धूमिल की कविताओं का ध्वनि स्तरीय शैलीचिह्नक विश्लेषण
सुशील कुमार शोधार्थी (पीएच.डी) भाषा विज्ञान एवं पंजाबी कोशकारी विभाग पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला (पंजाब) मोबाइल न. 9914418289
सार संक्षेप
सन् 1960 के बाद की कविता में धूमिल भाषिक शब्दावली एवं कविता मुहावरे के कारण विशेष स्थान रखते हैं। अधिकतर आलोचक इनकी कविताओं को सपाटबयानी कहकर आलोच्य कर्म से इतिश्री कर लेते हैं, लेकिन ध्वनि स्तर पर कविताओं के भीतर की लय, सूत्रबद्धता एवं लेखिमिक स्तरीय प्रयोगों को अनदेखा कर देते हैं। जिन पर धूमिल कविताओं का सौंदर्य आधारित हैं। प्रस्तुत शोध-पत्र कविताओं के इसी सौंदर्य-बोध, भाव-बोध के विश्लेषित करने का प्रयास किया गया है। कविताओं की भीतरी लय, स्थिति-बोध को प्रस्तुत किया गया है।
मुख्य शब्द
शैलीचिह्नक, सांकेतिक ध्वनन, औच्चारिक प्रभाव, लेखेमिक व्यवस्था, अपूर्णान्वय, विराम-चिह्न, धूमिल की कविताएँ।
आमुख
भाषा-विज्ञान के अंतर्गत ध्वनि/ स्वन/ स्वनिम के अध्ययन का संबंध ध्वनि-विज्ञान से है। यांत्रिक (Mechanist) दृष्टिकोण से ध्वनि का मनुष्य के मन मस्तिष्क पर प्रभाव पड़ता है। मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से ध्वनि सार्थक हो या निरर्थक, उससे उत्पन्न तरंगों का प्रभाव मानवीय मन मस्तिष्क पर किसी-न-किसी रूप में अवश्य पड़ता है। भाषा का संबंध केवल सार्थक ध्वनियों से है और ध्वनियों का संबंध उच्चार से। Turner और Leonard Bloomfield भाषाई अध्ययन में वक्ता‚ परिस्थिति और श्रोता को विशेष महत्व देते हैं।
According to Leonard Bloomfield – “We distinguished three successive events in an act of speech: A. the speaker situation; B. his utterance of speech-sound and its impingement on the hearer’s ear-drums; and C. the hearer’s response.”[1]
In the words of Turner – “The sounds of language may be studies with special attention to the speaker, the surrounding air or the hearer. In the first case we study articulatory phonetics, the movements of lungs, vocal cords, tongue, lips and other organs which initiate and modify the noisy outward breathing which is the physiological reality of language. In the second case, acoustic phonetics, attention is directed to the sound waves in the air, the physical reality of speech; and in the third case, auditory phonetics, we study the process of perceiving these sounds and the psychology of hearing.”[2]
Turner और Leonard Bloomfield ने संप्रेषण में ध्वनियों के साथ, सुनिश्चित चयन, संयोजन को एक विशेष त्रिःसूत्रीय प्रक्रिया के रूप में देखते हुए उसके प्रभाव की ओर संकेत किया है। ध्वनि सिद्धांत संप्रदाय के संस्थापक आचार्य आनन्दवर्धन ‘ध्वन्यलोकः’ में ध्वनि को परिभाषित करते हुए इसी ओर संकेत करते हुए कहा है — “प्रथमे हि विद्वांसो वैयाकरणाः, व्याकरणमूलत्वात् सर्वविद्यानाम्। ते च श्रूयमाणेष् वर्णेषु ध्वनिरिति व्यहरन्ति।”[3]
डॉ. लक्ष्मीनारायण शर्मा के शब्दों में — “स्वनीम किसी भाषा का उच्चरित स्वन न होकर स्वनों के प्रयोग की एक काल्पनिक किन्तु व्यवहारिक उपयोगी व्यवस्था है। ………………. अर्थ भेदक स्वन को स्वनिम कहा जाता है। ‘सारस’, ‘सरस’, ‘रास’, ‘रस’, ‘सार’, ‘रसा’ शब्दों में ‘र्’, ‘अ’, ‘स्’, ‘आ’ चार स्वनिम हैं। एक ही परिवेश में आकर अर्थ-भेद करने की क्षमता रखने वाले स्वन स्वनिम कहलाते हैं।”[4] अर्थात् स्वनिमों का संबंध अर्थ-भेद क्षमता से है। प्रत्येक भाषा में स्वनिमों की संख्या उनकी अर्थ-भेदक क्षमता के आधार पर निश्चित होती है। जिन्हें व्यवहार में वर्ण के माध्यम से मूर्त किया जाता है। ‘कल’, ‘कूल’, ‘काल’, ‘कुल’, ‘कौन’, ‘कीमत’ में ‘क’ ध्वनि सूक्ष्म रूप से स्वनिम प्रकार की है, जिसे ‘क’ वर्ण के माध्यम से मूर्त किया गया है। ‘क’ स्वनिम प्रत्येक स्तर पर अर्थ-भेद का कार्य कर रहा है। स्वनिमों का यह संयोजन अलग-अलग अर्थों के संकेतक शब्दों का निर्माण करता है, जिससे एक विशेष ‘प्रभाव जनित अर्थ’ का निर्माण होता है। According to Hyman (L.M) — “The phoneme as a minimal unite of sound capable of making a meaning difference.”