मानस की भाषिक पूर्वपीठिका के रूप में संस्कृत का अवदान: एक संक्षिप्त विवेचन

डॉ. के. आर महिया
सहायक आचार्य, संस्कृत
राजकीय कन्या महाविद्यालय, अजमेर
Krmahiya2027@gmail.com 

शोध सार

तुलसीदास निःसंदेह मध्ययुग की महत्त्वपूर्ण वैचारिक क्रांति की चरम परिणति थे परन्तु साथ ही उन्होंने जिन मूल्यों की स्थापना की वे आज भी मानवसमाज की मूल्यरिक्तता को भरने में पूर्णरूपेण सक्षम है। नवीन बौद्धिक चेतना से संबंधित आज का युवमानस पुराने मूल्यों को नकार रहा है पर उनके समक्ष नवीन जीवन मूल्यों का कलेवर स्पष्ट नहीं हो पा रहा है  ऐसे में तुलसी के सामाजिक परिवेश, उनकी लोकमंगलवादी मान्यता और भक्तिसंबंधिनी विशिष्ट दृष्टि से हम अपनी समस्याओं को बेहतर ढंग से समझ सकते हैं।

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शोध विस्तार:

तुलसीदास निःसंदेह मध्ययुग की महत्त्वपूर्ण वैचारिक क्रांति की चरम परिणति थे परन्तु साथ ही उन्होंने जिन मूल्यों की स्थापना की वे आज भी मानव-समाज की मूल्य-रिक्तता को भरने में पूर्णरूपेण सक्षम है। नवीन बौद्धिक चेतना से संबंधित आज का युव-मानस पुराने मूल्यों को नकार रहा है पर उनके समक्ष नवीन जीवन मूल्यों का कलेवर स्पष्ट नहीं हो पा रहा है  ऐसे में तुलसी के सामाजिक परिवेश, उनकी लोकमंगलवादी मान्यता और भक्ति-संबंधिनी विशिष्ट दृष्टि से हम अपनी समस्याओं को बेहतर ढंग से समझ सकते हैं।

 

प्रसिद्ध समाजशास्त्री मैक्स वैबर कहते हैं भारतीय समाज के मूल्य धर्म शब्द के अंतर्गत पूर्णरूपेण समाहित हो जाते हैं। उनकी निर्गुण-सगुण, द्वैत-अद्वैत, शैव-वैष्णव संबंधिनी अवधारणाएँ स्पष्ट हैं अतएव वे वैषम्य के स्थान पर समरसता उत्पन्न करती है। प्रस्तुत आलेख में धर्म के इस पक्ष से इतर तुलसी के मानस की शाब्दिक व आर्थी योजना पर विचार करते हुए उसके समसामयिक रूप और उपादेयता को प्रस्तुत किया जाएगा ।तुलसी ने सर्वग्राह्य बनाने के लिए अनेक ठेठ  देशज शब्दों का प्रयोग मानस में किया है। तुलसी एक परंपरावादी कवि हैं उन्होंने शब्दों का प्रयोग उन्हीं अर्थों में किया है जो अर्थ  साहित्य अथवा शास्त्र में प्रसिद्ध हो । मानस में देशज शब्दों की भरमार है। वस्तुतः जिन शब्दों का तत्सम रूप संस्कृत में नहीं खोजा जा सकता, जो लोक से उत्पन्न हुए हों और जिनका विदेशी भाषाओं से कोई संबंध नहीं है वे ‘देशज’ शब्द कहलाए। डॉ. शंभुनाथ पांडेय ने मानस के देशज शब्दों को तीन कोटियों में विभाजित किया है-

“1. अज्ञात व्युत्पत्ति वाले देशज शब्द

  1. 2. यदृच्छाव्युत्पन्न तद्भव शब्द
  2. 3. अपने तत्सम रूप से संस्कृत भाषा में प्रचलित शब्द।

 

अज्ञात व्युत्पत्ति वाले देशज शब्दों में उन संज्ञापदों (बेगि,कानि,घमोई,घालि,झगुली, झारी,ठीका, नैहर, भनु,  भानस, भटभेरा, माजा,सख,साउज आदि), विशेषण पदों (अरगानी, अरगाई, खेर, खाटी,गहबरि)और क्रिया अथवा कृदंत पदों(छुहँ, टेई, छहकि, पाँछि, बुताइ आदि) को रखा गया है, जिनका तत्सम रूप या व्याख्या कोशग्रंथों में नहीं दी गई है।

