फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ का रिपोर्ताज ‘नेपाली क्रांति-कथा’ :

स्पर्श-चाक्षुष-दृश्य बिंब की लय का बखान

अमरेन्द्र कुमार शर्मा
9422905755
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा

शोध सारांश :

फनीश्वरनाथ ‘रेणु’ के रिपोर्ताज लेखन में ‘नेपाली क्रांति-कथा’ एक विशिष्ट रिपोर्ताज इस अर्थ में है कि नेपाली लोकतंत्र के एक ऐतिहासिक मोड़ को न केवल यह व्यक्त करता है बल्कि भारत के साथ उसके संबंध के सूत्र को भी विश्लेषित करता है. यह क्रांति-कथा लोकतंत्र की स्थापना के लिए अक्तूबर 1950 से मार्च 1951 के बीच छः महत्वपूर्ण तारीखों के बीच हिमालय की तराई में घटित होने वाली परिघटना का एक आख्यान रचती है. यह शोध-आलेख, क्रांति-कथा के विभिन्न ऐतिहासिक संदर्भ, क्रांति के विचलन, राणाशाही की क्रूरता, नेपाल की जनता के सरोकारों, कोसी नदी के कछार की संस्कृति आदि के विभिन्न पक्षों का विश्लेष्ण करते हुए फनीश्वरनाथ ‘रेणु’ की राजनीतिक यात्रा का संक्षिप्त आरेख प्रस्तुत करता है. रिपोर्ताज के सैद्धांतिक पक्षों पर पाश्चात्य और भारतीय चिंतन के संदर्भ भी उदाहरणों के साथ इस शोध-आलेख की संरचना में शामिल है.

बीज शब्द:

रिपोर्ताज, राजनीति, क्रांति, राणाशाही, भारत छोड़ो आंदोलन, संपूर्ण क्रांति, द्वितीय विश्व युद्ध, समाजवाद, हड़ताल, मुक्ति-युद्ध, पाठ, विरासत, जारशाही, मुक्तिसैनिक, जनयुद्ध, बंदूक, रक्त, जेनर, अधिनायक, लोकतंत्र, संसद .

आमुख

“ भावना वस्तु के विवरण, न कि विषय से उमड़ती है. इसलिए लेखक के लिए यह संभव नहीं है कि भावना के बगैर वस्तु के भीतर प्रवेश कर सके. … भावना भले ही प्रतीक, बिंब, संवेदना या आत्मपरकता अथवा वस्तुपरकता के मिश्रण के जरिए लेखक व्यक्त करे, लेकिन भावना को वस्तु के अंग, उसकी विशेषता के रूप में प्रस्तुत करे. उस भावना को वस्तु के संग ही प्रकट होना चाहिए. ”[1]

– हू फेंग (चाइना, रिपोर्ताज, चार्ल्स ए. लाऊलिन)

“ नेपाल-भारत की सीमा-रेखा के पास ‘नो मैंस लैंड’ के किनारे, भारत की भूमि पर एक चिता सजाई जा रही है. विराटनगर और जोगबनी के दस हजार मजदूरों के प्यारे और बहादुर साथी की अर्थी उठ रही है. पूर्णिया जिला के किसानों का अगुआ-लड़का और बिहार के विद्यार्थियों और नौजवानों के प्रिय ‘भैया जी’- लाल झंडे में लिपटे, फूल मालाओं से लदे आ रहे है… सावधान ! आगे-आगे मातमी धुन बजती हुई बिगुलवादकों की टुकड़ी…धीरे-धीरे आ रही है… भारत-नेपाल मैत्री अमर हो…नेपाली प्रजातंत्र जिदाबाद…डाक्टर कुलदीप झा ट्रठांय ! सलाम-लाल सलाम !!… ट्रठांय !…सलाम… ट्रठांय. ”[2] – फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ (नेपाली क्रांति-कथा)

अपनी रचनात्मकता को लोक धुनों – ‘ढन-ढन रुनुक-झुनुक ! झन-न’[3] से सजाने वाले धरोहर रचनाकार फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ (4 मार्च 1921-11 अप्रैल 1977) बंदूक से निकलती गोलियों की चीख – ‘ट ट ट ट ट ट ट ; ट ट ट ट ट ट ट ’, ‘ठांयठांय, ठांयठांय-ठ- ठांय…!’[4] का प्रत्याख्यान रचने वाले एक ऐसे रचनाकार हैं जिनके गद्य में स्पर्श-चाक्षुष-दृश्य रूपबंध का सुख है. रिपोर्ताज ‘नेपाली क्रांति-कथा’ की सतह पर स्पर्श-चाक्षुष-दृश्य रूपबंध को तीव्र गति से घटित होते हुए देखा जा सकता है. ‘रेणु’ की रचनात्मकता के बहुलांश में चाक्षुष बिंब की गतिशीलता का नैरन्तर्य हिंदी साहित्य में संभवतः अकेला विलक्षण प्रदेय है. रिपोर्ताज के गद्य में ‘भावना और वस्तु’ का एक अविस्मरणीय संतुलन ‘रेणु’ साध लेते है. ‘रेणु’ की रचनात्मकता के बहुलांश में चाक्षुष बिंब की गतिशीलता कई बार तीन बिंदियों (डॉट,डॉट,डॉट) के साथ एक ‘सहायक नाद’ की तरह घटित होता हुआ दिखलाई देता है. ‘रेणु’ की कहानियों,उपन्यासों, रिपोर्ताजों में यह तीन बिंदियाँ रचना-शिल्प के अनिवार्य घटक हैं. उनकी रचनात्मकता में इन तीन बिंदियों पर अलग से विशेष तौर पर गौर किया जाना चाहिए. यह दिलचस्प है कि ‘रेणु’ ने 1957 में एक कहानी लिखी , जिसका शीर्षक ‘तीन बिंदियाँ’[5] है. यूँ तो यह कहानी संगीत और साज पर आधारित मनुष्य के विविध जीवन-प्रसंगों को व्यक्त करने वाली है लेकिन इस कहानी में तीन बिंदियों की आवृति कहानी के कथ्य और उसके अर्थ को कहानी में प्रयुक्त शब्दों के इर्द-गिर्द ही विन्यस्त नहीं करती बल्कि कहानी के कथ्य और उसके अर्थ का अधिकांश तीन बिंदियों की आवृति के माध्यम से कह जाती है. तीन बिंदियों के संदर्भ को तत्काल समझने के लिए एक उदाहरण देकर मैं इस प्रसंग यहाँ खत्म करूँगा – “ …गीताली वेदी के पास घंटों चुपचाप खड़ी रह गई थी…क्षमा करना मनहर, गीताली चिर-ऋणी रहेगी तुम्हारी. …तुम कहते तो गीताली अपना सारा रंग लुटा सकती थी. …तुमने उन क्षणों का दुरूपयोग नहीं किया. … तीन वर्ष ! तीन शून्य…गुमसुम रहे तुम, सब दिन. कलाकार !…गीताली सुरजीवी है. दस वर्ष पूर्व ही वह किसी के सुर में बंध चुकी थी. … फिर भी, तुम कुछ बोलते… . आज भी तुम्हारा खत कुछ नहीं बोलता. … अकराम शंख-ध्वनि कर रहा है….प्यारे मनहर !… अकराम ! प्यारे अकराम ! तुम कितने बड़े गुणी हो ! तुमने कैसे जान लिया सबकुछ ! … गंध ?[6]” ‘नेपाली क्रांति-कथा’ में यह तीन बिंदियाँ रिपोर्ताज के अर्थ को और अधिक गहन बना देती है. यह लेख फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ के प्रसिद्ध रिपोर्ताज ‘नेपाली क्रांति-कथा’ पर केंद्रित रहते हुए ‘रेणु’ की राजनीतिक दुनिया और इस दुनिया से संबद्ध साहित्यिक दुनिया को समझने की प्रस्तावना करता है. इस प्रस्तावना में रिपोर्ताज के शिल्प की सैद्धांतिकी को भी संक्षेप में समझने की कोशिश की जाएगी.

