समकालीन साहित्य में आदिवासी समाज और संस्कृति का स्वरूप

चंदा

शोध-छात्रा, हिन्दी विभाग

दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली

ई. मेल-chandarajdhanidu@gmail.com

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सारांश

आदिवासी संस्कृति की प्राचीनता की बात करें तो यह आर्यों से पुरानी हैं जब आर्य भारत आए तो उन्होंने यहाँ के मूलनिवासी को खदेड़ दिया, आदिवासियों ने भी इसका प्रतिरोध किया, किन्तु पराजित होने के उपरांत भी उन्होंने आर्यों की अधीनता न स्वीकारते हुए घने जंगलों में शरण ली और वहीं अपनी सभ्यता और संस्कृति को जीवित रखा, बचाए रखा।

बीज शब्द: आदिवासी, समाज, संस्कृति, सभ्यता, व्यवस्था, संघर्ष

प्रस्तावना

आदिवासी संस्कृति मुख्यधारा से अलग प्रकृति के साथ सामंजस्यपूर्ण, सामूहिकता की शक्ति को समेटे हुए, अपनी जीवन शैली और सांस्कृतिक विविधता में विशिष्ट और समृद्ध हैं। आदिवासी संस्कृति प्रकृति आधारित हैं, प्रकृति इनके लिए पूज्य हैं और समाज का प्रत्येक मनुष्य सम्मानीय, सभी को समान महत्त्व, सभी लोगों, पेड़-पौधों, पशु-पक्षी यहाँ तक की मुरझाए हुए फूलों और पत्तियों के लिए भी इनकी संस्कृति में संवेदना और रक्षा भाव हैं अपने लोग और अपनी संपदा नहीं वरन पूरी सृष्टि के प्रति प्रेम और रक्षा का भाव विद्यमान हैं। आज हम अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरण की चिंता का जो दिखावा करते है, खुद को इको-फ्रेंडली दिखने का जो नया फैशन चला हैं, आदिवासी समाज उसे सदियों से अपने व्यवहार में समेटे उसका पालन करता आया हैं, वो प्रकृति को सवारने के साथ-साथ उसका रक्षक भी हैं, प्रकृति की रक्षा का दायित्व उनमें केवल कुछ लोगों (पर्यावरणविद) पर न होकर हर व्यक्ति पर हैं, इसलिए यह कहना अतिश्योक्ति न होगी कि आज भी जो जंगल, स्वच्छ हवा बची हुई है वो केवल आदिवासी संस्कृति के कारण बची हैं, और यदि पूरी सृष्टि को पर्यावरणीय विनाश से बचाना है तो वह केवल आदिवासी जीवन दर्शन एवं मूल्यों से ही संभव हैं।

आदिवासी समाज की संस्कृति, जीवन-शैली, प्रकृति के साथ तालमेल पर आधारित हैं। रमणिका गुप्ता के शब्दों में-“हम प्रकृति पर कब्जा नहीं करना चाहते, न उस पर अपना वर्चस्व जताना चाहते, हम साथ-साथ जीने में विश्वास करते है, विनाश में नहीं।” (1)

आदिवासी संस्कृति की प्राचीनता की बात करें तो यह आर्यों से पुरानी हैं जब आर्य भारत आए तो उन्होंने यहाँ के मूलनिवासी को खदेड़ दिया, आदिवासियों ने भी इसका प्रतिरोध किया, किन्तु पराजित होने के उपरांत भी उन्होंने आर्यों की अधीनता न स्वीकारते हुए घने जंगलों में शरण ली और वहीं अपनी सभ्यता और संस्कृति को जीवित रखा, बचाए रखा। “एक पराजित समूह होते हुए भी आदिवासियों ने अपनी संस्कृति, भाषा अपने जीने की सामूहिक शैली परंपराओं और रीति-रिवाजों की विरासत को जिंदा रखा। सारी प्रकृति उनकी सहचर हैं। उनका बोंगा (देवता) उनका पूर्वज ही होता हैं, पेड़ों या चट्टानों तक ही सीमित हैं उनके बोंगा के लिए मन्दिर नहीं होता।” (2)

