ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानियों में दलित जीवन का यथार्थ
डॉ. सुधांशु शर्मा
कुम्हारिया, कांके
रांची, झारखंड
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शोध सारांश
ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपनी कहानियों में समाज के यथार्थ रूप की बेखौफ अभियक्ति की है । कहानियों की भाषा– शैली बेजोड़ है । दलित जीवन का दर्द, अदम्य लालसा, उसकी मनोस्थिति को जिन शब्दों में अभिव्यक्ति दी है उससे कहानी पढ़ते हुए सम्पूर्ण दृश्य सामने दिखाई देते हैं, जो कहानी के महत्व को बढ़ाती हैं । साहित्य का काम समाज के हर उस रूप को सामने लाना है जो समाज में विद्यमान है जिससे समाज में फ़ैली विसंगतियों को समझा जा सके जिससे निराकरण के उपायों को विस्तार मिल सके ।
बीज शब्द: दलित, यथार्थ, कहानी, समाज, अभिव्यक्ति
शोध विस्तार
ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपनी रचनाओं से हिंदी दलित साहित्य को समृद्ध करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । दलित समाज के प्रति होने वाले उपेक्षित व्यवहार को अपनी रचनाओं के माध्यम से न केवल हिंदी दलित साहित्य को प्रासंगिक बनाया बल्कि साहसपूर्ण ढंग से अपने समाज के यथार्थ को सामने लाने के लिए दलित वर्ग को प्रेरणा देने में भी सफल रहे । महात्मा बुद्ध, ज्योतिबा फुले, डॉ.अंबेडकर, प्रेमचंद, राहुल सांकृत्यायन, दया पवार, एलेक्स हेली, जेम्स वाल्डविन आदि के विचारों व साहित्य ने इन्हें प्रेरित किया व पूरे शोषित वर्ग की पीड़ा को अभिव्यक्त करने का एक अनवरत संघर्ष जारी रहा । इनकी कहानियां दलित जीवन का प्रतिबिंब है जिसमें दलित जीवन संघर्ष की विविध स्थितियाँ दिखाई देती हैं । कहीं सामाजिक तिरस्कार,अपमानित व्यवहार है तो कहीं गरीबी,अशिक्षा, बेरोजगारी की त्रासदी तो कहीं अन्याय के खिलाफ आवाज आदि ऐसे कई परिस्थितियों से जूझती इनकी कहानियों में दलित जीवन के यथार्थ के साथ ही दलित जीवन के विकास की सार्थकता के लिए जागरूकता दिखाई देती है ।
ओमप्रकाश वाल्मीकि स्वयं इस जातिगत भेदभाव को भुगतते रहे और अपने अनुभवों को लेखनी के माध्यम से सामने लाकर दलित साहित्य को अग्रसर करने में महत्वपूर्ण योगदान देते रहे । ‘दलितों के प्रति अमानवीय व्यवहार और दोहरे मापदंड’ में वह लिखते हैं कि “एक दलित लेखक के अपने निजी अनुभव, उसके सामाजिक अनुभव कितने भयावह और कमजोर करने वाले होते हैं, इसका अंदाज दूर खड़ा कोई लेखक,आलोचक, संपादक नहीं लगा पाता है । अनुभवों का अंत:करण में रूपान्तरण उन भावनाओं में होता है, जो उसे संघर्ष, आक्रोश की ओर ले जाती है और अंततः करुणा, प्रेम के रास्ते कविता, कहानी और आत्म–कथा के रूप में सामने आती है । इन्हीं अनुभवों ने अनेक दलित लेखक पैदा किए हैं, जिनके अंतद्वंद उन्हें दूसरों से अलग करते हैं ।”[1]
