पुरूषोत्तम व्यास की कविताएँ
अघोषित युध्द….
कहाँ…कहाँ नही
विचारों में
चौराहों में
हर नगर गांव की गलीयों में
बच नही पाता कोई
न कोई बडे-बडे टेक
न कोई मशीनगन
फिर भी चल रहा
अघोषित युध्द…
बोझा पहाड-सा
इसको पकडू
इसको जकडू
नफरत फैलाने वाले आदोंलन…
अलग मैं
मेरे विचार अलग
मेरा झंडा अलग
मेरा एजेडा अलग
मै सबसे अलग…
हिड्डियाँ का साम्राज्य
भडक रहा…तूफान.
नई-नई योजनाओं संग
नये-नये नारों के संग
अघोषित युध्द……
वेक्यूमकिनर
कितना डर समेटे रहता
नही मालूम
कौन से कोने से
डर भरे विचार आ
जाते…..
तोड़ते रहते हिम्मत
चारों तरफ
टूट टूट के गिर रहे
पहाड़ चारो ओर
हा-हाकार…..
कीजड़ कीजड़
फैली हजारों लाशे
फट पडे बादल…..
स्थिती अतिभयानक
मौंत का ताड़व
भूखे प्यासे भटक रहे…….
टूटा/ टूटा
फटा/ फटा
कटा /कटा
मिटा /मिटा
चल रहे अधंकार के
तरफ…….
सीधी-सरल जीवन शैली
शून्य/ शून्य
दिवश/ दिवश बीत रहे
चितायें दीमक की तरह
शरीर को खाई जा रही……..
स्थितीयों पर बस नही
ईष्या..
घ़ृणा…
के भाव पालते हुयें……
धोखा….
षड़यत्र…..
लूट खसोट
पेड़ो पर चमगादड़ लटकते हुयें
मांस नोचते हुयें बाज
पखों की घड-घड आवाज
कमरे में गुजंती हुई……….
कहाँ उड़ो मैं
पिघल गई
हिमशिलायें
पूर्ण रूप से झनझोर
देना चाहता विचारो को……..
आरसी में
जब भी आपने आप को देखता
आखों में नफरत ही दिखती……
विचारो की श्रृंखला
खून चूसते हुयें
कीड़े…….
वहम का बहुत बड़ा
साम्राज्य
टूट टूट के गिर रहे
हरे हरे पत्ते…….
मंथता रहता
बस मे नही
करवटे बदलती रहती…
स्थितीयाँ
अभिशाप
प्रेम के फूल महकते
नही
भड़की हुई आग
धुआँ का अता पत्ता नही
बारिस का मौसम
टिन पर बूदों की आवाज…….
दिवारों पर पपड़ीयाँ
घाव भी हरे हो जाते….
समझोंता
गंदगी मन-में
कोनसे वेक्यूमकिनर का उपयोग किया जायें…….।
पुरूषोत्तम व्यास
C/o घनश्याम व्यास
एल.जी 63 नानक बगीचे के पास
शांतीनगर कालोनी
नागपुर(महाराष्ट)
ई–मेल pur_vyas007@yahoo.com
मो. न. 8087452426
कवि (डॉ.) शैलेश शुक्ला की कविता
“बंधु! सच बताओ …”
बंधु! सच बताओ
इतनी कड़वाहट
कहां से लाते हो?
कैसे करेले
और नीम को भी
तुम
हमेशा ही हराते हो?
बंधु! सच बताओ …
किसी का
एक कदम भी
आगे बढ़ना
भला क्यों
तुम्हें खटकता है?
किसी का
एक सीढ़ी भी
ऊपर चढ़ना
क्यों तुम्हें
अखरता है?
इतना ज्यादा
मैलापन मन में
भला कैसे उपजाते हो?
बंधु! सच बताओ …
मेहनत करे कोई और
तो पसीना
तुमको क्यों आता है?
सफलता किसी को
तनिक भी मिलना
क्यों तुम्हारा
खून सुखाता है?
क्यों बेमतलब
यहाँ-वहाँ
अपनी टांग अड़ाते हो?
बंधु! सच बताओ …
तुम सदा ही चाहो
कि सब तुम्हारी ही
जय जयकार करें
तुम ही हो ‘सर्वोसर्वा’
सब सदा स्वीकार करें
आखिर क्यों
खुद पर
इतना इतराते हो?
बंधु! सच बताओ …
जो तुमने बोया
वो सब सदा
तुमने ही तो काटा है
भला कब किसने
तुमसे आकर
कुछ बांटा है?
फिर भला क्यों
दूसरे की थाली में
अपने दांत गड़ाते हो?
बंधु! सच बताओ …
खुद को ही
तुम तुर्रम खां समझो
ऐसी भी क्या मजबूरी है?
सब तुम्हारा ही
गुणगान करें
क्या ये
सदा जरूरी है?
क्यों बस
अपनी ही डपली
हर वक्त बजाते हो?
बंधु! सच बताओ …
कवि (डॉ.) शैलेश शुक्ला
दोणिमलै, बेल्लारी, कर्नाटक
8759411563
पंडित विनय कुमार की कविता
नदियों से बातचीत
तुम नदी हो
तुम्हें देखकर मन खुश हो जाता है हर रोज
तुम्हारे भीतर जीवन है
तुम जीवनदायिनी हो
तुम्हें देखकर अच्छी लगती है दुनिया
क्योंकि तुम सदैव प्रसन्न दिखती हो
तुम्हारे भीतर रहने वाले
सभी जीव- जंतु तृप्त रहते हैं
तुम्हारे भीतर कितना आनंद है ?
