अरविन्द यादव की कविताएं

(1)

युद्ध स्थल
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युद्ध स्थल, धरती का वह प्रांगण
जहां धरती की प्रवृति सृजनात्मकता के उलट
खेला जाता है महाविनाश का महाखेल
सहेजने को क्षणभंगुर जीवन का वह वैभव
जिसका एकांश भी नहीं ले जा सका है अपने साथ
आज तक सृष्टि का बड़े से बड़ा योद्धा

युद्ध स्थल, इतिहास का वह काला अध्याय
समय जिनके सीने पर लिखता है
क्रूरता का वह आख्यान
जिसे सुन,जिसे पढ़
कराह उठती है मनुष्यता
सदियां गुज़र जाने के बाद भी

युद्ध स्थल दो पक्षों के लहू से तृप्त वह भूमि
जहां दो शासक ही नहीं
लड़ती हैं दो खूंखार प्रवृत्तियां
लडती हैं दो खूंखार विचारधाराएं
ो बहातीं हैं एक-दूसरे का लहू
बचाने को अपना अपना प्रभुत्व

युद्ध स्थल, प्रतिशोध और बर्बरता की वह निशानी
जहां दौड़ती हुई नंगी तलवारें निर्ममता से
धरती को लहूलुहान कर
छोड़ जातीं हैं न जाने कितने जख्म
मनुष्यता के सीने पर
जिनको भरने में कलैण्डरों की न जाने कितनी पीढ़ियां
थक हार लौट जाती हैं वापस
सौंपकर अगली पीढ़ी को वह उत्तरदायित्व

युद्ध स्थल, गवाह, कमान होती पीठों पर
असमय टूटे, दुःख के उन पहाड़ों के
जहां विजयोन्माद में
निर्ममता से कुचले गए थे वह कन्धे
जिनका हाथ पकड़ करनी थी उन्हें अनन्त तक की यात्रा

युद्ध स्थल, कब्रगाह उन संवेदनाओं की
जो युद्ध स्थल में रखते ही कदम शायद
होकर क्रूरता के भय से भयभीत
स्वयं ही कर लेती हैं आत्महत्या

युद्ध स्थल,चिह्न उन धड़कती सांसों की वफादारी के
जिन्होंने अपनी निष्ठा की प्रमाणिकता के लिए
ओढ़ ली धरती समय से ही पहले

युद्ध स्थल, स्मारक उस वीरता व शौर्यता के
जिनके सामने घुटने टेकने को हो जाती है मजबूर
अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित
जीवन की अदम्य जिजीविषा

ऐसे समय में जब कि अनेकानेक अश्वत्थामा
संचित ब्रह्मास्त्रों के दुरपयोग से
फिर बनाना चाहते हैं
विश्व को एक युद्ध स्थल
ऐसे भयावह समय में भी
एक कविता ही तो है जो शान्ति की मशाल थामे
निभा रही है अपना दायित्व
ताकि बचाया जा सके विश्व को
बनने से युद्ध स्थल ।

(2)

युद्ध
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युद्ध परिचायक होते हैं
राज्य लिप्सा की उस प्रवृत्ति के
जिसका हाथ थाम शासक
बने रहना चाहते हैं
सत्ता के शिखर पर

युद्ध चिह्न होते हैं उस क्रूरता के
जो धीरे-धीरे बढ़कर
घोंट देती है गला
सिंहासन की संवेदनाओं का

युद्ध अंकित हो जाते हैं हमेशा हमेशा को
इतिहास के सीने पर
स्याही से नहीं बल्कि
मानव के शरीर से निसृत लहू से

युद्ध नहीं होते हैं क्षणिक उन्माद
युद्ध होते हैं
सनकी शासकों की सोची समझी साज़िश
करने को मनुष्यता का कत्ल
जिसकी पीढ़ा से कराहती रहती है सदियां
सदियों तक।

(3)

तानाशाह
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तानाशाह नहीं सुनना चाहते हैं सवाल
वे सुनना चाहते हैं सिर्फ
सिर झुकाए सिंहासन की जयकार

तानाशाह नहीं देखना चाहते हैं
अपने बरक्स उठा कोई इंकलाबी हाथ
वे देखना चाहते हैं सिर्फ
सिंहासन के सामने
करबद्ध नतानन

तानाशाह कुचल देना चाहते हैं
उन विचारों को भी
जो भूल कर भी होते हैं उठ खड़े
प्रतिपक्ष में तानाशाही प्रवृत्ति के

तानाशाह सिर्फ कहते हैं अपने मन की बात
जारी करते हैं सिर्फ अपने फरमान
बिना विचारे इस आशा के साथ
कि जनगण ब्रह्म वाक्य की तरह
उसे सुने उसे माने

तानाशाह नहीं चूकते हैं
करने से भी उनका कत्ल
जो अनसुनी करते हैं उनकी बात
अनदेखे करते हैं उनके फरमान

क्यों कि वे भूल जाते हैं तानाशाही में
अतीत के तानाशाहों का वह हश्र
जो दफन है
इतिहास के सीने में ।