भोजपुरी लोकगीतों में पलायन
डॉ. जितेंद्र कुमार यादव सहायक प्रोफेसर, मोतीलाल नेहरु कॉलेज दक्षिणी परिसर, डीयू, नई दिल्ली संपर्कः 9968124622 ईमेल: jite.jnu@gmail.com
शोध सार
भोजपुरी प्रदेश मे पलायन का एक लम्बा इतिहास रहा है। भोजपुरिया लोग कभी मुगलों के जमाने में फौज में भर्ती होने के लिए गये तो कभी गिरिमिटिया मजदूर के रूप में अंग्रे़जी उपनिवेशों के यातनाओं के शिकार हुए। औपनिवेशिक अर्थतंत्र से निपटने के लिए तो उन्होंने मौसमी प्रवास को अपना हथियार ही बना लिया था, जिसके सहारे वे अपनी जीवन रूपी गाड़ी को धक्का दे सके।[1] दरअसल, प्रवास को भोजपुरी समाज ने जीवन जीने की तकनीक के रूप मे विकसित किया था। जाहिर है कि आज भी भोजपुरी प्रदेश में व्यापक पैमाने पर श्रम-प्रवसन जारी है। इस इलाके की निम्नवर्गीय जातियां जीने के लिए आज भी दौड़ रही हैं और जब तक दौड़ रही हैं तभी तक जी भी रही हैं। यह दौड़ उनके जीवन का पर्याय बनी हुई है।
भोजपुरी प्रदेश के पलायन के लिए इस इलाके की घनी आबादी, भूमि पर जनसंख्या का दबाव, औपनिवेशिक अर्थतंत्र, जमींदारी प्रथा, महाजनी सभ्यता, आवागमन के साधनों का विकास आदि को प्रमुखता से गिनाया जाता है। परंतु ध्यान रहे कि यहां पलायन का मूल कारण संसाधनों का असमान बंटवारा है। इस इलाके की कृषक जातियों के हिस्से में जमीन का मामूली टुकड़ा था। ऊपर से तमाम तरह की सामाजिक गुलामी। ऐसी परिस्थितियों में प्रवास ही जीवन बचाने एक मात्र माध्यम था। पलायन यहां स्वेच्छा का विषय नहीं है। पलायन इनके लिए मजबूरी थी। इनका पलायन शिक्षा प्राप्त करने, जीवन स्तर सुधारने, पूंजी इकट्ठा करने के लिए नहीं किया गया। बल्कि जीवन की विपरीत परिस्थितियां पलायन करने के लिए मजबूर रही थीं। इसीलिए भोजपुरी प्रदेश में पलायन एक व्यापक परिघटना में बदल गई।
बीज शब्द: श्रम प्रवसन, विदेसिया संस्कृति, बटोही, मनिआर्डर अर्थतंन्न
प्रस्तावना
भोजपुरी लोक गीतों में श्रम-प्रवसन की पीड़ा की मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है। इन गीतों में पति के कलकत्ता जाने, वहां किसी परायी औरत से संबंध, और पति के इंतजार में स्त्री की विरह अभिव्यंजना की गई है। भोजपुरी प्रदेश में शादी करके नई-नवेली दुल्हन को घर में छोड़कर कलकत्ता जाने वालों की लम्बी तादात थी जो भोजपुरी लोक मानस का हिस्सा बन गई। भोजपुरी का बहुउद्धृत लोकगीत-‘लागा झुलनिया के धक्का, बलम कलकत्ता निकल गए।’ शादी करके पत्नी को घर लाने के तुरंत बाद ही पति कमाने के लिए निकल गया है। इसका लोकगीतों के माध्यम से लोकजनमानस में आने का तात्पर्य है कि उस समय तक प्रवास भोजपुरी की सामान्य परिघटना बन गई थी। तत्कालीन आर्थिक परिस्थितियों के कारण भोजपुरी प्रदेश का युवा शादी करने के तुरंत बाद जीविका के लिए परदेश जाने के लिए विवश है। ‘बिदेसिया’ की प्यारी सुंदरी भी कहती है,‘ ‘करि गवन मोहिं छोड़ि भवन, पिया गइलन पुरुब पेयान, ना मालूम केहि देस गइलन, तनी ना मिलत ठेकान।’
