सत्ता, संस्कृति और स्त्री की स्वाधीनता

डॉ. मिथिलेश कुमारी

प्रधानाचार्या, एम. डी. पी. विद्यालय

Mobile no. 8287858096

ईमेल: maybemithil@gmail.com

सारांश

स्त्री की आज़ादी का प्रश्न समाज से कटा हुआ नहीं है। यह जितना स्त्रियों के सहज और सरल जीवन-यापन के लिए ज़रूरी है उतना ही सम्पूर्ण समाज के लिए भी। इस शोध-पत्र में सत्ता और संस्कृति के अंतर्संबंधों को स्त्री आज़ादी के परिप्रेक्ष्य में देखने की कोशिश की गयी है। मैंने बहुत संक्षिप्त रूप में इन संबंधों के वर्चस्व को दिखाने की कोशिश की है। पितृसत्ता का सम्बन्ध राजसत्ता, धर्मसत्ता तथा अन्य सामाजिक सत्ता संस्थानों से किस प्रकार जुड़ता है, इसके संकेत आपको इस लेख में मिल पायेंगे। रोज़मर्रा की ज़िन्दगी जीने के लिए भी हर क्षण घुटन का सामना स्त्रियों को करना पड़ता है। असामनता, शोषण को बनाए रखने वाली संस्थाएँ सीधे-सीधे अधिकारों पर हमला नहीं करतीं। वह भाषिक हथियारों का प्रयोग करती हैं इसीलिए संस्कृति, धर्म, नैतिकता, राष्ट्र , मानवता आदि शब्दों का सहारा लेती हैं और अपने अराजक तत्वों को इनमें इस प्रकार घुलाने की कोशिश करती हैं कि अलगाना मुश्किल हो जाए। इस प्रकार से धर्म और संस्कृति को भी ये दूषित कर देती हैं। समाज को खूबसूरत बनाने वालों का ये काम है कि इन जहरीले तत्वों को पहचानकर उन्हें अलग किया जाए।

बीज शब्द: सत्ता, संस्कृति, स्त्री, स्वाधीनता, नीग्रो गुलामी, महादेवी वर्मा, गुणाकर मुले, रामधारी सिंह दिनकर, यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, परिवार आदि।

भूमिका

स्त्रियों की बदहाल स्थिति पर सभी अफ़सोस जताते हैं लेकिन उस स्थिति में परिवर्तन की कोशिश मात्र कुछ लोग ही करते हैं। स्त्री गुलामी का प्रश्न सत्ता संस्थानों से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर टकराता है। पितृसत्ता के हितों को कौन पोषित करता है, इसकी पड़ताल करना बहुत ज़रूरी है। जो भी संस्थान, समूह, वर्ग असमानताओं को पोषित करते हैं, उनके स्वार्थ क्या इससे जुड़े हुए हैं। सतही तौर पर देखने पर सब कुछ उलझा हुआ लगेगा और समझ नहीं आएगा कि ऐसा क्या किया जाए कि इन अभ्यासों को सामाजिक व्यवहार से ख़त्म किया जा सके लेकिन अंदरूनी धागे एक दूसरे से इस क़दर जुड़े हुए हैं कि कई बार इन्हें अलगाना बहुत मुश्किल लगता है। सत्ता, संस्कृति और स्त्री की आज़ादी का प्रश्न एक विस्तृत शोध की मांग करता है। इनके बीच के जटिल संबंधों को मात्र 7 पृष्ठों के लेख में विश्लेषित करना एक बेहद मुश्किल काम है और ऊंट के मुँह में जीरा वाली कहावत को चरितार्थ करता है। फिर भी, कुछ संकेत इस लेख में दिए गए हैं। शायद इन संकेतों से पाठक के सामने एक झरोखा खुल सके जिससे सत्ता, संस्कृति के संबंधों के विश्लेषण की समझ निर्मित हो सके। इसे एक विस्तृत शोध-पत्र के रूप में विस्तार दिए जाने की मेरी कोशिश जारी रहेगी। महादेवी वर्मा जी ने ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’ पुस्तक में बहुत सुलझी हुई भाषा में संस्कृति और नारी के प्रश्न पर कई निबंध लिखे हैं जो पितृसत्ता के बरक्स पड़ताल की एक ईमानदार कोशिश थी।

