हिंदी दलित कहानियाँ और भारतीय समाज
विजय कुमार पीएच.डी. हिंदी विभाग दिल्ली विश्वविधालय मो.- 8130389881 ईमेल- vikki.Srcc@gmail.com
संदर्भ:
आज़ादी के बाद दलितों को शिक्षा का अधिकार मिला। मूक लोगों को वाणी मिली और चेतना आई जिससे उन्होंने रुढ़ियों और अमानवीय परंपराओं को नकार दिया। आठवें दशक में हिंदी दलित कहानी ऐसे ही समय में तेज़ी से उभरती है और अपनी उपस्थिति दर्ज करती है। तब से तक दलित कथाकर अपनी कहानियों के माध्यम से स्वयं को तलाशने के साथ-साथ सामाजिक परिवेश की गंभीर चुनौतियों से भी टकराते है साथ ही, भारतीय समाज का परिचय उन स्थितियों और चरित्रों से करते है जिन्हें कभी भी मुख्यधारा में जगह नही दिया गया और उनका उपयोग वस्तु की तरह किया गया।
बीज शब्द: दलित, शिक्षा, व्यवस्था, समाज
प्रस्तावना
हिंदी का एक मुहावरा है ‘दीपक तले अंधेरा’ जिसका अर्थ होता है, दूसरों को उपदेश देने वाला व्यक्ति का स्वयं अच्छा आचरण नहीं होना। भारतीय समाज ने भी विश्व स्तर पर अपनी विविधता,संस्कृति व परंपराओं को विश्व स्तर पर पहुँचाया है,किंतु अपने ही समाज से जातिगत विद्रपताओं, विडंबनाओं व शोषण को ख़त्म नहीं कर पाया है। हज़ारों सालों से जाति के आधार दलितों का शोषण अनवरत जारी है। दरअसल, भारतीय समाज में दो तरह के संविधान संचालित होते है। पहला, जिसे मनु ने हज़ारों सालों पहले बनाया था और वर्ण-व्यवस्था को लागू किया। दूसरा, आज़ादी के बाद डॉ.भीमराव अंबेडकर ने बनाया था। अंबेडकर का संविधान सभी को समानता, स्वतंत्रता व बंधुत्व का अधिकार देता है जबकि मनु का संविधान वर्ण-व्यवस्था पर आधारित भेदभाव को जन्म देता है। रामस्वरूप चतुर्वेदी लिखते है “मनु के विधान में अंबेडकर के लिए स्थान नहीं था, या नहीं जैसा था, अंबेडकर के विधान में मनु के लिए पूरा स्थान है।”1 मनु की भेदभावपूर्ण व शोषण पर आधारित यह व्यवस्था आज भी सवर्णो की मानसिकता में ज़हर का काम कर रही है जिससे सवर्ण संविधान को काग़ज़ी व्यवस्था मानकर इसका नकार करते है। जयप्रकाश कर्दम की ‘तलाश’ कहानी का पात्र इसी मनुवादी व्यवस्था से बँधा है और कहता है “संविधान से देश चलता है साहब, समाज नहीं। समाज परंपराओं से चलता है।”2
ओमप्रकाश वाल्मीकि लिखते है “दलित जीवन की नारकीय विभीषिकाएँ जहाँ दलित कहानियों को जीवन से जोड़ती हैं, वहीं ये कहानियाँ मानवीय सरोकारों को प्रतिबद्धता के साथ प्रस्तुत भी करती हैं। अपनी अस्मिता की तलाश और व्यापक स्तर पर अपने अधिकारों के प्रति सजगता इनमें स्पष्ट दिखाई पड़ती है। सामाजिक जीवन के अंतर्संबंधों की जटिलता ने जो खाई पैदा की है, उसे पाटने का काम भी दलित कहानियों की प्राथमिकताओं में है।”3
आज़ादी के बाद दलितों को शिक्षा का अधिकार मिला। मूक लोगों को वाणी मिली और चेतना आई जिससे उन्होंने रुढ़ियों और अमानवीय परंपराओं को नकार दिया। आठवें दशक में हिंदी दलित कहानी ऐसे ही समय में तेज़ी से उभरती है और अपनी उपस्थिति दर्ज करती है। तब से तक दलित कथाकर अपनी कहानियों के माध्यम से स्वयं को तलाशने के साथ-साथ सामाजिक परिवेश की गंभीर चुनौतियों से भी टकराते है साथ ही, भारतीय समाज का परिचय उन स्थितियों और चरित्रों से करते है जिन्हें कभी भी मुख्यधारा में जगह नही दिया गया और उनका उपयोग वस्तु की तरह किया गया।
