तरक़्कीपसंद तहरीक और फ़ैज़ अहमद  फ़ैज़

अनिरुद्ध कुमार यादव
पीएच. डी. दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली

शोध सार

 तरक्क़ी पसंद तहरीक की स्थापना के साथ साहित्य समेत सभी क्षेत्रों में बदलाव के चिह्न दिखलाई पड़ते है।ये चिह्न कौन से थे इनकी पड़ताल की गई है साथ ही इन बिंदुओं पर फैज़ कितने खरे उतरते हैं इसको भी रेखांकित किया गया है। सिर्फ उर्दू गजल गो बल्कि हिन्दी कवि में यह परिवर्तन कैसे रहा था और इनमें क्या समानता थी इसको भी उदाहरण सहित उदघाटित किया गया है।

की वर्ड

तरक्क़ी पसंद तहरीक, फैज़ अहमद फैज़, प्रगतिशील लेखक संघ,प्रेमचंद,सर्वहारा वर्ग, शोषणमूलक व्यवस्था.

 

 

शोध विस्तार

 

तरक़्कीपसंद तहरीक को हिंदी साहित्‍य में प्रगतिशील आन्‍दोलन के नाम से जाना जाता है। प्रगतिशील आंदोलन एक वैचारिक आंदोलन था। जो सामूहिकता, वर्ग-संघर्ष और सर्वहारा की विजय को लेकर चला। इसे फ्रांस, इंग्‍लैण्‍ड से प्रदूर्भूत मानना तर्क संगत प्रतीत नहीं होता, क्‍योंकि यह परिस्थितियों की उपज था। ‘‘हमारे देश के हर भाग में प्रगतिशील साहित्‍यांदोलन एक अपरिहार्य ऐतिहासिक घटना के रूप में उभर रहा था। हमारी संस्‍कृति के अतीत और वर्तमान को इस नए विकास की अपेक्षा थी। हम बाहर से कोई अजनबी दाना लाकर अपने खेतों में नहीं बो रहे थे। नए साहित्‍य के बीज हमारे देश के ही विवेकशील और देशभक्‍त बुद्धिजीवियों के मन में मौजूद थे।’’[1]

            लंदन में 1935 ई. में पहला प्रगतिशील लेखक संघ भारतीय विद्यार्थियों द्वारा स्‍थापित हुआ। इसमें डॉ. ज्‍योतिघोष, डॉ. मुल्‍कराज आनंद, डॉ. सज्‍जाद ज़हीर आदि प्रमुख थे। यहीं कार्यकर्ता भारत आए और यहाँ भी प्रगतिशील लेखक संघ की स्‍थापना के लिए स्‍वयं और दूसरों को कार्यरत किए। पंजाब (लाहौर) में इस संघ की स्‍थापना करने में फ़ैज़ का महत्‍वपूर्ण योगदान था। ‘‘इसके बाद के कुछ दिन फ़ै़ज़ अहमद फ़ैज़ के मार्गदर्शन में लाहौर के विभिन्‍न लेखकों से उनके घर जाकर मिलने में बीते’’[2]  लाहौर में प्रगतिशील लेखक संघ की स्‍थापना अपने आप में बहुत महत्‍वपूर्ण है, जिसकी प्रेरणा से ही अन्‍य स्‍थानों पर भी लेखकों को एकत्र किया जाने लगा। जिससे इस आन्‍दोलन को मजबूती मिली। ‘‘लेकिन हममें से किसी को भी यह अनुमान नहीं था कि लाहौर की धरती पर यह वह पहला डगमगाता हुआ क़दम है जो बाद के उर्दू अदब के खलिहान में सुनहरी बालियों का इतना बड़ा अम्‍बार लगा देगा। कुछ साल के अन्‍दर-अन्‍दर यहीं से कृश्‍न चंदर फ़ैज़, बेदी, नदीम कासगी, गीरजा, अदीब, ज़हीर-कश्‍मीरी, साहिर, फिक्र, आरिफ़, बगैरह जैसे शायरों और अदीबों ने तरक़्क़ीपसंद अदब के परचम को इतना ऊँचा किया कि उसकी खिलती हुई बुलन्दियों ने देश के दूसरे हिस्‍सों में अदीबों के लिए क़ाबिले-रश्‍क बन गई।’’ [3]

            अप्रैल 1930 ई. में प्रगतिशील लेखक संघ की भारत में विधिवत स्‍थापना के लिए पहला अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ सम्‍मेलन लखनऊ में हुआ। इसके सभापति मुंशी प्रेमचंद चुने गए। हिंदी और उर्दू के साहित्‍यकारों, बोलियों और अन्‍य भारतीय भाषाओं के रचनाकारों और बुद्धिजीवियों ने बहुत बड़ी संख्‍या में इस प्रथम सम्‍मेलन का स्‍वागत किया। इस सम्‍मेलन से सुनियाजित और संगठित आन्‍दोलन के रूप में प्रगतिवाद का आरम्‍भ हुआ। उसे प्रेमचंद, पंत, निराला, इकबाल, दिनकर, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, साहिर लुधियानवी,ख्‍वाजा अहमद अब्‍बास आदि कितने ही लेखकों और कवियों का सहयोग मिलने लगा था।

            इस आन्‍दोलन में पहली बार किसानों, मजदूरों, दलितों आदि के लिए अधिकारों की मांग की गई। इससे पहले जिन्‍हें साधारण समझकर साहित्‍य मे स्‍थान नहीं दिया जाता था, अब उन्‍हें स्‍थान दिया जाने लगा। इसके अतिरिक्‍त उनके जीवन के दु:ख और अभावों का उल्‍लेख कर इन्‍हें व्‍यवस्‍था में परिवर्तन के लिए प्ररित किया गया। निराला पंत और मज़ाज़ लखनवी भी अपनी स्‍वाभाविक गति से अपनी रचनाओं में यथार्थ और नई सामाजिक चेतना का परिचय दे रहे थे। इससे पहले का साहित्‍यकार साहित्‍य को व्‍यैक्‍तिक मानकर कल्‍पना लोक में विचरण करता था, परन्‍तु अब यथार्थता का चित्रण होने लगा। प्रगतिशील साहित्‍य से पहले रचनाओं में किसानों, मजदूरों, स्त्रियों आदि पर किए जाने वाले अत्‍याचारों का वर्णन तो किया जाता था, परन्‍तु इससे छुटकारा पाने का मार्ग नहीं दिखाया गया था। अब क्रान्ति का मार्ग दिखाया जाने लगा। क्रान्ति के लिए एकता का होना अति आवश्‍यक है इसलिए एकता का भी नारा दिया गया। यह पहली बार साहित्‍य में दिखता है, कि किसान और मजदूर, त्रासदीपूर्ण जीवन जीने के लिए नहीं बल्कि एक बदलाव की लड़ाई में लगे हुए है। मज़ाज़ लखनवी की इस गज़ल में यह बात स्‍पष्‍ट रूप से देखी जा सकती है-

‘‘तेरे माथे पे ये आंचल बहुत ही खूब है, लेकिन

तू इस आंचल का एक परचम बना लेती तो अच्‍छा था

तेरी नीची निगाहें खुद तेरी अस्‍मत की मुहाफिज है

तू इस नश्‍तर की तेजी आजमा लेती तो अच्‍छा था।’’

            अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ का दूसरा सम्‍मेलन 25 दिसंबर, 1930 को कलकत्ता में हुआ। इस सम्‍मेलन के लिए रवीन्‍द्रनाथ टैंगोर को अध्‍यक्ष बनाया गया। इस काल में फासीवाद का उभार साम्राज्‍यवादी युद्ध तथा ब्रिटिश सरकार के दमन के विरोध में लेखनी चलाई गयी। इस काल के प्रसिद्ध आदिबों में अब्‍दुल अलीम, अहमद अली, अली सरदार जाफरी, फ़ैज, मज़ाज़ लखनवी आ‍दि थे। इस समय ब्रिटिश सरकार के अत्‍याचारों से मुक्‍ति पाने के लिए जनता का आह्वाहन किया गया। उदाहरण के तौर पर मोहिउद्दीन मख्दूम की यह कविता-

