भौगौलिक चेतना के सन्दर्भ में हिन्दी ग़ज़ल
डॉ. पूनम देवी सहायक प्राध्यापक (शिक्षा शास्त्र) द्रोणाचार्य शिक्षा स्नात्तकोतर महाविद्यालय रैत, काँगड़ा (हिमाचल प्रदेश) ईमेल : sharma9poonam@gmail.com
शोध सारांश
प्रकृति की श्रेष्ठ कृति मनुष्य को माना गया है । सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर की बनाई श्रेष्ठ कृति प्रकृति के प्रति अपने भावों को व्यक्त करने के लिए मनुष्य ने काव्य को अपना माध्यम बनाया । काव्य मनुष्य के भीतर की संवदेनाओं को जागृत करने का कार्य करता है । काव्य का हिन्दी साहित्य में तथा हिन्दी काव्य के क्षेत्र में ग़ज़ल विधा का अपना विशिष्ट स्थान है । हिन्दी ग़ज़लकारों ने जीवन के विविध पक्षों को उजागर करने में प्रकृति के विभिन्न घटकों को माध्यम बनाया । हिन्दी ग़ज़ल विभिन्न प्राकृतिक उपादानों के माध्यम से गाँव, समाज, देश तथा विश्व को एकता के सूत्र में बांधने का कार्य करती है । हिन्दी ग़ज़ल में प्रकृति के विविध रूपों को भौगोलिक चेतना के रूप में अभिव्यक्ति प्राप्त हुई है । हिन्दी ग़ज़ल में प्रकृति के सुन्दर एवं प्रलयकारी दोनों ही पर्यावरणीय रूपों को प्रदर्शित कर भौगोलिक चेतना को दर्शाया गया है । हिंदी ग़ज़ल का महत्त्वपूर्ण पक्ष पर्यावरणीय चेतना भी है । प्रस्तुत शोध आलेख इस विस्तृत परिदृश्य के आधार पर चुनिंदा हिन्दी ग़ज़लों में भौगोलिक चेतना को दो मुख्य तत्त्वों – प्रकृति वर्णन और पर्यावरण प्रदूषण के आधार पर देखने का प्रयास करता है ।
बीज शब्द :
हिन्दी ग़ज़ल, भौगोलिकता. भौगोलिक चेतना, पर्यावरणीय घटक, प्रकृति वर्णन, पर्यावरण प्रदूषण ।
शोध विस्तार :
अध्यात्मवादियों के अनुसार ईश्वर की श्रेष्ठ रचना प्रकृति है । प्रकृति की श्रेष्ठ कृति मनुष्य को माना गया है । सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर की बनाई श्रेष्ठ कृति प्रकृति के प्रति अपने भावों को व्यक्त करने के लिए मनुष्य ने काव्य को अपना माध्यम बनाया । प्राचीन समय से ही काव्य को मनोभिव्यक्ति का श्रेष्ठ माध्यम माना जाता रहा है । कविता या काव्य को एक कल्पनाशील लेखन माना जाता है, परन्तु कोई भी कविता सम्पूर्ण रूप से व्यक्तिगत एवं काल्पनिक नहीं हो सकती क्योंकि उसमें कहीं-न-कहीं समाज का हित अवश्य विद्यमान रहता है । कविता का एक महत्वपूर्ण लक्ष्य सामाजिक प्रभावों का अध्ययन करना भी होता है । अग्निपुराण में काव्य को इतिहास से अलग करते हुए उसको परिभाषित करते हुए लिखा गया है – “काव्य ऐसी पदावली है, जो दोषरहित, अलंकारसहित और गुणयुक्त हो तथा जिसमें अभीष्ट अर्थ संक्षेप में भली भांति कहा गया हो ।” [1] साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा काव्य के माध्यम से सांसारिक गतिविधियों के प्रति निज-विचार एवं निज-भावों की सहज अभिव्यक्ति द्वारा, विशाल जनमानस के हृदयगत भावों को स्पंदित करना अधिक सशक्त एवं सुगमतापूर्ण है । मनुष्य आज दिन-प्रतिदिन की इस भागदौड़ भरी ज़िन्दगी में मशीनी होता जा रहा है । मनुष्य के भीतर की संवदेना एकमात्र ऐसा कारण है जो उसे जीवित रखे हुए हैं । मनुष्य के भीतर की इसी संवदेना को जागृत करने का कार्य काव्य करता है ।