दलितों के प्रति छुआछूत का व्यवहार हमारे समाज में एक भयावह बीमारी है । मनुष्य होते हुए दूसरे मनुष्य को उसकी जाति के आधार पर उपेक्षित दृष्टि से देखना उसके साथ खान-पान में दूरी रखना समाज की रीति है । छूआछूत और तिरस्कार की त्रासदी से कई दलित अपनी असली पहचान को छुपाने के लिए मजबूर होते हैं । ‘कहाँ जाए सतीश’ कहानी में सतीश अपनी पहचान छुपाकर इसलिए रह रहा था क्योंकि समाज के उपेक्षापूर्ण व्यवहार से वह तंग हो गया अब वह अपनी बस्ती से दूर किराए में रहकर अच्छे से पढ़ाई करता, शाम में फ़ैक्टरी में काम करता जिससे वह अपना खर्चा चलाता अपने भविष्य को सम्मान के साथ जीने की चाहत में वह तमाम कोशिशों में लगा रहता । व्यवहार कुशल सतीश से मकान मालिक खुश था । लेकिन सवर्ण परिवार को सतीश की जाति का पता चलते ही उसके प्रति उनके मन में नफरत का सैलाब उमड़ जाता है । दिसंबर की ठिठुरन रात में सतीश को घर से बाहर कर दिया जाता है । वह समझ नहीं पाता कि आखिर उसका क़ुसूर क्या है? मानवीय रिश्ते जाति के आधार पर क्यों बनते हैं? –“उसने मुझे राखी बाँधी थी साहब…पर आज…उन्हें पता चल गया कि मेरी जाति क्या है । साहब, भंगी होने से रिश्ते टूट जाते हैं ? मैं इस भंगीपन से छुटकारा पाना चाहता हूँ साहब ।” [2] वह उलझन में है लेकिन उसके सवालों का कहीं कोई जवाब नहीं है । सर्द रात में वह अपनी फैक्टरी में रात बिताने की सोचकर जाता है परंतु उसे वहाँ भी ठिकाना नहीं मिलता है । इसी तरह ‘घुसपैठिए’ कहानी में भी राकेश की पत्नी इन्दु नहीं चाहती कि पड़ोस में किसी को उनकी जाति के बारे में पता चले वह समाज के उपेक्षित व्यवहार से अपने परिवार को बचाना चाहती है । उसे अपने पति का दलितों के प्रति सोहार्दपूर्ण व्यवहार पसंद नहीं । वह कई बार अपने पति को इनसे दूर रहने को कहती है –“तुम चाहे जितने बड़े अफसर बन जाओ, मेल–जोल इन लोगों से ही रखोगे, जिन्हें यह तमीज भी नहीं है कि सोफ़े पर बैठा कैसे जाता है…तुम्हें इनसे यारी–दोस्ती करना है तो घर से बाहर ही रखो…आस–पड़ोस में जो थोड़ी बहुत इज्जत है, उसे भी क्यों खत्म करने पर तुले हो…गले में ढोल बाँधकर मत घूमो…यह जो सरनेम लगा रखा है…यही क्या कम है…कितनी बार कहा है कि इसे बदलकर कुछ अच्छा–सा सरनेम लगाओ….बच्चे बड़े हो रहे हैं….इन्हें कितना सहना पड़ता है । कल पिंकी की सहेली कह रही थी…रैदास तो जूते बनाता था….तुम लोग भी जूते बनाते हो…पिंकी रोते हुए घर आई थी…मेरा तो जी करता है बच्चों को लेकर कहीं चली जाऊँ…।”[3] दरअसल इन्दु के भीतर का यह डर समाज में व्याप्त अमानवीय मान्यताओं का परिणाम है । वह नहीं चाहती कि उसके बच्चों को सामाजिक भेदभाव का सामना करना पड़े । इन्हीं कारणों से कई अच्छे पदों पर कार्यरत दलित अपनी जाति के बाकी लोगों से ही दूरी बनाने लगते हैं । हमारे समाज में जातिगत ऊंच-नीच की प्रतिस्पर्धा बहुत ज्यादा है । इसलिए प्रत्येक जाति दूसरी जाति से आगे बढ़ने की हौड़ में लगी रहती है । ऐसा नहीं है कि जातिगत भेदभाव सवर्णों के बीच में ही मौजूद है दलित जातीय भी