साहित्य लेखन के सन्दर्भ में स्त्री अस्मिता : एक चिंतन
शोधार्थी-दर्शना जी. वैश्य
पीएच.डी. शोध छात्रा
गुजरात युनिवर्सिटी, अहमदाबाद-380009
ईमेल-vaishyadarshana@gmail.com
पितृसत्ता एक सामाजिक घटना है, हजारों साल से चली आई ऐसी व्यवस्था है, जिसमें स्त्री की अधीनस्थता सर्वविदित है। पितृसत्ता ने स्त्री को अपने ज्ञान की वस्तु बनाया । उसे साधन के रूप में प्रयुक्त किया – उसके नाम, रूप, जाति, गौत्र् सब अपने संदर्भ में परिभाषित किये । स्त्री का यह अमानवीकरण दलित के अमानवीकरण से कहीं ज्यादा सूक्ष्म है, क्योंकि दलित पुरुष अपने दमन से परिचित है । मगर स्त्री चाहे वह किसी भी जाति या वर्ण की हो, अपने उत्पीडन से परिचित ही नहीं है । वह अपनी दैहिकता में कैद है । यह तो इतिहास में पहली बार घट रहा है कि स्त्री पितृसत्ता को नकार रही है, उस सत्ता द्वारा आरोपित भूमिकाओं के प्रति सवाल उठा रही है । वह वस्तु से व्यक्ति बनने की प्रक्रिया में है । उसका जीवन अनंत संभावनाओं से भरपूर है ।
साठ-पैंसठ साल पहले तक महिलाओं की सामाजिक स्थिति पर, उनके सशक्तिकरण, उनकी उपलब्धियों और संघर्षों पर, उनके रचे साहित्य और अवधारणाओं पर गंभीरता से चर्चा नहीं की जाती थी । महिला लेखन को बहुत सम्माननीय दर्जा प्राप्त नहीं था और जो दो-चार महिलाएँ रचनाएँ करती भी थीं, उन्हें घर के सीमित दायरे की सीमित समस्याओं के घेरे में रचा लेखन मानकर या घर बैठी सुखी महिलाओं का लेखन मानकर या तो गंभीरता से नहीं लिया जाता था या एक आरक्षित रियायत दे दी जाती थी कि आखिर तो इनका दायरा छोटा है, परिवेश सीमित है तो बड़े फलक के मुद्दे कैसे उठाएँगी ।
भारत के साहित्य इतिहास में महिला साहित्यकारों ने हमेशा से अपने लेखन से महिला शक्ति को एक मजबूत आवाज़ दी हैं । महादेवी वर्मा से लेकर शिवानी जी और महाश्वेता जी तक महिलाओ ने भारतीय भाषाओ के साहित्य में अभूतपूर्व योगदान दिया हैं और महिलाओ के प्रति समाज की सोच में एक सकारात्मक रवैये के लिए बदलाव पर ज़ोर दिया हैं । आज भी महिला-लेखन में स्त्री-वर्ग की शिकायतों, उसके प्रकट और अप्रकट क्रोध, छुपे हुए आक्रोश तथा जीवन के प्रति उसके विशिष्ट दृष्टिकोण को ज्यादा शिद्दत से अभिव्यक्त किया जा सकता है । रोजमर्रा की जंदगी, निजी घटनाओं का सटीक वर्णन जितना महिला-लेखन में प्रस्तुत किया जा सकता है उतना पुरुष-लेखन में नहीं ।
दिव्या उपन्यास जिसे यशपाल ने लिखा है । जिसमें लिखा गया है कि समाज में स्त्री की स्थिति को देखते हुए कोठे पर बैठी वेश्या उससे ज्यादा बेहतर लगती है क्योंकि वो किसी भी प्रकार के बंधन में नहीं बंधी है पर एक समाज में रहने वाली स्त्री तमाम बंधनों में अपने जीवन की एक-एक सांस लेती है ।
मन्नू भंडारी का उपन्यास -आपका बंटी हिन्दी साहित्य में एक मील का पत्थर हैं, जो अपने समय से आगे की कहानी कहता है और हर समय का सच होने के कारण कालातीत भी है । शकुन के जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी यही है कि व्यक्ति और माँ के इस द्वंद्व में वह न पूरी तरह व्यक्ति बनकर जी सकी, न पूरी तरह माँ बनकर और क्या यह केवल शकुन की त्रासदी है ? अपने व्यक्तित्व को पूरी तरह नकारती हुई, अपने मातृत्व के लिए संबंधों के सारे नकारात्मक पक्षों को पीछे धकेलती हुई या उन्हें अनदेखा करती हुई , हिन्दुस्तान की हजारों औरतों की यही त्रासदी है ।
ममता कालिया के उपन्यास बेघर और एक पत्नी के नोट्स में एक मध्यवर्गीय पढ़ी लिखी महिला का भी अपने पति द्वारा एक सामान्य औरत की तरह ट्रीट किया जाना और गाहे बगाहे व्यंग्य का शिकार होना तथाकथित प्रगतिशील और पढ़े लिखे वर्ग को बेनकाब करता है ।
मृदुला गर्ग का अनित्य जिसमें दो महत्वपूर्ण स्त्री पात्रों में से एक काजल एक फेमिनिस्ट प्राध्यापक की तरह उभरती है जो अनलिखे इतिहास को दुबारा लिखना चाहती है, भगतसिंह के सिद्धांतों पर विश्वास करती है और उसे पढ़ाती है हालाँकि वह उनके कोर्स में नहीं है, संगीता जो एक वेश्या की बेटी है पर अपने सिद्धांत खोती नहीं, अपनी अस्मिता के साथ खड़ी होती है ।