काव्य का हिन्दी साहित्य में विशिष्ट स्थान रहा है । हिन्दी साहित्य का इतिहास काफी प्राचीन रहा है । हिन्दी साहित्य में समय-समय पर अनेक वाद, प्रवृतियाँ एवं विधाएँ विकसित होती रही हैं । हिन्दी काव्य जगत में एक ऐसा समय आया जब नीरस कविता से ऊब चुका पाठक किसी ऐसी छान्दसिक विधा को पढ़ना चाहता था, जो उसके जीवन के अनुभवों को नया रूप प्रदान करे । यही नहीं वह विधा मानव जीवन के सुखद क्षणों के साथ जीवन के कटु सत्य, वेदना तथा तात्कालिक समाज की सच्चाइयों को समझे और उनको समाज के समक्ष प्रस्तुत करे । ऐसे समय में हिन्दी काव्य के क्षेत्र में ग़ज़ल विधा का पदार्पण होता है ।
ग़ज़ल को वस्तुतः प्रेमपूर्ण भावों की अभिव्यक्ति का माध्यम माना जाता रहा है । किन्तु समय में परिवर्तन के साथ ग़ज़ल ने अपने कथ्य में परिवर्तन किया । ग़ज़ल आज केवल प्रेम भावों की अभिव्यक्ति या स्त्री सौन्दर्य के वर्णन का माध्यम नहीं रही है बल्कि समाज, देश और विश्व की समस्याओं को ग़ज़ल के शे’र की दो पंक्तियों में भी व्यक्त किया जा सकता है । हिन्दी काव्य के क्षेत्र में ग़ज़ल विधा का अपना विशेष स्थान है । हिन्दी ग़ज़ल के आरम्भिक काल में जहाँ एक ओर स्त्रियोचित व्यवहार का अधिक वर्णन दिखाई देता है, वहीं दूसरी ओर विविध प्राकृतिक संकेतों के माध्यम से समाज में व्याप्त विविध समस्याओं को भी उजागर किया गया है । हिन्दी ग़ज़ल जीवन के प्रत्येक पक्ष यथा – विदेशी सत्ता के विरुद्ध प्रतिरोध, देशप्रेम को प्रदर्शित करना, समाज में उत्पन्न अराजकता को दर्शाना अथवा समाज के उपेक्षित वर्ग को उनके अधिकारों के प्रति सजग करना आदि प्रत्येक पहलू के बारे में बात करती है । हिन्दी ग़ज़लकारों ने इन विभिन्न भावों, सामाजिक पक्षों एवं पर्यावरणीय समस्याओं को उजागर करने में प्रकृति के विभिन्न घटकों को अपना माध्यम बनाया ।
प्रकृति के अंतर्गत पर्यावरण के कई घटक सम्मिलित होते हैं । “पर्यावरण से आशय उन घेरे रहने वाली परिस्थितियों प्रभावों और शक्तियों से है जो सामाजिक और सांस्कृतिक दशाओं के समूह द्वारा व्यक्ति या समुदाय के जीवन को प्रभावित करती हैं ।”[2] हिन्दी ग़ज़लकारों ने विभिन्न प्राकृतिक उपादानों के माध्यम से गाँव, समाज, देश तथा विश्व को एकता के सूत्र में बांधने का कार्य किया है । पर्यावरण में प्रकृति के सुन्दर एवं वीभत्स दोनों रूप सम्मिलित होते हैं । हिन्दी ग़ज़ल में प्रकृति के इन रूपों को भौगोलिक चेतना के रूप में अभिव्यक्ति प्राप्त हुई है । हिन्दी ग़ज़ल में उपरोक्त घटकों के माध्यम से पर्यावरणीय चेतना को प्रदर्शित कर भौगोलिक चेतना को दर्शाया गया है ।
भौगोलिक चेतना का अर्थ :