इससे अछूती नहीं हैं । ‘शवयात्रा’ कहानी में चमार और बल्लहार जाति के बीच भेदभाव इतना अधिक है कि बल्लहार की पोती सलोनी की तबीयत खराब होने पर गाँव का डॉक्टर उसे अपने दवाखाने में नहीं आने देता क्योंकि उसे अपना दवाखाना बंद हो जाने का डर है । शहर के अस्पताल पहुँचने से पहले बच्ची सलोनी दम तोड़ देती है । ऐसी परिस्थिति में भी कोई उनकी सहायता करने नहीं आता है । यहाँ तक कि शव जलाने के लिए लकड़ियां देने से भी मना करना यह सारी घटनाएं विचलित कर देती हैं । जातिगत अंतर्विरोध की यह स्थितियाँ सामाजिक भेदभाव को रोकने की बजाय बढ़ावा दिलाती हैं । ‘सलाम’ कहानी में दलित हरीश के सवर्ण दोस्त कमल को गाँव का चायवाला इसलिए चाय नहीं पिलाता क्योंकि वह दलित की शादी में बाराती बनकर आया है । ‘चूहड़ों की बारात में बामन’ आए यह उसके लिए अकल्पनीय है । इसलिए वह चिल्लाकर अपनी खीझ को भीड़ में शामिल लोगों के सामने प्रकट करता है-“चूहड़ा है । खुद कू बामन बतारा है । जुम्मन चूहड़े का बाराती है । इब तुम लोग ही फ़ैसला करो । जो यो बामन है तो चूहड़ों की बारात में क्या मूत पीणे आया है । जात छिपाके चाय मांग रा है मैन्ने तो साफ कह दी । बुद्धू की दुकान पे तो मिलेगी ना चाय चूहड़ों–चमारों कू, कहीं और ढूढ़ ले जाके ।”[4] समाज में फ़ैली अस्पृश्यता की समस्या इतनी गहरी है कि उसे हटाने के लिए तो कम परंतु बनाए रखने और विस्तार देने में सहयोग की भावना अधिक दिखाई देती है । मेहमान की तरह आए बाराती कमल को चाय के बजाय ब्राह्मण होकर दलित की बारात में आने के लिए अपमानित किया जाता है । दलितों के प्रति छुआछूत का भाव चाहे उनकी जाति के आधार पर हो या उनके लिए बनाए गए कामों के आधार पर किसी भी रूप में यह सभ्य समाज का उदाहरण नहीं है । लेकिन अपने आप को तथाकथित सभ्य व सुसंस्कृत समझने वाला समाज अमानवीय कुरीतियों का महिमामंडन करने को सदैव तत्पर रहता है ।
सामाजिक संगठन सामाजिक परिवर्तन के लिए बहुत आवश्यक है तभी समाज से छुआछूत की दूषित भावना को हटाया जा सकता है । जहां एक तरफ वाल्मीकि की कहानियों में दमन,अपमान की पीड़ा है तो वहीं इसकी मूल जड़ों का विरोध भी है । ‘सलाम’ कहानी में पीढ़ियों से चली आ रही परंपरा का विरोध दिखाई देता है । दलित युवक हरीश अपनी शादी में गाँव के सवर्णों के पास सलाम करने जाने से मना कर देता है । दलित होते हुए इस तरह परम्पराओं का विरोध करते देख गाँव वाले के बहुत समझाने पर भी हरीश व उसके पिता ने घर-घर जाकर अपमानित होना अस्वीकार किया । अपने आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाकर कुछ कपड़े, पैसों का लोभ देकर वह सवर्णों के वर्चस्व को कायम रखने की प्रथा को बढ़ावा नहीं देना चाहता है । हरीश के सलाम करने न जाने की खबर सुन सवर्णों का आगबबूला होना यह दर्शाता है कि उन्हें यह बिलकुल बर्दाश्त नहीं हो पाता है कि दलित अपने मान – सम्मान की पहल करें । गाँव के सवर्ण बल्लू का हरीश के ससुर