 

हिमालय पर्वत की तराई और कोसी नदी के कछार का भू-दृश्य फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ की राजनीतिक और साहित्यिक दुनिया के निर्माण को बड़े पैमाने पर अभिसिंचित करती रही है. हिमालय पर्वत की तराई और कोसी नदी के कछार अपने तमाम राग-रंग-रोगन के साथ ‘रेणु’ की रचनात्मक दुनिया में उतरती रही है और नए अर्थ-संदर्भ के साथ आबाद होती रही है. ‘रेणु’ की राजनीतिक और साहित्यिक दुनिया पर थोड़ी चर्चा करना यहाँ इसलिए आवश्यक होगा कि हम यह जान सकें कि ‘नेपाली क्रांति-कथा’ में ‘रेणु’ की रचनात्मकता की ताप इतना सघन क्योंकर हो सका है. हिमालय की तराई में आबाद नेपाल के प्रसिद्ध रचनाकार और राजनीतिज्ञ विश्वेश्वर प्रसाद कोइराला से फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ के संबंध किशोरावस्था से ही रहे हैं. दोनों एक दूसरे के व्यक्तित्व से बेहद प्रभावित थे. यही वजह रहा है कि कोइराला परिवार के साथ ‘रेणु’ का सबंध धीरे-धीरे प्रगाढ़ होता चला गया और ‘रेणु’ कोइराला परिवार के साथ विराटनगर में रहने लगे. ‘रेणु’ मैट्रिक की परीक्षा कोइराला परिवार द्वारा स्थापित आदर्श विद्यालय से उत्तीर्ण की थी. इसी के बाद आगे पढाई करने के लिए ‘रेणु’ बनारस गए थे. ‘रेणु’ अपने कथा-गुरु के रूप में बार-बार पूर्णिया के प्रसिद्ध वकील और बांग्ला के ख्यात कथाकार सतीनाथ भादुड़ी की चर्चा करते रहे हैं. पूर्णिया कॉलेज के प्रधानाध्यापक और साहित्यकार जनार्दन झा ‘द्विज’, कांग्रेसी नेता और हिंदी के समीक्षक लक्ष्मी नारायण ‘सुधांशु’, हिंदी गद्य के अनुपम चितेरे और समाजवादी विचारधारा से प्रभावित रामवृक्ष बेनीपुरी और राहुल सांकृत्यायन के लेखन तथा चिंतन से ‘रेणु’ अत्यधिक प्रभावित रहे. 1946 के बाद ‘रेणु’ ने अपनी साहित्यिक दुनिया का विस्तार पटना में रहकर किया. पटना में समाजवादी विचार के साहित्यकारों की एक विस्तृत दुनिया थी. जिनमे देवेन्द्र प्रसाद सिंह, विश्वमोहन सिन्हा, अब्दुल कयूम कायद, अबुल हयात चाँद, नर्मदेश्वर प्रसाद, अहद फातमी, रजी अजीमाबादी, हंसकुमार तिवारी आदि प्रमुख थे. इन सबके साथ ‘रेणु’ न केवल जुड़े हुए थे बल्कि उनकी समाजवादी बहसों में सक्रिय भागीदारी भी करते रहते थे. पटना में ही रहते हुए उनका आत्मीय लगाव रामधारी सिंह दिनकर, बाबा नागार्जुन, राजकमल चौधरी, शिवचंद्र शर्मा और बाद में हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार अज्ञेय से बना रहा. इन सबने ‘रेणु’ की राजनीतिक और साहित्यिक दुनिया को बड़े पैमाने पर प्रभावित किया. विश्व साहित्य में ऐसे कई साहित्यकारों के उदाहरण मिलते हैं जिन्होंने साहित्य और राजनीति के मोर्चे पर एक साथ अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन किया. दोनों मोर्चों पर यादगार कार्यों की एक लंबी फेहरिस्त बनाई जा सकती है. हिंदी में भी कुछ-एक रचनाकार रहे हैं जिन्होंने दोनों मोर्चों पर अपनी जिम्मेदारी निभाई है. ‘रेणु’ उनमें से एक थे. ‘रेणु’ बड़ी ही सरलता और सहजता से साहित्य और राजनीति में आवाजाही करते रहते थे. यह आवाजाही उनकी रचनात्मक प्रक्रिया का एक अनिवार्य हिस्सा रहा है. राजनीतिक मोर्चे पर ‘रेणु’ की राजनीतिक सक्रियता को तीन महत्वपूर्ण राजनीतिक घटना के आधार पर समझा जा सकता है. एक, 1942 का भारत-छोड़ो आंदोलन, दूसरा, 1946-47 में विराटनगर के मिल-मजदूरों का ऐतिहासिक आंदोलन, 1950 में नेपाल का राणाशाही के विरुद्ध जनांदोलन और तीसरा 1974 का संपूर्ण-क्रांति आंदोलन. 1942 के आंदोलन में सक्रिय भाग लेने के कारण वे गिरफ्तार हुए थे और हजारीबाग सेंट्रल जेल में रखे गए थे. 1974 के संपूर्ण-क्रांति आंदोलन में भाग लेने के कारण उनको जेल हुई थी, जहाँ वे अस्वस्थ हो गए थे. इसी अस्वस्थता के बीच उन्होंने 1977 की चुनावी राजनीति के आंदोलन में जयप्रकाश नारायण का साथ भी ‘रेणु’ देते हैं. ‘रेणु’ का जयप्रकाश नारायण से गहरा लगाव रहा है तथा जयप्रकाश नारायण का ‘रेणु’ से कुछ गहरी अपेक्षा भी रही है.5 दिसंबर 1970 को जयप्रकाश नारायण ने ‘रेणु’ को अपेक्षाओं के साथ एक महत्वपूर्ण पत्र लिखते हैं. जिसमें वे कहते हैं कि – ‘23 वर्षों के स्वराज के बावजूद भारत माता का ‘आँचल’ सचमुच कितना ‘मैला’ है ! इसमें नक्सलवाद नहीं तो और क्या पलेगा ?’ इसी पत्र में वे आगे कहते हैं -‘मैं चाहता हूँ कि आप जैसे समर्थ साहित्यकार इन वास्तविकताओं को आकर देखें और उसकी तस्वीर साहित्य में उतारें .‘मैला आँचल’ लिखकर आपने साहित्य-लेखन या उपन्यास-लेखन की जो परंपरा शुरू की थी, वह समाप्त हो गयी-सी लगती है. आज की पृष्ठभूमि में उसे पुनर्जीवित कर आगे बढ़ाने की जरूरत है. यह तो जाहिर है कि इस देश में भावी क्रांति का क्षेत्र गाँव ही होगा, और नव निर्माण का आरंभ भी वहीं से होगा. अतः क्रांतिकारी नव साहित्य का सृजन गाँव में बैठकर ही किया जा सकता है.’ क्रांति-आंदोलन-साहित्य का यह सारा परिप्रेक्ष्य ‘रेणु’ को अपने समय और अपने समय से पार एक बड़ा लेखक निर्मित करता है. 1946 में नेपाल में जब राणाशाही के अत्याचार और उसके कुख्यात जनता-विरोधी कारनामों के विरुद्ध नेपाली जनता इकट्ठे होकर एक जन-आंदोलन का इतिहास लिख रही थी, तब इस आंदोलन में सक्रीय रूप से ‘रेणु’ नेपाली कांग्रेस के नेता विश्ववेश्वर प्रसाद कोइराला के साथ भागीदारी कर रहे थे. विश्ववेश्वर प्रसाद कोइराला के साथ ‘रेणु’ के कैशोर्य जीवन के सबंध नए सिरे से परिभाषित हो रहे थे. इसी कारण नेपाल को ‘रेणु’ अपनी दूसरी माँ कहते रहे हैं. बाद में विश्ववेश्वर प्रसाद कोइराला नेपाल के पहले प्रधानमंत्री बनते हैं. विश्ववेश्वर प्रसाद कोइराला नेपाली राष्ट्रीय कांग्रेस के संस्थापक थे. हालाँकि राणाशाही के धोखे और छल के कारण जल्दी ही कोइराला की सरकार गिर गई और एक बार फिर से नेपाल में राजतंत्र कायम हो गया था, लेकिन कोइराला परिवार लोकतंत्र की स्थापना के लिए संघर्ष करता रहा और ‘रेणु’ उसका समर्थन करते रहे. राणाशाही के विरुद्ध जन आंदोलन के अपने अनुभव को तफ्सील के साथ ‘रेणु’ ने ‘नेपाली क्रांति-कथा’ में दर्ज किया है. यह कथा अक्तूबर 1950 की सुबह से लेकर 4 मार्च 1951 तक नेपाल की जन-आंदोलनकारी हलचलों की कथा है. इस रिपोर्ताज में ‘रेणु’ की साहित्यिक और राजनीतिक प्रतिबद्धता की दुनिया के उत्कर्ष का एक रोचक वृतांत हमें मिलता है. साहित्यिक और राजनीतिक प्रतिबद्धता की धुरी पर ‘नेपाली क्रांति-कथा’ के वृतांत से गुजरना दरअसल लोकतंत्र की स्थापना के प्रयासों के इतिहास के किसी हिंसक मोड़ से गुजरना मात्र नहीं है बल्कि जनता की उस कारगर क्षमता को याद करना है, जिसके जागरण और आंदोलन से मुल्कों की तकदीरें और तदबीरें बदल जाती हैं. भारत सहित विश्व के अधिकांश देशों में जनता की इस ताकत का अपना एक लंबा इतिहास है. नेपाल की लोकतांत्रिक इतिहास में राणाशाही के विरुद्ध आंदोलन का एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य रहा है. ‘रेणु’ रिपोर्ताज के शिल्प में इस ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को साहित्य की दुनिया में स्पर्श-चाक्षुष-दृश्य के रूपबंध में प्रस्तुत करते हैं. ‘रेणु’ ने रिपोर्ताज को जो कलात्मक उत्कर्ष दिया वह हिंदी साहित्य में ‘रेणु’ से पहले दिखलाई नहीं देता है. इस उत्कर्ष की एक समकालीन वैश्विक परिस्थितियाँ थी. इन परिस्थितयों में द्वितीय विश्वयुद्ध का सबसे महत्वपूर्ण योग है. ‘रेणु’ रिपोर्ताज के संदर्भ में अपने एक रिपोर्ताज ‘पुरानी कहानी : नया पाठ’ में कहते भी है, कि ‘… गत महायुद्ध में चिकित्साशास्त्र ने चीर-फाड़ (शल्य चिकित्सा) विभाग को पेनिसिलिन दिया और साहित्य विभाग के कथा विभाग को रिपोर्ताज.’ ‘रेणु’ का पहला रिपोर्ताज द्वितीय विश्वयुद्ध के ठीक बाद 1945 में ‘विदापत नाच’ शीर्षक से साप्ताहिक पत्र ‘विश्वमित्र’ में प्रकाशित हुआ था. ‘नेपाली क्रांति-कथा’ के ‘पाठ’ की संरचना में प्रवेश करने से पूर्व हम रिपोर्ताज के रूपबंध पर थोड़ी चर्चा करना चाहते हैं. दरअसल, यह चर्चा हमें ‘नेपाली क्रांति-कथा’ के परिदृश्य को चीनी लेखक हू फेंग के उपर्युक्त संदर्भ से समझने के रास्ते को आसान भी करेगा.

