आदिवासी समाज, साहित्य एवं संस्कृति: वर्तमान चुनौतियाँ

शिलाची कुमारी 
पीएच.ड़ी. शोधार्थी
हिंदी विभाग
झारखंड केन्द्रीय विश्वविद्यालय
Shilachikandhway11@gmail.com
Mob: 8335878688

सारांश

आदिवासी शब्द से ही पता चलता है आदिम युग की जातिजंजातियाँ । जो अपनी सभ्यता और संस्कृति की धरोहर को युगों से सँजोये हुए हैं । वास्तव में ये राष्ट्र के असली वारिस कहे जा सकते हैं । आदिवासी इस संसार के अभिन्न अंग रहे हैं उनका योगदान हमारी सभ्यता के विकास में महत्वपूर्ण रहा है ।ये हमारी प्राचीन भारतीय संस्कृति के सदैव संवाहक रहे हैं । जबकि ये स्वयं मुख्य धारा से कटे हुए ही रहे हैं।  ये अपने अस्तित्व की लड़ाई वर्षो से लड़ते आ रहे हैं । आदिवासी जो वास्तविक इस देश के उतराधिकारी है हमारी व्यवस्था ने उनसे ही अपने अस्तित्व के अधिकार के साथ जीने का अधिकार छिन लिया है  ।  आदिवासी साहित्यकारों के पास संसाधनों का अभाव रहता है पर यह कहने में क्यों हिचका जाए की संपादकों द्वारा भी उनकी उपेक्षा की जाती है। इसका परिणाम यह हुआ कि अच्छा, सरल, सहज, प्रमाणिक व विश्वसनीय लिखने वाले लेखक चर्चा में नहीं आ पाये। आदिवासी केन्द्रित जो कहानियां हिंदी में लिखी गयी हैं। वे विभिन्न पत्रिकाओं की फाइलों में दबी पड़ी हैं। तमाम विडंबनाओं के बावजूद आदिवासी जन जीवन , साहित्य , काला संस्कृति हमारे राष्ट्र की मूल धरोहर है और इसकी वास्तविकता पर  प्रश्न उठाना विमर्श करना चर्चा परिचर्चा ज्वलंत मुद्दा है । तथा भारतीय समाज के ये अभिन्न अंग है ये मुख्य धारा से अलग होने के बावजूद अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है ।

बीज शब्द: सभ्यता संस्कृति , अस्तित्व , अधिकार , साहित्य, शिक्षा , संसाधन, विमर्श परिचर्चा 

शोध विस्तार

आदिवासी शब्द से ही पता चलता है आदिम युग की जाति- जंजातियाँ । जो अपनी सभ्यता और संस्कृति की धरोहर को युगों से सँजोये हुए हैं । वास्तव में ये राष्ट्र के असली वारिस कहे जा सकते हैं । आदिवासी इस संसार के अभिन्न अंग रहे हैं उनका योगदान हमारी सभ्यता के विकास में महत्वपूर्ण रहा है ।ये हमारी प्राचीन भारतीय संस्कृति के सदैव संवाहक रहे हैं । जबकि ये स्वयं मुख्य धारा से कटे हुए ही रहे हैं । आखिर कारण क्या है ? इसका मुख्य कारण अंधविश्वास , जड़ता रूढ़िवादी परंपरा रही है । दूसरा कारण यह भी की ये अत्यंत सीधे सरल वह संकोची स्वभाव के रहे है इन्हे एकांत एवं प्रकृति से विशेष प्रेम है । इनका जीवन अभावग्रस्त रहा है क्योंकि ये समाज से दूर पहाड़ों, दूरदराज़ के इलाकों मे आधुनिक सुविधाओं से दूर दमन एवं शोषण से ग्रसित रहे है ।