भौगोलिक चेतना के विषय में जानने से पूर्व ‘भौगोलिक’ शब्द के अर्थ को समझना आवश्यक है । वास्तव में भौगोलिक तथा भौगोलिकता का सम्बन्ध’ भूगोल’ शब्द से है । भूगोल शब्द ‘भू’ तथा ‘गोल’ दो शब्दों के मेल से बना है । इस शब्द में वायुमंडल, जलमंडल, स्थलमंडल समतापमंडल तथा समस्त जीव-जगत इत्यादि को सम्मिलित किया जा सकता है । ‘भूगोल’ शब्द का सामान्य अर्थ भौतिक भूगोल समझा जाता है । इस बात को इस प्रकार समझा जा सकता है कि प्रत्येक देश की अपनी एक भौगोलिक सीमा होती है । इस भौगोलिक सीमा में नदी, पहाड़, झील-झरने, पर्वत, देश तथा पर्यावरण के विविध घटक सम्मिलित होते हैं । यह सभी भौगोलिक तत्त्व सम्पूर्ण विश्व के देशों में विद्यमान होते हैं ।
एक देश विशेष के भौतिक पर्यावरण में होने वाली घटनाएं जब समान रूप से दूसरे देश की भौतिक परिस्थितियों को दर्शाती हैं अथवा प्रभावित करती हैं, तो वह भौगोलिकता के विस्तृत रूप तथा जातीय तत्त्व का पर्याय बन जाती हैं । जातीय तत्त्व वह अवस्था है जो विभिन्नता में एकता स्थापित करने का कार्य करती है और सम्पूर्ण विश्व को मानवता के एक सूत्र में पिरोने का कार्य करती है । आज सम्पूर्ण विश्व वैश्विक महामारी तथा ‘ग्लोबल वार्मिंग’ जैसी समस्याओं से मुक्ति पाने के लिए एक साथ कृत संकल्प होकर खड़ा है । भौगोलिक सीमाओं से परे समस्त मानव जाति के कल्याण का यही भाव भौगोलिक चेतना का आधार एवं पर्याय बनकर हमारे समक्ष उपस्थित होता है । पर्यावरणीय समस्याओं एवं आपदाओं को समाप्त करने के लिए यह एकता ही भौगोलिकता का आधार है ।
मनुष्य द्वारा अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु प्राकृतिक संसाधनों के दुरूपयोग के कारण समस्त मानव समुदाय को समय-समय पर अनेक प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ता है । हिन्दी ग़ज़ल में अभिव्यक्त पर्यावरणीय चेतना मानव समुदाय को पर्यावरणीय संरक्षण हेतु प्रोत्साहित करती है । भौगोलिक चेतना के अन्तर्गत हिन्दी ग़ज़ल में प्रकृति के मोहक एवं विध्वंसकारी दोनों रूपों का अंकन देखा जा सकता है । ग़ज़लकारों ने भौगौलिक चेतना के अन्तर्गत पर्यावरण में सम्मिलित दो आधारभूत घटकों प्रकृति वर्णन एवं पर्यावरण प्रदूषण को चित्रित किया है । दुष्यन्त कुमार के बाद की हिन्दी ग़ज़ल में पर्यावरणीय चेतना के इन दोनों घटकों से सम्बन्धित विविध रूपों का सहज वर्णन दिखाई देता है ।
मनुष्य द्वारा प्राकृतिक संसाधनों का आवश्यकता से अधिक उपयोग पर्यावरणीय समस्याओं तथा आपदाओं को निमन्त्रण देता है । भूमि, जल, वायु, वनस्पति, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी तथा मनुष्य मिलकर पर्यावरण का निर्माण करते हैं । प्रकृति को सुचारू रूप से चलायमान रखने में प्रत्येक जीव एवं वस्तु का अपना-अपना महत्त्व है । पर्यावरण में प्रत्येक जीव एवं वस्तु की व्यवस्थित मात्रा संतुलित जीवन का आधार है । पर्यावरण में उपस्थित इन विविध घटकों की असमानता कई पर्यावरणीय समस्याओं तथा आपदाओं यथा – बाढ़, भूकम्प तथा महामारी आदि की स्थिति उत्पन्न करती है ।