डॉ.अंबेडकर भारतीय गाँव को ब्राह्मणवादी और पूँजीवादी व्यवस्था की जड़ मानते है जिसमें शोषणकारी व्यवस्था का जन्म होता है। आज भी भारतीय गाँव में जाति आधारित अमानवीयता का क्रूरत्तम खेल जारी है। दलितों को मूँछ रखने, घोड़ी पर चढ़कर बारात निकलने, पिसाब पिलाने या फिर नग्न घूमने इत्यादि घटनायें होती रहती है। इस गाँव को ही गाँधी वास्तविक भारत की संज्ञा देते थे। हिंदी दलित कहानी अंबेडकरवादी चेतना के आधार पर नए समाज का निर्माण करती है जो समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व पर आधारित है। हिंदी दलित कहानी गाँव के ऐसे यथार्थ की तस्वीर प्रस्तुत करती है जो प्रताड़ना, हत्या, अपमान व शोषण से भरा हुआ है जिसे साहित्य व इतिहास में कभी जगह नहीं दिया गया। इस कारण दलितों ने अपने पीड़ा के लिए खुद कलम उठाकर अपना साहित्य और इतिहास खुद लिखा। गाँव में व्याप्त शोषण की व्यवस्था को ओमप्रकाश वाल्मीकि की ‘सलाम’, मोहनदास नैमिशराय की ‘अपनी गाँव’, सूरजपाल चौहान की ‘परिवर्तन की बात’, डॉ.प्रेमशंकर की ‘बित्ते भर ज़मीन’, डॉ. श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ की ‘रावण’ इत्यादि कहानियाँ उजागर करती है।
‘सलाम’ किसी व्यक्ति के लिए एक आदरसूचक शब्द की तरह प्रयोग किया जाता है, लेकिन दलितों के लिए ‘सलाम’ उनकी हीनता व अपमान की प्रथा से जुड़ा है। ओमप्रकाश वाल्मीकि की ‘सलाम’ ऐसी ही दलितों के अपमानबोध की कहानी है। यह कहानी जहाँ वर्ण-व्यवस्था की सामंतवादी दीवार को तोड़ती है तो दूसरी तरफ़ उस यथार्थ का भी चित्रण करती है जिसमें दलित समाज जीता है :-
“राघड़ परिवारों से कई बार बुलावा आ चुका था। बिरादरी के बड़े-बूड़े अपने-अपने तर्क देकर ऊँच नीच समझा रहे थे।
‘बाप-दादों की रीत है, एक दिन में तो न छोड़ी जावें है। वे बड़े लोग हैं। सलाम पे तो जाणा ही पड़ेगा।……….
“इतना ही नहीं जब गाँव-घर के लोग बार-बार हरीश पर सलामी लेने जाने के लिए दबाव डालते हैं, तो वह तीखे स्वरों में कहता है, ‘आप चाहे जो समझें…….मैं इस रिवाज को आत्मविश्वास तोड़ने की साज़िश मानता हूँ। यह सलाम की रस्म बंद होनी। चाहिए।”4
आज युवा पीढ़ी ऐसे अपमान व हीनताबोध की परंपरा को नकारती है और उसका तीखा प्रतिरोध करती है। हरीश दलित समाज का क्रांतिकारी नायक है और सम्मान का जीवन जीना चाहता है, उसका परिवार और समाज हज़ारों सालों की परंपरा में जकड़ा हुआ है। दलित व्यक्ति का यथार्थ यही है कि उसे गाँव में रहने के लिए परंपरा व रीति-रिवाज को ढोना पड़ता है।
ऐसे ही अस्मिता ओर गरिमा की लड़ाई ‘रावण’ कहानी में नज़र आती है। मूलसिंह जो दलित है वह गाँव की रामलीला में ‘रावण’ का पात्र कर रहा है। मूलसिंह शहर की रामलीला में काफ़ी वाह-वाही लूट चुका है लेकिन गाँव जो शोषणकारी व्यवस्थाओं में जीता है वहाँ मूलसिंह का ‘रावण’ का पात्र करना और अपने समाज का नाम ऊपर करना इतना आसान कार्य नहीं। लेकिन मूलसिंह के आगे उच्च जाति के लोग सर झुकाना नहीं चाहते। सवर्ण इसे अपने अपमान समझते है :-
“परंतु मंच पर दहाड़ कर जा बैठे रावण को ‘जय शंकर की’ बोल कर उसके दरबार में सिर कौन झुकाएगा, अभिवादन कौन करेगा ?………….