[5] भाषा ध्वनियों का उपयोग क्योंकि अर्थ के संप्रेषण के लिए किया जाता है, इसलिए ध्वनि-प्रक्रिया को भाषा अध्ययन के बिना समझा नहीं जा सकता। इस संदर्भ में ध्वनि-विज्ञान (Phonetics) और ध्वनि-प्रक्रिया (Phonology) का आश्रय लिया जाता है। ‘ध्वनि-विज्ञान’ का संबंध भाषा ध्वनियों के अध्ययन से है। इसके अंतर्गत स्पष्टोच्चारण एवं ध्वनिक (Acoustic) ध्वनि-विज्ञान आता है। ध्वनि कैसे उत्पन्न एवं व्यक्त होती है, का अध्ययन स्पष्टोच्चारण है। कुछ ध्वनियों के उच्चारण में अन्य ध्वनियों की अपेक्षा कम मांस-पेशीय प्रयत्न की अपेक्षा होती है। प्रयत्न लाघव ध्वनियों को अन्य ध्वनियों की अपेक्षा सरलता से उच्चरित किया जा सकता है। ध्वनिक के अन्तर्गत उत्पन्न ध्वनियों के भौतिक गुणों का अध्ययन किया जाता है। ध्वनि-विज्ञान के संदर्भ में ध्वनियों का निरंतर प्रवाह ही भाषा की विशेषता है। श्रोता⇆वक्ता का भाषा संकेत असतत इकाइयों के रूप में निरंतर जारी रहता है, जैसे — ‘कमल’ शब्द में तीन असतत इकाइयाँ हैं। इन असतत इकाइयों को ध्वन्यात्मक खंड़ों या स्वन के रूप में संदर्भित किया जाता है। अतः किसी भाषा का ध्वन्यात्मक अध्ययन ध्वन्यात्मक खंड़ों की एक सूची और विवरण प्रस्तुत करता है। ‘ध्वनि-प्रक्रिया’ का संबंध भाषा में ध्वनि-संरचना और कार्य से है। In the words of Hyman (L.M.) – “Phonology has been defined as the study of sound systems, that is, the study of how speech sounds structure and function in languages. As we shall see, some speech sound be used in a language to distinguish words of different meaning, where as other sounds cannot……………. A phonetic study tells how the sounds of a language are made and what their acoustic properties are. A phonological study tells how these sounds are used to convey meaning.”[6] ध्वनि-प्रक्रिया के निरूपणों में स्वनिमों के अनुक्रम स्लैश /…./ के बीच और ध्वन्यात्मक निरूपणों में स्वनों के अनुक्रम [ ] वर्ग कोष्ठक के बीच लिखित होते हैं।
भाषिक ध्वनियों के अध्ययन में ध्वन्यात्मक (Phonetic) और ध्वनि-प्रक्रिया (Phonology) का अध्ययन अन्योन्याश्रित है, क्योंकि भाषा ध्वनियाँ केवल अर्थ बताने का कार्य ही नहीं करती हैं, कई बार वक्ता ध्वनियों का आंतरिक या मानसिक प्रतिपादन करता है जो उनके भौतिक गुणों के समरूप नहीं होता अतः वहाँ भाषा ध्वनियों के मनोवैज्ञानिक, भौतिक पक्ष व प्रभाव संकेत Turner और Bloomfield के वक्ता, परिस्थिति व श्रोता के त्री-सूत्रीय प्रक्रिया में विश्लेषित हो होता है। Badouin de Courtenay, defined of the phoneme as “a mental reality, as the intention of the speaker or the impression of the hearer, or both.”[7] ध्वनि-प्रक्रिया भाषा के विशिष्ट विरोधाभासों को स्वीकार करती है जबकि ध्वन्यात्मक नियम यह निर्दिष्ट करते हैं कि विभिन्न वातावरण में अंतर्निहित स्वनिमों का उच्चारण कैसे किया जाता है। ध्वन्यात्मक गुणों का संबंध वक्ता से होता है और यह मनोवैज्ञानिक ढंग से वास्तविक रूप ग्रहण करता है।
कवि जीवन यात्रा के विविध चरणों में भाषा ध्वनियों का अधिग्रहण करता है। जिसमें वह पूर्वावस्था में ‘प’ को ‘प’ या ‘फ’ उच्चरित करता है जो उसकी ध्वनियों की प्रकृति विषयक मान्यता को प्रभावित करती है। यह त्रुटियाँ कभी-कभी विशेष तथ्य को व्यक्त करती हैं। हिन्दी के छायावादी कवि पन्त ने ‘पल्लव’ की भूमिका में कुछ ऐसे ही विचार व्यक्त करते हुए लिखा हैं — “ ‘पल्लव’ शीर्षक पहली ही कविता में “मरुताकाश” समास आया है; मुझे “मरुदाकाश” ऐसे लगा जैसे आकाश में धूल भर गई हो, या बादल घिर आये हों — स्वच्छ आकाश देखने को ही को नहीं मिला, इसीलिए मैंने उसके बदले “मरुताकाश” ही लिखना उचित समझा। एक अन्य स्थान पर वे लिखते हैं – “भौंहों” से मुझे “भोंहों” में अधिक स्वाभाविकता मिलती है; “भौंहें” ऐसी जान पड़ती है जैसे उनके काले काले बाल क्रोध से कठोर रूप कर खड़े हो गये हों।”[8] पंत ने इसे Idiosyncrasy (स्वभाव-वैष्मय) कहा है। आगे पंत कविता की भाषा के संबंध में लिखते हैं — “कविता के लिए चित्र-भाषा की आवश्यकता पड़ती है, उसके शब्द सस्वर होने चाहिए, जो बोलते हों; सेब की तरह जिनके रस की मधुर-लालिमा भीतर न समा सकने के कारण बाहर झलक पड़े; जो अपने भावों को अपनी ध्वनि में आँखों के सामने चित्रित कर सकें।”[9] पंत अपने काव्य में ध्वनि चयन, विचलन, साम्य के माध्यम से विशेष प्रभाव व भाव उत्पन्न करते हैं। भोलानाथ तिवारी ने इसे ‘अर्थ का सांकेतिक ध्वनन’ कहा है। उनके अनुसार — “ ‘ध्वनियों के प्रभाव जनित अर्थ’ से मेरा आशय अर्थ की वह ‘अनुभूति’ जो ध्वनियों के सुनने पर उनके प्रभाव स्वरूप श्रोता को होती है।”[10] ध्वनियों की यह ‘प्रभाव जनित अर्थ’ उनके उच्चारण पर आधारित होता है। हिन्दी भाषा की प्रकृति ध्वन्यात्मक है। भोलानाथ तिवारी ने ‘शैलीविज्ञान’ नामक पुस्तक के “ध्वनीय शैलीविज्ञान”[11] नामक अध्याय में हिन्दी ध्वनियों के उच्चारण की विशेषताओं की दृष्टि से उनके प्रभावों का विस्तृत वर्णन किया है। जब किसी कृति में लेखक विषय के अनुरूप विशेष प्रकार की ध्वनियों का संयोजन करता है तो वहाँ इस प्रकार के संयोजन संदर्भबद्ध होकर शैलीचिह्नक के रूप में सक्रिय होते हैं। सामान्यतः धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक विषयों से जुड़ी रचनाओं के विश्लेषण में इस प्रकार के ध्वनिक प्रभाव को देखा जा सकता है। जब किसी कृति में विषय-वस्तु व संदर्भ के अनुरूप रचनाकार विशेष प्रभाव या प्रवाह हेतु ध्वनि विशेष का संयोजन करता है वहाँ ध्वनि स्तरीय शैलीचिह्नक होता है। क्योंकि रचना का संबंध उच्चारण व लेखिमिक दोनों से हैं अतः कृति में इन्हीं दोनों स्तरों पर ध्वनिक शैलीचिह्नक सक्रिय होते हैं।