सत्ता अर्थात जिसके पास अधिकार और शक्ति है। प्रत्येक देश के सांस्कृतिक निर्माण में शक्ति संपन्न ताकतों का वर्चस्व रहा है। समय के साथ सांस्कृतिक बदलाव अपेक्षित है। भारतीय समाज विभिन्न जाति, वर्ग, समुदायों में बँटा हुआ है। भारत की सामाजिक संरचना में जातिसत्ता, धर्मसत्ता और पितृसत्ता का वर्चस्व है और शासकीय सत्ता या राजकीय सत्ता इन्ही हथियारों का प्रयोग करती है। ये तीनों शक्तियाँ राजनीतिक या शासकीय शक्तियों को प्रभावित भी करती हैं और उनसे प्रभावित भी होती हैं। इन शक्तियों का वर्चस्व प्राचीनकाल से ही समाज में रहा है। ‘गुणाकर मुले’ ने (300 ई. से 750 ई.) सामाजिक परिस्थिति के बारे में लिखा है “समाज में ब्राह्मण वर्ग की स्थिति स्पष्ट है। उनका स्थान सबसे ऊँचा था। वे राज्य के मंत्री और राजा के सलाहकार होते थे। विद्या पर उनका एकछत्र स्वामित्व था। उन्होंने अपने ग्रन्थ जनता की भाषा में न लिखकर अपने पठन -पाठन की भाषा संस्कृत में लिखे। नब्बे प्रतिशत जनता विद्यार्जन से वंचित थी”।[1]

प्राकृतिक रूप से तो सभी मनुष्य स्वतंत्र हैं लेकिन समाज का जो वर्ग या समूह शासन करता है। वही समाज के चरित्र को निर्धारित करता है और प्राकृतिक संसाधनों पर अपना दावा करता है। समाज में अमीरी-गरीबी, ऊँच-नीच, छुआ-छूत, भेद-भाव के लिए ये शक्ति केंद्र ही जिम्मेदार हैं लेकिन इनके रूपों को पहचानना इतना आसान नहीं है क्योंकि ये आम इन्सान की चेतना को ही रूपांतरित कर उसे गुलाम बनाते हैं। इसी चेतना के तहत सदियों तक महिलाओं और दलितों के लिए सारे दरवाजे बंद रहे। गुणाकर मुले ने चौथी से सातवीं सदी की स्त्रियों के बारे में लिखा है “यदि कोई स्त्री किसी दास से विवाह करती थी तो वह भी दासी हो जाती थी लेकिन यदि किसी दासी को किसी द्विज से संतान होती थी तो उसे दासता से मुक्त कर दिया जाता था।”[2]

किसी समाज में जीवन से जुड़ी हुई सारी गतिविधियाँ संस्कारों का निर्माण करती हैं। संस्कृति के अंतर्गत किसी समाज के रहन-सहन, व्यवहार, खान-पान, वेश-भूषा, कला, संगीत, भाषा, धर्म, समाज, राजनीति, साहित्य, प्रथा-परम्पराओं आदि का अध्ययन किया जाता है। प्रत्येक देश और समाज में कुछ भिन्नता होती है लेकिन मनुष्य के जीवन की मूलभूत जरूरतें समान हैं। । रामधारी दिनकर जी ने अपनी पुस्तक ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में विस्तार से भारतीय संस्कृति पर चर्चा की है। जवाहरलाल नेहरु ने इसी किताब की प्रस्तावना लिखते समय संस्कृति की अनेक परिभाषाओं को उद्धृत किया है। “संस्कृति शारीरिक या मानसिक शक्तियों का प्रशिक्षण, दृढ़ीकरण या विकास अथवा उससे उत्पन्न अवस्था है।”[3] महादेवी वर्मा ने लिखा है “संस्कृति मानव चेतना का ऐसा विकास क्रम है जो उसके अन्तरंग तथा बहिरंग को परिष्कृत करके विशेष जीवन पद्धति का सृजन करती है।”[4]

