मैं भी चापलूस बन गया (हास्य कविता)आखिर क्या करता मैं? कहाँ मारा फिरता?किसको समझाता कहाँ नहीं धक्के खाता?ईमानदारी से हश्र एसा हुआ की?अब मैं भी चापलूस बन गया?
इन चापलूसों की ही तो चलती है?दबे पांव सबसे बनती भी है?इनकी चापलूसी सर्विस ट्वंटी फोर आवर,अब रिजल्ट सीट भी तो दुबारा बनती है?
ईमानदारी से न कोई बात ही सुनता?चक्कर काटो फिर भी कोई काम न होता?चापलूस भैया को ना रोको टोको?वरना वो भी मुझको ही दुत्कारता?
कब से कह रहा था मैं,की मीनटों में काम करबा दूँगा?तुने मेरी एक बात भी न सुनी?अब देखो तुझे कितने चक्कर कटवाउँगा?
तू ईमानदारी की बात ही क्यूँ करता है?मेरी हाईपर टेंशन बढाता है?अब भी तूं समझ ले किशन,बिना चापलूसी के प्रमोशन भी नहीं मिलता है?
अब मेरिट से कुछ नहीं होता?ना कोई तेरी बात सुनता?लल्लू पंजू को ही आफर मिलता,मंत्री संत्री भी चापलूस को ही चाहता?
एसे मे फिर मेरा क्या होगा?चापलूस भैया ने चुपके से कहा,चढावा चढ़ाते रह और मेरी बात सुना करफिर तो अब ‘किशन’ भी चापलूस बन गया?
कवि- किशन कारीगर

(©काॅपीराईट)

 

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