेखिका दिखाना चाहती है। अगर पति अपने माता-पिता के प्रति कर्तव्यों का निर्वाह नहीं करता है, तो इसका भी दोष पत्नी को दिया जाता है; कि उसके बहकावे में आकर ही वह अपने माता-पिता की देखभाल नहीं करता है। अगर पति कुमार्ग पर है, तो पत्नी की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह उसे सन्मार्ग पर लाये। विमला मध्यवर्गीय परिवार की एक संस्कृत पढ़ी-लिखी बहु है। वह बहुत शिष्टाचार और सभ्यता से पेश आती है लेकिन पड़ोसियों और उसकी सास को उसकी इस शिष्टचारिता में भी स्वांग नज़र आता है –
“मीरादेवी (विमलाकी सास)- विमला, तुम रसोई में जाकर चाय तो बनावा लाओ।
विमला- अभी लाई माताजी! (विमला का प्रस्थान|)
मनोरमा- संस्कृत पढ़ी-लिखी है न! संस्कृत वाले बहुधा शिष्टाचार से दूर रहते हैं।
मीरादेवी- और यदि शिष्टाचार का स्वांग रचते हैं तो, ऐसा कि संसार में उनके समान नम्र और सभ्य अन्य किसी व्यक्ति की कल्पना भी नहीं की जा सकती|”5
विमला का पति गिरीश जब अपने माता-पिता की देखभाल और कहना नहीं मानता है तो इसका भी दोष विमला को दिया जाता है –
“गिरीश स्वयं तो कृतघ्न तो है ही, परन्तु उसे इस प्रकार विवाह के एक वर्ष के भीतर ही कृतघ्नता का विस्फोट करने औए मार्गभ्रष्ट करने में इस बड़ी बहू का ही हाथ होना चाहियें बहिन!
मीरादेवी- सब की यही धारणा है।”6
जाहिर है कि किस तरह से बहू को ही सभी बातों के लिए दोषी करार दिया जाता है। बहुओं के प्रति यह मानसिकता आज भी देखी जा सकती है।
देश सेवा और स्त्रियों की भूमिका :
हीरादेवी की दूसरी एकांकी ‘मुंह दिखाई’ में एक ऐसी लड़की कमला का चरित्र-चिरत्न किया गया है जो ,जो शादी के बाद मुँह दिखाई की रस्म में मिली अपने सारे आभूषण, पैसे और तोहफ़े को गाँधी-स्मारक–कोष में दान कर देती है। इसमें लेखिका ने मुंह दिखाई में मिले चीजों पर दुल्हन का व्यक्तिगत अधिकार होना चाहिए, जिसे वो अपनी मर्जी के साथ खर्च कर सके की हिमायत करती हैं –
“कमला – मुंह-दिखाई में जो नकद रुपया अथवा सोने-चांदी के आभूषण मिलते हैं, उन पर उनका व्यक्तिगत अधिकार न होना भी किसी रहस्य से कम नहीं है।परन्तु ससुरालवाले स्वेच्छा से उसका उपभोग करते हैं। और नकद रुपयों में से तो एक भी उसके पल्ले नहीं पड़ता|”7
इस तरह कमला अपने मुंह-दिखाई में मिली नकद को देश सेवा में समर्पित कर देती है। उसके इस निर्णय का उसके ससुरालवाले भी समर्थन देते हैं तथा उसकी इस फैसले पर गौरवान्वित भी होते हैं।
स्वत्रन्त्रता-आन्दोलन के दौर में स्त्रियाँ देश की सेवा में अपनी गहनों को समर्पित कर देती थी । यह एकांकी महिलाओं के उसी त्याग पर आधारित है। लेकिन यह एकांकी स्वतंत्रता मिलने के बाद की (1950 ई.) एकांकी है। स्वतन्त्रता मिलने के बाद भी देश की भलाई के लिए स्त्रियों के त्याग और बलिदान की जरूरत बनी हुई थी। कमला का यह मानना है कि-