इन परिभाषाओं से समझा जा सकता है कि मनुष्य और समाज को जो संस्कार पल्लवित और पुष्पित करे वही संस्कृति है। जीवन से ही सिद्धांतो का निर्माण होता है। ये नीति- नियम समाज के लिए उपयोगी होने चाहिए। सतही तौर पर देखने पर मनुष्य का व्यक्तित्व और सामाजिक नियम या मनुष्य का प्रकृतिपन और संस्कार विरोधी तत्व जान पड़ते हैं परन्तु ये असंभव नहीं है कि हम ऐसे संस्कार निर्मित करे जो मनुष्य समाज को ही नहीं सम्पूर्ण सजीव जगत के लिए भी हितकर हो। स्वतंत्रता मनुष्य के लिए अति आवश्यक है लेकिन क्या मनुष्य स्वतंत्र है? भारत में लोकतंत्र है लेकिन इस लोकतंत्र में भी कुछ शक्ति केन्द्रों का नियंत्रण है। राजनीतिक सत्ता की कार्य प्रणालियों ने आदिवासियों का जीवन दूभर कर दिया है। प्राकृतिक असंतुलन से प्रत्येक प्राणी का अस्तित्व खतरे में है। किसानों की बदहाली और उनकी मृत्यु के पीछे इन सत्ताओं का स्वार्थ है। इनका उद्देश्य राष्ट्र की उन्नति नहीं स्वयं की उन्नति है। आज तक भारत में लोकतन्त्र क्यों नहीं स्थापित हो पाया है? इसके कई कारण हैं, जब परिवार और समाज में लोकतंत्र नहीं है तो राष्ट्र के स्तर पर तो उसकी कल्पना ही नहीं की जा सकती।

मै स्त्री के जीवन से सम्बंधित कुछ सवालों को इस लेख में रखना चाहूँगी। क्यों सिर्फ लड़कियों को ही गर्भ में या पैदा होने के बाद मारने की प्रथा रही है? क्यों उन्हें मनुष्य नहीं समझा जाता? क्यों उन्हें शिक्षा का अधिकार लड़ के हासिल करना पड़ा? क्यों स्त्रियों के साथ बलात्कार, हिंसा या तेजाब फेंकने की घटनाएँ होती हैं? क्यों उन्हें परदे में रखा जाता है, उनकी क्षमताओं और प्रतिभा के विकास का अवसर उपलब्ध नहीं करवाया जाता? स्त्री की छवि को गढ़ने वाली ये सत्ताएँ ही हैं और सिर्फ स्त्री ही नहीं पुरुषों को भी हिंसक, संवेदनहीन बनाने वाली ये सत्ताएँ ही हैं। पितृसत्ता, जातिसत्ता और धर्मसत्ताओं का हमारी संस्कृति के निर्माण के पीछे बहुत बड़ा हाथ है। ऐसी संस्कृति जहाँ मनुष्य को विकसित होने का अवसर नहीं दिया जाता, उसे एक प्रोटोटाइप में बदला जाता है। उसका स्वतंत्र अस्तित्व तो है ही नहीं। हमेशा स्व को मारकर उस मॉडल में ढलना पड़ता है, जो सत्ता वर्ग चाहता है। आदिवासी समुदायों को अपना घर-बार छोड़ना पड़ रहा है क्योंकि शासक वर्ग और पूंजीवादी सत्ता के अपने स्वार्थ हैं जिसे वह विकास का नाम देकर किसानों, मजदूरों, आदिवासियों के हितों का तिरस्कार कर रहे हैं।