‘‘ये ज़ंग है, ज़ंगे आज़ादी, आज़ादी के परचम के तले

महकूनों की मज़लूमों की, दहकानों की मज़दूरों की

ये ज़ंग है, ज़ंगे आज़ादी के परचम के तले’’

इसी प्रकार फ़ैज़ की एक नज़्म है-

‘‘बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे

बोल, ज़बाँ अब एक तेरी है

तेरा सुतवाँ जिस्‍म है तेरा

बोल कि जां अब तक तेरी है’’[4]

 

इस उदाहरण में फ़ैज़ अत्‍याचारों के खिलाफ आवाज उठाने के लिए उत्‍साहित करते हैं।

            जब भी किसी जन आन्‍दोलन की शुरूआत होती है, तो उसमें प्रचुर मात्रा में गीत गाए जाते हैं। गीत समूह में गाया जाता है। गीत आसानी से जनस्‍मृतियों का हिस्‍सा बन जाती है, इससे आन्‍दोलन को व्‍यापक स्‍तर पर जन समर्थन जुटाने में सहायता पहुँचती है। तरक़्क़ीपसन्‍द जितने भी साहित्‍यकार थे, वे बड़े पैमाने पर तराना लिखते है। उदाहरण-

‘‘बोल अरी ओ धरती बोल, राज सिंहासन डामाडोल’’

-मज़ाज़ लखनवी

“भगत सिंह इस बार न लेना काया भारतवासी की

देश भक्‍ति के लिए आज भी सजा मिलेगी फांसी की”

                                     -शंकर शैलेन्‍द्र

“दरबार-ए-वतन में जब इक दिन सब जाने वाले जाएंगे

कुछ अपनी सज़ा को पहुँचेगे, कुछ अपनी जज़ा ले जाएंगे

ऐ ख़ाक-नशीनों! उठ बैठो, वो वक़्त क़रीब आ पहुँचा है

जब तख्‍़त गिराए जाएंगे, जब ताज उछाले जाएंगे”[5]

                                                            -फ़ैज अहमद फ़ैज़

इसके अतिरिक्‍त अन्‍य तरक़्कीपसंद आदिबों में भी चेतना का स्‍वर दिखाई देता है। उदाहरण-

‘‘मौत जब आ के कोई शम्‍मा बुझा देती है

ज़ि‍न्‍दगी एक कंवल और खिला देती है’’

                                                -अली सरदार ज़ाफ़री

‘‘काम है मेरा तगय्युर नाम है मेरा शबाब

मेरानाम इन्‍कलाब व इन्‍कलाब व इन्‍कलाब’’

                                                -ज़ोश मलीहावादी

इस प्रकार से सभी तरक़्क़ीपसंद साहित्‍यकारों ने शोषण, अत्‍याचार से पिस रही जनता का वास्‍तविक चित्रण अपनी रचनाओं में किया, और जनता को संगठित कर इन सभी के विरोध में खड़ा किया।

नये विषय पुरानी शैली में और पुराने विषय नए ढंग से प्रस्तुत करने का जो कला कौशल फ़ैज़ को प्राप्‍त है, आधुनिक काल के बहुत कम शायर उसकी गर्द को पहुँचते हैं। उदाहरण-

“तूने देखी है वो पेशानी, वो रुख्सार, वो होंट

ज़ि‍न्‍दगी जिनके तसत्व्वुरर में लुटा दी हमने

हमने इस इश्‍क़ में क्‍या खोया है, क्‍या पाया है

जुनु तेरे और को समझाऊ तो समझा न सकूं” -फ़ैज़ 

फ़ैज़ महबूब, आशिक़, रकीब़ और इश्‍क़ के मुआमलों तक ही सीमित नहीं, फ़ैज़ ने हर जगह नई और पुरानी बातों और नई और पुरानी शैली का बड़ा सुन्‍दर समन्‍वय प्रस्‍तुत किया है। उदाहरण-

“हम परवरिश-ए-लोह-ए-कलम करते रहेंगे जो दिल पर गुज़रती है रक़म करते रहेंगे।”

 -फ़ैज़

“हम तो ठहरे अजनबी कितनी मदारतो के बाद

फिर बनेगें आसना कितनी मुलाकातो के बाद

फ़ैज़ जो कहने गए थे उनसे जां सदका किए

अनकही ही रह गई ओ बात सब बातों के बाद”

– ‘ढाका से वापसी पर’

“मुझसे पहली सी मुहब्‍बत मेरे महबूब न मांग

मैंने समझा था कि तू है तो दरख़्शा है हयात

तेरा ग़म है तो ग़म-ए- दहर का झगड़ा क्‍या है

तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात

तेरी आंधो के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है ?

तू जो मिल जाये तो तकदीर निगू हो जाय”

       अब मैं सीधे फ़ैज़ की शायरी की ओर आता हूं, जिसके पीछे वर्षों बल्कि सदियों की साहित्यिक पूंजी है। स्‍वयं साहित्‍य और समाज दोनों मिलकर वर्षों तपस्‍या करते हैं,तब जाकर ऐसी मन्‍त्र-मुग्‍ध कर देने वाली शायरी जन्‍म लेती है। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ आधुनिक काल के सबसे लोकप्रिय शायरों में से एक है। इनकी विशेषता यह है कि एक तरफ आम परम्‍परा से भी जड़े हुए है और दूसरी तरफ आधुनिक शायरों से भी इनकी यहीं विशेषता इन्‍हें अन्‍य तरक़्क़ीपसंद आदिबों से अलग करती है। फ़ैज़ अपने से पूर्व प्रचलित परम्‍परा- इश्‍क, प्रेम…. का वर्णन तब करते है, परन्‍तु बहुत ही चतुराई के साथ उसमें नया अर्थ पिरो देते हैं। उदाहरण-

“दिया है दिल अगर उसको बरार है क्‍या कहिए

हुआ करीब तो हो, नामवर है क्‍या कहिए”

      # # #        ###             

‘‘हम तो ठहरे अजनबी कितनी मुलाक़ातों के बाद

फिर बनेंगे आशना कितनी मुलाक़ातों के बाद’’ [6]

‘‘मुझसे पहली-सी मुहब्‍बत मेरी महबूब न मांग

और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्‍बत के सिवा’’ [7]

फ़ैज़ अपने लिखने के शुरूआती दिनों में रोमानियत से भरी कविताएँ लिखते थे, परन्‍तु जल्‍द ही वे इससे मुक्‍त हो गए।जैसे इस उदाहरण में देखिए-

“लेकिन उस शोख के आहिस्‍ता से खुलते हुए होंट

हाए उस जिस्‍म के कमबख्त दिलआवेज़ खुतूत” [8]

फ़ैज़ ने अपनी शायरी में नई उपमाओं और नए प्रतीकों का भी प्रयोग करते हैं। जो अन्‍य शायरों में देखने को नहीं मिलती-

‘‘ये गलियों के आवारा बेकार कुत्ते ये चाहें तो दुनिया को अपना बनाते

कि बख़्शा गया जिनको ज़ौक-ए-ग़दाई ये आकाओं की हडि्डयाँ तक चबा ले

ज़माने की फटकार सरागाया इनका कोई इनको एहसासे-ज़िल्‍लत दिला दे

जहां भर की धुतकार इनकी कमाई‍ कोई इनकी सोई हुई दुम हिला दे’’ [9]

यहाँ कुत्ते उन बेघर लोगों के प्रतीक हैं जो अपनी रातें फुटपाथ पर बिताते हैं, उसी प्रकार इसमें (नज्म) जिंदगी का यथार्थ भी है।