आदिवासी समाज-

आदिवासी समाज को लेकर मुख्यधारा के समाज में जो पूर्वाग्रह, मिथक और धारणाए हैं वह बहुत सतही और अर्द्धसत्य हैं। आदिवासी समाज को मुख्यधारा का समाज हमेशा से हेय दृष्टि से देखता रहा हैं। समाज शास्त्री, राजनीतिज्ञ और अधिकतर साहित्यकार भी अपने पूर्वाग्रहों के चलते अकसर आदिवासी समाज के स्वरूप पर चर्चा करते हुए इनके समाज की सही पड़ताल नहीं कर पातें। वीर भारत तलवार इस संदर्भ में लिखतें हैं-“यह दुर्भाग्य की बात हैं कि आदिवासियों से अंजान लोग उनके प्रति बहुत-सी गलत धारणाए रखते हैं और उन्हें असभ्य तथा जंगली समझते हैं और जब उनके संपर्क में आते हैं तो उनके साथ ऐसा ही व्यवहार भी करते हैं।”(3) आदिवासी समाज का अपना एक अलग जीवन संसार हैं। मुख्यधारा के समाज से बिल्कुल अलग। उनके समाज की एक अलग सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना हैं। इसकी एक प्राचीन परंपरा रही हैं। अपने समाज को चलाने, अपनी संस्कृति को समृद्ध करने, और जीवन के लोक रंग के उनके अपने मानदंड हैं। आदिवासी समाज बाहर की दुनिया को ललचाई नजरों से नहीं देखते वरन अपने सीमित संसाधनों और अंचल विशेष में ही संतुष्ट और अभिभूत रहता हैं। यह समाज जीवन को सहज एवं सरल रूप में जीता हैं बिना किसी दिखावे और बनावटीपन के साथ ही विविधता से भरी संस्कृति के आलोक में ही जीवन संचालित करते हैं। आदिवासी समाज के अपने मिथक, आख्यान, परंपराए है, जिससे वे आज भी जुड़ें हुए हैं “आदिवासी समाज अपनी लोकसंस्कृति के साथ अपने रागात्मक संबंधों को जीता ही नहीं है बल्कि जंगल, पहाड़, नदी, पेड़, पौधों की सुरक्षा में प्रतिबद्ध रहता हैं प्रकृति ही उसका जीवन हैं, आज विकास के नाम पर उपजे दर्द को वही महसूस कर सकते हैं।”(4)

जिस सभ्यता व आदर्श सामाजिक व्यवस्था का मुख्यधारा यूटोपियाँ गढ़ता है, उसके मूल तत्त्व हमें आदिवासी समाज में प्राचीनकाल से मिलते हैं, समानता, भाईचारा, स्वतंत्रता, पारस्परिक सौहार्द, स्त्री-पुरूष संबंधों का खुलापन जैसी बातें इस समाज के लिए आदर्श या सपना पूरा करने जैसी बात न होकर इनके समाज के हर मनुष्य के व्यवहार में शामिल हैं। रमणिका गुप्ता का कथन है-“आदिवासियों का अपना इतिहास है, संस्कृति है भाषाएं हैं, चुनी हुई लोकतांत्रिक समाज व्यवस्था है। जो निचली इकाई से लेकर पूरे प्रदेश तक जाती हैं। समानता, भाईचारा और आजादी उनका आचरण हैं, सहयोग उनकी आदत।” (5) आदिवासी समाज लोकतांत्रिक समाज हैं आदिवासी समाज सामूहिकता और समानता में विश्वास रखते हैं। भारत में विभिन्न आदिवासी जनसमूह है जैसे- पहाड़ियां, संथाल, मुंडा, उराव, हो, गोंड, भील, मीणा, खोड़, बोरो, निकोबारी, सावरा, शोंपेन, ग्रेट अंडमानी, ओंगे, कोल, कोरी, किन्नौर, थारू, नागा, ख़ासी, डब्ला-डब्ली, लेपच, लुशाई, तोड़ा, मोटिया, इत्यादि जो अपने संस्कृतियों के साथ रहते हैं। सभी का अपना एक समाज है “सभी जनजातीय समाजों के आचार-विचार, रहन-सहन, संस्कृति, धार्मिक परंपराए भिन्न-भिन्न हैं परंतु भिन्नताओं के बावजूद भी इनके सामाजिक-सांस्कृतिक विकास में कुछ समानताएं नजर आती हैं जिनके आधार पर ही इन समुदायों को सम्मिलित रूप से आदिवासी कहकर पुकारा जाता हैं।”(6) आदिवासी समाज में ऐसी कई विशेषताएं है जो अपने आप में गृहणीय एवं सम्मानीय हैं। “आदिवासी समाज स्थानीय बाकी कई समाज की तुलना में अधिक समतामूलक और लोकतांत्रिक समाज रहा है। इसमें संसाधनों के असीमित अधिग्रहण या कहे कि लूट की बजाएं इनके समान वितरण को तरजीह देने की संस्कृति रही है। गांव में कोई बालक अनाथ न हो, और कोई भूखा न रहे, यह इस समाज का पहला सामाजिक मूल्य माना जाता हैं। बेटा-बेटी को एक समान माना जाता हैं और संपत्ति में इनको बराबरी का हिस्सा दिया जाता हैं।”(7)