 इनके अधिकारो हितों को प्रकाश मे लाने के लिए विमर्श तो चंद साल पहले शुरू हुए है । परंतु ये अपने अस्तित्व की लड़ाई वर्षो से लड़ते आ रहे है । कोई विमर्श तभी  विमर्श बनता है जब वह सभ्यता संस्कृति, भाषा अस्मिता की पहचान हाशिये पर चला जाता है । आदिवासी जो वास्तविक इस देश के उतराधिकारी है हमारी व्यवस्था ने उनसे ही अपने अस्तित्व के अधिकार के साथ जीने का अधिकार छिन लिया है  ।  प्रकृति की गोद में ही इनके जीवन का संचालन होता आया है । आदिवासियों का समाज वस्तुतः वनों में निवास करने वाले कृषकों का समाज है | कृषि और वन्य उत्पादकों के सहारे प्रकृति और उसके संततियों के सहचर्य में सहयोगी बनकर जीवन जीने की कला इन आदिवासियों ने युगों से आत्मसात कर रखी है | यही कारण है कि आदिवासियों के अस्तित्व के लिए जल, जंगल और जमीन का होना आवश्यक है |”

 हमारा समाज आज भी इन्हे हेय की दृष्टि से देखता है इसका कारण है असंवेदनशीलता ।      भारतीय समाज मे रहने वाले आदिवासी कबीलों को  भारतीय संविधान के अंतर्गत अनुसूचित जनजाति के रूप में सूचीबद्ध किया गया है । आदिवासी समाज स्वछंद विचारों तथा उत्कृष्ठ जिजीविषा वाला समुदाय है । इनके विषय मे अनेक मिथक धारणा बनी है की ये  बार्बर होते है । आज आदिवासी समाज का अस्तित्व वह अस्मिता संकट में है , आज आदिवासी समाज लोकतान्त्रिक लाभ लेने में असमर्थ है । यह समुदाय विकास के प्रभावों से कोसो दूर है । इस वंचित तबके का विकास तभी संभव है जब हम उन्हे उनकी जीवन -शैली , सुरक्षा और उनके भविष्य के लिहाज से अधिकार समपन्न रखें । विकास की सभी योजनाओं से लाभान्वित कर उन्हे उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करें ।

भारत के विभिन्न प्रदेशों में निवास कर रहे आदिवासियों ने अपने-अपने भू-भागों में अपने अधिकारों और अस्तित्व के लिए विभिन्न विद्रोह किये हैं। अंग्रेजों, साहुकारों, महाजनों और सूदखोरों के अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध आंदोलन किए। परंतु आज के समय में विडंबना यह है कि इनके इस विद्रोह को विद्रोह न कहकर नक्सलवाद कहा जाता है। रमणिका गुप्ता आदिवासियों की आर्थिक स्थिति का विवेचन करते हुए लिखती हैं,”जंगल माफ़िया कीमती पेड़ उससे सस्ते दामों पर खरीदकर, ऊँचे दामों पर बेचता है और करोड़पती बन जाता है। पेड़ काटने के आरोप में आदिवासी दंड भरता है या जेल जाता है। सरकार की ऐसी ही नीतियों के कारण आदिवासी ज़मीन के मालिक बनने के बजाए पहले मज़दूर बने फिर बंधुआ मज़दूर।”( रमणिका गुप्ता-आदिवासी विकास से विस्थापन – पृ. 12)

दरअसल आदिवासी समाज की प्रतिबद्धता औऱ उनके नैसर्गिक गुणों को शब्दों में या श्रेणियों में नहीं बाँटा जा सकता। आदिवासियों की आदिवासियत को न तो आप वर्गीकृत कर सकते हैं न ही किसी मानक से नाप सकते हैं क्योंकि यह तो विरासत में मिला हुआ वह गुण है जिसे कोई भी अस्वीकार नहीं कर सकता और न ही उसे कोई खारिज कर सकता है। किसी व्यक्ति की आदिवासियत को आप इस बात से तय नहीं कर सकते कि उसमें आदिवासी खून कितना है।