लेकिन-

            “यों न था, मैंने फकत चाहा था, यों हो जाए

            और भी दुख हैं ज़माने में मुहब्‍बत के सिवा

            गा-बजा बिकते हुए कूची बाज़ार में जिस्‍म

            खाक में लिथड़े हुए, घून में नहलाए हुए

            पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से

            लौट जाती है इधर को भी नज़र क्‍या कीजे

            मुझसे पहली-सी मुहब्‍बत मेरी महबूत न मांग।”

रोमानियत का उदाहरण-

“लेकिन उस शोख़ के आहिस्‍ता से खुलते हुए होंट

हाए उस जिस्‍म के कमबख्‍  दिलावेज खुतूत

आप ही कहिए कहीं ऐसे भी अफ़सूं होंगे

अपना मौजुए सुखन इनके सिवा और नहीं

तबए-शायर का वतन इनके सिवा और नहीं।”

ग़ज़ले– फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने बहुत शानदार ग़ज़ले भी लिखी है-

“गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौबहार चले

चले भी आओ कि गुलसन का कारोबार चले”

“मुक़ाम फै़ज़ कोई राह में जंचता ही नहीं

जो कु-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले।”

मता-ए-लौहो कदम छिन गई तो क्‍या ग़म है

कि तूने-दिल में डूबो ली है मैंने मख़दूम कयार में”

‘‘आप की याद आती रही रात भर

चांदनी दिल दुखाती रही रात भर

गाह जलती हुई गाह बुझती हुई

शम-ए-गम झिलमिलाती रही रात भर।’’

इन उदाहरणों में परिवर्तन का संकेत भी छुपा हुआ है।

            तरक़्कीपसंद आदिबों के लिए आजादी का अर्थ सिर्फ सरकार के शोषणों, अत्‍याचारों से छुटकारा पाना नहीं था, बल्कि मनुष्य के द्वारा मनुष्‍य के शोषण से मुक्‍ति थी। आजादी फ़ैज़ के लिए आजादी के रूप में नहीं बल्कि एक सदमें केरूप में आयी थी। आजादी नामक नज्‍म में यह रूप स्‍पष्‍ट देखा जा सकता है-

“ये दाग दाग उजाला ये शबगज़ीदा सहर

वो इंतजार था जिस का ये वो सहर तो नहीं

ये ओ सहर तो नहीं कि जिसकी आरजू लेकर

चले ये यार कि मिल आयेगी कहीं न कहीं”[10]

यहाँ स्‍पष्‍ट है, कि जिस आजादी की चाह फ़ैज़ रखते थे। वह उन्हें नहीं मिल पाती।

            फ़ैज़ लोगों के हित में लड़ते रहे, जिससे उनको नौकरी से हाथ धोना ही पड़ा और इसी के चलते कई बार जेल और निर्वासन कष्‍ट भी उठाना पड़ा। फ़ैज़ ने जेल में रहकर भी लिखा करते।‘ज़िन्‍दानामा’ ऐसी ही पुस्‍तक है। ‘दस्‍ते सबां’ जेल में लिखी दूसरी पुस्‍तक थी। जिस पर सज्‍जात ज़हीर ने लिखा है- ‘बहुत अरसा गुजर जाने के बाद जब लोग रावलपिंडी सा‍ज़िश के मुकद्दमे को भूल जायेगे और पाकिस्‍तान का मुवर्रिख 1952 के अहम वाक़यात पर नजर डाले तो ग़ालिब इस साल का सबसे अहम तारीख़ी वाक़या मज़्मों की इस छोटी सी किताब की इशाअत को ही क़रार दिया जायेगा।’  इससे फ़ैज़ की मूल्‍यवत्ता का बोध होता है। जेल में रहकर फ़ैज़ पाकिस्‍तान के शासन के विरोध में आवाज उठाते रहे। विद्रोह करने को उकसाती उनकी यह नज़्म काफी लोकप्रिय है-

            ‘‘हम देखेंगे ला‍ज़िम है कि हम भी देखेंगे

सब ताज उछाले जाएंगे सब तख्‍़त गिराए जाएंगे’’[11]

विद्रोह और प्रेम दोनों की निस्वार्थ कर्म की मांग करते है। क्रान्ति और प्रेम को एक तरह से महसूस कर पाना यह फ़ैज़ की बहुत बड़ी विशेषता है जो उन्‍हें तरक़्क़ीपसंद साहित्‍यकारों से अलग करती है। उदाहरण-

            ‘गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौबहार चले

चले भी आओ के गुलशन का कारोबार चले’ [12]

‘मुक़ाम फ़ैज़ कोई राह में जँचता ही नहीं

जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले।’[13]

फ़ैज़ की दृष्‍टि अपने देश पर ही नहीं थी, बल्कि वे संसार के अन्‍य देशों को भी देखते थे। जिस प्रकार स्‍वदेश की जनता के दु:ख दर्द के साथ घड़े हुए उसी प्रकार संसार के अन्‍य देशों की जनता जो आजादी की मांग कर रही थी। फ़ैज़ इन सबके देखकर बड़े होते है। अफ्रीका के नश्‍ल विरोधी आन्‍दोलन का समर्थन किया और Africa come back नामक कविता लिखी। ईरानी में जो  सरकारी  तंत्र खिलाफ के लिए अंदोलन हुआ उसमें छात्रों ने बड़ी संख्‍या में भाग लिया था। उनकी याद में आपने ‘ईरानी तुलबा के नाम’शीर्षक से नज़्म लिखी। इसी प्रकार फिलिस्‍तीन, बरूत और बांग्‍लादेश पर आपने नज़्मे लिखी। उदाहरण-

‘‘आ जाओ, मैंने सुन ली तेरे ढोल की तरंग

आ जाओ, मस्‍त हो गई मेरे लहू की ताल

आ जाओ, एफ्रीका’’[14] 

इस ज़माने में इप्‍टा का आन्‍दोलन भी शुरू हुआ। इसका केन्‍द्र बम्‍बई इसी प्रकार आन्‍ध्र प्रदेश, बंगाल, यू.पी., और पंजाब में भी थियेटर सफल स्‍थापना हुई। थियेटर में काम करने वाले राजनीति से भी होते थे। इसलिए गीतों, नाचों और नाटकों में राजनीतिक और सामाजिक समस्‍याओं और उनके दु:ख-सुख, उनकी आकांक्षा को व्‍यक्‍त किया जाता था। थियेटर और प्रगतिशील लेखकों में चोली-दामन का साथ था। प्रगतिशील लेखकों की संस्‍था के कार्यकर्त्ता, थियेटर में भी काम करतेथे। जैसे- ख्‍़वाजा अहम अब्‍बास, सरदार ज़ाफरी, मख्‍़दूम, वामिक़ आदि।

            लेकिन आंध्र प्रदेश में थि‍येटर और प्रगतिशील लेखक संघ संबंध सबसे ज्‍यादा गहरा था। वहाँ इस जमाने में एक ड्रामा आंध्र थियेटर ने पेश किया, जो खासा पसंद किया गया। इस ड्रामे का विषय किसानों की ज़मीन के लिए जद्दोजहद थी। आंध्र प्रदेश तेलंगाना में किसानोंको जाग्रत और संगठित करने में पीपुल थियेटर के इस तरक़्क़ीपसंद ड्रामे और कथाओं का बहुत बड़ा हाथ है।

            इस प्रकार से तरक़्क़ी पसंद आदिबों में- ज़िगर मुरादावादी, साहिरलुधियानवी,अली सरदारज़ाफरी, फ़ैज़, कैफ़ी आज़मी, ज़ोश मलवादी आदि हैं। इनमें से सबसे ज्‍यादा लोकप्रियता फ़ैज़ को मिली इसका कारण इनकी रोमानियत के साथ यथार्थता, हुस्न के साथ निजकर्मता का स्‍वर,साथ ही नई-नई उपमाएं है। इन्‍हीं गुणों से आज भी फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की लोकप्रियता और प्रासंगिकता बनी हुई है।