रिपोर्ताज के शिल्प और उसकी सैद्धांतिकी की मजबूत दुनिया साहित्य में मोटे तौर पर द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद एक साहित्यिक विधा के रूप में आबाद होती हुई दिखलाई देती है. लेकिन ऐसा भी नहीं है कि द्वितीय विश्वयुद्ध से पूर्व रिपोर्ताज का अस्तित्व था ही नहीं. हिंदी और विश्व साहित्य में ‘रिपोर्ताज’ की पारिभाषिकी से बाहर रिपोर्ताज लिखे जाने की शुरुआत द्वितीय विश्वयुद्ध से काफी पहले हो गई थी. डेनियल डेफो (1660-1731) यूँ तो अपने कालजयी उपन्यास ‘रोबिन्सन क्रूसो’ (1719) के लिए ख्यात रहे हैं. कहा भी जाता है कि बाइबिल के बाद सबसे अधिक अनुवाद इसी कृति का हुआ है. लेकिन रिपोर्ताज के संदर्भ से हम यहाँ उनकी एक दूसरी कृति ‘ए जर्नल ऑफ़ द प्लेग इयर’ (1722) का उल्लेख कर रहे हैं. यह उपन्यास के शिल्प में लंदन में 1665 ई. में फैले प्लेग महामारी के वास्तविक तथ्यों पर आधारित एक रिपोर्ताज की तरह है. दरअसल, डेनियल डेफो इस महामारी के वास्तविक तथ्यों से बेहद परेशान और विचलित हो गए थे इसलिए वे कथा में किसी कल्पना का सहारा न लेकर सीधे-सीधे महामारी में घटित वास्तविक तथ्यों को दर्ज करने लगे थे ताकि आनेवाले समय में लोग यह जान सकें कि महामारी किस तरह से सामाजिक संरचना को भीतर से भयभीत करती हुई उसके हौसले को तोड़ देती है और यह भी कि हमें इससे कैसे बचना चाहिए.1961-1965 के बीच घटित अमेरिकन सिविल वॉर की जानकारी भी रिपोर्ताज की शक्ल में अख़बारों में खूब छापे गए थे.1894-1895 और 1937-1945 में चीन-जापान युद्ध को लेकर युद्ध के मोर्चे से आँखों देखा हाल रिपोर्ताज के रूप में लिखे गए. युद्ध के परिवेश के बीच चीन ने ही समाजवादी रिपोर्ताज की भूमिका तैयार की. द्वितीय विश्वयुद्ध के परिवेश में सबसे अधिक रिपोर्ताज अंग्रेजी और रूस के साहित्यकारों ने लिखे हैं. रुसी साहित्यकार इलीया एहरेन्बर्ग (1891-1967) रूस में युद्ध विरोधी, नाजी विरोधी स्थितियों पर लगभग दो हजार लेख अख़बारों में लिखे थे. उनकी 500 पृष्ठों की सबसे प्रसिद्ध किताब ‘द ब्लैक बुक ऑफ़ सोवियत जेवरी’ 1944 के होलोकास्ट पर आधारित है. विश्व साहित्य में रिपोर्ताज का जनक इलीया एहरेन्बर्ग को कहा जाता रहा है लेकिन बहुत सारे साहित्यकार यूनानी लेखक हेरोडेट्स को रिपोर्ताज शुरू करने का श्रेय देते हैं. चीन में माओ की नीतियों के विरुद्ध और बोलने की आजादी के समर्थक लेखक हू फेंग (1902-1985) जापान और चीन के बीच युद्ध की परिस्थितियों को लेकर महत्वपूर्ण रिपोर्ताज लिखे हैं. ‘रिपोर्ट’ अंग्रेजी भाषा का शब्द है इसी से अंग्रेजी में ‘रिपोर्ताज’, फ्रांसीसी भाषा में ‘रिपोर्टाज’ और स्पेनिश में ‘क्रोंसा’ शब्द रिपोर्ताज के लिए प्रयुक्त किया जाता है रिपोर्ट सूचनाओं का यथातथ्य विवरण मात्र होता है. रिपोर्ताज सूचनाओं में संवेदना और परिवेश के मेल, सूचनाओं के अन्वेषण और उन सबकी भावप्रवण उपस्थिति की कहानी होती है. रिपोर्ताज का अनिवार्य गुण है, लेखक का चश्मदीद होना. चश्मदीद होने के लिए यह आवश्यक है कि लेखक यात्रा में होगा. लेखक द्वारा यात्रा में किए सूक्ष्म पर्यवेक्षण रिपोर्ताज का आधार होता है. इसलिए रिपोर्ताज अनिवार्यत: सामूहिक चेतना को संप्रेषित करने वाली होती है. जनता की आवाज रिपोर्ताज का मूल स्वर होता है. इस मूल स्वर के कारण ही रिपोर्ताज की भाषा में काव्यात्मकता और संरचना में कथात्मकता का प्रवेश होता है. रिपोर्ताज में यथार्थ, वास्तविक तथ्य और उसे प्रस्तुत करने की भाषा-संरचना पर पश्चिम में प्रयाप्त चर्चा हुई है. इस संदर्भ से मुझे कनाडियन साहित्य के आलोचक और सिद्धांतकार नॉरथ्रोप फ्राई (1912-1991) की 1957 में प्रकाशित एक प्रसिद्ध किताब ‘एनाटोमी ऑफ़ क्रिटिसिज्म’ की याद हो आती है. यह किताब साहित्य के ‘मोडस’, ‘सिम्बल्स’, ‘मिथ’ और ‘जेनर’ की सैद्धांतिक पर ‘पाठ’ और उसके साथ ‘अर्थ’ के संबंधों के परिप्रेक्ष्य में विश्लेष्ण प्रस्तुत करता है. इस किताब में रिपोर्ताज के बारे में कहा गया है कि, ‘इसे गतिशील संसार की तरह होना चाहिए.’ गतिशीलता के लिए यह आवश्यक है कि रिपोर्ताज में तथ्य, सूचना, उद्देश्य और उनको व्यक्त करने की काव्यात्मक भाषा का एक सधा हुआ संतुलन हो. अरुण प्रकाश की 2012 में प्रकाशित किताब ‘गद्य की पहचान’ साहित्य के विविध रुपबंधों को समझने के लिए एक जरुरी किताब है. रिपोर्ताज के बारे में इस किताब में एक जरुरी बात कही गई है, “ …रिपोर्ताज समाज-सत्य की अभिव्यक्ति है, राष्ट्र एवं उसके सामूहिक तथा सामाजिक शक्तियों के पहचान का रूपबंध भी है. कुल मिलाकर रिपोर्ताज ज्ञान का रूपबंध है पर उसे शुष्क तरीक़े से नहीं बल्कि यथार्थ के नाट्यकरण के जरिए समझा जा सकता है. रिपोर्ताज में लेखक सूचना के मामले में वस्तुपरक रहता है पर उद्देश्य के मामले में नहीं. … जाहिर है कि लेखक पीड़ित का पक्ष लेगा. वह पक्षपात नहीं पक्षधरता करता है. इस प्रकार हम देखते हैं कि शैलीकृत भाषा सौंदर्य और सूचना दोनों का निर्वाह करती है और रिपोर्ताज को जीवंत बनाए रखती है.”[7] रिपोर्ताज पर अरुण प्रकाश के इस विश्लेष्ण के आधार पर कोलम्बियन लेखक ग्रैबियल गार्सिया मारक्वेज (1927-2014) की किताब ‘क्रोनिकल ऑफ़ ए डेथ फोरटोल्ड’ (1981) जो मारक्वेज के बचपन के एक दोस्त जिसकी मृत्यु 1951 में कोलम्बिया में हुई थी, पर आधारित है, अमरीकी साहित्यकार और पत्रकार नोर्मन मेलर (1923-2007) की वाशिंगटन में वियतनाम युद्ध विरोधी आंदोलन पर आधारित किताब ‘आर्मीज ऑफ़ द नाईट’ (1968) और भारतीय लेखक और पत्रकार पी. साईनाथ (1957) की भारत के ग्रामीण इलाकों में पसरी हुई गरीबी के शोध पर आधारित किताब ‘एवरीबॉडी लव्स ए गुड ड्राउट’ (1996) के ‘पाठ’ से गुजरा जा सकता है. दरअसल, रिपोर्ताज का भाषा-सौंदर्य ही रिपोर्ताज को चाक्षुष और दृश्य बना देता है. ‘रेणु’ के गद्य में भाषा-सौंदर्य के निर्वाह का एक संतुलन है. दरअसल इस संतुलन का निर्वाह इस कारण से भी हो सका है कि ‘रेणु’ के यहाँ ‘देखना’ क्रिया एक ही साथ बाहर और भीतर दोनों है. इस क्रिया के निर्वाह की मजबूत आधारभूमि ‘रेणु’ की साहित्यिक और राजनीतिक गतिविधियों में सहज आवाजाही के कारण संभव हो सकी है. हिंदी साहित्य में पहला रिपोर्ताज चंडीप्रसाद सिंह द्वारा लिखित ‘युवराज की यात्रा’ (1897) को माना जाता है. हिंदी साहित्य के इतिहास में कुछ जगहों पर हिंदी में पहले रिपोर्ताज होने का श्रेय सुमित्रानंदन पंत की पत्रिका ‘रूपाभ’ के 1938 में प्रकाशित शिवदान सिंह चौहान द्वारा लिखित कानपुर कपड़ा-मिल हड़ताल पर आधारित ‘लक्ष्मीपुरा’ को दिया जाता है. बंगाल के अकाल पर रांगेय राघव द्वारा 1943 में लिखित ‘तूफानों के बीच’ को भी रिपोर्ताज के इतिहास में आरंभिक रिपोर्ताज के तौर पर चिन्हित किया जाता है. यह रिपोर्ताज अमृतराय के संपादन में ‘हंस’ में प्रकाशित हुई थी. बाद में प्रकाशचन्द्र गुप्त का भी ‘बंगाल में अकाल’ शीर्षक से एक रिपोर्ताज लिखा गया है. भदंत आनंद कौसल्यायन द्वारा लिखित ‘देश की मिट्टी बुलाती है’, शमशेरबहादुर सिंह की ‘प्लाट का मोर्चा’, विवेकी राय का ‘जुलूस रुका है’, धर्मवीर भारती की ‘युद्ध-यात्रा’, भागवतशरण उपाध्याय द्वारा ‘खून के छींटे’, कमलेश्वर द्वारा लिखित ‘क्रांति करते हुए आदमी को देखना’, श्रीकांत वर्मा का ‘मुक्ति-फ़ौज’ , निर्मल वर्मा द्वारा लिखित ‘प्राग : एक स्वप्न’ आदि रिपोर्ताज हिंदी के कुछ उल्लेखनीय रिपोर्ताज माने जाते हैं. लेकिन हिंदी साहित्य में सबसे बेहतरीन रिपोर्ताज लिखे जाने का श्रेय तो ‘रेणु’ को ही प्राप्त है. ‘ऋण जल घनजल’ और ‘नेपाली क्रांति-कथा’ हिंदी रिपोर्ताज के परिसर में सबसे अधिक सराहे जाने वाले रिपोर्ताज रहें हैं.