 

भारत की 8.6 प्रतिशत आबादी आदिवासियों की हैं। देश के महत्त्वपूर्ण खनन एवं आद्यौगिक क्षेत्र आदिवासी इलाकों में ही है। भारत में 500 से भी अधिक आदिवासी समूह हैं। झारखण्ड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल तथा उत्तर-पूर्व के अरूणाचल प्रदेश, असम, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड एवं त्रिपुरा आदि राज्यों में आदिवासियों की संख्या काफी हैं। आदिवासी समाज में स्त्री को मुख्यधारा के समाज की तरह बांध कर नहीं रखा जाता, उसे पुरूष समान ही स्वतंत्रता है। “भारतीय संस्कृति के बिल्कुल विपरीत, आदिवासी स्त्री को अपना वर खुद चुनने की इजाजत हैं इसके लिए न तो वह दण्डित होती हैं और न ही दोषी करार ही दी जाती हैं। उनके यहाँ तो घोटुल प्रथा थी, जहाँ युवा लड़के-लड़कियों को एक साथ रखकर सब प्रकार का ज्ञान दिया जाता था। यह उनका प्रशिक्षण स्थल था। इसलिए भारत की अन्य स्त्रियों के विपरीत आदिवासी लड़कियां-लड़कों को देखकर न तो मोम की तरह पिघलती है और न ही बर्फ की तरह पानी-पानी हो जाती हैं, बल्कि वे उनसे बतियाती है, परखती है और अगर किसी के साथ जीवन निभाने की संभावना दिखे, तो रजामंदी से ब्याह भी कर लेती हैं।”(8) आदिवासी स्त्री को ये स्वतंत्रता केवल विवाह तक के लिए ही नहीं हैं बल्कि जीवन भर के लिए मिलती हैं। उसके लिए विवाह एक जीवन भर बांध कर रखने वाला खूंटा या जंजीर नहीं हैं। यदि विवाह संबंधों में पुरूष मारे-पीटे या “पति से न पटने पर उसे छोड़ने का अधिकार भी उन्हें प्राप्त हैं।”(9)

आदिवासी समाज में दहेज प्रथा का प्रचलन नहीं हैं, इसलिए सभी लड़कियों का विवाह बिना किसी आर्थिक बोझ के हो जाता हैं बल्कि कुछ आदिवासी समाज में पुरूष को ही वधु के लिए धन (गोनोड़) कहते हैं। “गोनोड़ ‘हो’ भाषा का शब्द हैं जिसका मतलब हैं दुल्हन का दाम-जिसे आप अंग्रेजी में ब्राइड प्राइस कहते हैं। झारखण्ड के आदिवासियों में बाल-विवाह की प्रथा नहीं हैं। वहाँ आम तौर पर शादी की उम्र 18-20 साल हैं।”(10) आदिवासी समाज में भागकर विवाह करने की भी प्रथा हैं, जिसे झारखण्ड में पौन प्रथा कहते हैं। वर पक्ष वधू पक्ष को धन देता है और विदाई के समय लड़की के भाई को एक बैल भी देना पड़ता हैं। शादी के पहले और बाद में वरपक्ष को रस्म के अनुसार वधू पक्ष को खिलाना-पिलाना पड़ता हैं। आज भी पौन प्रथा का संथालों में चलन हैं।