भोजपुरी के एक लोकगीत में नायिका कहती है मेरे पति पूर्व चले गए-
“पिया मोर गइले रामा पुरबी बिनिजिया,
कि देके गइले ना, एक सुगना खिलौना।
कि देके गइले ना।’’ [2]
भोजपुरी प्रदेश में ‘बिदेसिया संस्कृति’ उसकी आर्थिक स्थितियों की ऊपज थी। परदेश गए पति की याद में पत्नी अपने मन को विभिन्न माध्यमों से दिलासा दे रही है। भोजपुरी का एक प्रसिद्ध लोकगीत में कहा गया है कि,‘ रेलिया बैरन पिया के लिए जाए रे।’ रेल को शत्रु, सौत आदि कहने के तुरंत बाद स्त्री को पति के प्रवास कारणों का ज्ञान होता है; वह कहती कि न मेरा रेल शत्रु है और न ही जहाज, जिस पर चढ कर मेरा प्रियतम परदेश गया; बल्कि ‘बैरी’ तो पैसा ही है जिसके कारण मेरा प्रियतम मुझे छोड़कर परदेश में है-
‘‘रेलिया बैरन पिया के लिए जाय रे, रेलिया बैरन…
रेलिया न बैरी, से जहजिया ना बैरी से पइसवा बैरी ना
मोर सइया के बिलमावे से पइसवा बैरी ना’’[3]
भोजपुरी लोकमानस में कलकत्ता के बारे में कई तरीके की अफवाहे फैली हुई थीं, जिसमें वहां की औरतों का जादू-टोना जानना और पुरूष को मंतर मार कर भेड़ा बना लेने की कथा प्रसिद्ध है। भोजपुरी महिलाओं के लिए बंगाल एक मुहावरा है, जो विदेश गये ‘बिदेसी’ को कभी जादू-मंतर से भेड़ा बना लेता है। अपने प्रेम जाल में फंसा लेता है। मति मार लेता है-कलकत्ता। दिनेश कुशवाह की भिखारी ठाकुर की स्मृति में लिखी कविता ‘कलकत्ता’ की कुछ पंक्तियां-
“कलकत्ता मात्र एक शहर
नहीं है हमारे लिए
हमारे बचपन में यह
मां के मुंह से मुहावरों में फूटता था।
——
आदमी को मंतर मार कर
सुग्गा बना लेता है कलकत्ता
मेरा सिर सहलाते हुए कहती थी मां
बेटा किसी की बहन-बेटी को देखकर हंसना मत
उसके हाथ का दिया पान मत खाना।”[4]
भोजपुरी लोकगीत में एक औरत अपने पति को कलकत्ता जाने से मना कर रही है क्योंकि कलकत्ता में ‘रंडी’ रहती हैं जो नाच-गा कर उसके पति को अपने वश में कर लेगी-
‘कलकत्ता तू न जा राजा, हमार दिल कइसे लागी। ओही कलकतवा में रण्डी बसतु है, मोजरा करै दिन-राति।’
पति के परदेश में प्रवास के दौरान घर पर पत्नी को विभिन्न प्रकार की प्रताड़नाएं झेलनी पड़ती हैं। सासू-ननद आदि के द्वारा तमाम तरह के उलाहना दिया जाता है। शारदा सिन्हा के एक गीत में एक औरत अपने पति रोते हुए पत्र लिखवा रही है-‘छोटकी गोतिनिया मारे तनवा के बतिया, पतिया रोई-रोई न, लिखावे रजमतिया।’ सामंती समाज में पति के प्रवास के दौरान महिलाओं में असुरक्षा की भावना किस प्रकार है इसे भिखारी ठाकुर ने भी ‘बिदेसिया’ में दिखाया है। प्यारी सुंदरी कलकत्ता जा रहे ‘बिदेसी’ को मना करते हुए कह रही है-