 

‘भाइयों ! यह राणाशाही मेधयज्ञ है – आहुति डालो इसमें. सदियों से नेपाल की छाती पर बैठकर रक्त चूसने वाली राणा सरकार का नाश हो.’

‘नेपाली क्रांति-कथा’ के इस उद्दघोष का एक तत्कालीन ‘पाठ’ तो है ही, इस उद्दघोष का वैश्विक राजनीति के संदर्भ से एक समकालीन ‘पाठ’ भी है. जिसे बनती-बिगड़ती दुनिया के बीच पढ़ा जा सकता है / पढ़ा जाना चाहिए भी. ‘नेपाली क्रांति-कथा’ 1971 में ‘दिनमान’ के अंकों में धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ था. शुरुआत में यह रिपोर्ताज साप्ताहिक पत्र ‘जनता’ में ‘हिल रहा हिमालय’ नाम से प्रकाशित हुआ था. ‘नेपाली क्रांति-कथा’ रिपोर्ताज छोटे-छोटे ग्यारह अंशों में विभक्त है. यह क्रांति-कथा लोकतंत्र की स्थापना के लिए अक्तूबर 1950 से मार्च 1951 के बीच छः महत्वपूर्ण तारीखों के बीच हिमालय की तराई में घटित होने वाली परिघटना का एक आख्यान रचती है. अक्तूबर 1950, 06 नवंबर 1950, 20 नवंबर 1950, 17 फरवरी 1951, 21 फरवरी 1951, 04 मार्च 195. यह वे तारीखें हैं जिनके बीच नेपाल की मुक्ति-सेना ने नेपाल की राणाशाही सरकार से लोहा लिया, कुछ अपनों को खोया, अल्पकालीन जीत हासिल की और एक लोकतांत्रिक सरकार का गठन किया. मै यहाँ इस क्रांति-कथा के ‘पाठ’ के बुनियाद ढाँचों पर चर्चा करना चाहता हूँ. नेपाल में राणाशाही की क्रूरताएँ , नेपाल के तराई इलाके के कोने-कोने को उदासी से भर दिया था. उदासी से मुक्ति के लिए नेपाली जनता इकठ्ठा हो रही थी और एक मुक्तिसेना के रूप में तब्दील होती हुई विराटनगर पर चढ़ाई करने के लिए तैयार हो रही थी. चढ़ाई के क्षणों में ही राणाशाही की फौज की बंदूके गरजने लगती हैं. हिमालय की तलहटी का यह पूरा इलाका ‘जलते हुए बारूद की उत्कट गंध’ से भरी हुई है. ‘रेणु’ की भाषा में ‘जलते हुए बारूद की उत्कट गंध’ एक सजीव बिंब की तरह उपस्थित होता है. इस क्रांति में मुक्ति सेना के साथ कोइराला परिवार अपनी शहादत की दास्तान लिख रहा था. इस क्रांति-कथा में एक दिलचस्प प्रसंग बलबहादुर का है. बलबहादुर मुक्ति-सेना में शामिल होने से पूर्व 1946 के ऐतिहासिक मजदूर-आंदोलन में जब सत्याग्रहियों में अपना नाम लिखा रहा था तब एक एक सवाल पूछता है. इस सवाल को महात्मा गांधी के अहिंसा सिद्धांतो के समानांतर भी समझा जाना चाहिए. बलबहादुर कहता है- ‘यह कैसी लड़ाई है, बाबा ? सभा का सिपाही हमको गोली से मारेगा और हम सिर्फ ‘जिंदाबाद’ बोलेगा ? नहीं भरती होना है, ऐसी लड़ाई में …’[8] और कुछ वर्षों बाद राणाशाही के विरुद्ध जन-क्रांति के समय उसे जब जानकारी होती है कि ‘बंदूक का जवाब बंदूक से दिया जाएगा’ तो वह ख़ुशी से इस जन-क्रांति में शामिल हो जाता है. ‘रेणु’ की इस क्रांति-कथा के इस अंश को भारतीय राजनीति में महात्मा गांधी और सुबासचंद्र बोस के बीच की बहस को भी देखा जा सकता है. यही बलबहादुर राणाशाही द्वारा विराटनगर में की गई गोलीबारी में कोइराला परिवार की रक्षा करते शहीद हो जाता गया. बलबहादुर अपने पीछे नेपाल के किसी पहाड़ी गाँव में एक बूढी माँ और एक पाँच वर्ष के छोटे बेटे को छोड़कर इस क्रांति में शामिल हुआ था. वह अक्सर अपने साथियों के बीच एक पहाड़ी गीत गाया करता था. जिसका अर्थ है –‘युद्ध के मैदान में मरने वाले सीधे स्वर्ग पहुँचते हैं ? मेरी राह रोककर कौन खड़े हैं ? पिता ? माँ ? स्त्री ? पुत्र ? मैं किसी को नहीं पहचानता. सभी हट जाओ मेरी राह से .’(पृष्ठ 549) हम जानते हैं की विश्व के किसी भी हिस्से में घटित क्रांति-कथा में ऐसे लाखों युवक गुमनाम शहीद हो जाते रहे हैं. हमारी सभ्यता का जो भी कुछ अच्छा हासिल है, ऐसे ही शहीदों के कारण हासिल है. यह कितना दुखद है कि हमारी धरती का ऐसा कोई आबाद हिस्सा नहीं बचा है जहाँ कभी रक्तपात न हुआ हो. दरअसल, समय-समय पर धरती का कोई न कोई हिस्सा रक्त से स्नान करता रहा है. और यह कोई आज की बात ही नहीं है. रक्त-स्नान की प्रक्रिया जितना प्राचीन है, उतना ही अभिनव भी. मनुष्यता का विकास और राजनीति की तमाम चालें कहीं न कहीं हिंसा आधारित रही हैं. हिंसा के विलोम के लिए हमारी तमाम कार्यवाहियाँ हमेशा अधूरेपन का शिकार रहती आई है. ‘नेपाली क्रांति-कथा’ में हिंसा एक ओर राणाओं द्वारा राणाशाही बचाने के लिए तो दूसरी ओर राणाशाही से मुक्ति और लोकतंत्र की रक्षा के लिए की गई थी. इस क्रांति-कथा में ‘रेणु’ ने कई महत्वपूर्ण पात्रों का उल्लेख किया है लेकिन क्रांति-कथा के प्रवाह में कुछ पात्रों का चित्रण वे बड़े ही धारदार ढंग से करते हैं. इनमें से एक है स्वर्गीय कृष्णप्रसाद कोइराला की पत्नी श्रीमती दिव्या कोइराला. नेपाली जनता जिसे सानो आमाँ कहकर पुकारती है. नेपाली जनता के बीच स्वर्गीय कृष्णप्रसाद कोइराला ‘पिताजी’ के संबोधन से पुकारे जाते हैं, जैसे भारत में महात्मा गांधी ‘बापू’ के संबोधन से. सानो आमाँ, नेपाल के इस जन-युद्ध में स्त्री का एक मजबूत पक्ष उपस्थित करती हैं. किसी भी क्रांति में स्त्रियों की मौजूदगी क्रांति के तेवर और कलेवर को ज्यादा मानवीय बना देती है. क्रांति के बीच व्यक्त-अव्यक्त तरीके से नैतिक मूल्य को जीवित रखने का काम भी वह कई स्तरों पर करती है. राणाशाही के हमलो से जब मुक्ति-सेना विराटनगर से रिट्रीट करती है और राणाशाही की फ़ौज कोइराला-आवास पर पहुँचती है तब फ़ौज के अफसरों को 1946 के मजदूर आंदोलन के समय सानो आमाँ की गुर्राहट स्मरण हो आती है- ‘लाज नहीं आती ? बड़े अफसर हो / संसार के किसी भी सभ्य देश के नगण्य-नागरिक के सामने भी सर ऊँचा कर सकोगे कभी / स्त्रियों से बात करना नहीं जानते ? कैसी शिक्षा दी है तुम्हारे राणा पिताओं ने.’(पृष्ठ 551) तानाशाही के समर्थन वाले फ़ौज के सामने स्त्री का यह बयान हमें कई बार चौंकाता है. क्योंकि हम जानते हैं कि तानाशाही के उन्माद में फ़ौज सबसे अधिक प्रताड़ना स्त्रियों को ही देता आया है. ‘नेपाली क्रांति-कथा’ में सानो आमाँ की एक भास्वर उपस्थिति है. सानो आमाँ नेपाली स्त्रियों को इस क्रांति के लिए तैयार करती हुई खुद की रक्षा,नेपाल की रक्षा में खड़े होने के लिए उद्दघोष करती है –‘ तुम्हारे घर में कलछी, छनौटा,सड़सी, दाब, खुकरी, कुल्हाड़ी,कुदाल कुछ भी नहीं ? सेफ्टीपिन और बाल में खोसने वाले काँटे तो हैं. …’(पृष्ठ 552) राणाशाही की आग उगलती ब्रेनगन- ‘ट -ट- ट- ट ; ट -ट- ट- ट.’ के सामने स्त्रियों की रोज काम में आने वाली वस्तुओं का हथियार के विकल्प के रूप में खड़े हो जाने का यह एक जन-आधारित सौंदर्य है. जिसके उदाहरण इतिहास में बहुत ही कम मिलते हैं. ‘रेणु’ के गद्य में भाषा-सौंदर्य की यह अपनी विशेषता है.