संदर्भग्रंथ

रोशनाई- तरक़्क़ीपसंद तहरीक की यादे सज्‍जाद ज़हीर

उर्दू से अनुवाद- जानकी प्रसाद शर्मा

वाणी प्रकाशन, नई दिल्‍ली- 110002

प्रथम संस्‍करण- 2000

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

प्रतिनिधि प्रकाशन दिल्‍ली

तीसरी आवृत्ति- 2007

सहायकग्रंथ

रौशनाई, प्रगतिशील आन्‍दोलन का इतिहास

फ़ैज अहमद फ़ैज प्रतिनिधि कविताएँ।

फ़ैज़ की शायरी- पं. प्रकाश पंडित।

 

‘नेटवर्क’ मौन अभिव्यक्तियों का

राम एकबाल कुशवाहा                                                                                                                                                                                                                                                  

  मो8447908518     

                                                                            kramakbal@gmail.com                                                           

सारांश

कहानीकार बिक्रम सिंह का कहानी संग्रह ‘आचार्य का नेटवर्क’ हमारा ध्यान कई कारणों से अपनी और खींचता है। इनमें भाषा, भाव, परिवेश, और विषयगत वैशिष्ट्य के साथ ही संवेदनात्मक जुड़ाव भी शामिल है| लेकिन संग्रह की कहानियों का मुख्य आधार विश्वविद्यालयी जीवन का उलझा हुआ लोकतंत्र और सामाजिक-जातीय समीकरण में उपेक्षित समुदाय की विकसित हो रही चिंतन परम्परा को एक रणनीति के तहत समित और अधिग्रहित किये जाने के हो रहे प्रयास हैं| ये दो मुख्य स्तर हैं जहाँ पर कहानीकार अपना एक पक्ष रचता है| यह पक्ष उन मौन अभिव्यक्तियों का एक नेटवर्क गूंथता (तैयार करता) है जिसे प्रभावशाली तंत्र और वर्चस्ववादी जातियों द्वारा हमेशा से विखंडित किया जाता रहा है| यह लेख बिक्रम सिंह की कहानियों में उद्भासित इन पक्षों तक पहुँचने के लिए एक मार्ग की खोज करता है|

बीज शब्द

लोकतंत्र,सामाजिक, रणनीति, अभिव्यक्ति, तंत्र, मार्ग

विस्तार   

कुछ साहित्यकार अपनी साहित्यिक विशिष्टताओं के बावजूद साहित्य-समाज में कम चर्चित हो पाते हैं। लेकिन न तो इससे उस साहित्य की गरिमा कम होती है और न ही साहित्यकार की रचनात्मकता का आदर्श कमजोर होता है। कुछ साहित्य और साहित्यकारों का परिधि पर चले जाना या उपेक्षित हो जाना, कोई नई बात नहीं है। छायावाद में केवल चार ही कवि नहीं थे लेकिन चर्चा केवल छायावाद के चार स्तंभों की ही रही। इसी तरह प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नयी कविता या नयी कहानी में भी केवल वही रचनाकार साहित्य के लिए महत्वपूर्ण नहीं थे जो इन वादों या आंदोलनों के केंद्र में रहे। उसी दौर में और भी बहुत से रचनाकार सक्रिय रूप से लिख रहे थे जिनकी रचनाएँ महत्वपूर्ण होने के बावजूद केवल हिंदी साहित्य इतिहास का हिस्सा मात्र बन सकीं। बहुत से रचनाकार तो इतिहास में भी जगह नहीं बना सके। वर्तमान समय में यह स्थिति और भी बिगड़ी हुई है। इसके कई कारण चिह्नित किये जा सकते हैं। बाजारवाद के दौर में विज्ञापन की महत्वपूर्ण भूमिका है, और साहित्य के भी अपने बाजार और विज्ञापन हैं। ‘साहित्य की राजनीति’ तो अक्सर चर्चा के केंद्र में रहती है। सहित्य-सत्ता के केंद्र में रहने वाले लोग और उनकी वैचारिकी भी साहित्य के प्रवाह को प्रभावित करते हैं। बावजूद इसके हजारों रचनाकार बिना इसकी परवाह किये कि उनकी रचनाओं का वाज़िब मूल्य क्या होगा ? और ‘साहित्य की राजनीति’ उसे कितना स्वीकार करेगी, अपने रचना कर्म में लगे हुए हैं। इसे वर्तमान साहित्य के सबसे उज्ज्वल पक्ष के रूप में देखा जा सकता है और साहित्य का यहीं मूल-भावबोध भी है।

कहानीकार बिक्रम सिंह भी एक ऐसा ही नाम है जिनकी रचनाओं पर हिंदी साहित्य जगत में बहुत कम चर्चाएँ हुईं है लेकिन पिछले तीस वर्षों से भी अधिक समय से वे लगातार अपने रचनाकर्म में संलग्न हैं। वे इसकी परवाह एकदम नहीं करते कि आलोचक या साहित्य-समाज उनकी रचनाओं का कितना मूल्य दे रहा है या उनकी किस तरह से उपेक्षा की जा रही है। वे अपने होते अपनी रचनाओं से संतुष्ट हैं। अब तक इनके पाँच कहानी संग्रह- ‘ब्रह्मपिशाच’, ‘मुकदमा’, ‘जलुआ’, ‘अनकही कहानियाँ’ और ‘आचार्य का नेटवर्क’ के साथ ही दो आलोचना कृति ‘सौन्दर्यशास्त्रीय चिंतन और हजारी प्रसाद द्विवेदी’, तथा ‘हजारी प्रसाद द्विवेदी का लालित्य विवेक’ प्रकाशित हो चुके हैं।

मेरी बात इनकी कहानी संग्रह ‘आचार्य का नेटवर्क’ पर केंद्रित है जो अतुल्य प्रकाशन, दिल्ली से 2018 में प्रकाशित है। इस संग्रह में कुल सात कहानियाँ ‘आचार्य का नेटवर्क’, ‘कथानक’, ‘बंद किवाड़ों के पीछे’, ‘पब्लिक प्लेस’, ‘ये फसाना नहीं’, ‘शूटर’, और ‘गप्प’, संग्रहीत है। इन कहानियों में ‘ये फसाना नहीं’ का रचनाकाल 2015 है और ‘आचार्य का नेटवर्क’ का रचनाकाल अंकित नहीं है लेकिन यह कहानी भी 2010 के बाद की ही है। ये दोनों कहानियाँ पूर्व में किसी पत्रिका में भी प्रकाशित नहीं हैं। लेकिन संग्रह की बाकी पाँच कहानियों का रचनाकाल 1993-94 अंकित है और ये कहानियाँ किसी न किसी पत्रिका में पूर्व प्रकाशित हैं। इससे यह स्पष्ट है कि इन कहानियों के बीच का समय-काल लगभग बत्तीस वर्षों को अपने परिधि में समेटे हुए है। यह एक लम्बा समय है और इसी बीच एक सदी भी बदली है। इसको ध्यान में रखते हुए इस संग्रह को दो भागों में रख कर देखा जा सकता है। पहला भाग 2000 के पूर्व की कहानियों का है जिसमें पाँच कहानियां और दूसरा भाग इसके बाद का है जिसमें दो कहानियां हैं। इन दोनों भागों की कहानियों में विषयगत भिन्नताएं भी अधिक है।