स्त्रियों के शोषण का सबसे बड़ा क्षेत्र घर है। स्त्रियों की चेतना को गुलाम बनाने की प्रक्रिया परिवार में बचपन से ही शुरू हो जाती है। जब उसकी ऊर्जा को सिर्फ एक गुलाम पत्नी बनाने की तरफ मोड़ दिया जाता है ताकि वह सिर्फ अपने पुरुष मालिकों का हुक्म माने। “नीग्रो गुलामी का अध्याय बंद होने के बाद विवाह ही एक संस्था रह गयी है जहाँ एक इन्सान को दूसरे इन्सान की इच्छाओं के अनुसार जीना पड़ता है। विवाह इकलौती ऐसी सामाजिक व्यवस्था रह गयी है जिसे कई मामलों में बंधक व्यवस्था कहा जा सकता है। हर घर की गृहिणी के आलावा अब कोई गुलाम नहीं बचा है”।[5] मै स्टुअर्ट मिल की बात से आंशिक रूप से सहमत हूँ। ये बात सच है कि स्त्रियाँ जितना कैद हैं उतना और कोई नहीं लेकिन ये जीवन के सिर्फ एक पक्ष को देखना होगा। अभी भी हमारा समाज पूरी तरह से मुक्त नहीं हुआ है और हर व्यक्ति किसी न किसी स्तर पर गुलाम है। हमारे देश में संवैधानिक रूप से दास प्रथा का उन्मूलन 1843 में ब्रिटिश काल में ही कर दिया गया लेकिन इसके बावजूद इसका अभ्यास हमारे समाज में अब भी किया जाता है।

भारतीय परिवारों में लड़के और लड़कियों के पालन-पोषण में अलग-अलग मापदंड अपनाये जाते हैं। लड़कियों को कोमल, दब्बू, डरपोक, पर-निर्भर और घर के काम-काज में निपुण बनाया जाता है। लड़कों को ताकतवर, उदंड, हिंसक और आत्मनिर्भर बनाया जाता है। जब तक परिवार में दोनों को उनकी प्रतिभा को विकसित होने का बराबर अवसर नहीं दिया जायेगा। घर के सामान्य काम दोनों को नहीं सिखाये जायेंगे। लड़कियों की आर्थिक आत्मनिर्भरता के बावजूद उन पर काम का दबाव सबसे अधिक होगा। गौरतलब है कि आधुनिक कामकाजी महिलाओं को बाहर काम करने के बाद पूरा घर भी सँभालना पड़ता है। जब तक समान नैतिक आचार-व्यवहार को घर में लागू नहीं किया जाता। समानता और स्वतंत्रता की बात करना बेमानी है। यहाँ पर आदिवासी समाज की बात नहीं की जा रही है। ये उस समाज के बारे में है जो स्वयं को सुसंस्कृत और मुख्यधारा का समझते हैं।

“परिवार एक तानाशाही की पाठशाला है जिसमें तानाशाही के गुणों के साथ-साथ उसके अवगुणों को भी जमकर खुराक मिलती है। स्वतंत्र देशों में नागरिकता बराबरी के सिद्धांत पर आधारित एक संस्था है पर जीवन में इसका महत्व बहुत सीमित है और हमारी रोजमर्रा की आदतों और हमारी बहुत अन्दर की भावनाओं को प्रभावित नहीं करती। परिवार एक ऐसी संस्था है जो स्वतंत्रता के सद्गुणों को खुलकर उजागर कर सकती है पर यह माता पिता के शासन और बच्चों की आज्ञाकारिता की संस्था बनकर रह गयी है। होना यह चाहिए कि परिवार परस्पर सहानुभूति और प्रेमपूर्वक एक साथ जीना सिखाने वाली एक पाठशाला हो। इसके लिए सबसे जरुरी है कि यह बात माता पिता के आपसी संबंधो पर लागू हो”।[6]