“जिस राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने हमारे देश को सदियों की गुलामी की जंजीरों से मुक्त कर स्वतंत्रता के मंगल प्रभात की सुनहरी किरणों का स्पर्श कराया; महिलाओं की शिक्षा और समानाधिकार का वरदान दिलाने में जिस राष्ट्रपिता ने कुछ उठा नहीं रक्खा, उसके स्मारक-कोष में एक नारी की मुँह-दिखाई की यह तुच्छ राशी यदि कुछ योग दे सके, तो भारतीय नारी की मानवता और उसके सौभाग्य का इससे बढ़कर दूसरा क्या आदर्श हो सकता है|”8
मध्यवर्गीय परिवार और पति-पत्नी
हीरादेवी चतुर्वेदी रचित एकांकी ‘रंगीन पर्दा’ मध्यवर्गीय पति- पत्नी के बीच आई दूरिया, तनाव तथा सुलह की कहानी है। हरीश एक बुद्धिजीवी युवक है। उसकी पत्नी सरला पढ़ी-लिखी गृहिणी है। उन दोनों के पांच बच्चे भी है। शुरू-शुरू में उन दोनों के बीच जो प्यार और अपनापन था वह गृहस्थी और बच्चों की बढ़ती हुई जिम्मेदारियों के कारण कम होती जाती है। गृहस्थ जीवन की बढ़ती हुई जिम्मेदारियां उन दोनों के बीच कड़वाहट को जन्म देती है। सरला, अपने पति हरीश पर उस तरह से ध्यान नहीं दे पाती है जिस तरह से जब उनकी नई-नई शादी हुई थी। घर गृहस्थी का बोझ और बच्ची की देखभाल में ही समय निकल जाता है, जिसके कारण वो हरीश पर ज्यादा तवज्जो नहीं दे पाती है। इस कारण हरीश के व्यवहार में भी एक रूखापन आ गया है। हरीश की आमदनी भी उतनी नहीं है कि वह घर के कामों के लिए एक महाराजिन ही रख ले।
सरला के व्यवहार में भी एक तरह का रूखापन आ गया है। अपने इस क्रोध को वह अपनी बेटी के ऊपर उतरती है। बात-बात पर अपनी झल्लाहट वह अपनी बेटी के ऊपर ही उतरती है। अगर वह अपनी बेटी पर ज्यादा ध्यान देती है तो पति को वह ज्यादा तवज्जो नहीं दे पाती है| इस तरह पति, घर-गृहस्थी और बेटी के प्रति बढ़ती हुई जिम्मेदारियाँ पति-पत्नी के बीच में एक तनाव पैदा करता है| हरीश के बदलते व्यवहार को देखते हुए सरला अपनी सहेली कमला से कहती है कि –
“मेरी समझ में नहीं आता कि इधर कुछ वर्षों से इनका व्यवहार रुक्षता और विषमता में क्यों बदलता जा रहा है। अब तो बात-बात में चिल्लाने, झल्लाने और बरसने लगे है।”9
इसका कारण बताते हुए स्वयं सरला ही अपनी सहेली कमला से कहती है कि-
“सरला- मैं जो इसका कारण समझ सकी हूँ, वह यह कि समय के अतिक्रमण के साथ नारी में जहाँ कुछ बातें पहले से अधिक विकसित हो जाती हैं, वहीं कुछ परिवर्तित भी हो जाति हैं| सेवा और कर्तव्य-परायणता का जहाँ विकास होता जाता है, वहीं उसके शरीर में एक शिथिलता आने लगती है- परिवर्तन की रेखाएँ उभरने लगती हैं| उसके अंग-प्रत्यंग में पहले की भांति भराव नहीं रह जाता और आकर्षण भी उतना नहीं रह जाता|”10