‘आचार्य का नेटवर्क’ इस संग्रह की प्रतिनिधि कहानी है। इस कहानी के नाम पर ही कहानीकार ने इस संग्रह का नामकरण भी किया है। कहानी का कथ्य दलित साहित्य के एक मत्वपूर्ण प्रश्न सहानुभूति और स्वानुभूति के संदर्भों से जुड़ा हुआ है। सहानुभूति और स्वानुभूति का प्रश्न दलित साहित्य की अवधारणा का मूल प्रश्न भी है। दलित रचनाकार स्वानुभूति के प्रश्न को सबसे महत्वपूर्ण मानते हैं और इसके बिना केवल सहानुभूति के आधार पर लिखे गए साहित्य को दलित साहित्य मानने के लिए कतई तैयार नहीं हैं। लेकिन गैर दलित रचनाकार सहानुभूति के आधार पर लिखे गए साहित्य को भी इसकी परिधि में शामिल करने के पक्षधर हैं। ‘आचार्य का नेटवर्क’ कहानी सहानुभूति के प्रश्न की विसंगतियों को बहुत ही रोचक ढंग से उद्घाटित करती है। यही इस कहानी का मूल कथ्य भी है।

यह कहानी सहानुभूति के छद्म रूप और उसकी व्यवहारिक समस्यायों को बहुत ही खुले रूप में रखती है। मेरी इस बात से कम सहमति है कि सहानुभूति का प्रत्येक पक्ष छद्म ही होता है। लेकिन यह हमेशा सत्य ही हो, इसकी संभावना भी बहुत कम है। इस दोहरे रूप की पहचान करना भी बहुत आसान नहीं है, क्योंकि सहानुभूति का पक्षधर बौद्धिक समाज ही दलित साहित्य में मौजूद शोषण और पीड़ा का एक पक्ष है। इसीलिए वर्तमान दलित साहित्यकार और चिन्तक इसके प्रति अत्यंत सतर्क हैं। डॉ. धर्मवीर, कवल भारती, श्योराज सिंह बेचैन आदि की चिंताएँ अकारण नहीं है। इस कहानी का मुख्य चरित्र कृपानंद पाण्डेय ‘कटु’ दलित चिंतकों की चिंताओं का मूर्त रूप है। कृपानंद पाण्डेय ‘कटु’ का दलित प्रेम या दलित चिंतन के प्रति उनकी रुचि स्वाभाविक नहीं है। यह उसके लिए दलित विमर्श जगत में अपने को स्थापित करने का एक अवसर मात्र है। इसी के सहारे उसने प्रोफेसरी की नौकरी प्राप्त की है तथा देश के विभिन्न भागों में उसके नेटवर्क का माध्यम भी दलित विमर्श ही है। उसके लिए दलित लेखन ‘एक सकल उद्योग’ है जिसमें वह अपने मंद बुद्धि भाई को भी लगाना चाहता है। “दलितों की समस्याओं पर लेख लिखना- आज के डेट में एक बड़ा काम है। आज इसकी बड़ी खपत है। जहाँ तक क्वालिटी की बात है तो यह एक ठोस भ्रम के सिवा कुछ नहीं है। अहम बात है मुहिम में शामिल होना। अब मुझे ही देखो मैंने क्या नहीं किया। शोध किया और करवाये पर मिला क्या ? कुछ भी तो नहीं। मैंने दलित लेखन से अपनी जगह बनायी। आज सारे दलित लेखक मेरे मित्र और शुभचिंतक हैं। यह एक पूरी दुनिया है या यूँ भी कह सकते हैं कि यह एक सफल उद्योग है। क्योंकि यहाँ अभी डिमांड और सप्लाई का खेल लंबा चलेगा। इस दुनियां में प्रवेश करने का मार्ग मैं जान चुका हूँ और चाहता हूँ कि तुम भी साथ चलो।”1 दलित समस्याओं पर लिखना पाण्डेय ‘कटु’ की एक रणनीति का हिस्सा है। यह उनका स्वाभाविक लेखन नहीं है। अपने भाई कृपामंगल को भी इस उद्योग में प्रवेश दिलाने के लिए ‘कटु’ जी उसे डॉक्टर अम्बेडकर कृत सम्पूर्ण वांग्मय खंड-आठ पढ़ने के लिए देते हैं। लेकिन कृपामंगल अभी इस परिवेश में मजे हुए नहीं हैं और उनपर अपने ब्राह्मण होने का स्वाभिमान हावी है। मसलन वे अपने वास्तविक जातीय रूप में हैं और जब अंबेडकर वांग्मय पढ़ते हैं तो डॉ. अम्बेडकर के विचार सरणियों से टकराते हुए व्यग्र होकर बेहोस हो जाते हैं। ठंडे पानी के छीटे से उनकी बेहोसी टूटती है और उनका तपता हुआ शरीर कुछ ठंडा होता है। उन्हें अपने ब्राह्मण रूप को छोड़कर किसी दलित जाति के साथ जुड़ना स्वीकार नहीं है। लेकिन ‘कटु’ जी तो आचार्य हैं, उन्होंने अपने को साध लिया है। वे कृपामंगल को अपने पूरे आचार्यत्व के साथ समझाते हैं- “हिन्दू समाज एक बहुमंजिली इमारत की तरह है, जो जिस मंजिल में पैदा हो जाता है, उसे उसी में मरना होता है। इसलिए अपने भ्रम को दूर करो क्योंकि जो है वही रहेगा। फिर दिक्कत क्या है ?”2  और कृपामंगल आचार्य जी के इस महत्वपूर्ण ज्ञान से संतुष्ट होकर उसी राह पर चल देते हैं। कटु जी द्वारा प्रतिपादित यह वक्तव्य भारत की ब्राह्मणवादी सामाजिक संरचना का आधार स्तंभ है। यह ‘कटु’ जी का ही नहीं भारतीय जाति व्यवस्था की कटु सच्चाई है।

‘कटु’ जी शुद्ध व्यवहारिक ब्राह्मण हैं। वे अपने दलित मित्रों और चिंतकों में जितनी कुशलता के साथ रहते हैं उतनी ही मनोयोग से अपने घर में अपने ब्राह्मण धर्म की रक्षा करते हुए संध्या वंदन और आरती करते हैं। वे अपने पूजा घर में ब्राह्मण जाति की श्रेष्ठता के पाँच सूक्त वाक्य भी लगा रखे हैं- “भूतों में प्राणधारी जीव श्रेष्ठ है, प्राणियों में बुद्धिजीवी श्रेष्ठ है, बुद्धिजीवियों में मनुष्य श्रेष्ठ है और मनुष्यों में ब्राह्मण श्रेष्ठ है।….. ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न होने के कारण, ज्येष्ठ होने से और वेदों को धारण करने के धर्मानुसार ब्राह्मण ही सृष्टि का स्वामी है।”3 ऐसे और भी सूक्त वाक्य हैं जो इनकी आत्मा की आवाज के रूप में उर पूजा घर में विद्यमान हैं। लेकिन वे दलित साहित्य के सबसे बड़े चिन्तक भी हैं।