आदिवासी संस्कृति:-

आदिवासी संस्कृति में ईश्वर और आत्मा की कोई मान्यता नहीं हैं वहाँ प्रकृति की पूजा होती हैं आदिवासी समाज अपने पूर्वज को मानता हैं वहाँ पूर्वज ही उनका रक्षक हैं। वे सिंगबोंगा को मानते हैं सिंगबोंगा की परिकल्पना का आधार जनजातीय जीवन के अनेक सामाजिक आर्थिक संदर्भों से जुड़ता हैं। बोंगाओं के बिना जनजातीय जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती हैं। “उनका बोंगा जो उनका पूर्वज ही होता हैं, पेड़ों या चट्टानों तक ही सीमित हैं। उनके बोंगा के लिए मन्दिर नहीं होता। वह अपने बोंगा को अपने और अपनी संतान के साथ खाने और पीने के लिए आमंत्रित करते है। ‘सखुआ’ के सात गाछ उनके ‘सरना’ होते हैं। पूर्वजों की याद में गाड़ी गई या अगल बगल की बड़ी चट्टानें उसका ‘जाहरथान’ या ‘ससान’ हैं। उनका धर्म उनकी जीवनशैली हैं, आस्था या अंधभक्ति नहीं। उनकी अपनी एक अलग विरासत और पहचान है, जो सामूहिक जीवन-प्रणाली, समानता, स्वतंत्रता, भाईचारे से लैस जनतंत्र तथा स्वायत्ता पर टिकी हैं।”(11) सरना आदिवादी समाज का मुख्य धर्म हैं। मुख्यधारा के समाज की तरह इनके देवी-देवता कल्पना-लोक में निवास नहीं करते। वे अपने देवता को अपना मित्र मानते हैं। अपने हर सुख-दुख में अपने मित्र समान देवता को याद करते हैं इनके देवता मन्दिर में नहीं प्रकृति में होते हैं।

समानता और स्वतंत्रता के भाव आदिवासी समाज में स्थायी रूप से देखने को मिलता हैं। डॉ. रामदयाल मुण्डा आदिवासी स्त्री पुरूष समानता के भाव पर लिखते हैं-“यहाँ कि स्त्रियां अपने व्यवहार में पुरूषों के साथ उनकी समान सहभागिता दिखाई देता हैं। यह समानता कुछ अर्थों में मानवेत्तर दायरे तक चली गई हैं: किसी शिकार अभियान में किसी के कुत्ते ने अगर निर्णायक भूमिका निभायी, तो उसकी हिस्सेदारी भी मनुष्य के बराबर गिनी जाती हैं। समानता के इसी तकाजे का परिणाम हैं कि एक प्रतीक रूप सम्मान का अंतर छोड़ कर किसी गांव के ग्राम प्रधान और एक सामान्य सदस्य में हैसियत का कोई खास अंतर नहीं होता। हर व्यक्ति के मन में श्रम की महत्ता के पीछे यही समानता का भाव कार्य करता हैं।”(12)

आदिवासी संस्कृति समानता , भाईचारे की संस्कृति हैं ये किसी दूसरे धर्म की न तो निंदा करते है, न ही घृणा। उनके सोच के दायरे में धर्म का कांसेप्ट नहीं है उनकी कुछ आस्थाए और विश्वास हैं, अपनी जीवनशैली हैं चूंकि धर्म कहकर अलग से कोई अवधारणा नहीं है, इसलिए उनका कोई शास्त्र नहीं है, न ही कोई धर्म ग्रंथ। वो प्रकृति में ही जीता पलता बढ़ता हैं और फिर खत्म हो जाता हैं। मरकर भी वह प्रकृति के विकास के लिए खाद बन जाता हैं, किन्तु वह धरती पर कब्जा नहीं करता। किन्तु आज आदिवासी समाज और संस्कृति के अस्तित्व पर चौतरफा हमले हो रहे है। आज आदिवासी युवक-युवतियां अपने जातीय पहचान और आदिवासीपन से शर्माते है, अपनी संस्कृति के प्रति उनमें हीनता बोध पनप रहा है इसका कारण हैं “बाहरी लोग, जो शक्तिशाली है और अधिक सुसंस्कृत और सभ्य समझे जाते हैं, आदिवासियों के समाज को नीची नजर से देखते हैं। बाहरी लोगों की नज़र में आदिवासी असभ्य और असंस्कृत हैं…. अपनी बातचीत और बर्ताव से वे आदिवासी समाज के प्रति घृणा प्रकट करते हैं।”(13) अपने लिए बचपन से ऐसा घृणित व्यवहार देखकर आदिवासी युवक-युवती के मन में अपने समाज, संस्कृति व भाषा के प्रति एक हीनता बोध पैदा हो जाता है, जिस कारण वह अपने समाज को कमतर आंकता है, अपनी भाषा बोलने से बचता हैं। इसी मनोवृति के कारण आदिवासी अपनी संस्कृति, रीति-रिवाज, भाषा छोड़कर बाहरी लोगों की संस्कृति अपनाते जा रहे हैं, जिस कारण आज आदिवासी की सांस्कृतिक अस्मिता संकट में है।