धूमिल की कविताएँ अभिव्यक्ति व प्रभाव की दृष्टि से अपने से पूर्व, समकालीन और बाद के कवियों से विलक्षण हैं। “एक सही कविता पहले एक सार्थक वक्तव्य होती है”[12] — कथन के अनुरूप धूमिल की कविताओं में गद्यात्मक भाषा प्रवाह मिलता है। शब्द चयन के साथ-साथ ‘संकेतक ध्वनि व्यवस्था’ कविता को व्यंग्यात्मक भाषिक मुहावरा प्रदान करती है। यही कारण है कि कविता पाठ समय दो-चार पंक्तियाँ उभरकर पाठक के मन, मस्तिष्क पर अपनी गहरा प्रभाव डालती हैं। अधिकतर आलोचक धूमिल काव्य के ध्वनि प्रवाह-प्रभाव को समझे बिना उन्हें फ़िकरेबाज़, नारेबाज़ कहकर इतिश्री कर लेते हैं। अतः कविताएँ ध्वनि स्तर पर उभरते शैलीचिह्नकों के विश्लेषण की मांग करती हैं।
ध्वनि स्तरीय शैलीचिह्नक उपरोक्त प्रतिमान के अंतर्गत धूमिल की कविताओं में स्वर, व्यंजन और लेखिमिक स्तर पर उभरते शैलीचिह्नक बिन्दुओं का अध्ययन करेंगे :
1.1 औच्चारिक स्वर ध्वनि-स्तरीय शैलीचिह्नक :
औच्चारिक स्वर ध्वनि स्तर पर धूमिल की अधिकतर कविताओं की आरम्भिक पंक्ति में ‘आ’ स्वर एक या एक से अधिक बार आता है। ‘आ’ एक दीर्घ, विवृत, अवृत्तमुखी स्वर है। विवृत स्वर होने के कारण ‘आ’ विस्तृतता का द्योतक है। पारदर्शिता की दृष्टि से यह ‘अ’ के बाद दूसरे स्थान पर आता है और कोमल-कठोरता के क्रम में यह सभी स्वर ध्वनियों में अंतिम क्रम में आता है। उच्चारण अवयवों की स्थिति में ‘आ’ दृढ़ता मूलक है। अतः ‘आ’ स्वर ध्वनि आरम्भ में कविता कथ्य की विस्तृत जन समूह से संबद्धता और कवि की समझ की पारदर्शिता के साथ संदर्भबद्ध है। कुछ कविताओं की आरम्भिक पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं —
‘‘बीस साल बाद
मेरे चेहरे में
वे आँखें वापस लौट आयी हैं’’[13]
उपरोक्त पंक्तियों में ‘आ’ ध्वनि बारंबारता में आज़ादी के बीस साल बाद के मोहभंग की स्थिति से संदर्भगत हैं। इसीलिए कविता के अंत तक कवि अपने-आप से प्रश्न पूछ बैठता है कि ‘‘क्या आज़ादी सिर्फ तीन थके हुए रंगों का नाम है/ जिन्हें एक पहिया ढोता है/ या इसका कोई खास मतलब होता है?’’[14]
एक अन्य उदाहरण —
‘‘अकेला कवि कठघरा होता है।’’[15]
‘मुनासिब काररवाही’ कविता की उपरोक्त आरम्भिक पंक्ति में ‘आ’ स्वर कवि की दृढ़ता और समझ से संदर्भबद्ध है। कवि को ज्ञात है कि शोषण के खिलाफ आवाज़ उठाने वाले अकेले कवि को कभी भी कठघरे में खड़ा किया जा सकता है; इसलिए वह दृढ़ता-पूर्वक अगली पंक्ति में घोषणा करता है – ‘‘इससे पहले कि ‘वह’ तुम्हें / सिलसिले से काटकर अलग कर दे / कविता पर / बहर शुरू करे / और शहर को अपनी ओर झुका लो।’’
‘‘दिन भर के बाद
भोजन कर लेने पर
देश-प्रेम से मस्त एक गीत
गुनगुनाता हूँ’’[16]
उपरोक्त पंक्तियों में ‘आ’ स्वर कवि मन में देश-प्रेम के विस्तार से संबद्ध है; जिसके लिए देश ‘जितना बड़ा है : उतना बड़ा है।’
‘‘दिन खराब थे और शुरुआत हो चुकी थी।
आँसू की जगह आँखों में बदले की आग थी।’’[17]
‘मुक्ति का रास्ता’ कविता की उपरोक्त पंक्तियों में ‘आ’ स्वर क्रांति के प्रति लेखकीय समझ की दृढ़ता से संदर्भबद्ध है; जिसका स्पष्टीकरण कविता के अंत तक ‘शब्द शस्त्र’ बन जाते हैं’, ‘कविता ने ढूँढ लिया है अपनी मुक्ति का रास्ता’ जैसे काव्य वक्तव्य से होता है।
‘‘हवा गरम है
और धमाका एक हल्की-सी रगड़ का
इन्तजार कर रहा है’’[18]
उपरोक्त पंक्तियों में ‘आ’ स्वर सामूहिक विद्रोह की आवश्यकता के साथ संदर्भबद्ध है।
इसके अतिरिक्त ‘आ’ स्वर ध्वनि कविताओं के बीच-बीच में उपस्थित होकर संदर्भबद्ध होती है और साथ ही कविताओं को एक विशिष्ट लय और एक सुर प्रदान करती है। कविता वक्तव्यों के अंत में क्रिया रूपों में ‘आ’, ‘ऐ’, ‘ऐं’, ‘ओ’, ‘ई’, ‘ऊ’, ‘ऊँ’, स्वरों ध्वनियों का प्रयोग मिलता है, जो तीनों संग्रहों की पृथक-पृथक कविताओं को परस्पर जोड़कर जन-जीवन की तत्कालीन वस्तु-स्थिति की समग्र तस्वीर उपस्थित करती है। स्वर ध्वनि स्तर इस प्रकार के प्रयोग धूमिल के समकालीन राजकमल चौधरी में नहीं मिलते। दृष्टव्य है —
‘‘इस वक़्त जबकि कान नहीं सुनते हैं कविताएँ
कविता पेट से सुनी जा रही है आदमी
गज़ल नहीं गा रहा है गज़ल
आदमी गा रही है’’[19]
‘‘क्या तुम कविता की तरफ जा रहे हो?