‘नहीं चमार को सिर नहीं झुकाया जा सकता।’ राम ने कहा तो सुग्रीव बोला- ‘अरे ये नाटक है कौन से हम असल ज़िंदगी में काऊ चमार-भंगी को दुआ सलाम करने जा रहे हैं।”5
दलित व्यक्ति चाहे वह कितना भी प्रतिभावान हो या उच्च पद पर हो लेकिन सवर्ण के लिए वो दलित ही रहता है। उसका सम्मान व गरिमा सवर्णो की ग़ुलाम ही रहती है। मूलसिंह इस घटना को सह नहीं पाता और गाँव छोड़ देता है।
भारतीय समाज की मुख्यधारा में दलितों के शोषण और दमन का एक मुख्य कारण उनकी जातिगत पेशा है। दलित समाज भी यह महसूस करता है कि उनके जातिगत पेशे के कारण ही सवर्ण समाज उन्हें अछूत अथवा अस्पृश्य समझता है। विपिन बिहारी की ‘बिवाइयाँ’ कहानी में देखा जा सकता है कि किस तरह श्रम केंद्रित वर्ण-व्यवस्था को बहस के केंद्र में खड़ा करते हुए बदलने पर जोर है:-
“पंडित, ब्राह्मण में है क्या ? यह सच है कि चमार का बेटा चमार ही हो सकता है, लेकिन चमार ही जूता सिए इसे मैं नहीं मानता, मैं अपना काम नहीं करूँगा।”6
हिंदी दलित कहानी एक नए सामाजिक यथार्थ के उदय की तरफ़ संकेत करती है और वह यथार्थ है ‘श्रम को जाति से जोड़ने का विरोध’। सूरजपाल चौहान की ‘परिवर्तन की बात’ कहानी में पेशे से मुक्ति को देखा जा सकता है:-
“किसना के मुहल्ले वालों ने भी स्पष्ट शब्दों में ठाकुर की मारी गाय उठाने से मना कर दिया। सभी का स्वर किसना के स्वर से मिला हुआ था।
‘तुम्हीं तो मरे जानवर उठाने का काम करते आए हो, तुम नहीं करोगे, तो कौन करेगा इस काम को ?’ ठाकुर हरप्रसाद बीच में बोला।
‘कोई भी करे, अब हम नहीं करेंगे।’ किसना ने कहा”7
इस कहानी में पूरी सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ विरोध का भाव दर्ज है जो दलित समाज के अंदर प्रतिरोध की एक नई चेतना रचता है।
वर्ण-व्यवस्था में दलित समाज का सर्वाधिक शोषण और दमन हुआ है। यह व्यवस्था ही घृणा और अस्पृश्य को जन्म देती है जिसमें सवर्ण का दलितों को छूना तथा एक/दूसरे का कर्म करना पाप होता है। यदि गलती से दोनों में से कोई छू गया या जीविका के लिए एक-दूसरे को अपना लिया तो उसे तरह-तरह से प्रायश्चित करना पड़ता है। मोहनदास नैमिशराय की ‘महाशूद्र’ कहानी में इस समस्या को देखा जा सकता है। इस कहानी में गैर दलित पात्र (ब्राह्मण) स्वयं अपने ही हिंदू समाज द्वारा अपमानित और उपेक्षित किए जाने के बाद दलित जीवन की त्रासदी को ठीक से समझता है:-
“ ‘क्या ब्राह्मणों में भी ऊँच-नीच होती है ? वहाँ भी छुआछूत है।’ नंदू ने बड़े आश्चर्य भरे स्वर में पूछा।
आचार्य जी के चारों ओर बहुत से चेहरे मंडराने लगे। ये अपने चेहरे लगते थे, लेकिन घृणा, उपेक्षा और तिरस्कार बिखरा हुआ था।
उन्होंने अपना एक हाथ नंदू के कंधे पर रख दिया –‘हमें कहा जाता है महाब्राह्मण……..पर इसका अर्थ जानते हो नंदू..महाशूद्र।”8