शिक्षा किसी भी समाज के विकास की नीव होती है। आदिवासी समाज के विकास में भी शिक्षा की भूमिका निर्णायक है। आदिवासी समाज के लिए एक बेहतर शिक्षा की आवश्यकता व चुनौती है जिसे स्वीकार करना है। मुख्यधारा की शिक्षा व्यवस्था से आदिवासियों का कोई भला नहीं होना है। उन्हें उन्हीं की भाषा में शिक्षा दी जानी चाहिए, जिससे उनमें अधिगम की सुगमता का विकास हो सके। आदिवासी क्षेत्रों में विकास संबंधी क्रियाकलाप तो राष्ट्रीय और क्षेत्रीय प्राथमिकताओं के अनुसार बढ़ते जा रहे हैं पर इन सभी संभावनाओं के बीच अवस्थित आदिवासी स्वयं को इससे कटा हुआ ही महसूस कर रहा है। आदिवासी के लिए उस शिक्षा या विकास का कोई मतलब नहीं, जिसमें उनकी सहभागिता न हो। अतः यह महत्त्वपूर्ण है कि उनकी इस चुनौती पर गम्भीरता से विचार किया जाय साथ ही एक सार्थक समाधान की तलाश की जाय।

        इतना सबकुछ होने के बावजूद  भी आदिवासी कुछ नहीं बोलते हैं । उसे अपने हक़ के लिए आवाज उठाने का परिणाम मालूम है ।  लेकिन, उसके पास प्रश्न हैं । कई ऐसे प्रश्न जिनके उत्तर हममें से किसी के पास नहीं है । ऐसे में क्या करे, कहाँ जाये आदिवासी ? हरिहर लिखते हैं कि – “ जब मैं विगत कई दशकों से घट रही घटनाओं के सम्बन्ध में गहराई से विचार करता हूँ तब न जाने मुझे क्यों ऐसा लगता है कि यह कोई सोची – समझी साजिश तो नहीं आदिवासियों को समूल नष्ट करने की! मेरी इस धारणा का कारण स्पष्ट है । न आदिवासी रहेगा और न उसकी समस्याएँ ! बात ख़त्म! तो क्यों न समस्या की जड़, यानी आदिवासी को ही समूल नष्ट कर दिया जाये ! कुछ इस तर्ज पर कि ग़ुरबत मिटाने के लिए गरीबों को ही मिटा दें । ग़ुरबत अपने आप दूर हो जायेगी । यही तो हो रहा है न, अपने इस महादेश में ? बताइये, मैं कहाँ ग़लत हूँ ?” (क्यों बेजुबान हैं, आदिवासी ? – हरिहर वैष्णव, यश पब्लिशर्स   एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स – दिल्ली 110032, प्रथम संस्करण : 2018, पृष्ठ – 7

आदिवासियों पर हिंदी में लिखी गयी कहानियां इन पर लिखे गये उपन्यासों के बाद देर से चर्चा में आयी। इसलिए कई पाठकों को कभी कभार ऐसा लगने लगता है जैसे आदिवास्यों पर कहानियां लिखी ही नहीं जा रही है। आदिवासी साहित्यकारों के पास संसाधनों का अभाव रहता है पर यह कहने में क्यों हिचका जाए की संपादकों द्वारा भी उनकी उपेक्षा की जाती है। इसका परिणाम यह हुआ कि अच्छा, सरल, सहज, प्रमाणिक व विश्वसनीय लिखने वाले लेखक चर्चा में नहीं आ पाये। आदिवासी केन्द्रित जो कहानियां हिंदी में लिखी गयी हैं। वे विभिन्न पत्रिकाओं की फाइलों में दबी पड़ी हैं। कुछ कहानी संग्रह जो प्रकाशित हुए हैं वे या तो चर्चा में नहीं आ पाये हैं या उनमें से कुछेक कहानियाँ ही ऐसी हैं जो आदिवासी केन्द्रित हैं। बहुत कम लोग जानते हैं कि रामदयाल मुंडा शिक्षाविद, विचारक और नेता के अलावा एक संवेदनशील साहित्यकार भी थे। उनकी कविताओं और कहानियों में आदिवासी समाज का बिल्कुल सहज व पारदर्शी रूप देखने को मिलता है। उनकी कहानी ‘उस दिन रास्ते में’ सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में एक महत्वपूर्ण कहानी है। इसकी तुलना केवल हिंदी की मशहूर कहानी ‘उसने कहा था’ से ही की जा सकती है। अफ़सोस की बात है कि महाश्वेता देवी , सुरेन्द्र अवस्थी, रमणिका गुप्ता जैसे लेखक-लेखिकाओं के सतही आदिवासी साहित्य और उसके प्रचार की आंधी में ऐसे सच्चे आदिवासी साहित्य पर विद्वानों-पाठकों का ध्यान नहीं जा पाया।