नहीं, मैं दीवार की तरफ
जा रहा हूँ।
फिर तुमने अपने घुटने और अपनी हथेलियाँ
यहाँ क्यों छोड़ दी हैं?
क्या तुम्हें चाकुओं से डर लगता है?”[20]
‘‘सुबह जब अन्धकार कहीं नहीं
होगा। हम बुझी हुई बत्तियों को
आपस में बाँट लेंगे।’’[21]
उपरोक्त वक्तव्यों के क्रिया रूपों में ‘आ’ विस्तृतता, ‘ऐ’ पारदर्शिता, ‘ऊ’ और ‘ओ’ ऊँचेपन की अभिव्यक्ति करते हैं। ‘ऊ’ स्वर ध्वनि अनुनासिक रूप में ऊँचेपन को और दृढ़ता प्रदान करती है।
1.2 औच्चारिक व्यंजन ध्वनि-स्तरीय शैलीचिह्नक :
धूमिल की कविताओं में ‘आदमी’, ‘चेहरे’, ‘भूख’, ‘रोटी’, ‘हिन्दूस्तान’, ‘जंगल’, ‘भाषा’, ‘लोकतन्त्र’, ‘प्रजातन्त्र’, ‘जनतन्त्र’, ‘शब्द’, ‘संसद’ शब्दों का बारंबार प्रयोग हुआ है। यदि इन शब्दों का व्यंजन प्रभाव स्तर पर विश्लेषण किया जाए तो वह अपनी संदर्भबद्धता में कविताओं के प्रभाव वैशिष्ट्य में साभिप्राय है। उपरोक्त शब्दों में द, म, न, ह, ल, ग, ज, व, भ, ब, र घोष ध्वनियों का अघोष ध्वनियों की तुलना में एवं द, म, न, ल, ग, ज, व, ब, र, त, क, ट, प अल्पप्राण ध्वनियों का महाप्राण ध्वनियों की तुलना में आधिक्य है। इनमें भी साम्य द, म, न, ल, ग, ज, व, ब, र घोष अल्पप्राण व्यंजन ध्वनियों की अधिकता के कारण गमक, (संगीत का विशेष कंपन) उदातता, गंभीरता है जो कि कविताओं में अपनी संदर्भबद्धता के कारण विशेष प्रभाव की सृष्टि करता है। उपरोक्त शब्द बारंबारता में ‘संसद से सड़क तक’, ‘सड़क से संसद तक’ लेखकीय समझ और दृष्टि के परिचायक हैं कि लेखक तात्कालिक राजनीतिक, सामाजिक स्थितियों पर प्रतिक्रियात्मक नज़र रखे हुए है।
धूमिल की कविताओं में सबसे अधिक विवाद का विषय स्त्री के प्रति दृष्टिकोण रहा है। जिसका मुख्य कारण कविताओं में ‘योनि’, ‘स्तन’, ‘नितम्ब’, ‘जांघें’, ‘गर्भपात’, ‘सहवास’, ‘मासिक धर्म में डूबे कुंवारेपन की आग’ जैसे गुह्य अंगों के सूचक शब्द और यौन क्रियाओं से संबंधित शब्दों का प्रयोग है। इस प्रसंग में स्त्री से संबंधित काव्य वक्तव्य का व्यंजन प्रभाव की दृष्टि से विश्लेषण की मांग करते हैं; क्योंकि व्यंजन प्रभाव ही संदर्भबद्ध होकर कवि मनोरथ व दृष्टि को उचित रूप से प्रस्तुत कर सकता है। दृष्टव्य है —
‘‘उसने जाना कि हर लड़की
तीसरे गर्भपात के बाद
धर्मशाला हो जाती है और कविता हर
तीसरे पाठ के बाद।’’[22]
उपरोक्त वक्तव्य में मूल व्यंजनों में सबसे कोमल ‘व’ का एक बार, ‘ल’ का दो बार, ‘स’ का दो बार, ‘र’ सात बार और ‘ह’ का चार बार प्रयोग हुआ है। ‘स’ अल्पयत्नज उच्चारण के कारण ‘श’ से कोमल है। ‘श’ के उच्चारण में तनाव बढ़ता है। इस संदर्भ में यदि वक्तव्य को पुनः देखें तो ‘हर लड़की तीसरे गर्भपात के बाद… कविता हर तीसरे पाठ के बाद’ ‘धर्मशाला’ हो जाने के कारण कवि तनाव में है। ‘स… स’ के मध्य ‘श’ कवि की स्त्री की तत्कालीन स्थिति को लेकर चिंता व तनाव को प्रस्तुत करता है। इसके साथ ही अघोष अल्पप्राण स्पर्श ‘क’ का चार बार प्रयोग से स्त्री प्रति कवि दृष्टिकोण की स्वच्छता, तरलता, कोमलता व्यक्त होती है। अतः धूमिल पर स्त्री प्रति संकुचित दृष्टिकोण के आरोप निराधार है।
1.3 लेखेमिक स्तरीय शैलीचिह्नक :