कल-कल निनादित करती,
जगत को प्रसन्न करती रहती हो हर वक्त;
तुम एक जीवन हो
और अनंत जीवन का सृजन करती हो तुम
तुम पयस्विनी हो धरा की
मैं तुमसे रोज बातें करता हूं
मैं तुम्हें रोज प्रणाम करता हूं
रोज राह में आते- जाते तुम्हें देखता हूं देर तक
लेकिन तुम मौन रहती हो
तुम्हारी भाषा नहीं समझ पाता मैं
मुझे भी देखती हो गौर से
देर तक
मेरी आंखों को
शायद मेरे भीतर के भावों को पढ़ती हो
हम से डरती भी हो तुम
तुम अबला हो
तुम असहाय हो
तुम सदियों से सताई गई हो
तुम दबाई गई हो
क्योंकि सारी उच्छृंखलता को
तुम ही वरण करती हो
इसीलिए तुम श्रेष्ठ हो !
हरेक संस्कार तुम्हारे सहयोग के बगैर
संपन्न नहीं होते
जन्म से लेकर अंतिम संस्कार में
तुम बार-बार पूजित होती हो
तुम मेरे कुटुंबी जन की तरह हो
तेरे चरणों में हम आकर कृतार्थ होते हैं
तुम्हारे आशीष के बगैर
नहीं संपन्न होता विवाह और अन्य मांगलिक कार्य
और हत्याएं – आत्म हत्याएं– तक
तुम्हारी गोद में ही तो होती हैं हर रोज…
अखबारों में खबरें आती रहती हैं
कि किसी युवती ने कूदकर आत्महत्या की है
तब तुम क्यों नहीं उठ खड़ी होती हो ?
धरा के इस दैहिक कष्ट से मुक्ति दिलाने के लिए —
शायद कभी मरने से रोक सको तुम।
कहीं न कहीं से हत्या कर तुम्हारी गोद में
फेंक देने की खबरें आती रहती हैं तब
क्यों न उसके अपराध का गवाह बन कर
उठ खड़ी होती हो तुम ?
तुम मां हो !
न जाने कब से तुम मेरे घर के सामने
बहती रही हो —
मेरे पुरखों ने तुम्हें शीश नवाए हैं
मेरे लिए, मेरे परिजनों के लिए
तुम ही तो जीवन बनी हो
तुम रहोगी– तभी हम रहेंगे
और रहेंगी हमारी आनेवाली पीढ़ियां…
हिन्दी शिक्षक
शीतला नगर रोड नंबर 3
पोस्ट गुलजार बाग
अगमकुआँ
पटना, बिहार
पंकज मिश्र ‘अटल‘ की कविता
हो चुकीं हैं आवाजें आजाद
वह
आ रहा है सबके बीच
महसूस हो गया
माहौल के मिजाज़ से
लोगों के चेहरों पे बदलने
लगे हैं रंग
बढ़ रही है छटपटाहट
कंपकंपा रहीं हैं आवाजें
थरथरा रहा है शोर भी
क्योंकि
फड़फड़ाने लगे हैं
वर्दियों में कैद कुछ उसूलधारी
जो कुछ देर के लिए
हो जाते हैं संवेदनहीन,
उसकी आंखों में
डूब चुकीं हैं संवेदनाएं
वह केवल खर्च करता है
उतने ही शब्द
जिनसे कायम रह सके
उसका तथाकथित अस्तित्व,
बना रहा है
पूरी जनता को अभ्यस्त, कि
मान ले नहीं है कोई दूसरा विकल्प
पी रहा है
सभी की आंखों की चमक
जिससे देख सकें
सब उसी की नज़र और नज़रिए से
और कुछ भी कहने के लिए
इस्तेमाल करें
उसी के आवंटित शब्द
वह वो चुका है
कुछ अदद शब्द और
बना दिया है भीड़ को गूंगा
वह चला रहा है
अपने ही तरीके से
हो चुकी शब्दमय भीड़ को
क्योंकि उसके शब्दों में
छिपा है तिलिस्म
और वह जानता है
बखूबी खेलना शब्दों से
मौन है भीड़
सोचती नहीं
न ही है देखती,
छा रही है धुंध
बिखर चुकीं हैं
आवाजें, दर्द और शोर
महसूस करने लगे हैं
कंकरीली ज़मीन को
माहौल में
बहती है गरमी पिघल कर
उड़ रहे हैं भाप बन कर
ढेरों लिजलिजे शब्द
बेचैन चेहरे और टांगों के हुजूम
बढ़ रहे हैं
काफ़ी तेज़ी से
उत्तेजित और
घबराए से
जंतर- मंतर की ओर
अब उनके पास हैं
अपने शब्द
अपनी चीखें
अपनी आवाजें
भर गए हैं हवा में, दिशाओं में
ढेरों बेख़ौफ़ शब्द
और दर्ज़ हो जाते हैं
अख़बारी हेडलाइंस में कि
आवाज़ें आजाद हो चुकीं हैं
डूब चुकी है भीड़ धुंध में क्योंकि
हो चुकीं हैं आवाज़ें आजाद,
आवाजें आजाद हो चुकीं हैं।
जवाहर नवोदय विद्यालय, सरभोग, बरपेटा, आसाम