‘‘पिया मोर, मत जा हो पुरुबवा।
पुरुब देश के टोना बेसी बा, पानी बहुत कमजोर।
सुनत बानी आंख पानी देत बा, सारी भईल सरबोर।
एक नाथ बिनु मन अनाथ रही, घुसी महल में चोर।
कहत ‘भिखारी’ हमरी ओर देखऽ, कतिना करी निहोर?’’[5]
भोजपुरी के एक जातीय ‘गोड़ऊ गीत’ में एक गोंड़ जाति की औरत अपने बिदेस गए पति को खरी-खोटी सुना रही है। पति को परदेश गये बहुत दिन हो गया है तथा वह घर पर अकेली है। वह कह रही है कि तुम जिस जांघ से चल रहे हो वह जांघ थक जाय; और जिस हाथ से तुमने मेरे मांग में सिंदुर डाला उस हाथ में ‘घून’ लग जाय। अर्थात् अगर तुम्हे गंवना करा कर के विदेश ही जाना था तो मुझसे शादी ही क्यों किए-
‘पिया मोर गइले बिदेसवा; कइके रे गवनवां।
जांघ तोर थाके रे पियवा; बहिया लागो रे घुनवां।
जाहि हाथे डलले रे मुअना; सिर में सेनुरवा।’[6]
लोकगीतों में स्त्रियों की वेदना का का सबसे मुख्य कारण तत्कालीन समय की विकट स्थितियां थीं। इन लोकगीतों में निम्न जातियों की औरतों की वेदना की मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है। एक तरफ तो आर्थिक स्थितियां थी दूसरी तरफ इन औरतों को अनेक सामाजिक प्रताड़नाओं का सामना करना पड़ता था, जिसमें उनकी ‘यौनिकता’ से जुड़ी समस्याएं प्रमुख थीं।
परदेश गए पति का इंतजार कर रही स्त्री अपने मन को दिलासा दिला रही है कि कभी तो मेरा पति आएगा। पति के आने की उम्मीद ही उसके जीवन की डोर है जो उसे ‘टूटने’ नहीं देती है। भोजपुरी ‘रोपनी गीत’ (भोजपुरी का एक श्रम-गीत) में एक औरत एक मनचला युवक से कहती है कि मेरा पति जिस दिन आ गया उस दिन तुम्हें ‘पनही’ अर्थात् जूता से पिटवाऊंगी-‘कबही त लवटी हैं मोर बनिजरवा, पनही से तोहि के पिटवइबो हो राम।’ कभी कहती है कि मेरा पति ‘बिदेस’ से मेरे लिए बहुत सारा सामान, टिकुली आदि लेकर आएगा, ‘सइयां मोरे गइले रामा, पुरुबी बनिजिया, से लेइ हो गइले ना, रस बेंदुली टिकुलिया, से लेइ हो अइहेना।’
पूर्वी, बिरहा, बरहमासा, कजरी, अलचारी, बारहमासा, जतसार व जातीय गीतों में भोजपुरी प्रदेश की श्रम-प्रवसन की पीड़ा की मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है। भिखारी ठाकुर जिस समय ‘बिदेसिया’ को कल्पित कर रहे थे, उससे पहले ही भोजपुरी लोकगीतों में प्रवासी जीवन की पीड़ा की मार्मिक अभव्यिक्ति मिलती है। भिखारी ठाकुर ने इन्हीं गानों को ‘बिदेसिया’ रंगमंच का हिस्सा बनाकर एक नया आयाम दिया। उन्होंने ‘बिदेसिया’ में इन लोकगीतों का सार्थक उपयोग किया है।