ऐसा नहीं कि स्वानुभूति केवल दलितों की ही होती है, गैर-दलितों की कोई  स्वानुभूति नहीं होती। किसी गैर-दलित या ब्राह्मण कि अपनी स्वानुभूति ही है जो उसे बार-बार अपनी जातीय श्रेष्ठता के द्वंद्व में उलझा देती है। वह अपने परिवेश से मुक्त नहीं हो पाता। फिर वह एक छद्म रूप धारण कर लेता है। कहानीकार पाण्डेय ‘कटु’ के चरित्र के माध्यम से इसे पाठकों तक पहुँचाने में अत्यन्त सफल रहा है। अपने छोटे भाई कृपामंगल की शादी का कार्ड ‘कटु’ जी छपवा कर घर लाते हैं। कार्ड के दो बंडलों को देख कर उनकी पत्नी मनोरमा चौकी और पहले छोटे बंडल को खोलकर देखा “निमंत्रण पत्र के ऊपर महात्मा बुद्ध की स्वर्णिम तस्वीर बड़े ही सुन्दर ढंग से छपवाई गयी थी। वे आचार्य जी पर पिल पड़ीं- तो नौबत यहाँ तक आ पहुंची है।” आचार्य जी भी बोल पड़े “वे लोग जब सेमिनार आदि में भाग लेने के लिए नगद नारायण देते हैं तब तो तुम इतने सवाल नहीं करती ? अब क्या हो गया ? …उन्होंने कहा ये पचास निमंत्रण पत्र मेरे खास दोस्तों के लिए है। रिश्तेदारों और अन्य लोगों के लिए दूसरा निमंत्रण पत्र है। दूसरे बंडल में है, खोल कर देख लो। मनोरमा देवी ने दूसरा बंडल खोला। बात ठीक थी। बीच में बड़ा सा ओम छपा था। उसके नीचे गणेश जी की तस्वीर और श्री गणेशाय नमः लिखा था।”4 यह दुचित्तापन  ही दलित साहित्य में स्वानुभूति और सहानुभूति के प्रश्न के खड़ा होने का मुख्य कारण है। जिस परम्परा और संस्कृति पर गैर-दलित लेखक मुग्ध हुआ करते हैं, उसे दलित रचनाकार और चिन्तक अपना मानते ही नहीं। दलित और गैर-दलित दोनों की संस्कृति और परंपरा में ऐतिहासिक विरोध रहा है और यह विरोध दलित साहित्य के केंद्र में मौजूद है।

यह कहानी विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में अध्यापन कार्य करने वाले प्रोफेसरों के महत्व और उनकी विशिष्ट नियुक्ति प्रक्रिया को भी उद्घाटित करती है। कहानी का मुख्य पात्र पाण्डेय ‘कटु’ प्रोफेसर होने के बाद अपनी पत्नी से कहते हैं “यह केवल नौकरी नहीं है। यूँ समझ लो कि यह एक साम्राज्य संभालने जैसा महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व है।”4 लेकिन यह साम्राज्य कैसा है ? और क्या है ? इसकी स्पष्ट बानगी संग्रह की एक दूसरी कहानी ‘ये फसाना नहीं’ में देखने को मिलता है। विक्रम सिंह ने इस कहानी में अपने सम्पूर्ण विश्वविद्यालयी जीवन के यथार्थ जीवन प्रसंगों को आधार बनाया है। यही कारण है कि जो भी इस परिवेश से जुड़ा है उसके लिए यह कहानी अपने जीवन की कहानी लगने लगती है। 

‘ये फसाना नहीं’ कहानी का आधार दिल्ली विश्वविद्यालय और उससे जुड़े कॉलेजों में शिक्षक संगठनों की राजनीति और यहाँ पर होने वाले शिक्षक नियुक्ति प्रक्रिया में इनकी भूमिका के यथार्थ से जुड़ा हुआ है। दिल्ली विश्वविद्यालय देश के प्रतिष्ठित केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में से एक है। यहाँ पढ़ने और पढ़ाने वाला हर विद्यार्थी और शिक्षक अपने पर गर्व करता है। भले ही विश्वविद्यालयों की विश्व रैंकिंग में इसका कोई स्थान न हो लेकिन भारतीय विश्वविद्यालयी रेंकिंग में यह हमेशा से पहले, दूसरे या तीसरे स्थान पर रहा है। इसका एक मुख्य कारण देश की राजधानी में इसका स्थापित होना भी है।

दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रतिष्ठित कॉलेजों की अपनी एक अनोखी विशेषता है। यहाँ आधे से अधिक शिक्षक अस्थायी (एड-हॉक तथा गेस्ट) के रूप में कार्य करते हैं। प्रत्येक चार महीनें पर इनको रिज्वाइनिंग मिलती है, या उन्हें हटाना होता है तो साक्षात्कार की औपचारिकता पूरी की जाती है। यहाँ के साक्षात्कार की मुख्य योग्यता किसी मजबूत पार्टी के शिक्षक संगठन से जुड़ा होना तथा उनका बैनर-पोस्टर चिपकाना, उसके नेताओं का भाषण देते हुए फोटो खींचना और उसको फेसबुक और वाट्सअप पर शेयर करना तथा उनका चारण गान करना है। इस योग्यता में जो जितना माहिर होता है उसकी नौकरी उतनी जल्दी पक्की होती है। इस व्यवस्था ने यहाँ के शिक्षकों (अस्थायी) को, जो प्रोफ़ेसर के नाम से जाने जाते हैं, चापलूस, रीढविहीन तथा लिजलिजा बना दिया है। इन अस्थायी प्रोफेसरों का ध्यान शिक्षण गतिविधियों के कुशल संपादन और अपनी रचनात्मकता को बनाये रखने में कम, अपनी नौकरी को बचाए रखने में अधिक लगा रहता है। यहाँ के नेता जिन्होंने शिक्षकों की नियुक्ति करवाने और उनको हटाने या बनाए रखने का ठेका ले रखा है, इस नियुक्ति प्रक्रिया की आड़ में इस विश्वविद्यालय में तमाम नैतिक-अनैतिक और संविधान विरोधी कार्य करते रहते हैं। इस कहानी का प्रत्येक घटनाक्रम इस पूरी प्रक्रिया की जीवंतता का उदाहरण प्रस्तुत करता है। 

विश्वविद्यालयी जीवन से जुड़ी हुई कई कहानियाँ और उपन्यास लिखे गए हैं लेकिन क्या शिक्षक संगठनों के संघर्षों और एड-हॉक, गेस्ट सहित अन्य प्रोफेसरों की पीड़ाओं से जुड़ी हुई कोई कहानी या उपन्यास लिखा गया है ? मेरी नजर अबतक इस तरह के किसी उपन्यास या कहानी पर नहीं पड़ी है। इस लिहाज से इन सन्दर्भों से जुड़ी हुई इसे हिंदी की पहली कहानी कहा जा सकता है। 

इस पूरी व्यवस्था का उद्घाटन कहानी की एक मुख्य महिला चरित्र संगिनी के वक्तव्य से होता है। संगिनी दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में तदर्थ शिक्षक है। उसी कॉलेज के एक युवा प्रोफ़ेसर राव, जिनकी उम्र लगभग 45 वर्ष है, अभी कवांरे हैं। जिनका दिल संगिनी पर आ जाता है। वैसे तो उनका दिल कॉलेज में पढ़ाने वाली किसी भी कंवारी लड़की पर आ जाता है लेकिन यह मामला कुछ अलग है। आज संगिनी ने उन्हें खुद मैसेज करके कैंटीन में मिलने का समय ले रखा है। ऐसा अवसर उनके जीवन में पहली बार आया है। प्रो. राव ने संगिनी का मैसेज जबसे पढ़ा है, उनके मन में एक लहर सी उठने लगी है। वे दूसरे दिन जब कॉलेज पहुँचते हैं तो अपने शिक्षक मित्रों से भी अपनी नजर बचाते हुए इधर-उधर भटकते रहते हैं और मिलने के निर्धारित समय से पहले ही कैंटीन पहुँच जाते हैं। संगिनी अपने समय से पहुँचती है। प्रो. राव का अंतरमन उमड़ता-घुमड़ता कोल्ड कॉफ़ी का आदेश देता है। यहाँ संगिनी जितनी शांत दिख रही है प्रो. राव उतने ही उद्विग्न हैं। इसी अवस्था में बातचीत का शिलशिला शुरू होता है और जो संगिनी बोलती है उसे ‘दस्ताने-एड-हॉक’ और ‘कारनामे-नियुक्ति ठेकेदार’ कहा जा सकता है।