भाषा असतत तत्वों का रेखिअ अनुक्रम है । जिसमें कई प्रकार की विविधताएँ एक साथ कार्य करती हैं। उदाहरणार्थ ‘कमल’ शब्द के उच्चारण में क म ल में विविध तत्वों के बीच ध्वनि प्रवाह ध्वनियों के रेखिक अनुक्रम का उच्चारण अवयवों के सहयोग से निरन्तर सार्थक प्रवाह ही भाषा है। भाषाई उच्चारण के समय स्वर तंत्रियों में थरथराहट वायु का विरल और अवरुद्ध प्रवाह उच्चारण इकाइयाँ विश्लेषण की मांग करती हैं। इसके अतिरिक्त भाषा-विज्ञान में भाषा और मौन के बीच का ठहराव या यति का संबंध लेखेमिक स्तर से है। काव्य भाषा की विशेष व्यवस्था में ठहराव या यति विशेष रूप में कार्य करती है। कविता के सस्वर पाठ को ठहराव या यति, पंक्ति विभाजन की विशेष व्यवस्था के रूप में ध्वनि के उतार-चढाव या चिह्नों, विराम चिह्नों का प्रयोग भी किया जाता है। विराम चिह्नों का प्रयोग कविता में नाटकीयता की स्थिति भी उत्पन्न करता है और विषय-वस्तु को स्पष्ट करने में लेखक को विशेष सहयोग देता है। कविता में विराम चिह्नों का विशिष्ट प्रयोग कवि की व्यक्तिगत शैली से संबद्ध होता है। कभी-कभी कवियों का विशिष्ट स्थितियों या संदर्भों में विराम चिह्नों प्रयोग उनका व्यक्तिगत नियम बन जाता है। डॉ. भोलानाथ तिवारी के अनुसार — “साहित्यकार किसी कृति की रचना करते समय मुख्यतः तो भाषा के ध्वनि, शब्द, रूप, वाक्य आदि स्तरों से संबंध शैली उपाधानों का प्रयोग करता है, किन्तु कभी-कभी वह अपने लेखन में विराम-चिह्नों, अक्षर के लेखन ढंग (अर्द्धाक्षर, छोटे-छोटे अक्षर, तिरछे अक्षर अथवा उल्टे अक्षर, स्थान की रिक्तता, पंक्तियों, वाक्यों या वाक्यांशों को तोड़ने अथवा जोड़ने तथा गणितिय एवं अन्य चिह्नों (+,—,∵,∴,∆,→,(),□) आदि इत्यादि के सहारे भी अपनी अभिव्यक्ति में सृजनात्मकता लाता है — अर्थात् शैली के लेखीय उपाधानों का प्रयोग करता है।”[23] इन लेखीय उपादानों का प्रयोग सोद्धेश्य होता है, क्योंकि लेखक भाषा को भावाभिव्यक्ति की दृष्टि कम प्रभावी पाता है।
1.3.1 अपूर्णान्वय (Enjambment) : साहित्य लेखन विशेषतः कविता लेखन में अपूर्णान्वय (Enjambment) एक अलग लेखिमिक विशेषता है। साहित्य में इसे एक भावना या विचार के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। इसमें बिना किसी ठहराव या वाक्य-विच्छेद के एक पंक्ति से आगे की पंक्तियों में विचार प्रवाह चलता है। अपूर्णान्वय के प्रयोग में कवि एक पंक्ति के अर्थ में देरी करके पाठकों को चकित करता है, ताकि वह आगे पंक्तियों को पढ़े और मुख्य विचार सुदृढ़ हो सके।
“Features of Enjambment
- Enjambment lines usually do not have a punctuation mark at the end.
- It is a running on of a thought from one line to another without final punctuation.
- It is used in poetry to trick a reader. Poets lead their reader to think of an idea, then more on the next line giving an idea that conflicts with it.
- Poet can achieve a fasts pace or rhythm by using enjambment.
- Multiple ideas can be expressed without using semi-colons, Periods, or commas.
- It helps reinforce the main idea that might seam to be confusing with pauses.
- It can be seen in different songs and poems.