प्रत्येक साहित्यिक विधा अपने आस पास तथा सम्पूर्ण विश्व में पर्यावरण संरक्षण की भावना को दर्शाने एवं विकसित करने का उद्देश्य तथा सामर्थ्य स्वयं में समाहित किए होती है । हिंदी ग़ज़ल भी इस क्षेत्र में अपना योगदान अपने आरम्भ काल से देती रही है । हिंदी ग़ज़ल का महत्वपूर्ण पक्ष पर्यावरणीय चेतना भी है । इस विस्तृत परिदृश्य के आधार पर चुनिंदा हिन्दी ग़ज़लों में भौगोलिक चेतना को दो मुख्य तत्त्वों – प्रकृति वर्णन और पर्यावरण प्रदूषण के आधार पर देखने का प्रयास किया गया है ।
- प्रकृति वर्णन :
मनुष्य के लिए प्रकृति कभी प्रेरणा एवं शांति प्रदाता के रूप में तो कभी विध्वंसकारी रूप में उपस्थित होती रही है । मनुष्य की यह प्रवृत्ति रही है कि वह अपने आसपास के पर्यावरण से प्रभावित होता है तथा उसे प्रभावित भी करता है । हिन्दी ग़ज़ल के प्रारम्भिक दौर की ग़ज़लों में प्रकृति के प्रेरणादायक अथवा सकारात्मक रूप का चित्रण अपेक्षाकृत अधिक दिखाई देता है । दुष्यन्त से पूर्व हिंदी ग़ज़ल के आरम्भिक काल में देश की विकट परिस्थितियों को दर्शाने तथा देश-प्रेम के भावों को व्यक्त करने के लिए प्रकृति के विविध रूपों का सांकेतिक प्रयोग दिखाई देता है । वर्षा ऋतु में आसमान में उमड़ते काले मेघ तथा उन्हें देखकर मोर, पपीहे एवं कोयल द्वारा किये जाने वाले नृत्य, कलरव और मधुर ध्वनि के शब्द चित्र इस समय की ग़ज़लों में स्वतः देखे जा सकते हैं । कुछ उदाहरण दृष्टव्य हैं –
ऐ फ़ाख्त: उस सर्वसिही क़द का हूं शैदा ।
कू-कू की सदा मुझको सुनाना नहीं अच्छा । ”[3] (भारतेन्दु)
“चमन में है बर्सात की आमद-आमद,
आहा आसमां पर सियह अब्र छाया ।
मचाया है मोरों ने क्या शोर महशर,
पपीहों ने क्या पुर ग़ज़ब रट लगाया ।”[4] (बदरी नारायण ‘अब्र’)
बसन्त के आगमन की खुशी प्रकृति के प्रत्येक जीव एवं वस्तु में दिखाई देती है । बसंत के आगमन के लिए प्रत्येक फूल मानो अपनी बाहें फैलाये स्वागत के लिए उत्सुक खड़ा दिखाई देता है–
“हर एक शगूफ़ा यह कहता हुआ खिलता है
“शायद कि बहार आयी ! शायद कि बहार आयी !”[5] (शमशेर)
दुष्यन्त कुमार की ग़ज़लों में प्रकृति के विविध उपादानों का प्रयोग स्वतः ही दिखाई देता है । इनकी ग़ज़लों में कहीं प्रकृति के सुन्दर रूप का अंकन है, तो कहीं उसके भयावह रूप के उपस्थित हैं–
चीड़-वन में आँधियों की बात मत कर,
इन दरख़्तों के बहुत नाज़ुक तने हैं ।”[6] (दुष्यन्त कुमार)
बंजर धरती, झुलसे पौधे, बिखरे काँटे, तेज़ हवा,
हमने घर बैठे-बैठे ही सारा मंज़र देख लिया ।”[7] (दुष्यन्त कुमार)
प्रकृति सदा से ही साहित्य की विविध विधाओं में अपना विशेष स्थान बनाती रही है । प्रत्येक रचनाकार प्रकृति के सुन्दर रूप का चित्रण अपनी रचनाओं में करता है । हिन्दी ग़ज़ल भी इसका अपवाद नहीं है । ग़ज़लकार कभी प्रकृति की सुन्दरता का प्रत्यक्ष चित्रण करते रहे हैं, तो कभी उसको प्रतीक एवं बिम्ब के माध्यमों से अपनी ग़ज़लों में प्रयुक्त करते हैं । प्रकृति की सुन्दरता एवं प्राकृतिक संसाधनों के उचित उपयोग के सम्बन्ध में अनेक शे’र कहे गए हैं । ग़ज़लकार अपने भाव एवं चिंता इस तरह प्रकट करता है –
पर्यावरण की शुद्धता का है विकल्प क्या ?