लड़कियों को अपनी मर्जी का परिधान और आभूषण पहनने का अधिकार नहीं है। उनके लिए सौन्दर्य मापदंड पितृसत्ता, धर्मसत्ता, बाजार-सत्ता आदि तय करती हैं। शादी के बाद स्त्री के लिए कुछ गहने पहनना निश्चित है। उसे उतारने का मन हो तो वे उतार नहीं सकती क्योंकि ये सुहाग सूचक हैं। ऐसा कोई विधान पुरुषों के लिए नहीं बना। सुहाग के प्रतीक सिर्फ स्त्रियाँ ही धारण करती हैं, पुरुष नहीं। विधवा हो जाने पर उसके लिए सारे रंग बेकार बना दिए गए। उनकी यौनिकता, उनके शरीर पर उसका ही नियंत्रण नहीं बल्कि वह अपने शरीर को सजाने सवांरने के लिए एक विवाहित पुरुष की मोहताज हैं। उसकी यौन शुचिता महत्वपूर्ण है इसलिए उसकी यौनिकता पर प्रतिबंध है। पवित्रता का पूरा सिद्धांत ही उनकी यौनिकता पर नियंत्रण रखना है। शरीर की पवित्रता पर जोर देने वालों ने विचारों और भावनाओं की पवित्रता के बारे में क्यों नहीं सोचा? जहाँ पर प्रेम और आपसी विश्वास और समझदारी का सम्बन्ध विकसित होगा वहाँ किसी थोपी गयी पवित्रता की ज़रुरत नहीं होगी। जहाँ शादी दहेज़, जाति, धर्म, गोत्र, रंगभेद, त्वचा का गोरापन और कद काठी के आधार पर की जाती है, वहाँ प्रेम संबंधो की गुंजाइश ही ख़त्म हो जाती है। वेश्यावृत्ति हमारे समाज में कोढ़ के समान है। स्त्रियों को समझा वस्तु ही जाता है। किसी को मंगलसूत्र पहनाकर और किसी को पैसों के बल पर ख़रीदकर। “लड़कियों की यौनिकता पर अभिभावकों का एकछत्र शासन है। इसी के चलते लड़की की पोषण व्यवस्था अपने नियम तय करती है तो शिक्षा व्यवस्था की अपनी आचार संहिता होती है। वह कहाँ पढ़े, क्या पढ़े, कितना पढ़े, कब तक पढ़े, पिता तय करते हैं और फिर उसका विवाह कहाँ हो, किससे हो, कैसे हो, यह भी परिवारजन बताना चाहते हैं। यदि लड़की अपनी राय देना चाहे तो उसका रवैया रास नहीं आता, क्योंकि इस मामले में लड़की की राय, उसका मत नहीं, जिद का रूप माना जाता है. यानि उसका अपना चुनाव ही अवैध है।”[7]

ये बात आज के परिवारों में भी लागू होती है। लड़कियों को पढ़ने की छूट दी गयी है लेकिन उनकी सामाजिक, पारिवारिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक स्थिति में बहुत ज़्यादा बदलाव नहीं आया है क्योंकि पुरुषों की चेतना का परिष्कार नहीं हुआ है, न ही धार्मिक, जातीय तंत्र या पितृसता ख़त्म हुई है। शिक्षित होने के बावजूद भी तो बलात्कार, हत्या, हिंसक घटनाएँ आज का सच हैं। ये छोटी बच्चियों, किशोरियों, जवान, बूढ़ी स्त्रियों के साथ नित होने वाले अमानवीय कृत्यों से ज़ाहिर होता है। पितृसत्ता ने सिर्फ अपना मुखौटा बदला है। तकनीकों का प्रयोग जितना स्त्री के शरीर को दिखाने के लिए हुआ है और धार्मिक प्रचार के लिए उतना और किसी चीज के लिए नहीं। सोशल साइट्स में लड़कियों के साथ अभद्र टिप्पड़ियाँ, उनके व्यक्तिगत डेटा का इस्तेमाल अश्लील उद्देश्यों के लिए, उनके तस्वीरों का प्रयोग पोर्न मूवी के लिए किया जाता हैं। हमेशा से लड़कियाँ सिर्फ़ वस्तु की तरह व्यवहृत होती रही हैं। ‘अरविन्द जैन’ दृश्य मीडिया की एक ख़बर का जिक्र करते हैं “दिल्ली बनी ब्लू फिल्मों की सीडी की मंडी’, ’फ्रेंडशिप क्लब की आड़ में वेश्यावृत्ति’, ‘नहा रही छात्रा को निहार रहा था’ गिरफ्तार। ब्रेक में विश्व और ब्रह्माण्ड सुंदरियाँ साबुन से निरोध तक बेचने में व्यस्त हैं। कानून की भाषा में विज्ञापन अश्लील है या नहीं मगर बाजार की भाषा में ऐसे ही विज्ञापनों से माल बिकता है…..बिक रहा है।”[8]