विमर्शों के शुरुआती दौर पर दृष्टिपात करें तो आदिवासी विमर्श, चर्चित विमर्शों में भी हाशिए पर दिखाई पड़ता है। स्त्री विमर्श और दलित विमर्श, ये दो ऐसे बड़े विमर्श हैं जिनपर साहित्यिक और सामाजिक, दोनों क्षेत्रों में लगातार विचार-विमर्श और संगोष्ठियों का दौर चल रहा है परंतु आदिवासियों की तरफ किसी का ध्यान नहीं जा रहा है। आदिवासी कौन हैं? वे कहाँ से आए हैं? इस प्रश्न पर विचार करें तो आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की ये पंक्तियाँ सहज ही मन के किसी कोने में     जीवंत हो उठती हैं कि “भारत में रहने वाली प्रत्येक जातियाँ अपने से नीचे एक और जाति ढूंढ़ ही लेती हैं।” द्विवेदी जी के इस कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि आदिवासी समुदाय और कोई नहीं हमारे समाज की जातिव्यवस्था की उपज हैं। इस संबंध में डॉ. विनायक तुमराम ने ‘हाशिये की वैचारिकी’ नामक पुस्तक में लिखा है कि “वर्तमान स्थिति में ‘आदिवासी’ शब्द का प्रयोग विशिष्ट पर्यावरण में रहने वाले, विशिष्ट भाषा बोलने वाले, विशिष्ट जीवन पद्धति तथा परंपराओं से सजे और सदियों से जंगल-पहाड़ों में जीवन-यापन करते हुए अपने धार्मिक और सांस्कृतिक मूल्यों को संभाल कर रखने वाले मानव-समूह का परिचय करा देने के लिए किया जाता है और बहुत बड़े पैमाने पर उनके सामाजिक दु:ख तथा नष्ट हुए संसार पर दु:ख प्रगट किया जाता है। उनके प्रश्नों तथा समस्याओं पर जी तोड़कर बोला जाता है।” (डॉ. विनायक तुमराम की पुस्तक  ‘हाशिये की वैचारिकी’ (पृ. 251

 

निष्कर्ष

अत: आदिवासी वर्ग के उत्थान के लिए हुमे आगे आना होगा हम उनके जीवन परंपरा सभ्यता को अपनाए और  उनमे फैले विषाक्त अंधविश्वास , जड़ता और दोजे वर्ग के जीवन से बाहर निकालें तथा कदम से कदम मिलाकर  चलने हेतु प्रेरित करें । और इनके अधिकार  और  सुख सुविधाओं से परिचित कराया जाए । इसके आदिवासी विमर्श , साहित्य के विभिन्न पक्षो पर कार्य करने वाले रचनाकारों को प्रकाश मे लाया जाए । आदिम जातियों तथा जनजातियों पर गहन अध्ययन तथा शोध कार्य अटठारहवीं शताब्दी से ही ,प्रारम्भ हो गये थे। अंग्रजो के शासन काल के समय से ही इस दिशा में सामग्री संकलन व प्रकाशन का कार्य प्रारम्भ हुए थे । परंतु सुविधाओं के आभाव में ये हमेशा उपेछित रहे जिस कारण इसे विमर्श का रूप लेने में लंबा समय लग गया ।  आदिवासी साहित्य की मौखिक रूप की एक लंबी परंपरा रही है परंतु अशिक्षा की  वजह से उनमें कोई इतिहास नही लिखी गई । और जब इतिहास का विषय बनाया गया तो बीएस प्रकृति पर  ही निर्भर कर  छोड़ दिया गया । उसके उत्थान के लिए आवश्यक कदम नही उठाए गए । राष्ट्र निर्माण की नीतियों के कारण इंका जंगल से अधिकार समाप्त कर  दिये गए ओर अधौगिकारण ने इन्हे जल जंगल जमीन से बेदखल कर दिया । आदिवासी मुद्दों पर  विचार व्यक्त करते हुए  वंदना टेटे लिखती हैं – पुरखा कथाओं में दर्ज/ कोनजोगा टूट रहा है