इस तरह लेखिका समय के साथ आए इस परिवर्तन को पति-पत्नी के बीच में आई दूरियों के कारण के रूप में रेखांकित करती हैं।
भारत-विभाजन और स्त्रियाँ :
भारत की आज़ादी की ख़ुशी मिलने के साथ ही भारत का विभाजित होना देश के इतिहास की सबसे दुखद घटना है। भारत और पाकिस्तान के बनने के साथ ही कितने लोगों को बेघर होना पड़ा; कितने लोग मारे गये और कितने ही बच्चे और स्त्रियों को बेमौत मार दिया गया। इस विभाजन से महिलाएं विशेष रूप से प्रभावित हुई। हीरादेवी चतुर्वेदी की एकांकी ‘चिनगारी’ एक ऐसी ही स्त्री पर केन्द्रित है, जो विभाजन के बाद अपने माता-पिता से बिछुड़ने के कर कलकत्ता के किसी होटल में नाच-गा कर अपना निर्वाह करती है। भारत विभाजन का दर्द उसके दिल में आज भी खटकता रहता है। विभाजन की त्रासदी को अपनी सहेली दिलरुबा से बयान करते हुए मेनका कहती है कि-
“तुम्हरा कोई भी अपराध उस अपराध की तुलना में नगण्य ही रहेगा, दिलरुबा, जिसके कारण हमारे देश के दो टुकड़े हो गये; दो भाई-भाई आपस में एक दूसरे के खून के प्यासे बन गए और अगणित माँ-बहिनों तथा बहू-बेटियों की इज्जत पर हमला करने की राक्षसी प्रवृति का विस्फोट कर बैठे और इसी विस्फोट के कारण मुझ जैसे हजारों तरुणियों को अपनी जन्मभूमि से और अपने माँ-बाप से बिछुड़कर अनिच्छापूर्वक कितने ही गर्हित काम करने पड़े। (कुछ रुककर) मैंने जो नृत्य और संगीत-कला सीखी थी, उसका प्रदर्शन किसी होटल में विवश होकर करने की मैंने कभी कल्पना तक नहीं की थी, दिलरुबा!”11
विभाजन का दर्द इतना हरा है कि इस दर्द को किसी भी तरह से भुलाया नहीं जा सकता है। इसका दर्द तो मरने के बाद ही शायद खत्म हो सके। इस विभाजन रूपी चिनगारी का दर्द कितना गहरा है, इसे मेनका के इन वाक्यों द्वारा महसूस किया जा सकता है-
“मेनका- यह चिनगारी इस शरीर के साथ ही ठण्डी हो सकेगी, दिलरुबा! यह अग्निकण सदा राख के भीतर जलता रहेगा।
दिलरुबा- ठीक कहती हो, बहिन! जिस अपमान, मरकत और बर्बरता का सामना देश-विभाजन के कारण हम लोगों को करना पड़ा है, वह सब इस जन्म में भूल कैसे सकते है?”12
मजबूरन होटल में नाच-गा कर अपना निर्वाह करने वाली मेनका एक ऐसे पुरुष के इंतजार में है जो उसे इस गर्हित काम से बाहर निकल सके। स्वर्णसिंह नाम के एक पुरुष से उसकी दोस्ती भी है और उसे यह विश्वास है की वह एक अच्छा इन्सान है लेकिन वो ‘उतावली बनकर’ किसी भी दिशा में पग नहीं बड़ाना चाहती| कारज धीरे होत है, काहे होत अधीर?’
इसी धीरता के साथ मेनका स्वर्णसिंह का इंतजार करती है कि शायद वो उसे इस माहौल से बाहर निकल कर सम्मानपूर्वक ज़िन्दगी जीने में उसकी मदद कर सके| क्या स्वर्णसिंह मेनका के इस विश्वास पर खरा उतर सकेगा या वह सिर्फ मेनका के पास सिर्फ मन बहलाने के लिए ही आता है?