को परंपरा का विरोध कर अपने सम्मान के विषय में सोचने के लिए धमकाना यह साबित करता है कि दलित समाज का चेतनाशील होना इन्हें समाज के लिए घातक लगने लगता है – “तभी तो कहूँ– जातकों (बच्चों) कू स्कूल ना भेजा करो । स्कूल जाके कोण–सा इन्हें बालिस्टर बणना है । ऊपर से इनके दिमाग चढ़ जांगे । यो न घर के रहेंगे न घाट के । गाँव की नाक तो तूने पहले की कटवा दी जो लौंडिया कू दसवीं पास करवा दी । क्या जरूरत थी लड़की कू पढ़ाने की, गाँव की हवा बिगाड़ रहा है तू । इब तेरा जंवाई ‘सलाम’ पर जाने से मना कर रहा है … उसे समझा दे… ‘सलाम’ के लिए जल्दी आवे…।”[5] सवर्णों का यह सोचना कि सम्मानित सारे कामों में सिर्फ हमारा अधिकार है और अपमानित होते रहना और चुपचाप सहना दलितों की नियति है, यह विचार हमारे समाज की उन्नति में बाधक होने के बावजूद अपना परचम लहराता है ।
दलितों पर शोषण का प्रमुख कारण अशिक्षा और गरीबी है । शिक्षा से उन्हें रोका गया जिस कारण वह अपने अधिकारों को अच्छे से समझ ही नहीं पाये इसी कारण लगातार उन पर अन्याय किया गया और वह इसे अपनी नियति मानते गए । इसकी पड़ताल वाल्मीकि की कहानी ‘पच्चीस चौका डेढ़ सौ’ करती है । सुदीप के पिता की तरह समाज में ऐसे कई दलित हैं जिन्हें जीवन भर चौधरी जैसे धोखेबाज लोगों ने अच्छे सहायक का मुखौटा पहनकर लूटा है । सुदीप को समझ नहीं आता कि किताब में भी और स्कूल में मास्टर भी तो ‘पच्चीस चौका सौ’बताते हैं फिर उसके पिता को चौधरी ‘डेढ़ सौ’ क्यों बताता है । जिस पर उसके पिता को इतना अंधविश्वास है कि वह सभी की बातों को गलत लेकिन चौधरी को सर्वज्ञाता मानता है –“तेरी किताब में गलत भी हो सके… नहीं तो क्या चौधरी झूठ बोल्लेंगे । तेरी किताब से कहीं ठाड्डे (बड़े) हैं चौधरी जी । उनके धोरे (पास) तो ये मोट्टी–मोट्टी किताबें हैं… वह जो तेरा हेडमास्टर है वो भी पाँव छुए है चौधरी जी के । फेर भला वो गलत बतावेंगे…मास्टर से कहणा सही–सही पढ़ाया करे…।”[6] शोषित वर्ग के आँखों पर लगी इस पट्टी को हटाने के उपाय है शिक्षित होना, अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होना । जिस तरह सुदीप ने अपने पिता के सामने चौधरी के षडयंत्र का पर्दाफाश किया उसी तरह दलित समाज के लोगों को अपने कर्तव्यों का बोध होना बहुत जरूरी है तभी तो वह पीढ़ियों से की जा रही इस तरह की धोखेबाज़ी को समझ पाएंगे क्योंकि उनकी मेहनत, ईमानदारी, सहजता को हमेशा दरकिनार कर उन्हें प्रताड़ित किया जाता रहा है । गरीबी की मार को झेलता दलित दिन-रात कठिन मेहनत के बावजूद भुखमरी के हालातों से गुजर रहा है । जातिगत आधार पर काम का विभाजन भी इनकी गरीबी का बड़ा कारण है इनसे काम तो ज्यादा मेहनती व घृणित करवाए जाते हैं परंतु इनकी आमदनी बहुत कम है । ‘बैल की खाल’ कहानी का काले और भूरे गांवों में जानवरों के डॉक्टर के आने से दुखी है क्योंकि जानवर मरेंगे नहीं तो वह खाएँगे क्या । उन्हें कोई दूसरा काम भी नहीं