भिखारी ठाकुर ने श्रम-प्रवसन पर केन्द्रित ‘बिदेसिया’ नामक नाटक लिखा। इस नाटक का नाम ‘बहरा बहार’ था परंतु जनता ने इसे ‘बिदेसिया’ नाम से अभिहित किया। ‘बिदेसिया’ नाटक का नायक बिदेसी का गवना हुए कुछ दिन ही हुआ है और वह कलकत्ता जाने के लिए अपनी पत्नी से आग्रह कर रहा है। बिदेसी के कई मित्र भी कलकत्ता और आसाम गये हैं, जिसका उदाहरण देकर वह अपनी पत्नी ‘प्यारी सुंदरी’ को मना रहा है:
‘‘बिदेसी-अनेरे गोड़ पर फुट-फुट गिरतारू। एहिजे दोस्त राम बाड़न। आसाम में माटी काटे गइलन, त बारह बरिस रह गइलन। उनका जनाना के कवनो गम-फिकिर नइखे। तू त बुझाता कि दो चार महीना में प्राण त्याग देबू।’’[7]
नई नवेली दुल्हन को उदाहरण भी दिया तो बारह बरिस आसाम में माटी काटने गये दोस्त का। और इस सहजता से जैसे यह आम बात हो। बिदेसी समझ रहा है कि एक बार कलकत्ता चले जाने पर वापसी कब होगी राम ही जानते हैं। पंद्रह दिन का दिलासा देकर कलकत्ता भागने की फिराक में लगा बिदेसी के बारे में प्यारी सुंदरी भी समझ रही है कि कलकत्ता जाने का तात्पर्य क्या है? तभी तो पति से निहोरा करते हुए कहती है-
‘‘पिया मोर, मति जा हो पुरुबवा।
पुरुब देश में टोना बेसी बा, पानी बहुत कमजोर।’’[8]
पूरब देश की यह शिक्षा उसे स्त्रीत्व के साथ मिली हुई है, नहीं तो गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने के साथ ही भोजपुरी इलाके की एक बच्ची (भोजपुरी प्रदेश में बाल विवाह का प्रचलन था) कलकत्ता के बारे में इतना कुछ कैसे जानती? इससे यह जाहिर होता है कि भोजपुरी प्रदेश में कलकत्ता ‘हौवा’ रहा होगा।
‘बिदेसिया’ नाटक से जाहिर है कि रेल ने भोजपुरी प्रदेश खासकर सारण की गतिशिलता को आसान बना दिया था। रेल न होती तो क्या 60 साल के बटोही कलकत्ता जाते? दरअसल यही कारण है कि सारण के किसान सबसे पहले बाहरी दुनिया के संपर्क में आये। प्रवजन में रेल की बहुत बड़ी भूमिका है। यह श्रम-प्रवसन का कोई कारक नहीं है परंतु श्रम-प्रवसन को इसने सुगम बना दिया है। आज भी गरीबों-मजदूरों-किसानों के यातायात का एक मात्र साधन रेल ही है।
घर में अकेली जवान औरत की हालत क्या होगी, यह आसानी से समझा जा सकता है। पति की अनुपस्थिति में प्यारी सुंदरी के सामने एक तो घर-गृहस्थी चलाने की समस्या है, साथ ही अभागी जवानी, जिसे पति की अनुपस्थिति में सम्भालना बड़ा मुशकल काम है। कलकत्ता जाने का प्रस्ताव कर रहे पति के सामने भी उसने इस समस्या को रखा है-
‘‘गवना करा के देस जइबऽ बिरानी
केकरा पर छोड़ि कर टुटही पलानी
केकरा से आग मांगब, केकरा से पानी
खाला ऊंचा गोड़ परी चढ़ल बा जवानी।’’[9]
प्यारी सुंदरी ने पति के कलकत्ता जाते वक्त जो शंका जाहिर की थी कि ‘खाला ऊंचा गोड़ परी चढ़ल बा जवानी।’ वह भिखारी ठाकुर के एक अन्य नाटक ‘गबरघिचोर’ में सच साबित हो गया। गलीज का कलकत्ता में लम्बा प्रवास और न खत्म होने वाले इंतजार में जवानी सामाजिक मर्यादा की सीमा को लांघ गई। परिणाम, गलीज बहू का गड़बड़ी से संबंध, जिससे गबरघिचोर पैदा हुआ। भोजपुरी प्रदेश में उस समय बिदेस गये बिदेसी की प्रतीक्षा और इस प्रतीक्षा का बांध टूटने के साथ ही अनेक गबरघिचोर पैदा हुए होगें।