‘भारत का बच्चा-बच्चा मोहनदास करमचन्द गांधी को ‘बापू’ कहता है न… ठीक उसी तरह, नेपाल का प्रत्येक चैतन्य नागरिक कृष्णप्रसाद कोइराला को ‘पिताजी’…

‘नेपाली क्रांति-कथा’ रिपोर्ताज की सरंचना में ‘रेणु’ घटनाओं का उल्लेख एकरेखीय पटल पर नहीं करते हैं बल्कि रिपोर्ताज की कथा बुनावट में मुख्य घटना-क्रम की सांद्रता को बढ़ाने के लिए उप-घटना क्रम का उल्लेख कभी मुख्य घटना के आगे तो कभी पीछे करते चलते हैं. रिपोर्ताज का पाठक घटनाओं और दृश्यों का संयोजन इसी क्रम में करते हुए हिमालय की तराई में उतरता है. कोसी के कछार में बंदूकों से निकलने वाली आवाज को सुनता है. इस क्रांति-कथा की दरअसल, एक पृष्ठभूमि रही है जिसमें इस क्रांति-कथा में ‘पिताजी’ संबोधन से ख्यात स्वर्गीय कृष्णप्रसाद कोइराला के निर्वासन की कहानी भी शामिल है. नेपाल में राणाशाही सत्ता के कारण कृष्णप्रसाद कोइराला अपना निर्वासित जीवन कलकत्ता में देशबंधु चितरंजनदास के संपर्क में रहकर बिताते हैं. उन्हीं के साथ उनका पुत्र विश्वेश्वरप्रसाद कोइराला राजनीतिक प्रशिक्षण प्राप्त करता है और बिहार सोशलिस्ट पार्टी का सक्रिय सदस्य बन जाता है. 1942 के आंदोलन में विश्वेश्वरप्रसाद कोइराला को तीन वर्ष के लिए नजरबंद भी रखा गया था. रिहा होने के बाद अपनी राजनीतिक सक्रियता के आधार पर कलकत्ता में समस्त प्रवासी नेपाली को इकठ्ठा कर नेपाली कांग्रेस का गठन करने का श्रेय विश्वेश्वरप्रसाद कोइराला को जाता है. गठन के कुछ ही महीने बाद नेपाली कांग्रेस के झंडे के नीचे विश्वेश्वरप्रसाद कोइराला ने विराटनगर जूट मिल्स, कॉटन मिल, दियासलाई की फैक्ट्री के लगभग दस हजार मजदूरों की एक ऐतिहासिक हड़ताल करवाई थी. नेपाली इतिहास में यह पहली हड़ताल थी. ‘रेणु’ अपनी संबद्धता दिखाते हुए इस क्रांति-कथा में इस पूरे घटना-क्रम का विस्तार से उल्लेख करते हुए क्रांति की शुरूआती कथा सुनाते हैं जिसमें गांधी जी और कृष्णप्रसाद कोइराला का समानांतर संदर्भ आता है -“भारत का बच्चा-बच्चा मोहनदास करमचन्द गांधी को ‘बापू’ कहता है न… ठीक उसी तरह, नेपाल का प्रत्येक चैतन्य नागरिक कृष्णप्रसाद कोइराला को ‘पिताजी’… नेपाली क्रांति के जनक स्वर्गीय कृष्णप्रसाद कोइराला ने राणाशाही के विरुद्ध क्रांति की पहली चिंगारी जलाई और अपनी जान देकर उस आग को जलाए रखा. 1942 में ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन के सिलसिले में इधर ‘बापू’ आगाखां के राजभवन में नजरबंद थे और उधर ‘पिताजी’ काठमांडो की एक कालकोठरी में. बंदी अवस्था में ही उसकी मृत्यु हुई.”(पृष्ठ 560) दरअसल, एक क्रांति या संघर्ष हमेशा अपनी तरह की क्रांति या संघर्ष की साझी विरासत की तलाश करती है. जारशाही के विरुद्ध रूस की क्रांति, फ़्रांस की क्रांति के लक्षणों को याद करती हुई आगे बढ़ती है. भारत, अंग्रेजों से मुक्ति के आंदोलन में मुब्तिला था तो नेपाल राणाशाही से मुक्ति की तैयारी कर रहा था. एक स्तर पर राणाशाही सत्ता का इतिहास अपने ही खानदान में छलों, हत्याओं से भरा हुआ रहा है. ‘रेणु’ ने अपनी इस क्रांति-कथा में इसका उल्लेख ‘कोतपर्व’ के संदर्भ से करते हुए यह रेखांकित करते हैं कि तानाशाही व्यवस्था न केवल आवाम के लिए क्रूर होती है बल्कि अपने परिवारिक ढ़ांचे के लिए भी हत्यारी होती है. नेपाल की राणाशाही सत्ता में ‘रक्तरंजित कोतपर्व’ का एक नारकीय इतिहास है , जिसमें- ‘भाई ने भाई को मारा, पिता ने पुत्र को मौत मौत के घाट उतारा, पुत्र ने पिता की जान ली और माँ ने अपनी कोख के बेटे का गला घोंटकर ‘कोतपर्व’ मनाया.’ नेपाल में राणाओं का अपना एक ख़ूनी इतिहास रहा है. राणाशाही सत्ता-तंत्र के हरएक मोड़ पर इनके बीच पारिवारिक संघर्ष और हत्याएँ हुईं हैं. राणाओं के भोग-विलास और आपसी रंजिश में नेपाली जनता शोषित और प्रताड़ित होती रही है. पहली बार कोइराला परिवार इस संपूर्ण व्यवस्था से मुक्ति का आंदोलन नेपाल में शुरू करता है. नेपाल में स्कुल और पाठशाला खोलने का श्रेय इसी कोइराला परिवार को है. ‘रेणु’ इस क्रांति-कथा के उल्लेख में क्रांति में प्रयुक्त संचार माध्यमों और क्रांति-संदेश भेजे जाने के तरीके में ध्वन्यात्मकता के शिल्प को अपनी सजीवता के साथ रचते हैं. इस रचाव में तीन बिंदियों के प्रयोग को शिल्प को ‘नाद’ के संदर्भ से भी देखा जाना चाहिए. इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है. मुक्तियुद्ध-मुक्तिफौज में मद्रास से आया एक युवक थिरबममल्ल संघर्ष में शहीद होता है -‘बीप… बीप… बीप… थिरबममल्ल भीषण रूप से घायल… उनकी देह में दुश्मन के सात बुलेट … रक्सौल के डंकन अस्पताल में मुक्तिसेना के इस वीर योद्धा ने वीरगति पाई… बी…बीप…बीप. …’ बीप की ध्वन्यात्मक छवि एक ही साथ कौतुहल, खौफ़ और विषाद के परिवेश की निर्मिती है. ‘रेणु’ अपने रिपोर्ताज में सपाट नहीं होते हैं. सीधे-सीधे वर्णात्मक शैली के शिल्प से बाहर बिम्बात्मक ध्वनियों के परिसर में ‘रेणु’ का गद्य बजता हुआ गतिमान होता है. वीरगंज पर गुरिल्ला चढाई करने के लिए नियुक्त मुक्तिफौज का परिचालक तेईस वर्षीया थिरबममल्ल की शहादत के बाद क्रांति-कथा में मुक्तिसेना द्वारा वीरगंज को अपने कब्ज़े में लेते हुए मुक्तिसैनिक तेजबहादुर को वहाँ का गवर्नर नियुक्त किया गया और नेपाली कांग्रेस भारत सरकार से इस नए राष्ट्र को मान्यता देने की अपील करता है. राणाशाही का कमांडर मोहन शमशेर राणा इस पराजय से दांत पीसते हुए कसम खाता है -‘ मरगत खानैछु…मैं इनका रक्त पियूँगा. …’ और मुक्तिसैनिक भी अब गुरिल्ला छापेमारी की जगह सीधे युद्ध की तैयारी कर रहें हैं- एक ‘मुक्तियुद्ध’ की तैयारी.