इस विश्वविद्यालय में संगठन के नाम पर कई गिरोह काम करते हैं तथा सभी गिरोहों का एक-एक सरगना होता है। संगिनी बहुत ही बेबसी के साथ प्रो. राव से कहती है- “आप क्यों मेरी नौकरी छुड़वाने पर तुले हुए हैं। आप उस गिरोह को ठीक से नहीं जानते। कई लोग उसे मजाक में डॉन कहते हैं लेकिन यह संज्ञा हो या विशेषण, उससे कहीं बड़ा, व्यापक और खतरनाक है। उसमें दुष्टता और धूर्तता की ऐसी व्यापकता है जिसे पुरुष होने के नाते आप कभी ठीक से नहीं जान पाएंगे। उसकी खूबी यह है कि वह तथा उसके चेले-चाटे जितनी मनमानी करते हैं, वह सब लोकतांत्रिक रीति-नीति की सीमाओं को छूता हुआ प्रतीत होता है, होता नहीं।… वे जब चाहते हैं लोकतांत्रिक मूल्यों को मेमना बना देते हैं और बड़ी सहजता और सफाई से किसी कानून की बांह ऐंठ देते हैं। होता सब कुछ शांति और प्रेम से है।”5 इस शांति और प्रेम के आवरण में लिपटी हुई यह ऐसी प्रेत छाया है जिससे निकल पाना इन अस्थायी प्रोफेसरों के लिए अत्यंत मुश्किल है। महिलाओं के प्रति उनकी दुष्टता और नैतिक पतन का रूप अलग है।

संगिनी प्रो. राव से इस बात का संकेत भी करती है की आप पुरुष हैं इसलिए इस बात को नहीं समझ पाएंगे। “अस्थायी तथा तदर्थ महिला शिक्षकों को एक विशेष छूट दी गयी है कि वे चाहें तो उसे प्रसन्न कर सकती हैं। इस ऑफ़र की कीमत अलग-अलग है। तदर्थ महिला शिक्षक की नौकरी पक्की कर दी जाएगी, अविवाहित महिला को यह सुविधा पहले मिलेगी। स्थायी शिक्षिकाओं को प्राचार्य नियुक्त करवाने का वादा है तथा पुरुष शिक्षकों को भी इस योजना में शामिल कर लिया गया है। प्रोमोशन चाहने वाले को प्रोमोशन, प्रोफेसरी चाहने वालों को प्रोफेसरी की रेवड़ियाँ मुक्त हाथों से बांटी जा चुकी हैं।”6    

नौकरी देने और लेने वाले इन सभी संगठनों के प्रमुख सवर्ण हैं। वे अपने सभी ज्ञानेन्द्रियों का इस्तेमाल करते हुए यह चाहते हैं कि उन्हीं के वर्ग का कोई व्यक्ति प्रोफ़ेसर बने। इसके लिए वे संवैधानिक प्रावधानों के अतिक्रमण से भी नहीं चूकते। संगिनी कहती है- “उसका ये हुनर नौकरी के ठेकेदारी और टर्मिनेशन लेटर के बीच जादू की तरह काम करता है। यहाँ तक कि केन्द्रीय आरक्षण नीति को भी उसने अपने लपेटे में ले लिए है। आरक्षित पद पर यदि उसकी पसंद का उम्मीदवार न हो तो, वहां सामान्य श्रेणी के उम्मीदवार का चयन करवा लेता है।”7 देश के इस प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय का यह मूल चरित्र है। यहीं कारण है कि आरक्षित वर्ग के शिक्षकों की संख्या दिल्ली सहित देश के अन्य विश्वविद्यालयों के विभिन्न विभागों में भी ‘पाव भर जीरे में ब्रह्मभोज’ जैसी है।

वैसे तो भारत के सभी उच्च शिक्षण संस्थाओं में नियुक्ति प्रक्रिया का रूप हमेशा से भेदभावपूर्ण, अपारदर्शी और विवादास्पद रहा है। केवल कुछ मिनटों के साक्षात्कार के माध्यम से इतने महत्वपूर्ण पद पर चयन करना गुणवत्ता के साथ मजाक तो है ही, इसमें यह गुंजाइश भी पैदा होती है कि आसानी से भेदभाव किया जा सके। लेकिन दिल्ली विश्वविद्यालय में इसका उत्कृष्टतम रूप देखने को मिलता है। “न जाने इस असंवैधानिक नियुक्ति पद्धति का आविष्कार किसने किया था ? उसे मालूम नहीं होगा कि इस विद्या का कोई आचार्य भी पैदा हो जायेगा।”8

दिल्ली विश्वविद्यालय में एड-हॉक या गेस्ट प्रोफेसरों की नियुक्ति ‘वर्क-लोड’ जैसी मायावी संरचना के आधार पर की जाती है। यही कारण है कि ‘वर्क लोड’ की यह संरचना समय और परिस्थिति के अनुसार परिवर्तनशील होती है। संगिनी कहती है “उसके नियंत्रण में एक तिलस्मी हथियार है, जिसे लोग ‘वर्क-लोड’ कहा करते हैं। सभी समितियों और उप-समितियों में उसके निष्ठावान कारिन्दे हैं, जिन्हें उसने कृत्रिम बहुमतवाद से बाकायदा चुनाव के माध्यम से जितवाया है। अब वे उसकी मनमाफिक रिक्तियां निर्मित करते हैं। फिर वे इसी तरह की युक्तियाँ भिड़ाकर, उच्चतर अधिकारियों को भी साध लेता है और नियुक्तियां करवा लेता है।”9

इतना ही नहीं विश्वविद्यालय के विभिन्न विभागों में शोध कर रहे शोध छात्र भी इनकी भूमिकाओं से आक्रांत रहते हैं। क्योंकि उन्हें पता है कि इस व्यवस्था में इस शोध का कितना महत्व है। इसके बाद की जो समस्याएं हैं उनका समाधान शोध की उत्कृष्टता पर कतई निर्भर नहीं करता। यदि उन्हें प्रोफेसर बनना है तो इन्हीं मक्कारों की शरण में जाना होगा। इसलिए पीएच.डी. में नामांकन के बाद से ही उनकी प्राथमिकता इन मक्कारों को साधने में लग जाती है और शोध कार्य उनका द्वितीयक हो जाता है। जिस समय इन शोधार्थियों में स्वतंत्र चिंतन और उनकी स्वतंत्र विचारधारा का विकास होना चाहिए उस समय वे किसी की चापलूसी और जी-हजूरी में लगे होते हैं। विश्व में यदि भारत का शोध के क्षेत्र में कोई स्थान नहीं है या पिछले पायदान पर है तो इसमें इस व्यवस्था की महत्वपूर्ण भूमिका है। यह कहानी इस दिशा में एक सफल संकेत है। मेरी नजर में इस कथ्य पर लिखी हुई यह हिंदी की पहली कहानी है।

ऊपर जिन दो कहानियों की चर्चा की गयी है वे दोनों 2010 के बाद की हैं और दोनों कहानियों का परिवेश महानगरीय बोध और उच्च शिक्षण संस्थान की गतिविधियों से जुड़ा हुआ हैं। जाति का प्रश्न भी इन कहानियों के केंद्र में है। लेकिन संग्रह की अन्य सभी कहानियां, जिनका रचना काल सन 2000 पूर्व है, ग्रामीण या कस्बाई परिवेश की कहानियां हैं। इन कहानियों में भी कथाकार बिक्रम सिंह जाति के प्रश्न को प्रमुखता से देखते हैं। लेकिन गांव और शहर दोनों में जाति का समीकरण बहुत ही अलग-अलग है। 