- It help readers to continues thinking about the idea, which is expressed in one line, and which continues through to the next.”[24]
धूमिल की कविताएँ लेखिमिक स्तर पर भी अलग पहचान रखती हैं। कविताओं में विराम, अर्द्ध-विराम और अल्प-विराम चिह्न अधिकतर गायब हैं, जिससे कविता की संरचना गहन होती हुई अनेकविधता की स्थिति प्राप्त करती है। इस संदर्भ में ‘उस औरत की बगल में लेटकर’ कविता दृष्टव्य है। अड़तालीस पंक्तियों की पूरी कविता में ग्यारहवीं पंक्ति में अल्प-विराम का प्रयोग कर अंत में पूर्ण-विराम का प्रयोग किया गया है। अतः जहाँ कवि अपूर्णान्वय (Enjambment) की पद्धति के माध्यम एक प्रकार का प्रवाह और विचार/ चिंतन की निरंतरता बना रखता है। अपूर्णान्वय (Enjambment) का प्रयोग अन्य कविताओं जैसे — ‘एकान्त-कथा’, ‘राजकमल चौधरी के लिए’, ‘शहर का सूर्यास्त’, ‘प्रौढ़ शिक्षा’, ‘मकान’, ‘शहर का व्याकरण’ ‘कविता’ आदि में भी मिलता है इसके अतिरिक्त लम्बी कविताओं में प्रवचनों में स्थान-स्थान पर इस पद्धति का प्रयोग है। धूमिल की सम्पूर्ण कविताओं में नब्बे प्रतिशत पूर्ण विराम (।), अल्प विराम (,) का लोप है जिस कारण पूर्ण विराम (।), अल्प विराम (,) के बिना एक पंक्ति से दूसरी पंक्ति विचार का निरंतर प्रवाह चलता रहता है। धूमिल के समय के अन्य कवियों की कविताओं में यह विशेषता नहीं मिलती।
1.3.2. विराम चिह्नों का प्रयोग : इसके अतिरिक्त आलोच्य कविताओं में जहाँ कहीं अल्प-विराम, अर्द्ध-विराम, पूर्ण-विराम, प्रश्नवाचक, विस्मयसूचक, उद्धरण, कोष्ठक, लोप, योजक, निर्देश चिह्न आते हैं वहाँ वह संदर्भबद्ध होकर नाटकीयता की स्थिति उत्पन्न करने के साथ-साथ कविता कथ्य की वस्तु-स्थिति को भी स्पष्ट करते हैं। दृष्टव्य है —
“मैं झेंपता हूँ
और धूमिल होने से बचने लगता हूँ
याने बाहर का ‘दुर-दुर’
और भीतर का बिल-बिल होने से
बचने लगता हूँ
आप मुस्कुराते हो?
‘बढ़िया उपमा है’
‘अच्छा प्रतीक है’
‘हें हें हें! हें हें हें!!’
‘तीक है — तीक है!”[25]
स्पष्टीकरण — उपरोक्त अवलोकनार्थ कवितांश में तीसरी पंक्ति में ‘दूर-दूर’, सातवीं, आठवीं, नवीं, दसवीं पंक्तियों को इकहरे उद्धरण में रखकर कवि, लेखक को सामाजिक स्तर पर अपरिवर्तनाकांक्षी शक्तियों से मिलने वाली उपेक्षा पर बल देता है। दसवीं पंक्ति में ‘ठीक है — ठीक है!’ की जगह विचलन रूप में ‘तीक है — तीक है!’ का उपयोग सामाजिक स्तर पर कवि की उपेक्षा को चरम पर ले जाता है।
“अन्त में कहूँगा—
सिर्फ़, इतना कहूँगा—
‘हाँ, हाँ, मैं कवि हूँ;
कवि-याने भाषा में
भदेस हूँ;
इस कदर कायर हूँ,
कि उत्तरप्रदेश हूँ!”[26]
स्पष्टीकरण — उपरोक्त पंक्तियों में निर्देशक चिह्न संकेत करता है कि कवि आगे किसी विशेष भाव को व्यक्त करना चाहता है। जिसकी पुष्टि आगे की पंक्ति को इकहरे उद्धरण में रखने से होती है। इकहरे उद्धरण की पंक्तियों के बीच अल्प-विराम, अर्द्ध-विराम, निर्देशक चिह्न नाटकीयता पैदा करता है। अंत में सम्बोधन चिह्न कवि घोषणा के साथ संदर्भबद्ध है जो सामाजिक दायित्व-बोध के साथ-साथ पारिवारिक दायित्व-बोध के कारण कहीं-न-कहीं शिथिल है।
ठीक-बस-अन्त लिखो।’’[27]
स्पष्टीकरण — विचारणीय पंक्तियों में प्रथम पंक्ति में ‘बसन्त’ शब्द के साथ सम्बोधन चिह्न और बाद की पंक्तियों में (बसन्त शब्द को विभक्त कर) ‘ठीक-बस-अन्त’ में योजक-चिह्न का उपयोग, आज़ादी के नाम पर राजनीतिक स्तर पर किए जा रहे शोषण के अंत की उद्घोषणा के साथ संदर्भगत है।
“पिता अपने बारे में सोचता है और चुपचाप
बच्चा उतरता है पिता के भीतर
धीरे-धीरे फैलती हैं अंतड़ियाँ
खून दौड़ने लगता है नसों के बीच
नाखून बढ़ते हैं : दाँतों में तेजी आती है
जबड़े कसते हैं : आँखों में बमकती है आग
पिता फूलता है, फैलता है, फड़कता है
फड़फड़ाता है, फट जाता है — हे राम! हाय राम!!