‘रात आधी बीत चुकी है और पूर्वी मोर्चे के शिविरों में मुक्तिसैनिक ‘रतजगा’ कर रहे हैं. बड़े-बड़े बक्सों से राइफलें निकाली जा रही है. मित्र-देश से आई हुई राइफलें और प्रचुर मात्रा में 03 बुलेट. सारे शिविर में-शिविर के साढ़े पांच सौ मुक्तिसैनिकों की देह में उत्तेजना की लहर दौड़ रही है.’

‘नेपाली क्रांति-कथा’में जो ‘मुक्तियुद्ध’ संयोजित हुआ हुआ है, उसमें केवल नेपाल की धरती के रहवासी ही शामिल नहीं हुए हैं बल्कि उनके साथ नेपाल से बाहर रहने प्रवासी नेपाली का समर्थन भी है. नेपाली राष्ट्रीयता से बाहर के लोग भी इस ‘मुक्तियुद्ध’ में साथ खड़े हैं. यह ‘मुक्तियुद्ध’ हिमालय की तराई में घटित हो रहा है लेकिन इसकी आंच तराई से बाहर भी पहुँचती है. इस क्रांति-कथा में शामिल लोगों के साझे परिवेश को ‘रेणु’ विस्तार से उभारते हैं. क्रांति-कथा के ‘मुक्तियुद्ध’ में ‘बनारस विश्वविद्यालय का छात्र दर्शन चौधरी अपने मित्र विश्वबंधु के लिए, विश्वबंधु के देश की मुक्ति के लिए जान दे सकता है. जान देने के लिए ही वह आया है.’ इस ‘मुक्तियुद्ध’ गिरिजा कोइराला शामिल हैं. चेन्नई से आया तेईस वर्ष का थिरबममल्ल है, जोगबनी के भावुक गुरूजी फेंकन चौधरी हैं, ब्रिटिश सेना का अवकाश प्राप्त अफसर जी.बी. सुब्बा उर्फ़ याकथुम्बा बर्मा से चलकर आया हुआ है, शिवहरी, तारिणी प्रसाद, शिवजंग, भोला चटर्जी[9] है. तारिणी प्रसाद और भोला चटर्जी बी.पी. के साथ हमेशा बॉडीगार्ड की तरह साथ रहते हैं. शंकरजंग, हिरण्यजंग अपनी माँ, मौसी और छोटी बहन उषा के साथ है. इस ‘मुक्तियुद्ध’ में सोशलिस्ट कपिलदेव, कुलदीप झा है. ‘मुक्तियुद्ध’ के ‘पूर्वी मोर्चे पर पूर्णिया जिले के डेढ़ सौ सोशलिस्टों के अलावा बंगाल के भी आधा दर्जन समाजवादी’ शामिल हुए हैं. याकथुम्बा का साथ देने नेताजी सुभाषचंद्र बोस की ‘आजाद हिंदी फ़ौज’ का प्रसिद्ध लड़ाका पूरनसिंह अपने कई मिलट्री मैकनिक साथियों के साथ है. कॉमरेड रहीम उर्फ़ शैलेन्द्र सिंह उर्फ़ सकलदीप कोसी के कुसहा घाट पर तैनात रहने वाला मुक्ति सैनिक है. इस युद्ध में मनमोहन अधिकारी विश्वेश्वरप्रसाद कोइराला का आत्मीय दोस्त शामिल है. नरसिंहनारायण सिंह भी हैं. कॉमरेड भोलानाथ मंडल, तारापद और सरयुग मिश्र हैं. मुक्तिसैनिकों को खाना खिलाने वाला मधुसुदन सिंह है. इन सबके साथ नेपाल में रहने वाले कई परिवार के सभी सदस्य भी इस ‘मुक्तियुद्ध’ में भागीदारी कर रहे हैं. इसमें खरदारनी अपने सात महीने के बच्चे तीरथ को कलेजे से चिपकाकर पलंग और ट्रंक के बीच बैठी है. तीरथ निर्भय होकर दूध पी रहा है. उसका बड़ा मेटा मुकुंदे अपने घर में ही मोर्चा बनाकर बंदूक के साथ मानबहादुर के साथ बैठा है. घर में ही मुकुंदे की पत्नी प्रभानानी है. दो बच्चे पुष्पा और गैबी माँ के आँचल को पकड़कर बैठे है. इस ‘मुक्तियुद्ध’ में स्त्रियों की भागीदारी का भी एक विशिष्ट वृतांत है. घायल मुक्तिसैनिकों की सेवा में तत्पर सानोआमाँ, नलिनी दीदी, इंदिरा, विजयलक्ष्मी, नूना भाभी, कोइराला-निवास की माँ, बेटियाँ, बहु और उनके साथ प्रतिष्ठित घरों की लडकियाँ इस मुक्तियुद्ध में स्वयंसेविका की तरह लगातार काम कर रही थी. नेपाल में लोकतंत्र की स्थापना के यज्ञ में आहुति देनेवाला एक विस्तृत समाज इस क्रांति-कथा में शामिल हुआ है.