देता “गाँव भर की नजर में ये सबसे निकक्मे जीव थे, मरे जानवर की खाल खींचने वाले ।” [7] इनकी जरूरत गाँव वालों को तभी होती जब गाँव में कोई जानवर मर जाता वरना यह जीवित हैं या नहीं इसकी परवाह किसी को नहीं थी । अत्यधिक कठिन श्रम के बावजूद यह अपनी छोटी-छोटी इच्छाओं को भी पूरा नहीं कर पाते हैं । दूसरों की तरह सम्मान से खाने, पक्के मकान में रहने की इच्छाओं को पूरा करने के लिए तमाम तरह के उत्पीड़न के बावजूद दलित मजदूर अपने लिए एक छोटा सा घर नहीं बना पाता है। ‘ख़ानाबदोश’ कहानी की मानो और सुकिया अपने लिए भी पक्की ईटों का मकान बनाना चाहते हैं, लेकिन उनका यह ख्याल धराशायी कर दिया जाता है । सूबेसिंह दलित स्त्री मानो को अपने जाल में तमाम प्रलोभन के बाद भी किसनी की तरह नहीं फंसा पाया तो उसे काम से निकालने की साजिश रचता गया तो वहीं ‘गोहत्या’ कहानी में सुक्का को मुखिया के आदेश का पालन न करने की सजा गोहत्या की साजिश में फसांकर दी जाती है। सुक्का का अपनी बीवी को हवेली लाने से मना करना मुखिया के वर्चस्व को आघात पहुंचाता है –“औकात में रह सुक्का । उड़ने की कोशिश ना कर, बाप–दादों से चली आई रीत है ।” लेकिन सुक्का का अप्रत्याक्षित जवाब मुखिया को तिलमिला देता है “मुखिया जी काम करता हूँ तो दो मुट्ठी चावल देते हो…. वह हवेली नहीं आएगी ।” [8]सुक्का को इस विरोध की सजा लाल दहकती लौ से हाथ जलाने की मिलती है जिससे मुखिया के भीतर की प्रतिशोध की ज्वाला तो शांत हो जाती है लेकिन सुक्का की चीत्कार से पूरा गाँव दहल जाता है । दलितों पर अपना अधिकार जमाने वाले लोग कई तरह की मनगढ़ंत रीतियाँ बनाकर उनका शारीरिक, मानसिक शोषण सरेआम करते रहे हैं फिर भी समाज में वह सम्मानित समझे जाते हैं और जिन्हें प्रताड़ित किया जाता है वह असभ्य । इसलिए शोषक वर्ग कभी नहीं चाहता कि शोषित अपने अधिकारों को समझे उन्हें परेशान करना वह अपना अधिकार समझते आए हैं ।
‘घुसपैठिये’ कहानी में उच्च संस्थानों में दलित छात्रों के साथ भेदभाव की स्थिति का अंजाम आत्महत्या के लिए मजबूर करता है । शारीरिक, मानसिक प्रताड़ना की अथाह ने मेडिकल छात्र सोनकर को मरने पर मजबूर किया वह लड़ता रहा परंतु साज़िशों के इन चक्रव्यूहों से लड़ते-लड़ते हार गया । आरक्षण से आए बच्चों को परेशान करना उनकी कई शिकायतों के बावजूद कोई कार्यवाही नहीं करना उन्हें ही चुप रहने, सहने की सलाह देना, मेहनती होने के बावजूद उन्हें परीक्षाओं में कम नंबर देना, इस तरह के उपेक्षापूर्ण रवैयै से उन्हें कितनी तकलीफ होती है इसका एहसास ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानियों में बहुत गहरा है । इसी तरह आरक्षण की वजह से काबिलयत पर शक करने, आपसी मनमुटाव, द्वेष की स्थिति ‘कुचक्र’ कहानी में भी दिखाई देती है । अकसर उनकी सफलता की तुलना आरक्षण के साथ की जाती है । काम के प्रति कर्तव्यनिष्ठ, ईमानदार, जानकार होने के बावजूद उन्हें हेय समझा जाता है । दलित