लड़कियों को बचपन से ही उठने-बैठने, बोलने, हँसने के नियम सिखाए जाते हैं। अपनी भावनाओं का इज़हार करना नहीं बल्कि उन्हें दमित करना सिखाया जाता है। स्त्री की आवाज़ ससुराल में बुजुर्गों को न सुनाई दे इसे अच्छा संस्कार माना जाता है। नैतिक नियम लड़के और लडकियों दोनों के लिए समान रूप से जरुरी हैं लेकिन वह व्यक्तित्व को विकसित करने वाला हो। ऐसा नियम तो हमारे समाज में है ही नहीं। स्त्री के स्वतंत्र अस्तित्व की कल्पना कैसे की जा सकती है जब घर-परिवार ही कै़दखाना है। “हम मनुष्य होकर भी मनुष्यगत दस इन्द्रियों का दमन करते रहे। ऐसा तो कोई पशु भी नहीं करता ,कीड़े मकोड़े भी नहीं करते। अपने आपको इस कदर स्थगित करने की शक्ति योगियों, महात्माओं और संतों में भी नहीं होती। हम न जीव –जंतु थे, न योगी और ऋषि –मुनियों की कोटि में आते हैं। हम ऐसे मनुष्य रहे हैं; जिन्हें गुलाम या दास कहा जाता है और यह प्रजाति क़ुदरत द्वारा नहीं, मनुष्य रुपी मालिकों द्वारा बनाई और चलाई जाती है। ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते’ कहकर जितना भरमाया गया। वह स्त्री के प्रति अपराध है कैसे बताया जाये कि हमें महिमा नहीं; जगह चाहिए, मनुष्य के लिए जगह, क्योंकि हम मनुष्य हैं। देवी सती वाला संस्कार जितना पूज्य है उतना ही औरत को अपाहिज़ करते जाने का वायज है। अपाहिज़ करते-करते यह संस्कार स्त्री का ख़ात्मा कर डालता है, क्योंकि निष्क्रिय बनाना इस संस्कार का काम है। माता होना किस गौरव की बात है यह तो एक बायोलॉजिकल प्रक्रिया है। इसमें महिमामंडन कैसा?”[9]