‘मुक्त हो रही धरा, मुक्त हो रहा गगन – मुक्त जन मन, कदम मिला करके चल रहे – ‘राणाशाही मुर्दाबाद’’

कोइराला-निवास के उत्तर-पूर्व में उत्तमविक्रम राणा का निवासस्थान है. ‘दुश्मन को पच्छिम में पूरी तरह उलझाकर-पूरब में पूरी शक्ति के साथ आक्रमण’ करने की योजना मुक्तिसैनिक द्वारा बनाई जा रही है. विराटनगर पर कब्ज़े के लिए याकथुम्बा को नायक बनाया गया है. विराटनगर में राणाओं का समर्थन करने वाले, चोरबाजारी करने वाले करोड़पति जागीरदार, व्यापारी, पेंशनभोगी, सरकारी कर्मचारी सबसे ज्यादा भयभीत हैं. विराटनगर की सड़कों और गलियों में राणा की फौजें गोलियाँ चला रही हैं. उसपर हमले के लिए मुक्तिसैनिक ट्रेन्चों में बैठककर सही समय आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं. बीस मिल उत्तर-पश्चिम कोसी के कुसहा घाट में टुकड़ी का नेतृत्व कुलदीप झा कर रहें हैं. वे वहाँ व्यूह-रचना करके दुश्मन की प्रतीक्षा कर रहे हैं. कुलदीप झा यह सलाह भी देते हैं कि विराटनगर सुगर मिल के फार्म में कई ‘बुलडोजर’ पड़े हुए हैं उन सभी को टैंक में बादल करके राणा के किले की दीवार को तोड़ा जा सकता है. इस प्रस्ताव को मान लिया जाता है. टैंक में बदलने का काम पूरनसिंह अपने कई मिलट्री मैकनिक साथियों के साथ करता है. तबतक मोर्चे पर राणाशाही के बीस राउंड फायरिंग पर मुक्ति-सैनिकों को एक राउंड फायर करने का आदेश है. राणा के किले पर अंतिम हमले से पूर्व बी.पी. कोइराला कर्नल उत्तमविक्रम राणा से एक अपील करना चाहते हैं. शांति और समझौते की अपील. हर युद्ध का अपना एक मानवीय चेहरा भी होता है. इस चेहरे के महत्त्व को युद्ध के उन्माद में न समझे जाने की अपनी एक त्रासद परम्परा है. महाभारत में भी युद्ध से पूर्व शांति की अपील और उस अपील को न स्वीकारने की अपनी कहानी है. रामायण में राम-रावण के बीच के युद्ध भी टाले जा सकते थे. प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध को भी टाले जा सकने के कई प्रकरण हैं, जिसे अपनी-अपनी हठधर्मिताओं के कारण न सुना गया,न माना गया. इस क्रांति-कथा में भी इसकी एक कोशिश है. एक अपील है. बी.पी. कोइराला की अपील है-“ हम राणातंत्र के दुश्मन हैं, राणाओं के नहीं. हमारी मुक्ति फौज के अधिनायक राणा ही हैं. कई प्रमुख राणा-परिवार के नौजवान मुक्तिसेना के अधिनायक और साधारण सैनिक हैं. … हम अपने देशवासियों का रक्त व्यर्थ ही नहीं बहाना चाहते. आप जनता की इस लड़ाई में शरीक हों, आप जिस पद हर हैं- सामयिक सरकार आपको उसी पद पर बरक़रार रखेगी. इस संबंध में अगर आप विस्तारपूर्वक बात करना चाहें तो मैं इसके लिए भी तैयार होकर आया हूँ. दोनों ओर से सफ़ेद झंडे फहराएँ जाएँ.”[10] इससे पहले की इस अपील के बाद की परिस्थितियों की तरफ जाऊं, ठीक यहीं पर युद्ध के दौरान घटित होने वाली एक और मानवीय पहलु का यहाँ उल्लेख कर दूँ. किसी भी युद्ध में मानवीय पहलूओं का भी अपना इतिहास रहा है. यह क्रांति-युद्ध अपनी धरती नेपाल पर लड़ा गया था. इसलिए मुक्तिसैनिक अपनी धरती पर अनावश्यक रक्त बहाना नहीं चाहते थे. राणा की फ़ौज में शामिल अपने नेपाली भाई के प्रति उनके मन में कोई नफ़रत की भावना नहीं थी. इसलिए इस क्रांति-युद्ध का एक मानवीय पक्ष है. यह मानवीय पक्ष राणा की फ़ौज पर हमले के तरीकों में दिखलाई देती है. राणा की फ़ौज पर हमले की एक रणनीति बनाई जाती है जिसमें ‘बूबी ट्रैप’ बिछाने की बात याकथुम्बा करता है. यह ट्रैप द्वितीय विश्वयुद्ध के समय खूब प्रयोग में लाया गया था. यह ट्रैप एक तरह का फंदा होता है जो ऊपर से दिखलाई नहीं देता लेकिन जो पास पहुँचते और छूते ही तेज धमाके से फट जाता है. मुक्तिसैनिक का मेजर जनरल यह ट्रैप लगाने से याकथुम्बा को माना करते हुए कहता है -“ …नहीं-नहीं… हमने पराये देश पर चढ़ाई नहीं की है. हम अपनी मातृभूमि को लुटेरों के हाथ से मुक्त करने वाले मुक्तिसंग्रामी हैं… नो बूबी ट्रैपिंग, हियर…”[11] बहरहाल, हम लौटते हैं बी.पी. कोइराला की अपील की तरफ. कोइराला की अपील राणा द्वारा मान ली गई – ‘ किले की दीवार के उस पार एक सफ़ेद झंडा ऊपर की ओर उठ रहा है.’ किले का दरवाज़ा खुलता है. बी.पी. कोइराला भी ट्रेंच से निकलकर अपने मुक्ति सैनिक के दो अधिकारी के साथ आगे बढ़ते हैं. अभी दस कदम भी नहीं आगे बढ़े थे कि किले की छत पर फिट मशीनगन से उनके ऊपर फायरिंग की जाने लगी- ‘टटटटटट…टटटटट…टट… !!’ सफ़ेद झंडा दिखाकर राणा ने दगाबाजी की थी. राणाओं द्वारा दगाबाजी किए जाने का इतिहास रहा है. दरअसल, विश्व में जहाँ भी तानाशाही व्यवस्था रही है. वहाँ अनिवार्यत: दगाबाजियाँ रही है. तानाशाही सत्ता दगा, धोखा, झूठ पर ही आधारित होती है. मुसोलिनी, हिटलर, फ्रेंकों, तुजो द्वारा दिए गए धोखों पर अलग से बात की जा सकती है. नेपाली जनता के सामने राणा ने धोखा किया और इस भ्रम में रहे कि उन्होंने क्रांति के नेता बी.पी. कोइराला को मार दिया है. बी.पी. कोइराला अपने मुक्ति सैनिकों और डॉक्टर कुलदीप झा के साथ दुगनी ताकत से राणाओं पर हमला करते हैं . कोसी के कुसहा घाट पर विराटनगर से नाव पर आती हुई राणाशाही की सेना के साथ डेढ़ घंटे तक मुकाबले के बाद सेना को तराई में भगा दिया है. प्रजातंत्र नेपाल रेडियो एक दिन में तीन बार मुक्ति सैनिकों की मोर्चे दर मोर्चे पर विजय का समाचार प्रसारित करता रहता है. और आखिर में पूरनसिंह और उसके साथियों द्वारा बुलडोजर को टैंक में बदल दिया जाता है जिसे लेकर मुक्ति सैनिक किले के अंदर प्रवेश कर जाते हैं – “अब सिर्फ मुक्ति सेना की गोलियाँ बोल रही हैं-भीषण कलरव-कोलाहल, जयध्वनि… पूरब की दीवार को फलांगकर राणा के सैनिक भागना चाहते हैं लेकिन वे एक-एक कर नीचे गिर रहे हैं- मुक्ति सेना के जवान क्रोध में पागल हो गए हैं-सफ़ेद झंडा दिखलाकर फायरिंग करने का मजा वे अच्छी तरह चखा देना चाहते हैं.”[12] इस हमले में उत्तमविक्रम राणा के तीसरे पुत्र सुदर्शन शमशेर को मार दिया जाता है. सुदर्शन शमशेर ने ही बी.पी. कोइराला पर गोली चलाने का आदेश दिया था. मुक्ति सेना उत्तमविक्रम के कमरे में जब प्रवेश करने वाली होती हैं, तब एक बार फिर से नेपाल की जनता से प्यार करने वाले बी.पी. कोइराला का मानवीय चेहरा सामने आता है. बी.पी. कोइराला अपने मुक्ति सेना का रास्ता रोके राणा उत्तमविक्रम के कमरे के दरवाजे के सामने दोनों हाथ फैलाए उसकी सुरक्षा में खड़े हो जाते हैं और अपने सैनिकों को कहते हैं -‘स्टॉप फयरिंग.’ राणा उत्तमविक्रम के खून के प्यासे मुक्ति सैनिक रुक जाते हैं. बी.पी. कोइराला, राणा उत्तमविक्रम के परिवार के साथ बेहद मानवीय व्यवहार करते हैं – “मुँह में ऊँगली डालकर रोता हुआ एक शिशु-जिसकी घिघ्घी बंध गई है रोते-रोते,राणा उत्तमविक्रम पत्थर की मूर्ति की तरह खड़ा है-उसको घेरकर खड़ी दो महिलाएँ-दुहाई मांगतीं, बिलखती, रोती… बी.पी. कहते हैं – कर्नल साहब, अब आप सपरिवार मुक्तिसेना के बंदी है, घबराइए मत. नहीं-नहीं अब कोई गोली नहीं चलाएगा.”[13] नेपाली लोकतंत्र के सबसे बड़े दुश्मन की रक्षा में खड़े बी.पी. कोइराला क्रांति, युद्ध, हत्या के उन्माद से उत्तेजित सैनिकों के बीच एक एक विशाल हृदय, नेपाल की जतना से प्यार करने वाले एक विलक्षण मनुष्य के रूप में इस क्रांति-कथा में उभरते हैं. नेपाल के कई योद्धाओं ने इस जन-युद्ध में अपनी आहुति दी है, इतिहास से ऐसे योद्धाओं के नाम हमेशा बाहर रह जाते हैं. इस क्रांति-कथा में भी ऐसा हुआ. अंततः नेपाली कांग्रेस और राणा में समझौता होता है. राणा मोहन शमशेर प्रधानमंत्री और बी.पी. कोइराला नेपाल के उप-प्रधानमंत्री बनते हैं. यह समझौता बहुत दिनों तक नहीं टिकता है और नेपाल फिर से राणाओं के कब्ज़े में आ जाता है.