इस प्रश्न को अधूरा छोड़ एकांकी खत्म हो जाती है।
समाज का यथार्थ और भावुकता :
समाज के नग्न यथार्थ को धैर्यपूर्वक सहन न कर सकने के कारण इन्सान अतिभावुकता का शिकार हो जाता है। अपनी एकांकी ‘भूलभुलैया’ में हीरादेवी चतुर्वेदी ने एक ऐसे युवक की कहानी को विषय बनाया है, जो समाज के नग्न यथार्थ को सहन न करने के कारण; परेशानियों को धैर्यपूर्वक सामना न कर सकने के कारण अतिभवुकता का शिकार हो जाता है। यह एकांकी एक ऐसे युवक अरुण की है जो कवि होने के साथ-साथ छापाखाना भी चलता था|
“कुछ महीने पहले तक उसका छापाखाना खूब चलता है। स्वयं किताबे लिखते थे, उन्हें छापते थे और खूब बिकती थीं। परन्तु वह छापाखाना साझे में चल रहा था। सम्बन्धियों के शेयर्स (हिस्से) थे।साझे की खेती सदा बुरी होती है न! सम्बन्धियों से आपसी बातों में कुछ खटक गई। फल यह हुआ कि जिन सम्बन्धियों ने कभी सहायता का हाथ बढ़ाया था, उन्हीं ने अरुण बाबु को दिवालिया बना दिया। छापाखाना बिक गया। साझे की सम्पत्ति का हिस्सा-बाँट हो गया। अरुण बाबु बेकार हो गए|”13
इस तरह छापाखाना बंद हो जाने के कारण अरुण बेरोजगार हो जाता है। सम्बन्धियों से धोखा मिलने के कारण ही अरुण अतिभावुकता का भी शिकार हो जाता है तथा बीमार रहने लगता है। इस बीमारी में उसके संगे-सम्बन्धी किसी तरह की सहायता भी नहीं करते हैं। दुनिया अब उसके लिए इसी का नाम है। वह अपनी पत्नी अलका से कहता है कि –
“अरुण-तुम नादान बन रही हो अलका! अरे, दुनिया इसी का नाम है| कहीं धूप है, तो कहीं छाया| किसी के घर में मातम मनाया जाता है, तो किसी के घर में मंगल-गीत गाए जाते हैं अथवा शहनाई बजती है| तुम यह आशा ही क्यों करती हो कि तुम्हारे घर में दुःख-दर्द और अभाव है, तो सारी दुनिया सर-दर्द मोल ले बैठे?”14
एक तो अरुण के पास अब उतने रूपये-पैसे भी नहीं है, जिससे कि वो अपना इलाज सही से करवा सके। दूसरा वह इतना उदास रहने लगता है कि वह खाना-पीना भी सही से नहीं खाता है। अपनी पत्नी को डाक्टर के पास भी जाने नहीं देता है। इस तरह वह सम्बन्धियों से ठगे जाने के कारण मिली मानसिक आघात और समाज के छल-दम्भ को सहन न कर सकने के कारण मृत्यु को प्राप्त होता है।
इस एकांकी में लेखिका ने एक ऐसे आदर्शवादी युवक के चरित्र को दिखाया है,, जो संगे-सम्बन्धियों से मिली धोखे के कारण मानसिक आघात को सहन नहीं कर पाता है और यह आदर्शवाद और भावुकता ही उसकी जिन्दगी को ले बैठती है। शायद लेखिका इस एकांकी के जरिये यह दिखाना चाहती हो कि अतिभावनात्मकता और आदर्श इन्सान को बेहद कमजोर और समाज की बुराइयों से लड़ने तथा खुद से लड़ने का हौसला छीन लेती है। बेहद उदासी इन्सान को मृत्यु की तरफ ही ले जा सकती है। इस तरह लेखिका समाज के यथार्थ से होती हुई व्यक्ति के मनोविज्ञान की तरफ मुड़ती हुई दिखाई देती हैं।
प्रो. रामचरण महेंद्र इस एकांकी की विशेषता बताते हुए लिखते हैं कि-
“अधिक भावुकता भी निंध्य है; एक कमजोरी है- यही दिखाना इष्ट है। इसके साथ सम्बन्धियों के साथ व्यापार में हानि की सम्भावना, दुनिया का कठोर यथार्थवाद, जीवन की आँखमिचौली और मौत की भूलभुलैयाँ का नग्न चित्रण किया गया गई। चित्रण की दृष्टि से नाटक में तथ्य है, किन्तु संविधान का धरातल दुर्बल नजर आता है। अति भावुकता से मृत्यु होना नाटक को शिथिल बनाता है”15