कथा-साहित्य में भी स्त्री चेतना ने अपनी उपस्थिति पूरी गहराई और शिद्दत से दर्ज करवाई है पर हिन्दी साहित्य में तथाकथित स्त्री विमर्श और विचार इतने बौद्धिक स्तर पर है कि आम औरतों तक या उन औरतों तक, जिन्हें सचमुच जागरूक बनाने की जरूरत है, यह पहुँच ही नहीं पाता है । हालांकि यह कार्य इतना आसन नहीं है जैसे कि नासिर जी ने अपने एक साक्षात्कार में कहा था कि-
‘‘किसी भी इन्सान का पूरा जीवन सुख से नहीं भरा होता फिर एक लेखक जो दूसरों के दुख पर कलम उठाता है । उसकी जिन्दगी इकहरे अनुभव लिए क्यों होगी । सृजन दरअसल व्यथा का ऐसा तालाब हैं जिसमें लेखक उतरता तैरता रहता है । मगर इसका यह मतलब नहीं कि वह छाती पीटे ।’’[1]
व्यापक अर्थ में स्त्री विमर्श स्त्री जीवन के अनछुए अनजाने पीड़ा जगत को व्यक्त करने का अवसर देता है, परन्तु उसका उदेश्य, स्तिथि पर आंसू बहाना और यथा स्थिति स्वीकार करना नहीं है, बल्कि इनके जिम्मेदार तथ्यों की खोज करना भी है ।
नामवर सिंह के अनुसार –
‘‘सच्चा साहित्यकार अपने काल को निचोड़ता है और निचोड़कर के रस की वर्षा करता है । कुछ लोग इसका विवेचन दूसरे ढंग से करते है, मैं अलग ढंग से करता हूँ । पाँच-चार चीजे मिलकर के जो निकलता है वो रस नहीं, जो निचोड़कर के सत्य होता है वो रस ।’’[2]
नारी मुक्ति का अर्थ पुरुष हो जाना नहीं है । स्त्री की अपनी प्राकृतिक विशेषताएँ है, उनके साथ ही उनके द्वारा बनाए गए स्त्रीत्व के बन्धनों से मुक्ति के साथ, मनुष्यत्व की दिशा में कदम बढ़ाना, सही अर्थों में स्वतंत्रता है । स्त्री को अपनी धारणाओं को बदलते हुए, जो भी घटित हुआ, उसे नियति मानाने की मानसिकता से उबरने की आवश्यक्ता है, लेकिन साथ ही पुरुष वर्ग को ही दोषी मनाकर कठगरे में खड़े करने वाली मनोवृति बदलनी होगी । हालाँकि कुछ हद तक अब यह बदलाव देखा भी जा रहा है-
‘‘आधुनिक युग में नारी का बहुमुखी उत्थान हुआ । समता एवं स्वतन्त्रता के अवसर मिले । नारी-शिक्षा को प्रश्रय मिला जिसके कारण आज की नारी के व्यक्तित्व में परिवर्तन हुआ । बौद्धिक उन्नयन एवं नव जागृति के कारण वैचारिक के धरातल पर नारी में आधुनिकता का समावेश हुआ ।’’[3]
स्त्री-लेखन का एक और महत्त्वपूर्ण उद्देश्य स्त्री की विभिन्न भूमिकाओं का मानव-समाज को परिचय देना है, जीवन के उन अंधेरे कोनों पर प्रकाश डालना है जिसकी पीडा स्त्रियों ने सदियों से झेली है । जरूरत है कि स्त्री अपनी मानवीय गरिमा और अधिकार को समझकर संरचनात्मक, सांस्कृतिक तथा मानवीय दृष्टिकोण के मूल तत्त्वों का विश्लेषण करे, अपने लेखन से उन तमाम स्त्रियों को शक्ति दे, जो संघर्षरत हैं तथा जो स्त्री-समाज के विकास में सक्रिय हैं, वे जो समाज की नजरों से दूर, कहीं किसी कोने में सुबक रही हैं, जिनके पास मानवीय गरिमा के नाम पर केवल अपना शरीर है, उन्हें जीने की प्रेरणा दे और साहित्य के विकास के नए दृष्टिकोण तथा वैकल्पिक अवधारणाओं को विकसित करें ।
सन्दर्भ ग्रंथ –
- खान, एम. फिरोज़ (डॉ.) नियाब, शगुफ़्ता (डॉ.) नारीविमर्श : दशा और दिशा, आकाश पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स, ई-10/663, उत्तरांचल कॉलोनी, लोनी बोर्डर, गाजियाबाद-201102, प्रथम संस्करण-2010
- बद्रीनारायण, साहित्य और समय (अन्तः सम्बन्धों पर पुनर्विचार) वाणी प्रकाशन, 4695, 21ए, दरियागंज, नयी दिल्ली-110002, प्रथम संस्करण : 2010.
- वर्मा, रतनकुमारी, महिला साहित्यकारों का नारी चित्रण (हिन्दी कहानियों के संदर्भ में), अध्ययन पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स 4378/4B, 105, जे. एम. डी. हाउस, मुरारी लाल स्ट्रीट, अंसारी रोड, दरियागंज, नयी दिल्ली-11002, संस्करण : 2009
- नारी विमर्श दशा और दिशा, खान, एम. फिरोज़ (डॉ.) नियाब, शगुफ़्ता (डॉ.) पृ.175 ↑
- साहित्य और समय (अन्तः सम्बन्धों पर पुनर्विचार), बद्रीनारायण, पृ.32 ↑
- महिला साहित्यकारों का नारी-चित्रण (हिन्दी कहानियों के संदर्भ में), वर्मा, (श्रीमती) रतन कुमारी (डॉ.), पृ.263-264 ↑
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