युवक आर. बी. का प्रमोशन गैर दलितों को उचित नहीं लगता है । उनकी बौखलाहट उसके प्रति कुचक्र की तरफ बढ़ने लगती है । उसके लिए अपशब्दों का इस्तेमाल करना उसकी बाकी अधिकारियों से बढ़ा-चढ़ा कर झूठी शिकायत करना,चोरी के इल्जाम में फंसाना । इस तरह के कई स्तरहीन योजनाओं द्वारा अपने मन को तसल्ली दी जाती है – “रीढ़–वीढ़ कुछ नहीं शर्मा जी…मर–मरकर काम करें हम और प्रमोशन मिले इन भंगी– चमारों को…बस शर्मा जी अब तो सेंटर में बदलाव आना ही चाहिए…नहीं तो ये लोग देश को तबाह कर देंगे…।” [9] शर्मा जी के उकसाने पर निशिकांत का यह मनोभाव दलितों के प्रति समाज में प्रचलित धारणाओं को उजागर करता है ।
ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपनी कहानियों में समाज के यथार्थ रूप की बेखौफ अभियक्ति की है । कहानियों की भाषा- शैली बेजोड़ है । दलित जीवन का दर्द, अदम्य लालसा, उसकी मनोस्थिति को जिन शब्दों में अभिव्यक्ति दी है उससे कहानी पढ़ते हुए सम्पूर्ण दृश्य सामने दिखाई देते हैं, जो कहानी के महत्व को बढ़ाती हैं । साहित्य का काम समाज के हर उस रूप को सामने लाना है जो समाज में विद्यमान है जिससे समाज में फ़ैली विसंगतियों को समझा जा सके जिससे निराकरण के उपायों को विस्तार मिल सके । इसी संदर्भ में डॉ.जयप्रकाश कर्दम का मानना है कि “यथार्थ पर आधारित होने के कारण दलित साहित्य ‘वाह’ का नहीं ‘आह’ का साहित्य है । इसमें दलित जीवन का दंश, दर्द और आह सर्वोपरी है क्योंकि यह समाज का सबसे बड़ा कटु और भयावह यथार्थ है । दलित उत्पीड़न और संवेदना के जितने भी पक्ष हो सकते हैं हिन्दी की दलित कहानियों में लगभग उन सभी को प्रतिपाद्य बनाया गया है ।”[10] दमित जीवन की समस्याओं को सामने लाकर उनके अधिकारों के लिए लड़ती ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानियाँ प्रेरणाशील रही हैं । दलितों को अपने सम्मान के लिए लड़ना होगा, प्रतिरोध करना होगा हर उस नियम का जिससे उसकी अस्मिता को ठेस लगे । स्वाभिमान से सम्मानपूर्ण जीने का हक सभी का है चाहे वह किसी भी जाति का हो, जब जाति मानवीय सम्बन्धों में बाधक बनने की बजाय स्नेहपूर्ण समानता को महत्व देगी तभी नवनिर्मित समाज की परिकल्पना को सफलता मिल सकती है ।
[1] वाल्मीकि,ओमप्रकाश.मुख्यधारा और दलित साहित्य. नई दिल्ली:सामयिक प्रकाशन. पृ. सं. 68
[2] वाल्मीकि,ओमप्रकाश.सलाम. कहानी संग्रह. ‘कहाँ जाए सतीश’. नई दिल्ली : राधाकृष्ण प्रकाशन. पृ. सं. 55
[3] वाल्मीकि,ओमप्रकाश.घुसपैठिये. नई दिल्ली : राधाकृष्ण प्रकाशन. पृ.सं. 15
[4] वाल्मीकि,ओमप्रकाश.सलाम. नई दिल्ली : राधाकृष्ण प्रकाशन. पृ.सं. 13
[5] वही,पृ.सं.18
[6] वहीं, ‘पच्चीस चौका डेढ़ सौ’. पृ. सं. 80 ’
[7] वही, ‘बैल की खाल’. पृ. सं. 35
[8] वही, ‘गोहत्या’. पृ. सं. 59
[9] वही,’कुचक्र’. पृ. सं. 105
[10] कर्दम, डॉ. जयप्रकाश. दलित विमर्श:साहित्य के आईने में. गाजियाबाद : साहित्य संस्थान. पृ सं. 111