इसको बना रखो कि ये जीवन बना रहे ।”[8] (चन्द्रसेन विराट)
हिन्दी ग़ज़ल शहर एवं गाँव की प्रकृति के मध्य आ रहे अंतर को भी अभिव्यक्त करती है । प्रकृति एवं प्राकृतिक संसाधनों यथा जल, वन तथा मिट्टी आदि के संतुलन को बनाये रखने हेतु इन उपादानों का समुचित मात्रा में उपयोग तथा उसका विद्यमान रहना आवश्यक है । पर्यावरण संरक्षण में पेड़-पौधे एवं वनों की अहम भूमिका होती है । इसलिए यह आवश्यक है कि उनके कटान को रोका जाए, ताकि प्राकृतिक संतुलन बना रहे । वृक्ष न केवल छाया प्रदान करते हैं, बल्कि स्वच्छ वायु एवं वर्षा के आगमन में भी इनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है । इस बात को ग़ज़लकार कुछ इस प्रकार व्यक्त करते हैं –
“ये सिर्फ़ मैं ही नहीं आसमाँ भी कहता है
इन्हें न काटिए हर इक शजर में पानी है”[9] – बेचैन
“चेहरे का रंग उड़ा देखकर , देवदार बोला
शहर से आए तुम लगते हो, ठीक-ठाक तो हो ।”[10] कुमार विनोद
विश्व जबकि आज कई भूखंडों में बँटा हुआ है, ऐसे में इन सब भूखंडों को एक साथ लाने का कार्य मानवता, प्रेम एवं सौहार्द जैसे मूल्य करते हैं । भागौलिकता के इस पक्ष को प्रकृति वर्णन के माध्यम से ग़ज़लकार ने कुछ इस तरह व्यक्त किया है –
“ज़मीं को तक़सीम कर दिया है इन लकीरों ने
बिखरे टुकड़ों को एक साथ मिलाना है मुहब्बत ।”[11]– राजेन्द्र साहिल
अनादिकाल से ही प्रकृति का सौन्दर्य समस्त मानव जगत के लिए प्रेरणा का स्रोत रहा है । प्रकृति का प्रत्येक उपादान मनुष्य को निरन्तर जीवन में आगे बढ़ने और आशावादी दृष्टिकोण अपनाने की प्रेरणा प्रदान करता है । आसमान की ऊँचाइयाँ जहाँ एक ओर मनुष्य को निरंतर ऊपर उठने के लिए प्रेरित करती हैं, वहीं दूसरी ओर धरा मनुष्य को अपनी जड़ों से जुड़े रहने के लिए प्रेरित करती है । निम्नांकित उदाहरण दृष्टव्य है –
“गगन के चन्द्र की किरणें मुझे देती निमंत्रण हैं,
मगर मैं भूमि की छवि से गले मिलने विचरता हूं ।”[12]– हरिकृष्ण प्रेमी
“निर्झरों, नदियों, तड़ागों की प्रगति को साधुवाद,
सिन्धु में उठते हुए तूफ़ान की चर्चा करें ।”[13]– हरिकृष्ण प्रेमी
पर्यावरण की सुन्दरता एवं स्वच्छता में वृक्ष एवं वन बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । पर्यावरण में उपस्थित हानिकारक गैसों के दुष्प्रभाव को कम कर वायु के उत्सर्जन में वनों एवं वृक्षों का महत्त्वपूर्ण स्थान है, जिस कारण यह प्रकृति गतिमान है । अतः मनुष्य का कर्त्तव्य है कि वह प्रकृति के सौन्दर्य एवं सन्तुलन को बनाए रखने हेतु वृक्षारोपण भी करे । साथ ही यह प्रयास करना चाहिए कि पुराने वृक्षों की रक्षा करे । इस बात को गज़लकार इस प्रकार व्यक्त करते हैं –
“जो मारोगे मुझे तुम तो सुनो घर कितने टूटेंगे,
मेरी शाख़ों पे कितने पंछियों का आशियाना है ।”[14] (सुवर्णा दीक्षित)
“बरसते रहना कि बादल तुम्हारा नाम रहे
सुबह की धूप रहे, गुनगुनाती शाम रहे ।”[15] (शैलजा नरहरि)
- पर्यावरण प्रदूषण :