यह सही है कि आदिवासी गरीब और अशिक्षित हैं उनकी अर्थ व्यवस्था पिछड़ी हुई हैं। अज्ञान और अशिक्षा के कारण उनके समाज में भी कई विसंगतियां व्याप्त है, जैसे डायनमारी, जादू-टोना, अंधविश्वास, आदि। किन्तु शिक्षा के ज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के द्वारा इन विसंगतियों को दूर किया जा सकता हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और आत्मसम्मान देकर आदिवासी संस्कृति को नयी पहचान देने की आवश्यकता है। जिसके लिए आदिवासियों को एक सांस्कृतिक आंदोलन की जरूरत हैं। “आदिवासी सभ्यता समानता की सभ्यता है। यह वर्चस्ववादी सभ्यता कभी नहीं रही। आदिवादी जीवनशैली में मनुष्य और प्रकृति तथा उसके जीव-जन्तु साथ-साथ जीते हैं, साथ-साथ कष्ट झेलते हैं, हँसते गाते हैं, रोते बिसूरते हैं। इनके पहाड़ इनकी नदियां, हवा या आग इनके देवता हैं। अपने देवता को ये बोंगा कहते हैं। ये बोंगा से ये डरते नहीं है, बल्कि उससे हिल-मिलकर रहते हैं।”(14) सरहुल और करम परब इनके प्रमुख पर्व हैं। जिन्हें ये उल्लास से मनाते है।

आज व्यापक पैमाने पर हिन्दी में आदिवासी साहित्य लिखा जा रहा हैं, और विश्वविद्यालयों में आदिवासी जीवन पर शोधकार्य भी हो रहें हैं आदिवासियों की पीड़ा, संघर्ष एवं विस्थापन की समस्या को साहित्य के माध्यम से उठाया जा रहा हैं। जिनमें प्रमुख रूप से पीटर पॉल एक्का, वाल्टर भेंगरा ‘तरूण’, वन्दना टेटे, मंगल सिंह मुण्डा, केदार प्रसाद मीणा, निर्मला पुतुल, ग्रेस कूजूर, जसिन्ता केरकेट्टा, रोज केरकेट्टा तथा गैर आदिवासी लेखकों में संजीव, रणेन्द्र, राकेश कुमार सिंह, मनमोहन पाठक, महरून्निसा परवेज़ प्रमुख है। संजीव का उपन्यास ‘जंगल जहाँ शुरू होता हैं’ तथा रणेन्द्र का ‘ग्लोबल गांव के देवता’ ने आदिवासी उपन्यासों में काफी लोकप्रियता पाई। इसी प्रकार कहानी विधा में भी आदिवासी कहानियां धीरे-धीरे अपनी पहचान व लोकप्रियता बना रही हैं।