यह अस्पृश्यता दलित समाज से जुड़ी सबसे बड़ी सच्चाई है और इसे भारतीय समाज में इसे स्थापित करने में वर्ण-व्यवस्था की महत्वपूर्ण भूमिका है। डॉ.भीमराव अंबेडकर लिखते है “ सामाजिक और व्यक्तिगत क्षमता हमसे यह अपेक्षा करती है कि किसी व्यक्ति की क्षमता को उसकी योग्यता के बिंदु तक विकसित किया जाए, ताकि वह अपनी आजीविका का साधन स्वयं चुनें। जतिप्रथा से इस सिद्धांत का उल्लंघन होता है क्योंकि इसमें व्यक्ति का काम पहले से ही निर्धारित कर दिया जाता है।”9
भारतीय समाज में सवर्ण लोगों ने कुछ चीजों को उत्कृष्ट और पवित्र बना रखा है, चाहे वह ज्ञान के केंद्र शिक्षण संस्थान हो या जीवन के लिए उपयोगी ‘पानी’ का केंद्र जैसे तालाब, कुएँ, नदी के घाट इत्यादि। सवर्ण लोगों ने वेद, पुराण, गीता, महाभारत और रामचरितमानस जैसी पुस्तकों को पवित्र मान रखा है। जिसे दलित छू तक नहीं सकते थे। इस कारण दलित पारंपरिक ज्ञान से वंचित ही रहा। इस अज्ञानता का लाभ ही सवर्णो ने उठाया और दलितों का आर्थिक शोषण और सामाजिक बहिष्कार किया। ओमप्रकाश वाल्मीकि की ‘पच्चीस चौका डेढ़ सौ’ कहानी में जब ज्ञान से आँखें खुलती है तो सामाजिक उत्पीड़न का शिकार दलित विरोध में खड़ा हो जाता है और नियति का दर्द श्राप बनकर निकलता है।
इसी प्रकार, ज्ञान के आलोक में सुशीला टाकभौरे की ‘सिलिया’ निर्णय करती है कि:- “कैसे बदला जा सकता है इस हालात को ? कैसे हम अपनी इज्जत और बराबरी का दर्जा पा सकते है ? और झाड़ू…….कमबख़्त यह तो जानवरों से बदतर जीवन कायम रखने का हमारे लिए दुष्चक्र है। किसने थमा दी हमारी जाति के हाथों में ये झाड़ू ? उस समाज में पैदा होना नहीं होना तो हमारे हाथ में नहीं था, परंतु अपमानजनक गुलामी के चिन्ह् को छोड़ना तो हमारे हाथ में है। यह हम कर सकते है……….”10
ज्ञान की प्रक्रिया से जुड़कर ही दलित समाज ने उस शोषणकारी संकेतों को तोड़ना शुरू किया जिसके ऊपर हिंदू व्यवस्था टिकी हुई है।
सवर्णो में दलितों के लिए वर्चस्व भी भाषा का निर्माण किया है। जिसमें सबसे घृणित है संबोधनसूचक शब्द। दलितों को हमेशा से ही गाली या अपमान द्वारा बुलाया जाता है चाहे वह उम्र या पद में कितना भी बड़ा हो। मोहनदास नैमिशराय की ‘आवाज़ें’ कहानी में करिंदा कहता है “ इतावरी तुझे ठाकुर ने बुलाया है। हुक्का गुड़गुड़ाते हुए ही इतवारी ने गर्दन घुमाकर देखा। सामने ठाकुर का कोई कारिन्दा खड़ा था। कारिन्दे के द्वारा किए गए संबोधन को सुनकर उसे बुरा-सा लगा। वैसे पूरे पचास साल से वह यह तू-तड़ाक की भाषा सुन रहा था। आज तक बुरा न लगा, लेकिन आज…? वह सदियों से संस्कारबद्ध गांव के माहौल से परिचित है। ब्राह्मण का लड़का चाहे वह अभी ढंग से नाक साफ करना भी न सीख पाया हो, लेकिन साठ साल के बूढ़े तक उसे ‘पंडितजी पॉलागन’ कहकर आदर प्रकट करते हैं। इतवारी की उम्र पचास से ऊपर ही होगी और सामने खड़े कारिन्दे की अट्ठाइस के करीब। उम्र में आधे का फर्क, किंतु जातिगत असमानता भला शिष्टाचार कहां निभाने देती है। आज उसे बहुत बुरा लगता है। तभी कारिन्दा पुनः कह उठता है-“इतवारी तुझे ठाकुर ने बुलाया है…।”11