मातृत्व में भी पुत्र पैदा करने वाली स्त्रियों को सम्मान दिया गया। लड़कियाँ पैदा करने वाली स्त्रियों को गालियाँ मिलीं। आज इसका दूसरा रूप सामने आ रहा है। अब तो तकनीक से लड़कियों को भ्रूण में मारना ही आसान हो गया है और ये प्रवृत्ति शिक्षितों में अधिक दिखाई दे रही है। हमारे समाज में प्रेम करने की आज़ादी नहीं है और अगर ये प्रेम स्त्री करे तो बहुत बड़ा गुनाह है। सम्मान के नाम पर उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, राजस्थान में प्रेमी प्रेमिकाओं को मार डाला जाता है। प्रेम करने की आज़ादी इसलिए नहीं है क्योंकि इससे इनकी जातिसत्ता और धर्मसत्ता का अस्तित्व ख़त्म हो जायेगा। इसलिए ये पुरोधा संस्कृति के नाम पर प्रेम को महा-अपराध घोषित करते हैं। ग़ौरतलब है कि इसी प्रेम भावना का भक्ति के स्तर पर, देवी देवताओं के नाम पर उत्सव मनाया जाता है लेकिन मनुष्य के बीच प्रेम में धर्म, सम्प्रदाय, जाति की दीवारें हैं। साम्प्रदायिक दंगों का सम्बन्ध भी इसी सोच का परिणाम हैं जिसमें स्त्रियों को लूटा-खसोटा, बलात्कार किया जाता है। लड़कियों के साथ बलात यौन-सम्बन्ध, हिंसा, दहेज़ के लिए मानसिक शारीरिक प्रताड़ना अब भी आम बात है।

लैंगिक भेद-भाव का असर भाषा में भी देखा जा सकता है। सारी गालियाँ स्त्रीवाची हैं। दूसरा, शब्दों के भी लिंग हैं। यहाँ तक कि सब्जियाँ, फल भी कुछ पुरुषवाची हैं, कुछ स्त्रीवाची। क्या ऐसा नहीं किया जा सकता कि सारे ऐसे शब्दों को जो भेदभाव पर आधारित हो उन्हें ख़त्म किया जाये और सिर्फ एक शब्द प्रयोग हो? भाषिक सुधार की सख़्त ज़रूरत है। इसके लिए हिंदी में भाषा का मानकीकरण इस दृष्टि से किये जाने की आवश्यकता है।

स्त्रियों को हर प्रकार की आज़ादी दी जानी चाहिए। जितना भी उन्हें अधिकार मिले हैं या कानून बने हैं इसके पीछे बहुत बड़ा संघर्ष रहा है। स्त्रियों ने आन्दोलन से ये सब हासिल किया है लेकिन मूल ढांचे में ज़्यादा परिवर्तन नहीं आया है। आधुनिक समय में बाजारवादी सत्ता अपनी संस्कृति गढ़ रही है। पूरा सौंदर्य बाजार ही स्त्री को केन्द्र में रखकर मुनाफ़ा कम रहा है। सारे विज्ञापनों का काम स्त्री को एक वस्तु के रूप में प्रस्तुत करना है। स्त्री की देह को बेचने के नये-नये तरीके इज़ाद किये गये हैं। जब ऐसे सर्वेक्षण सामने आते हैं। “ब्रिटेन की वेबसाइट द ग्लास ने एक अध्ययन में दावा किया है कि नुकीली सैंडिल पहनने वाली लड़कियाँ आत्मविश्वास से भरी होती हैं।”[10] ऊँची हील की सैंडिल पहनने से आत्मविश्वास नहीं बढ़ता। ये कितना बड़ा झूठ है ? ऐसे ही सारी सत्ताएँ चेतना को गुलाम बनाती हैं। अभी हाल ही में “साध्वी प्राची ने अधिक बच्चे पैदा करने वाले परिवारों का सम्मान बदायूँ में विराट हिन्दू सम्मलेन में किया”।[11]

ये 21वीं सदी की घटनाएँ हैं। तार्किक रूप से सोचिए तो ये एहसास होगा कि हम जिन संस्कारों को आत्मसात कर रहे हैं, वे हमारे लिए ही अहितकर हैं। परंपरा से प्राप्त संस्कारों का समय और परिस्थितियों के अनुसार परिमार्जन ज़रूरी है।