ओ हत्याकाण्ड के साक्षी आकाश! रात की शुरुआत के साथ ही
भोर की पदचाप सुनाई पड़ने लगती है’’[28]
स्पष्टीकरण — उपरोक्त पाँचवी और छह पंक्तियों में दो कथनों को अलग दिखाने के लिए उप-विराम का प्रयोग अपनी संदर्भबद्धता में आगे के शब्दों ‘रात’, ‘भोर’ के साथ संबद्ध है। अँधेरे के बाद प्रकाश की उम्मीद आँखों में बमकती आग से ही सम्भव है।
“अक्सर तुम्हें देखा है—
रीता अन्धेरा जब
गंगा की लहरों में, भोर को बुलाते हुए—
मौन-मन्त्रस्रष्टा-से
जीवन युग-द्रष्टा-से।
अक्सर तुम्हें देखा है —
(सोचा है देख-देख)
अन्तर्मन तुम्हारा एक खड़िए का टुकड़ा है।’’[29]
स्पष्टीकरण — उपरोक्त पंक्तियां ‘ओ बैरागी : पं. शान्तिप्रिय द्विवेदी’ कविता में से ली गई हैं। चौथी व पाँचवी पंक्ति ‘मौन-मन्त्रस्रष्टा-से’ व ‘जीवन युग-द्रष्टा-से’ में शब्दों को योजक से जोड़कर पं. शान्तिप्रिय द्विवेदी के व्यक्तित्व के गुणात्मक पक्षों को गहनता में स्पष्ट किया गया है। सातवीं पंक्ति में कोष्ठक के भीतर का वाक्य द्विवेदी के व्यक्तित्व के प्रति लेखकीय मानसिक अवलोकन से सम्बद्ध है जो कि नाटकीयता की स्थिति उत्पन्न करता है।
“और मुझे कुछ नहीं सूझ रहा है
सिर्फ एक शोर है
जिसमें कानों के पर्दे फटे जा रहे हैं
शासन सुरक्षा रोज़गार शिक्षा
राष्ट्रधर्म देशहित हिंसा अहिंसाॱॱॱ
सैन्यशक्ति देशभक्ति आज़ादी वीसाॱॱॱ
वाद बिरादरी भूख भीख भाषाॱॱॱ
शान्ति क्रान्ति शीतयुद्ध एटम बम सीमाॱॱॱ
एकता सीढ़ियाँ साहित्यिक पीढ़ियाँ निराशाॱॱॱ
झाँय-झाँय, खाँय-खाँय, हाय-हाय, साँय-साँयॱॱॱ
मैंने कानों में ठूँस ली हैं अँगुलियाँ
और अँधेरे में गाड़ दी है
आँखों की रोशनी।’’[30]
स्पष्टीकरण — उपरोक्त पंक्तियाँ धूमिल की लम्बी कविता ‘पटकथा’ में से ली गई हैं। लोप-चिह्न शब्द के नीचे से आगे को लगता है। लेकिन लेखक ने विचलन स्तर पर शब्द के ऊपर से आगे को लोप-चिह्न का प्रयोग किया है। लोप-चिह्न से पहले संज्ञा शब्दों के मध्य अल्प-विराम का प्रयोग नहीं किया गया। दरअसल लेखक यहां फैंटेसी की स्थिति को गहराने का प्रयास करता है। जब वह इससे कुछ पहले की पंक्ति में कहता है — ‘नींद के भीतर यह दूसरी नींद है।’ इसके साथ ही लेखक लोप-चिह्न व अल्प-विराम के लोप द्वारा चौथे आम चुनावों के समय राजनीतिक भ्रम व शोर की स्थिति को बिम्बित करता है।
1.3.3. पंक्ति लेखन की अलग व्यवस्था : आलोच्य कविताओं में हमें पंक्ति लेखन की अलग व्यवस्था के प्रसंग में भी लेखिमिक ध्वनि-स्तरीय शैलीचिह्नक मिलता है। लेखक कविता को बायें हाशिये से आरम्भ करता हुआ मध्य में दो-चार पंक्तियों को या शब्द (संज्ञा, सर्वनाम या क्रिया) को मध्य/ अंत में फ़ासले पर रख देता है। इस प्रकार के प्रयोग यहाँ कविता के मानक से विचलन/ विपथन हैं, वहाँ पंक्ति के उच्चारण में आया फासला, ठहराव संदर्भबद्ध होकर कविता स्थिति को स्पष्ट करता है। पाठक को ठहराव देकर सोचने के लिए मजबूर करता है, झकझोरता है। यह ठहराव (POSE) कथन की भंगिमा के साथ भी संदर्भगत है, दृष्टव्य है —
“जंग लगे अचरज से बाहर
आ जाता है आदमी का भ्रम और देश-प्रेम
बेकारी की फटी हुई जेब से खिसककर
बीते हुए कल में
गिर पड़ता है :
मैंने रोज़गार-दफ्तर से गुज़रते हुए—
नौजवान को
यह साफ़-साफ़ कहते सुना है —’’[31]
“वक्त जहाँ पैंतरा बदलता है
बेगाना
नस्लों के
काँपते जनून पर
एक-एक पत्ती जब
जंगल का रुख अख्तियार करे’’[32]
“न मैं पेट हूँ
न दीवार हूँ
न पीठ हूँ
अब मैं विचार हूँ।’’[33]
1.3.4. शब्द विभाजन/ भंग : धूमिल अपनी कविताओं में स्थिति का आभास देने के लिए लेखिमिक स्तर पर किसी शब्द को पूर्ण रूप में न लिख कर वर्णों को अलग-अलग कर लिख देते हैं जिसे कविता में नाटकीयता की स्थिति भी उत्पन्न हो जाती है। इस प्रकार के प्रयोग संदर्भबद्ध होते हैं सामाजिक संदर्भ में कवि वस्तु-स्थिति को स्पष्ट करने के लिए वक्ता व संवाद में औच्चारिक विचलन करता है। In the words of Peter Trudgill – “They were also, however, interested in the relationship between these variables and social context. It was known, of course, that speakers change their pronunciation from situation to situation (most people know someone who has a ‘telephone voice’, for example) but there were problems as to how to investigate what from this change took.”[34] कविता जैसी विधा जिसका संबंध उच्चारण है में लेखक वक्ता उच्चारणिक संकेत देने के लिए और श्रोता को पाठकीय संकेत देने व स्थिति के स्पष्टीकरण के लिए इस प्रकार के प्रयोग करता है। धूमिल कविताओं में खंडित मानसिकता और खंडित व्यवस्था को ऐसे प्रयोगों के माध्यम से बिम्बित करता है। दृष्टव्य है —
“हवाई हमलों में सुरक्षा के इश्तहार
या
ता
या
त
को
रा
स्ता
देती हुई जलती रहेंगी
चौरस्तों की बस्तियां’’[35]