इसी प्रकार, जयप्रकाश कर्दम की ‘नो बार’ कहानी जो प्रगतिशील समाज के लोगों मानसिकता में भी इस संबोधन सूचक शब्द को देखा जा सकता है:- “वह सब तो ठीक है कि जाति-पाति को नहीं मानते और हमने मैट्रिमोनियल में ‘नो बार’ छपवाया था, लेकिन फिर भी कुछ चीजें तो देखनी ही होती है।आख़िर ‘नो बार’ यह मतलब नहीं कि किसी चमार-चुहड़े के साथ….”12
‘चमार-चुहड़े’ जैसे शब्द सवर्ण समाज का दलित से संबंध ही नहीं बतलाते है, बल्कि यह भी साबित करते है कि सवर्ण समाज ने दलितों के लिए एक नई भाषा गढ़ रखी है। सवर्ण समाज ने जहां दलित शब्द को ही गालीसूचक बना दिया है वहाँ उनके संबोधन किसी तीर से कम नहीं है।
अतः हिंदी दलित कहानियाँ भारतीय समाज को उसका क्रूरतम चेहरा आइने में दिखता है। यह कहानियाँ दलित जीवन की समस्याओं की कहानियाँ ही नहीं है बल्कि भारतीय समाज द्वारा शोषण, क्रूरता, बर्बरता की भी कहानियाँ है। यह कहानियाँ मजदूर, किसान जीवन, पुलिस प्रशासन, मुखिया, न्याय व्यवस्था में व्याप्त जाति के ज़हर को बेनक़ाब करती है और ऐसे समाज का निर्माण करती है जहाँ हर मनुष्य आत्मसम्मान, गरिमा तथा मैत्री का जीवन जी सकता है।
संदर्भ ग्रंथ
- रामस्वरूप चतुर्वेदी – हिंदी साहित्य और संवेदना का इतिहास, लोकभारती प्रकाशन, नई दिल्ली, तेइसवां संस्करण-2012, पृ.- 17
- स.डॉ.रामचंद्र, डॉ.प्रवीण कुमार – दलित चेतना की कहानियाँ, ईशा ज्ञानदीप, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण-2016, पृ.-138
- ओमप्रकाश वाल्मीकि – दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2017, पृ.-117
- स. डॉ.रामचंद्र, डॉ.प्रवीण कुमार – दलित चेतना की कहानियाँ, ईशा ज्ञानदीप, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण-2016, पृ.-25-26
- वही,, पृ.-203
- स. कमला प्रसाद एवं पुन्नी सिंह – वसुधा, जुलाई-सितम्बर-2003, पृ.- 253
- स. डॉ.रामचंद्र, डॉ.प्रवीण कुमार – दलित चेतना की कहानियाँ, ईशा ज्ञानदीप, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण-2016, पृ.-168
- वही, पृ.- 130
- डॉ.भीमराव अंबेडकर – जातिभेद का बीजनाश, सम्यक् प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2013, पृ.- 41
- स.डॉ.रामचंद्र, डॉ.प्रवीण कुमार – दलित चेतना की कहानियाँ, ईशा ज्ञानदीप, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण-2016, पृ.-260
- वही, पृ.- 84
- वही, पृ.- 147
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