निष्कर्ष बंद कोठरियाँ ही जिनका आश्रय रही हों, जिनके लिए घर का बचा-खुचा खा लेना, पहन लेना ही नियम रहा हो, वहाँ उनके स्वास्थ्य के बारे में सोचने का भी कोई रिवाज़ नहीं रहा है। आज तो राजनीतिक सत्ता का चरित्र बेहद भयावह हो गया है। जहाँ पर निवर्तमान सभी कुसंस्कारो, प्रवृत्तियों का पोषण करते हुए जाति, धर्म, लिंग, सम्प्रदाय के वर्चस्व को पोषित करते हुए महज कुछ लालच के टुकड़े फेंक दिए जाते हैं और टुकड़ो को पकड़ने के लिए मनुष्य-मनुष्य के बीच की खाईं और बढ़ रही है। पूर्व सत्ताओं का तो खात्मा ही नहीं हुआ है बल्कि अन्न, जल, प्राण का संकट खड़ा हो गया है जिसके लिए सिर्फ आदिवासी समाज लड़ रहा है और सब इन नेताओं के हाथ की कठपुतली बनते जा रहे हैं। निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि वर्तमान में हम जिन संस्कारों का पालन करते हैं उन्होंने स्त्रियों की ज़िन्दगी को दोज़ख बना दिया है। जीवन जितना सहज और सरल होगा उतना ही सुखमय होगा लेकिन ये सहजता हमारे समाज में दुर्लभ होती जा रही है। ज़रूरी है कि सत्ता के छद्म वेश को पहचाना जाए और उसे बे-नक़ाब किया जाए जो संस्कारों के नाम पर हमें कु-संस्कारित करते रहे हैं उच्च आदर्शों की प्राप्ति की दिशा में निरंतर प्रयास किए जाने की महती आवश्यकता है।

संदर्भ

गुणाकर मुले, 2013, भारत इतिहास संस्कृति एवं विज्ञान, राजकमल प्रकाशन

  1. रामधारी सिंह दिनकर , 2009 , संस्कृति के चार अध्याय, लोकभारती प्रकाशन
  2. संपा.निर्मला जैन, 1969, महादेवी वर्मा साहित्य खंड 4, सेतु प्रकाशन, तलैया, झाँसी

जॉन स्टुअर्ट मिल, अनुवाद एवं प्रस्तुति- युगांक धीर, , 2008, स्त्री और पराधीनता, संवाद प्रकाशन, मेरठ

  1. मैत्रेयी पुष्पा, 2014, आवाज, सामयिक प्रकाशन
  2. अरविंद जैन, 2004, बचपन से बलात्कार, शिल्पायन

हिंदुस्तान समाचार पत्र, 2 फरवरी 2015

  1. गुणाकर मुले, 2013, भारत इतिहास संस्कृति एवं विज्ञान, राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ सं. 163

  2. गुणाकर मुले, 2013, भारत इतिहास संस्कृति एवं विज्ञान, राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ सं. 163

  3. रामधारी सिंह दिनकर , 2009 , संस्कृति के चार अध्याय, लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 11

  4. संपा.निर्मला जैन, 1969, महादेवी वर्मा साहित्य खंड 4, सेतु प्रकाशन, तलैया, झाँसी, पृष्ठ 41

  5. जॉन स्टुअर्ट मिल, अनुवाद एवं प्रस्तुति- युगांक धीर, , 2008, स्त्री और पराधीनता, संवाद प्रकाशन, मेरठ, पृष्ठ सं. 8

  6. जॉन स्टुअर्ट मिल, अनुवाद एवं प्रस्तुति- युगांक धीर, , 2008, स्त्री और पराधीनता, संवाद प्रकाशन, मेरठ, पृष्ठ सं. 55

  7. मैत्रेयी पुष्पा, 2014, आवाज, सामयिक प्रकाशन, पृष्ठ सं. 10

  8. अरविंद जैन, 2004, बचपन से बलात्कार, शिल्पायन, पृष्ठ सं.111

  9. मैत्रेयी पुष्पा, 2014, आवाज, सामयिक प्रकाशन, पृष्ठ सं. 99-100

  10. हिंदुस्तान समाचार पत्र, 2 फरवरी 2015

  11. हिंदुस्तान समाचार पत्र, 2 फरवरी 2015

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