बहरहाल, कौन चाहता है नव व्याहता पत्नी को छोड़कर दूर देश जाना। परंतु सच ही कहा गया है कि मनुष्य परिस्थितियों का दास होता है। उस समय तक तो श्रम-प्रवसन भोजपुरी प्रदेश की नियति बन चुकी थी। चाह कर भी इससे नहीं बचा जा सकता था। अतः बिदेसी चोरी-छुपे कलकत्ता कमाने चला जाता है। इसके बाद प्यारी सुंदरी का वियोग वर्णन शुरू होता है, जो ‘बिदेसिया’ नाटक का सबसे मार्मिक पक्ष है। ऐसा वियोग वर्णन कोई लोक कलाकार ही कर सकता है। प्यारी सुंदरी का वियोग वर्णन नागमती के वियोग वर्णन से भी ज्यादा मार्मिक है –
‘‘आवेला आसाढ़ मास, लागेला अधिक आस, बरखा में पिया घरे रहितन बटोहिया।
पिया अइतन बुनिया में,राखि लिहतन दुनियां में, अखड़ेला अधिका सवनवां बटोहिया।
आसिन महिनवा के, कड़ा घाम दिनवां के, लुकवा समानवां बुझाला हो बटोहिया।
माघ आई बाघवा, कंपावे लागी माघवा, त हाड़वा में जाड़वा समाई हो बटोहिया।’’[10]
भोजपुरी में एक लोकोक्ति है ‘माघवा ह बघवा, भदउवा अखिकाड़वा।’ प्यारी सुंदरी का दुख आज के वातानुकूलित युग की समस्याओं से अलग है। प्यारी सुंदरी का विरह वर्णन गृहस्थ जीवन की चिंताओं से उपजा हुआ है। पति को याद करते हुए बारहों मास का जीवन, उसमें पति के सहभागिता की जरूरत और उसके इस संकट का विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है। पति की अनुपस्थिति में एक गृहस्थ स्त्री को किन-किन समस्याओं का सामना करना पड़ता है, भिखारी ठाकुर ने इन सब पर अपनी सूक्ष्म नजर डाली है।
भिखारी ठाकुर की रचनाओं के अध्ययन से जाहिर होता है कि हिन्दी के कालजयी कवियों और साहित्यकारों की रचनाओं से परिचित थे। उन पर कबीर दास, जायसी और प्रेमचंद का प्रभाव दिखाई देता है। जायसी की नागमति वियोग वर्णन के समान उन्होंने भी बिदेसी की याद में तड़पती प्यारी सुंदरी पर ‘बाहरमासा’ लिखा है। परंतु यह नागमति वियोग वर्णन से आगे की रचना है। दरअसल, भिखारी ठाकुर की समस्याएं भाव जगत की नहीं भौतिक जगत की हैं। इसी कारण वियोग में तड़पती, पति का इंतजार करती नायिका का संदेश कोई तोता, सुग्गा या बादल नहीं ले जाता, बल्कि ‘बटोही’ के रूप में मनुष्य ले जाता है। भोजपुरी प्रदेश में ‘बटोहिया’ संस्कृति ‘बिदेसिया’ संस्कृति की ऊपज थी। संचार-साधन विहीन समय में बटोही का कितना महत्व रहा होगा, कल्पना द्वारा समझा जा सकता है। भिखारी ठाकुर ने बटोही के महत्व को समझा था। इसलिए बटोही ‘बिदेसिया’ नाटक का सबसे गरिमामय पात्र है।