भौगोलिक चेतना का दूसरा पक्ष पर्यावरण प्रदूषण के प्रति जागरूकता है । पर्यावरण प्रदूषण के अनेक कारणों में से एक मुख्य कारण प्राकृतिक संसाधनों की अंसतुलित मात्रा तथा उनमें शुद्धता का अभाव है । औद्योगिक प्रदूषण, रासायनिक खादों तथा कीटनाशकों आदि का आवश्यकता से अधिक प्रयोग होने के कारण हवा तथा पानी की शुद्धता दूषित हो रही है । संसाधनों के इस प्रकार प्रदूषित होने का प्रतिकूल प्रभाव मानव के साथ अन्य प्राकृतिक जीवों के जीवन पर देखा जा सकता है । पर्यावरण प्रदूषण के इस रूप को ग़ज़लकार ने इस प्रकार व्यक्त किया है–
“घायल होते पानी और हवा भी उनकी ताकत से,
मत पूछो कैसे मिट्टी के पुतले सांसें भरते हैं ।”[16]– रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’
इस सदी की सबसे बड़ी समस्या ‘ग्लोबल वार्मिग’ एवं वर्तमान समय में वैश्विक महामारी है, जिसका सामना आज सम्पूर्ण विश्व कर रहा है । ‘ग्लोबल वार्मिंग’ का असर आज सम्पूर्ण विश्व के पर्यावरण पर दिखाई दे रहा है । प्रत्येक ऋतु का आगमन मौसम विशेष की पहचान हुआ करता था, परन्तु अब स्थिति ठीक इसके विपरीत है । किसी भी मौसम को किसी भी समय अनुभव किया जा सकता है । हर देश में मौसम में परिवर्तन का यह रूप देखा जा सकता है । निम्नांकित शेर इस स्थिति को बेहतर तरीके से व्यक्त करते हैं –
“कभी हवा तो कभी धूप, मानसून कभी
बदलता रहता है मौसम लिबास मौकों पर ।”[17] (देवेन्द्र कुमार‘आर्य’)
“है धूल अब जो उड़ रही सैलानियो के साथ
हो जाएंगे पहाड़ियों को अजनबी पहाड़
हिमनद सिकुड़ रहे हैं जो मौसम की मार से
कल की बुझा सकेंगे कहां तिश्नगी पहाड़ ।”[18] (प्रेम भारद्वाज)
आकाश में उड़ान भरने वाले उन्मुक्त पंछियों को पिंजरे में क़ैद करना, भौतिक प्रगति के कारण ऊँची-ऊँची इमारतों का निर्माण, कच्चे घरों में रहने वाली चिड़िया का लुप्त हो जाना आदि कई ऐसे विषय हैं जिनके बारे में हिन्दी ग़ज़ल बात करती है । इसी प्रकार के भावों को व्यक्त करते निमांकित शे’र दृष्टव्य हैं –
“उड़ान भरते हैं पंछी भी अब विमानों में,
कुछ इसलिए भी परिन्दे, उदास करते हैं ।”[19] (ज़हीर कुरेशी)
“मिट्टी के घर में इक कोना चिड़ियों का भी होता था,
अब पत्थर के घर से आबोदाना छूटा चिड़ियों का ।”[20] (कमलेश भट्ट ‘कमल’)
प्रकृति के नवीनीकरणीय संसाधनों पर ग्लोबल वार्मिंग तथा पर्यावरण प्रदूषण के अन्य रूपों का स्पष्ट दुष्प्रभाव देखा जा सकता है । पर्यावरणीय आपदाओं एवं समस्याओं का दुष्परिणाम हिमनदों के पिघलने, नदियों के सूखने, विश्व के एक हिस्से में सूखा तथा दूसरे हिस्से में बाढ़ जैसी स्थितियों के रूप में देखा जा सकता है । इन्हीं स्थितियों को व्यक्त करते निम्नांकित शेर दृष्टव्य हैं –
“नदी का रेत में तब्दील होना
ये कोई कम परेशानी नहीं है ।”[21] (इंदु श्रीवास्तव)
“बूँद पानी की नहीं पीने की ख़ातिर एक भी
दूर तक फैला हुआ है पानी–पानी हर तरफ़ ।”[22] (माधव कौशिक)