आदिवासी क्या चाहता है, उसका समाज एवं संस्कृति कैसी हैं, उसकी विशिष्टताए क्या है, उसकी पीड़ा और समस्याए और अस्मिता क्या है यह पता चलता हैं उनके लिखे साहित्य से। जिसे आज साहित्यकार बखूबी अभिव्यक्त कर रहे है। आदिवासियों का उनके समाज के भीतर जीवन सचमुच कैसे चलता है, पर्व-व त्यौहार मनाने, रीति-रिवाजों के पालन, घोटुल का अनुशासन और प्रेम करने के तरीके सचमुच कैसे हैं, समाज में आ रहे आंतरिक और बाहरी परिवर्तनों को वे किस रूप में ले रहे हैं। कैसी-कैसी खूबसूरत चीजे और कोमल भावनाएं इन परिवर्तनों से नष्ट हो रही है, दब रही हैं। विस्थापन के सन्दर्भ में, विस्थापित होना क्या जगह का छूटना भर है या और कुछ भी छूटता हैं आदि सवालों के जवाब वे अपने साहित्य के माध्यम से मुख्यधारा के समाज के सम्मुख रख रहे हैं। और इस प्रकार हम पाते हैं कि आदिवासी समाज और संस्कृति के विषय में मुख्यधारा के समाज में जो मिथक और पूर्वाग्रह है वे असत्य और निरर्थक हैं। वैश्वीकरण के दौर मनुष्य लगातार प्रकृति का दोहन कर पृथ्वी को खोखला बना रहा हैं, और आसमान को जहरीले धुए से काला, जंगलो को काटकर धरती को बंजर, जिससे पर्यावरण संतुलन भी बिगड़ रहा हैं।

आदिवासी संस्कृति में वो सभी मूल्य और प्रकृति संरक्षण के तत्त्व विद्यमान है जिसे पूरी दुनियां को अपनाना चाहिए, जो मनुष्य को समानता, भाइचारे, सामूहिकता और विश्व बंधुत्व का पाठ पढ़ाती हैं आदिवासी संस्कृति का संरक्षण व ग्रहणीयता केवल हमारे लिए ही नहीं, हमारी आने वाली पीड़ियों को बेहतर जीवन तथा पृथ्वी के संरक्षण के लिए भी आवश्यक है।

सन्दर्भ सूची

  1. गंगा सहाय मीणा (सं.)-आदिवासी साहित्य विमर्श, अनामिका पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्र (प्रा.) लिमिटेड, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण-2014, पृष्ठ सं.37
  2. रमणिका गुप्ता- आदिवासी अस्मिता का संकट, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2019, पृष्ठ सं.52
  3. वीर भारत तलवार- झारखण्ड के आदिवासियों के बीच, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली, चतुर्थ संस्करण-2019, पृष्ठ सं.33
  4. डॉ. आसिफ उमर (सं.)- समकालीन साहित्य और आदिवासी विमर्श, साहित्य संचय प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण-2019, पृष्ठ सं.186
  5. रमणिका गुप्ता- आदिवासी अस्मिता का संकट, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2019, पृष्ठ सं.10
  6. रसाल सिंह, बन्ना राम मीणा- आदिवासी अस्मिता वाया कथा-साहित्य, अनामिका पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्र (प्रा.) लिमिटेड, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण-2014, पृष्ठ सं.52
  7. केदार प्रसाद मीणा (सं.)- आदिवासी कथा जगत, अनुज्ञा बुकस प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण-2018, पृष्ठ सं.05
  8. रमणिका गुप्ता- आदिवासी अस्मिता का संकट, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2019, पृष्ठ सं.75
  9. रमणिका गुप्ता- आदिवासी अस्मिता का संकट, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2019, पृष्ठ सं.75
  10. वीर भारत तलवार- झारखण्ड के आदिवासियों के बीच, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली, चतुर्थ संस्करण-2019, पृष्ठ सं.109
  11. रमणिका गुप्ता- आदिवासी अस्मिता का संकट, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2019, पृष्ठ सं.53
  12. डॉ. रामदयाल मुण्डा- आदिवासी अस्तित्व और झारखण्डी अस्मिता के सवाल, प्रकाशन संस्थान, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-2002, आवृत्ति-2016, पृष्ठ सं.32
  13. वीर भारत तलवार- झारखण्ड के आदिवासियों के बीच, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली, चतुर्थ संस्करण-2019, पृष्ठ सं.223
  14. रमणिका गुप्ता- आदिवासी अस्मिता का संकट, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2019, पृष्ठ सं.86

 

 

 

 

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