कुछ समय पहले तक बिहार के कुछ इलाकों में ‘पकडुआ’ विवाह की समस्या रही है। इस विषय पर कई फ़िल्में भी बनी हैं। लेकिन कुछ बदले हुए रूपों में यह समस्या आज भी मौजूद है। इसमें होता यह है कि कोई लड़का पढ़ा-लिखा योग्य और सुन्दर है तथा किसी दबंग व्यक्ति को अपनी बहन या बेटी के विवाह के लिए पसंद आ गया तो सबसे पहले उसके पास (घर) विवाह का प्रस्ताव भेजता हैं। यदि वह मान गया तो ठीक लेकिन यदि किसी कारण से मना किया तो जबरदस्ती अपहरण करके उसकी शादी कर दी जाती हैं। संग्रह की कहानी ‘बंद किवाड़ों के पीछे’ की कथा भूमि यह ‘पकडुआ’ विवाह ही है। लेकिन इस कहानी का जो सबसे महत्वपूर्ण सूत्र है वह जाति के प्रश्न से जुड़ा हुआ है। क्योंकि यह प्रथा ऊँची और दबंग जातियों में ही प्रचलित है, जो आपराधिक पृष्ठभूमि के होते हैं। यह एक तरह का सामंतशाही का ही प्रतीक है कि जो चीज उसे पसंद आ गयी, वह उसे चाहिए, चाहे उसके लिए कुछ भी करना पड़े। यही कारण है कि यह प्रथा निम्न जातियों में नहीं मिलती।

लेकिन इस कहानी में शादी के लिए अपहरण किया गया लड़का, जो इस कहानी का नायक भी कहा जा सकता है, एक दलित है। जिसे गलती से राजपूत/ठाकुर जाति का समझ कर पकड़ लिया गया है। इस गलती का मुख्य कारण लड़के का शहर के हॉस्टल में रहकर पढ़ना-लिखना और सुन्दर होना है। भारतीय सामाजिक संरचना में जिस समुदाय को पढ़ाई से दूर रखा गया और अस्पृश्य माना जाता रहा है, उस समुदाय का कोई लड़का किसी बड़े शहर के हॉस्टल में रहकर पढाई करे, तो उसके ऊँची जाति के होने की ग़लतफ़हमी हो जाना स्वाभाविक है। वह भी बिहार जैसे प्रदेश में जहाँ जाति आज भी अपनी पूरी मजबूती के साथ विद्यमान है। इस ‘पकडुआ’ व्यवस्था में भी लड़के को किसी तरह जान बचाकर इसलिए भागना पड़ता है कि वह एक नीची जाति का है। उसको भगाने में उसी लड़की ने सहयोग किया जिसके लिए उसे अगवा किया गया है और जिससे उसकी शादी होनी है। लड़की यह जानती है कि यदि उसके भाईयों को पता चल गया कि यह लड़का निम्न जाति का है तो शादी होने के बाद भी उसकी हत्या कर देंगे। कहानीकार ने इस पूरी प्रक्रिया का अत्यंत ही जीवंत चित्र खींचा है जो पढ़ते हुए पाठक की आँखों के सामने तैरने लगता है।

‘कथानक’ कहानी पुलिस प्रशासन द्वारा आदिवासी या ग्रामीण क्षेत्रों में अपना प्रभाव और आतंक पैदा करके मासूम ग्रामीणों और आदिवासियों का बदस्तूर शोषण का खेल कैसे चलता रहा है, इसकी शिनाख्त करती है। कहानी लोक-कल्याणकारी राज्य की अवधारणा पर प्रश्न खड़ा करती है। जो शासन-प्रशासन लोक-कल्याण के निमित्त बनाये गए हैं वही अनेकों गैर-कानूनी गतिविधियों को बढ़ावा देते हैं और उसका संरक्षण भी करते हैं। बहुत सी घटनाओं और समस्याओं को तो शासन-प्रशासन द्वारा ही पैदा किया जाता है और उसके समाधान के नाम पर ठीक-ठाक नौटंकी प्रस्तुत की जाती है। सुधार और सुरक्षा के नाम पर प्रशासन द्वारा की जाने वाली इस नौटंकी को कहानीकार ने बहुत ही सधे हाथों पाठक के सामने रखा है। वही ‘शूटर’ कहानी उन कारणों और परिस्थितियों की ओर संकेत करती है जिसके कारण एक सामान्य सा युवक गलत रास्ते पर भटक जाता हैं, जहाँ से वह चाहते हुए भी वापस नहीं लौट पाता। यहाँ तक की वह आतंकवादी भी बन जाता है। आर्थिक अभाव और बेरोजगारी इसके मुख्य कारणों में है। ऐसे कई संगठन हैं जो इन बेरोजगार युवाओं की तलाश में बराबर रहते हैं। इन बेरोजगार युवाओं की बेबसी ही इन संगठनों की जीवनी शक्ति है, जिसे वे कभी ख़त्म नहीं होने देना चाहते। ये संगठन अलग-अलग धर्मों के भी हैं, जो इन युवाओं का इस्तेमाल अपने तरीके से करते हैं।

‘पब्लिक प्लेस’ एक मनोवैज्ञानिक कहानी है जिसमें एक पैंतीस पार व्यक्ति की मनोकुंठा ट्रेन में यात्रा कर रहे एक युवक-युवती जोड़े के व्यवहार को देखकर प्रकट हो जाती है। कहानीकार ने इसे बहुत ही सहजता से अपनी प्रभावशाली शैली में प्रस्तुत किया है। ‘गप्प’ कहानी का परिवेश ग्रामीण जीवन और उसका फक्कड़पन है। जहाँ लोग बैठे-बिठाये कहानियां गढ़ लेते हैं। जिनमें अधिकतर कहानियां आश्चर्य और रोमांच पैदा करने वाली होती है। कहानी गढ़ने वालों में एक से एक धाकड़ होते हैं जिनके गप्प और महागप्प गावों में खूब सुनने को मिलते हैं। इस कहानी में बिक्रम सिंह ग्रामीण जीवन के इस परम्परा को जीवंत रूप में उभरा हैं।

यह कहानी संग्रह भाषा और शिल्प की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। कहानियों में भाव व्यंजना को पुष्ट करने के लिए सूक्तियों और मुहावरों का प्रयोग तो हुआ ही है, इसके लिए कहानीकार ने बहुत से नए मुहावरे भी गढ़े हैं। संग्रह में कम कहनियाँ होने के बावजूद विषय विस्तार बहुत अधिक है और बहुत से विषय एकदम नए हैं। संग्रह को पढ़ने के बाद यह बात स्पष्टतः रूप से कही जा सकती है कि ‘आचार्य का नेटवर्क’ परिधि की आवाजों की एक मजबूत पकड़ है। मेरे लिए इस संग्रह से गुजरना अपने को एक नएपन के एहसास से जोड़ना है। 

सन्दर्भ

  • सिंह बिक्रम, 2018, आचार्य का नेटवर्क, अतुल्य पब्लिकेशन्स, दिल्ली, पृष्ठ-16
  • वही- 18
  • वही- 19
  • वही- 14
  • वही- 82
  • वही- 83
  • वही- 83
  • वही- 86
  • वही- 85

[1]  पृष्ठ-41

[2]  पृष्ठ-44

[3]  पृष्ठ-48

[4]  पृष्ठ-22

[5]  पृष्ठ-27

[6]  पृष्ठ-72

[7]  पृष्ठ-16

[8]  पृष्ठ-23

[9]  पृष्ठ-21

[10]  पृष्ठ–सुबहे आज़ादी

[11]  पृष्ठ-120

[12]  पृष्ठ-135

[13]  पृष्ठ-135

<

p style=”text-align: justify;”>[14]  पृष्ठ-113

2 COMMENTS

  1. After going over a handful of the blog posts on your web page, I really appreciate your way of writing a blog. I book marked it to my bookmark webpage list and will be checking back in the near future. Please check out my web site as well and tell me your opinion. Ammamaria Walt Bertrand

  2. Hi, I believe your website might be having browser compatibility issues. When I take a look at your website in Safari, it looks fine however, if opening in Internet Explorer, it has some overlapping issues. I merely wanted to provide you with a quick heads up! Aside from that, great blog! Sigrid Herbie Litton

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.