जहाँ तक अतिभावुकता की वजह से मृत्यु का होना नाटक को शिथिल और कमजोर बनाने का सवाल है तो, यह बात सही हो सकती है। लेकिन बहुर सारी ऐसी परिस्थितियां आती है जब मनुष्य खुद से हारा हुआ समझने लगता है। बहुत से ऐसे केस देखने को मिलता है जब मनुष्य उदास होकर; धैर्यपूर्वक परेशानियों का सामना न कर सकने के कारण आत्महत्या तक कर लेता है।
प्रो. रामचरण महेंद्र हीरादेवी चतुर्वेदी की एकांकियों की विशेषता बताते हुए कहते है कि-
“कई नाटकों में, जैसे ‘माटी की मूरत’ और मुँह-दिखाई’ में हीरादेवी जी का विशुद्ध यथार्थ एवं जीवन दर्शन प्रकट हुआ है। वे समाज के मिथ्या दिखावे के प्रति विद्रोही हैं। गरीबों, पीड़ितों, शोषितों के प्रति उनके ह्दय में सहज स्नेह और सहानुभूति है। इन एकांकी नाटकों के द्वारा यथार्थ सामाजिक जीवन का एक आइना उन्होंने हमारे सम्मुख प्रस्तुत किया है। समाज के छल-छिद्र, विद्रूप एवं गुराभिसंधि का यथार्थवादी चित्रण इनमें हुआ है।
निष्कर्ष (Conclusion) :
हीरादेवी चतुर्वेदी सम्राज्यवाद विरोधी आन्दोलन के दौर की उन लेखिकाओं, सम्पादकों व साहित्यकारों में से एक हैं, जिन्होंने अपनी लेखनी द्वारा न केवल हिंदी साहित्य संसार को समृद्ध किया बल्कि उस दौर की उन समस्याओं, विशेष रूप से स्त्री-प्रश्न के उन तमाम पहलुओं को उठाया, जिन प्रश्नों से पूरा भारतीय समाज जूझ रहा था। इन्होने अपनी कहानियों के जरिये स्त्रियों की समस्याओं को तो उठाया ही अपनी एकांकी संग्रह ‘रंगीन पर्दा ’ में भी स्त्रियों की उन समस्याओं से जूझती हुई नज़र आती हैं, जिसकी तरफ पुरुष समाज सुधारक ध्यान देने से कतराते थे। हीरादेवी चतुर्वेदी स्त्रियों से सम्बन्धित छोटी सी छोटी समस्याओं को भी गभीरतापूर्वक विचारविमर्श के केंद्र में लाती हैं। वो एक ओर शिक्षित स्त्रियों के प्रति पुरुषों के नजरियों और उनकी रूढ़ मानसिकता के साथ उनकी बढ़ती हुई असुरक्षा की भावना और पितृसत्तात्मक व्यवस्था को बनाये रखने की छटपाहट को अपनी एकांकी ‘रंगा सियार’ में उठती हैं, तो दूसरी तरफ ‘रंगीन पर्दा’ एकांकी में मध्यवर्गीय परिवार में स्त्रियों की अत्यधिक व्यस्तताओं के कारण पति-पत्नी के सम्बन्धों में आई दूरियों को रेखांकित करती है। परिवार में अत्यधिक व्यस्तता के कारण और बच्चों के देखभाल की सारी जिम्मेदारी औरतों पर होने के कारण वो स्वयं के लिए समय ही नहीं निकाल पाती है। इसके कारण पति-पत्नी के पारस्परिक सम्बन्धों में भी कड़वाहट आ जाती है। हमारा पुरुष समाज इसकी भी जिम्मेदारी औरतों पर ही डालता है और इससे निपटने की सारी कोशिशे औरतों के जिम्मे ही आती है। ऊपर से देखने में ये समस्या बहुत ही मामूली – सी नज़र आती है लेकिन ये ऐसी समस्याएं है, जो परिवार में कलह पैदा करती है। लेकिन हमारे पितृसत्तात्मक भारतीय परिवार की समस्या ये है कि वो इन सारी समस्याओं का जिम्मेदार औरतों को ही मानता है। इस तरह हम देखते है कि हीरादेवी चतुर्वेदी औपनिवेशिक भारत की लगभग उन सारी समस्याओं को; विशेषरूप से स्त्रियों की समस्याओं को अपनी रचनाओं के माध्यम से उठाती हैं, जिससे महिलाएं अपनी असल जिन्दगी में जूझ रही थी।
संदर्भ (Reference) :
1. हीरादेवी चतुर्वेदी, रंगीन पर्दा, (एकांकी संग्रह) प्रकाशक: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, प्रयाग, संस्करण 1952, पृ. सं.5-6 2. वही, पृ. सं. 27
3. वही, पृ. सं. 24
4. वही, पृ. सं. 24
5. वही, पृ. सं. 56
6. वही, पृ. सं. 64
7. वही, पृ. सं. 49
8. वही, पृ. सं. 52
9. वही, पृ. सं. 8
10. वही, पृ. सं. 8
11. वही, पृ. सं. 9
12. वही, पृ. सं. 129
13. वही, पृ. सं. 130
14. वही, पृ. सं. 34
15. वही, पृ. सं. 7