पुरखा कथाओं में दर्ज/ जतरा के ढोल की आवाज

दफ़न हो रही है/छेनी और हथोड़े की आवाज में

पाना, मारतुल और घन ठोंक रहे हैं/ सीने पर कोनजोगा के

सरकारी नुमाएंदे/ ठेकेदार और मुंशी

तमाम विडंबनाओं के बावजूद आदिवासी जन जीवन , साहित्य , काला संस्कृति हमारे राष्ट्र की मूल धरोहर है और इसकी वास्तविकता पर  प्रश्न उठाना विमर्श करना चर्चा परिचर्चा ज्वलंत मुद्दा है । तथा भारतीय समाज के ये अभिन्न अंग है ये मुख्य धारा से अलग होने के बावजूद अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है ।

 

संदर्भ सूची 

  1. गुप्ता, रमणिका. (2008). विकास से विस्थापन. नई दिल्ली: राधाकृष्ण प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड. अंसारी रोड दरियागंज.
  2. आदिवासी विमर्श :अवधारणा  और आंदोलन – कुमार कमलेश –तेज प्रकाशन – पहला सं -2014
  3. रमणिका गुप्ता-आदिवासी विकास से विस्थापन – पृ. 12
  4. क्यों बेजुबान हैं, आदिवासी ? – हरिहर वैष्णव, यश पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स – दिल्ली 110032, प्रथम संस्करण : 2018, पृष्ठ – 7
  5. डॉ. विनायक तुमराम की पुस्तक ‘हाशिये की वैचारिकी’ (पृ. 251)

सहायकपुस्तकें

  1. आदिवासी स्वर और नयी शताब्दी, सं. रमणिका गुप्ता, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2008
  2. हाशिये की वैचारिकी, सं. उमाशंकर चौधरी, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स (प्रा.) लि., नई दिल्ली, 2008
  3. आदिवासी भारत, योगेश अटल और यतीन्द्रसिंह सिसोदिया, रावत पब्लिकेशन्स, जयपुर, 2011
  4. आदिवासी समाज और आधुनिकता, डॉ. पूरणमल यादव व नटवर लाल बुनकर, आविष्कार पब्लिशर्स, डिस्ट्रीब्यूटर्स, जयपुर, 2008
  5. आदिवासी साहित्य विविध आयाम – संपा. डॉ. रमेश सम्भाजी कुरे
  6. बास्ता सोरेन, आदिवासी कौन- संपादक- रमनिका गुप्ता
  7. चन्द्रिका पाण्डेय, दण्डकाराण्य: आदिवासियों की समानांतर व्यवस्था और भारतीय राजसत्ता (सम्प्रेषण के विविध आयाम),
  8. बास्ता सोरेन, आलेख- सरना: आदिवासी की पहचान, ‘आदिवासी कौन- संपादक- रमनिका गुप्ता
  9. सं. महाश्वेता देवी और अरुण कुमार त्रिपाठी, वर्तिका, अंक- अक्तूबर-दिसंब
  10. प्रो. वीरभारत तलवार, व्याख्यान- आदिवासी विमर्श: धर्म, संस्कृति और भाषा का सवाल कहाँ है?

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