फणीश्वरनाथ ‘रेणु’, अपने रिपोर्ताज ‘नेपाली क्रांति-कथा’ में नेपाल के राणाशाही के विरुद्ध एक ‘मुक्ति-युद्ध’ का आरेख भर नहीं खींचते बल्कि इस ‘मुक्ति-युद्ध’ को लेकर वैश्विक राजनीति के दृष्टिकोणों, उसके अपने पूर्वाग्रहों और वैचारिक विचलनों के समर्थन में निर्मित तर्कों को भी हमारे सामने रखते हैं. आगामी समयों में होने वाली किसी भी ‘मुक्ति-युद्ध’ के लिए इसे एक सबक की तरह पढ़ा जा सकता है. ‘रेणु’ अपने इस रिपोर्ताज में विश्व की महाशक्ति देशों चीन, अमेरिका और रूस के तर्कों को दर्ज करते हैं. मैं रिपोर्ताज में उल्लिखित इन तीन देशों के संदर्भ को वर्तमान वैश्विक राजनीति में उसके समकालीन पाठ किए जाने की प्रस्तावना के साथ यहाँ उद्धृत करना चाहता हूँ –

“ तिब्बत पर साम्यवादी चीन के कब्ज़े के बाद हिमालय की गोद में बसे हुए नेपाल में, समाजवादी बी.पी कोइराला के नेतृत्व में जनक्रांति ने अमरीका को रहस्यपूर्ण चुप्पी साधने के लिए बाध्य कर दिया है.

लेकिन, अंग्रेज चुप नहीं रहेंगे. मोहन शमशेर ने अंग्रेजी साम्राज्य की रक्षा के लिए नेपाल में गरीब गुर्खों की भरती की अबाध अनुमति दे रखी है. अत: अपने स्वार्थ के लिए वे मोहन शमशेर की यथासाध्य सहायता करना चाहेंगे.

और आज रूस के समाचारपत्रों ने नेपाली जनता के इस जनयुद्ध का मखौल उड़ाते हुए कहा है : ‘नेपालियों का यह तथाकथित मुक्ति-संग्राम नेपाल के बुर्जुआ वर्ग द्वारा शासन पर अधिकार करने के लिए छेड़ा गया है. यह सर्वहारा की लड़ाई नहीं… !!’”[14]

 

निष्कर्ष :

‘नेपाली क्रांति-कथा’ की पूरी संरचना से गुजरते हुए यह कहा जा सकता है कि क्रांतियों के सफल-असफल हो जाने के बीज केवल क्रांति में शामिल आवाम के अपने अंतर्विरोधों में ही नहीं होती और न ही उसके स्थानीय परिवेश और परिवेशगत यथार्थ में बल्कि बहुत कुछ इस बात पर भी निर्भर करता है कि क्रांति को लेकर वैश्विक सोच-समझ क्या है और उसकी वरीयताएँ क्या हैं. विश्व की आर्थिक स्थितियाँ क्या हैं और देशों की आंतरिक राजनीति की स्थिरता एवं मजबूती किस प्रकार की है. द्वितीय विश्वयुद्ध के महाविनाश के कुछ वर्षों के ठीक बाद घटित यह क्रांति जर्जर होती आर्थिक व्यवस्था और वैश्विक अविश्वास के बीच घटित हुई थी. भारत अभी-अभी लंबी औपनिवेशिक सभ्यता से मुक्त होकर विभाजन की त्रासदी और पसरे हुए साम्प्रदायिक रक्तपात के बीच संभलने की कोशिश कर रहा था. ऐसी स्थिति में यह नेपाल के साथ केवल समझौतावादी दृष्टिकोण के साथ खड़ा हो सकता था. खड़ा हुआ भी. बहरहाल, ‘रेणु’ के लिए जैसा कि मैंने ऊपर भी कहा है, नेपाल दूसरी माँ की तरह थी. दसवीं की शिक्षा उन्होंने वहीं कोइराला परिवार के बीच रहकर हासिल की थी. यही कारण रहा है कि उनकी अधिकांश रचनात्मकता में नेपाल के भू-दृश्य सजीवता के साथ उपस्थित हुए हैं. ‘नेपाली क्रांति-कथा’ में यह भू-दृश्य गहरे लगाव के साथ उपस्थित हुए हैं. नेपाली बोली का जगह-जगह प्रयोग न केवल ‘रेणु’ के गहरे लगाव को दर्शाता है बल्कि क्रांति में शामिल लोक-जीवन की अनिवार्यता को प्रतिभाषित करता है. रिपोर्ताज की भाषा-संरचना में शामिल तीन बिंदियों की बारम्बारता ‘रेणु’ को केवल भारतीय लेखन-दुनिया में नहीं बल्कि विश्व साहित्य की दुनिया में भी विशिष्ट बनाता है. ‘रेणु’ के इस रिपोर्ताज की संरचना से गुजरते हुए मुझे चीनी लेखक हू फेंग का सटीक लगता है कि, ‘भावना को वस्तु के संग ही प्रकट होना चाहिए.’

संदर्भ

अरुण प्रकाश (2012), गद्य की पहचान, अंतिका प्रकाशन, नई दिल्ली

फणीश्वरनाथ रेणु संचियता (2003), संपादन – सुवास कुमार (नेपाली क्रांति-कथा), मेघा बुक्स, प्रथम संस्करण 2003

फणीश्वरनाथ रेणु (संस्करण 1998), मैला आँचल, राजकमल प्रकाशन, संस्करण 1998, पृष्ठ 252

  1. अरुण प्रकाश (2012), गद्य की पहचान, अंतिका प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 176

  2. फणीश्वरनाथ रेणु संचियता (2003), संपादन – सुवास कुमार (नेपाली क्रांति-कथा), मेघा बुक्स, प्रथम संस्करण 2003, पृष्ठ 587
  3. फणीश्वरनाथ रेणु (संस्करण 1998), मैला आँचल, राजकमल प्रकाशन, संस्करण 1998, पृष्ठ 252
  4. फणीश्वरनाथ रेणु संचियता (2003), संपादन – सुवास कुमार (नेपाली क्रांति-कथा), मेघा बुक्स, पृष्ठ 548 और 569
  5. फणीश्वरनाथ रेणु ‘तीन बिंदियाँ’ कहानी में एक प्रमुख पात्र गीताली है. जिसके संदर्भ से रेणु कहानी में लिखते हैं, ‘ डॉट डॉट डॉट ! गीताली इन नन्हीं नन्हीं तीन बिंदियों को, आखों से सामने शून्य में उभरने वाली छोटी-छोटी तारिकाओं को, अब अच्छी निगाह से देखती है; पहचानती है इस शुभ चिन्ह को !…’
  6. फणीश्वरनाथ रेणु की ‘तीन बिंदियाँ’ कहानी से उद्धृत .
  7. अरुण प्रकाश (2012), गद्य की पहचान, अंतिका प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 179
  8. फणीश्वरनाथ रेणु संचियता, (2003), संपादन – सुवास कुमार (नेपाली क्रांति-कथा), मेघा बुक्स, , पृष्ठ 549
  9. भोला चटर्जी बंगाल के समाजवादियों में सबसे लड़ाका व्यक्ति है. ‘रेणु’ इसके बारे में लिखते हैं, ‘गेर्रिला युद्ध की ट्रेनिंग देने से शुरू करके विदेश से, मित्र-देशों से अस्त्र-शास्त्र लाने का काम उसने किया है. डॉक्टर लोहिया ने बी.पी. से इस बहादुर बंग्संतन का परिचय देते हुए कथा था : ‘यह स्वयं एक भीषण मारात्मक विस्फोटक पदार्थ है.’’
  10. फणीश्वरनाथ रेणु संचियता (2003), संपादन – सुवास कुमार (नेपाली क्रांति-कथा), मेघा बुक्स, पृष्ठ 582
  11. वही, पृष्ठ 576
  12. वही, पृष्ठ 588
  13. वही, पृष्ठ 589
  14. वही, पृष्ठ 575

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