उपरोक्त लेखिमिक ध्वनि व्यवस्था आपातकालीन स्थिति की भयावहता से सम्बद्ध है। ‘यातायात को रास्ता’ वाक्यांश को लेखिमिक स्तर पर भिन्न तरह से लिखना केवल चमत्कार प्रदर्शन नहीं है बल्कि आपातकालीन की गहनता से संदर्भबद्ध है।
“एक समूचा और सही वाक्य
टूटकर
बि ख र गया है’’[36]
उपरोक्त वाक्य अपने आप में पूर्ण है लेकिन लेखक ने इसे तीन पंक्तियों में विभिक्त कर, उसमें भी ‘बिखर’ शब्द को विभक्त कर आजादी के बाद देश की सम्पूर्ण व्यवस्था के बिखर जाने का संकेत दिया है।
“भाषण में जोश है
पानी ही पानी है
पर
की
च
ड़
खामोश’’[37]
‘कीचड़’ शब्द को अलग-अलग वर्ण में अलग-अलग पंक्ति में विभक्त कर असंगठित निम्न-मध्य वर्ग के चुपचाप शोषण सहने की स्थिति को स्पष्ट किया गया है।
“मैंने कहा-आ-ज़ा-दी”[38]
स्वतंत्रता के पश्चात आज़ादी से मोहभंग की स्थिति को स्पष्ट किया गया है। आजादी के बाद भ्रष्ट राजनीति, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, भूख, अकाल की स्थिति ने जनता में आज़ादी के स्वप्न को भंग कर दिया। उसके मन में आज़ादी के बाद के विखंडित हिन्दुस्तान की तस्वीर रह गई।
“राॱॱॱजॱॱॱकॱॱॱमॱॱॱलॱॱॱचौॱॱॱधॱॱॱरी”[39]
उपरोक्त काव्यांश राजकमल चौधरी के खंडित व्यक्तित्व और विरोधाभास के साथ संदर्भबद्ध है।
1.3.5. वाक्य विभाजन एवं पूर्ण लेखन : आलोच्य कविताओं में लेखिमिक स्तर पर एक व्यवस्था वाक्य/ पंक्ति को तोड़कर दो पंक्तियों में विभाजन कर लिखना है। ऐसे प्रयोग तात्कालिक अधिकतर कवियों की रचनाओं में मिल जाते हैं। धूमिल की कविताओं में भी गद्य से पद्य को पृथक व काव्य वस्तु स्थिति की मांग के अनुरूप इस पंक्ति व्यवस्था को अपनाया गया है। कहीं कहीं कवि पंक्ति/ वाक्य को पूर्ण एक पंक्ति में स्थान देता है। ऐसे प्रयोग संदर्भगत होकर कविता भावार्थ से गहन स्तर पर संबद्ध हैं, यथा दो उदाहरण प्रस्तुत हैं —
“ “लोकतन्त्र के
इस अमानवीय संकट के समय
कविताओं के जरिए
मैं भारतीय
वामपन्थ के चरित्र को
भ्रष्ट होने से बचा सकूँगा” एक मात्र इसी विचार
से मैं रचना करता हूँ अन्यथा यह इतना दुस्साध्य
और कष्टप्रद है कि कोई भी व्यक्ति
अकेला होकर मरना पसन्द करेगा”[40]
“कहीं कुछ बदला नहीं है
लेकिन अब याद आता है
हम एक-दूसरे को कितना प्यार करते थे।
मैं उस दिन की बात सोचता हूँ
हम दोनों बाजार गए
और मुख-द्वार के लिए नया ताला खरीदा
एक ताली तुमने रख ली और एक ताली मैंने
यह अजनबी होने की शुरुआत थी”[41]
प्रथम दृष्टांत में कवि ने दूहरे उद्धरण में एक संयुक्त वाक्य छः पंकतियों विभाजित कर लिखा है। ऐसा जहाँ काकू/ सस्वर पाठ की दृष्टि से किया गया है वहाँ इस प्रकार का प्रयोग ‘लोकतन्त्र के अमानवीय संकट’, ‘भारतीय वामपन्थ के भ्रष्ट चरित्र’ से संदर्भगत है। इसके विपरीत दूसरे दृष्टांत में पूर्ण पंक्ति लेखन व्यवस्था के अपनाया गया है। यदि पूरी कविता को आरम्भ से अन्त तक पढ़ा जाए तो अंत के इस भाग की संदर्भबद्ध स्पष्ट हो जाती है। कविता पूर्व के सारे भाग में कवि वाक्य भंग द्वी पंक्ति लेखन व्यवस्था को अपनाता संबंधों के विघटन की स्थितियों व विघटित स्थितियों का प्रस्तुत करता है। उपरोक्त अंश में आकर संबंधों के विघटन से पहले के प्रेम, अपनेपन का स्मरण करता है और उस समय को स्मरण करता है जब अजनबीपन का शिकार हुए। इसी कारण कवि ने पूर्ण पंक्ति लेखन पद्धति को अपनाया है। ऐसे प्रयोग कविता स्थिति/ भाव भंगिमा/ कथ्य से गहन स्तर पर संबंध हैं।
निष्कर्ष :
अंततः कहा जा सकता है आलोच्य कविताओं में प्रवाह, प्रभाव की सृष्टि हेतु ध्वनि स्तर पर विशेष पैटर्न का चयन किया गया है। In the words of Suresh kumar –“The selection of linguistic units with a certain phonological pattern has always been of special significance to the poets.”[42] कविताओं में अनुभूति और अभिव्यक्ति की संश्लिष्टता है जिसका प्रमाण ध्वनि व लेखिमिक स्तर पर व्यवस्था में मिलता है। यह व्यवस्था वस्तु व वस्तु-स्थिति को स्पष्ट करने में सहायक होती है। कविताओं के मध्य व अंत में स्वर व व्यंजन स्तर पर ध्वनि साम्य लेखकीय दृष्टि, पाठकीय चेतना को ठोस आधार प्रदान करता है। विशिष्ट लेखिमिक व्यवस्था के अंतर्गत विराम चिह्नों का प्रयोग और पूर्ण विराम का अधिकतर लोप क्रमिकता व नाटकीयता प्रदान करता है। वाक्य विभाजन व शब्द भंग का चयन कवि स्थिति बोध के लिए करता है। अतः आलोचक धूमिल की कविताओं को सपाटबयानी कहकर आलोच्य कर्म से जो इतिश्री कर लेते हैं वह ध्वनि स्तर उपस्थित इन्हीं शैलीचिह्नकों की अनदेखी का परिणाम है। धूमिल की कविताओं का अपना प्रवाह/ प्रभाव जो विषय वस्तु, परिवेश की उपज है। अपने ‘ध्वनि जनित प्रभाव’ के ही कारण कविताएँ आलोचकों व पाठकों के आकर्षण का केन्द्र हैं।
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