सार रूप में यह कहा जा सकता है कि हिन्दी ग़ज़ल के आरम्भ काल से ही ग़ज़लों में भौगोलिक चेतना विद्यमान रही है । हिन्दी ग़ज़ल के आरम्भिक काल में प्रकृति के सुकोमल रूप का प्रयोग अधिक दिखाई देता है । विदेशी सत्ता के विरुद्ध प्रतिरोध करने तथा देश प्रेम प्रदर्शित करने हेतु प्रकृति के विभिन्न घटकों को संकेतों के रूप में प्रयुक्त किया गया । दुष्यन्त कुमार ने भौगोलिक चेतना के अंतर्गत प्रकृति के सुकोमल एवं भयावह दोनों रूप का अंकन किया । तात्कालिक समाज एवं राजनीति में आये परिवर्तनों को दर्शाने के लिए प्रकृति के घटकों का सांकेतिक रूप में प्रयोग इनकी ग़ज़लों में देखा जा सकता है । दुष्यन्त कुमार के परवर्ती ग़ज़लकारों ने एक ओर जहाँ प्रकृति की सुन्दरता का चित्रण किया है, वहीं दूसरी ओर भौतिक सुख-सुविधाओं के कारण प्रकृति पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों का चित्रण भी किया है । इस प्रकार हिन्दी ग़ज़ल, भौगोलिक चेतना के दोनों घटकों प्रकृति वर्णन एवं पर्यावरणीय प्रदूषण के दुष्प्रभावों के अंकन द्वारा जनमानस को जागरूक करने का कार्य करती है ।
संदर्भ:
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- अंक:8. अक्टूबर 2015
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[4] अस्थाना, रोहिताश्व. (2010). हिन्दी ग़ज़ल: उद्भव और विकास. सुनील साहित्य सदन. नई दिल्ली. पृ. 203
[5] सिंह, शमशेर बहादुर. (2004). कुछ कविताएँ व कुछ और कविताएँ. राधाकृष्ण प्रकाशन. दिल्ली. पृ. 107
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[8] खराटे, मधु. (2011). चन्द्रसेन विराट की प्रतिनिधि हिन्दी ग़ज़लें. विद्या प्रकाशन. कानपुर. पृ. 65
[9] बेचैन, कुँअर (डॉ.). (2006). कोई आवाज़ देता है. डायमंड पॉकेट बुक्स (प्रा.) लि. नई दिल्ली. पृ. 23
[10] विनोद, कुमार. (2010). बेरंग हैं सब तितलियाँ. आधार प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड. हरियाणा. पृ. 23
[11] साहिल, राजेंद्र. (2005). मेरी पानी-सी आदत है. रूपकँवल प्रकाशन. तरनतारन. पृ. 34
[12] अस्थाना, रोहिताश्व. (2010). हिन्दी ग़ज़ल: उद्भव और विकास. सुनील साहित्य सदन. नई दिल्ली. पृ. 222
[13] सहर’ सादिका असलम नवाब. (2007). साठोत्तरी हिन्दी ग़ज़ल: शिल्प और संवेदना. प्रकाशन संस्थान. नयी दिल्ली.
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[14] दीक्षित, सुवर्णा. (2017). लम्हा-लम्हा ज़िन्दगी. अंजुमन प्रकाशन. इलाहाबाद . पृ.14
[15] दनकौरी, दीक्षित (सं.). (2009). ग़ज़ल-दुष्यन्त के बाद, भाग-1. वाणी प्रकाशन. नई दिल्ली. तृतीय. पृ. 173
[16] अस्थाना, रोहिताश्व. (2010). हिन्दी ग़ज़ल: उद्भव और विकास. सुनील साहित्य सदन. नई दिल्ली. पृ. 219
[17] आर्य, देवेन्द्र कुमार. (2014). मोती मानुष चून. अयन प्रकाशन. नई दिल्ली. पृ. 76
[18] भारद्वाज, प्रेम. (2005). …अपनी ज़मीन से. बृज प्रकाशन. नगरोटा बगवां. हिमाचल प्रदेश. पृ. 15
[19] कुरेशी, ज़हीर. (2016). निकला न दिग्विजय को सिकन्दर. अंजुमन प्रकाशन. इलाहाबाद, पृ. 38
[20] कुरेशी, ज़हीर. ‘समकालीन हिन्दी ग़ज़ल में प्रमुख सामयिक संदर्भ’. मधुमती. (प्रधान सं. – रोहित, गुप्ता). वर्ष: 55.
अंक:8. अक्टूबर 2015. पृ. – 52 से उद्धृत
[21] नचिकेता (सं.). (2014). अष्टछाप. फ़ोनीम पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स. दिल्ली. पृ. 197
[22] कौशिक, माधव. (2014). ख़ूबसूरत है आज भी दुनिया. भारतीय ज्ञानपीठ. नयी दिल्ली. पृ. 30
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