कलकत्ता में बटोही की मुलाकात ‘बिदेसी’ से होती है। वह धर्म, समाज, परिवार आदि तमाम तरह के डर-भय, मोह-माया आदि को दिखाकर किसी प्रकार बिदेसी को कलकत्ता से वापस भेजता है। यह अहसान कबूलना हुआ कि ‘बटोही’ का उपकार भोजपुरी प्रदेश कभी नहीं भूल पाएगा। बटोही, अनेकों विधवाओं के सुहाग लौटाये होगें। बाप, भाई, बेटा आदि रिस्तों को जिंदा किये होगें-बटोही। ‘बिदेसिया’ दरअसल पारिवारिक संबंधों की चिंता से ऊपजा है। पारिवारिक संबंध उसके लिए सबसे महत्वपूर्ण हैं। बिदेसिया में एक ऐसे समाज का दर्द था जो अपना गांव-जवार छोड़ कर पहली बार दूर देश में श्रम-प्रवसन कर रहा था। श्रम-प्रवसन आज भी हो रहा है परंतु आज बिदेसिया नहीं लिखा जा सकता, क्योंकि प्रवास आज जीवन का सामान्य क्रिया-कलाप हो गया है।
संदर्भ सूची
- Anand A. Young, 1989, The Limited Raj: Agrarian Relations in Colonial India, Saran District, 1793-1920, Delhi
- डॉ कृष्णदेव उपाध्याय, 1957,भोजपुरी ग्राम्यगीत] साहित्य भवन, इलाहाबाद
- दिनेश कुशवाहा, 2007, इसी काया में मोक्ष,राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
- जार्ज ए. ग्रियर्सन, 1886, सम बिहारी फॉक सांग्स, एसियाटिक सोसायटी, कलकत्ता
- भिखारी ठाकुर रचनावली, 2005, नागेंद्र प्रसाद सिंह, प्रो विरेंद्र नारायण यादव, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना
- Anand A. Young, 1989, The Limited Raj: Agrarian Relations in Colonial India, Saran District, 1793-1920, Delhi ↑
- डॉ कृष्णदेव उपाध्याय, 1957,भोजपुरी ग्राम्यगीत] साहित्य भवन, इलाहाबाद ↑
- भोजपुरी का एक प्रसिद्ध लोकगीत जिसे बनारस के आप पास इलाकों में गाया जाता है। ↑
- दिनेश कुशवाहा, 2007, इसी काया में मोक्ष,राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली ↑
- भिखारी ठाकुर रचनावली, 2005, नागेंद्र प्रसाद सिंह, प्रो विरेंद्र नारायण यादव, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना ↑
- जार्ज ए. ग्रियर्सन, 1886, सम बिहारी फॉक सांग्स, एसियाटिक सोसायटी, कलकत्ता ↑
- भिखारी ठाकुर रचनावली, 2005, नागेंद्र प्रसाद सिंह, प्रो विरेंद्र नारायण यादव, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना ↑
- भिखारी ठाकुर रचनावली, 2005, नागेंद्र प्रसाद सिंह, प्रो विरेंद्र नारायण यादव, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना ↑
- भिखारी ठाकुर रचनावली, 2005, नागेंद्र प्रसाद सिंह, प्रो विरेंद्र नारायण यादव, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना ↑
-
भिखारी ठाकुर रचनावली, 2005, नागेंद्र प्रसाद सिंह, प्रो विरेंद्र नारायण यादव, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना
↑
<
p style=”text-align: justify;”>