  1. 2. यदृच्छाव्युत्पन्न तद्भव शब्द वे शब्द हुए जो संस्कृत में खोजे गए हैं परन्तु संस्कृत से प्राकृत और अपभ्रंश के विकास-काल के कोई सूत्र इनमें नहीं दिए गए और रूप-परिवर्तन के कोई नियम भी नहीं निर्धारित किए गए। यथा- छरे, छयल, फीका,चपेटा, ओहार, कोहाब, गाँडर, थाती, दमक, अँगबनिहारे, ठाढ़ा, अनट, जुबराजु, प्रबोधु, विरोधु,आजू, बिनतहि, धीरजु,धरिहु, सेवकाई, सोहागु, राजू,जीभ, सालू (श्याल-साला-सालु)बिनती,जगतपति, उच्छाहु, प्रान आदि।
  2. 3. तृतीय श्रेणी के वे शब्द हैं जिसकी न तो वैज्ञानिक व्युत्पत्ति निर्धारित की गई है और न जिसके संस्कृत अथवा प्राकृत रूपों का प्रयोग ही उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किए गए हैं। वे जिस अर्थ में मानस में प्रयुक्त हुए हैं उस अर्थ में उनके तत्सम रूपों का प्रयोग संस्कृत साहित्य में नहीं मिलता, अतः इन्हें तद्भव कहना संदेहास्पद है। इस कोटि के शब्द निम्नलिखित हैं-

(अ)संज्ञापद- अनट , अएजा, अवसेरी, आरौ, काखासौती, कुरी, काछिय, कूँडि, कोहवर,चाँकी, निरजोसु, निहोरा,पहुनाई, रहस, लहकौरि।

(ब) विशेषण- अटपटे, फुर

(स) क्रिया-पद- अढुकि, कोरि, डेराई, ढरकें।

(द) क्रियाविशेषण- अवचट,उताइल तथा बगमेल। ”1

मानस के कुछ प्रमुख अंशों में प्रयुक्त शब्दों का विवरण यहाँ सक्षेप में प्रस्तुत किया जा रहा है ताकि सामान्य अध्येता मानस की भाषा का वैज्ञानिक दृष्टि से अध्ययन करते हुए मानस में प्रयुक्त भाषा के लाक्षणिक अर्थ से परिचित हो पाएँ ।

मानस में प्रयुक्त देशज शब्द-व्युत्पत्ति: अर्थ एवं प्रयोग

  1. अनभल- यह पुंल्लिंग संज्ञा शब्द है , जो कि संस्कृत के ‘अन्’ से विकसित तद्भव उपसर्ग ‘अन’ के साथ हिन्दी के देशज शब्द ‘भला’ शब्द से निर्मित हुआ है। यह शब्द पद्य में प्रयुक्त हुआ है तथा व्याकरणसम्मत नहीं होते हुए भी देशज शब्द की श्रेणी में रखा जा सकता है।

        “जेहिं राउर अति अनभल ताका, सोइ पाइहिं यहु फलु परिपाका।”2

            उपाऊ- यह संज्ञा शब्द , उपाय इस संस्कृत शब्द से निर्मित है।

‘‘भामिनि करहू त कहौं उपाऊ।’’3

इसी तरह राऊ, साँची, कहिहु, सुधि, लखइ, कहसि,पाहीं , घोरी, कठोरी,बनबासू, हुलासू, राजू, घोरी आदि देशज प्रयोग प्राप्त होते हैं, जो अवधी भाषा के भाषा-वैज्ञानिक लक्षणों को स्पष्ट करते हैं।

  1. अँगरी- यह शब्द संस्कृत के अंगरक्षिका से बना है। इसकी व्युत्पत्ति अंगरक्षिका-अँगरखा शब्द से भी मानी गई है जो कि एक सामान्य परिधान है।

‘‘अंगरी पहिरी कूँड़ि सिर धरहीं।’’4  

निबाहनिहारा- निर्वाह करने वाले के अर्थ में। इसमें निबाह का तत्सम रूप निर्वाह है तथा उसी में निहारा का योग हुआ है।

“को रघुवीर सरिस संसारा। सीलु सनेहु निबाहनहारा।’’5

अँगवनिहारे- अंगों  पर सहने वाले, यह अंग तत्सम शब्द से निर्मित हुआ है।

“सूल कुलिस असि अँगवनिहारे” (वही)

  1. अढ़ुकि- हिन्दी में अढ़ुकना शब्द मिलता है , जिसका अर्थ है ठोकर। अढ़ुक संज्ञा पुल्लिंग शब्द है। जिससे अढ़ुकना या अढ़ुकि देशज शब्द निर्मित हुआ है।

“अढ़ुकि परहिं फिरि हेरहिं पीछे।”6  

  1. अनैस – अनैस संज्ञा शब्द संस्कृत के अनिष्ट से बना है जिसका अर्थ बुरा हुआ। यहाँ अनैसे अनिष्ट के हेतु वाली रोष मुद्रा के लिए गोस्वामी ने मानस में किया है। इससे लोक में जो क्रिया शब्द बनता है वह अनैसना हुआ, जिसका मंतव्य बुरा मानना या रूठना हुआ। क्रिया रूप में ही अनैसे शब्द भी मिलता है , जिसका अर्थ हुआ बुरे भाव से। इससे जो विशेषण शब्द बना वो अनेसा हुआ अर्थात् जो अप्रिय है, बुरा है, खराब है वह।

कह मुनि राम जाइ रिस कैसे। अजहूँ अनुज तव चितव अनैसे7

सकउँ तोर अरि अमरउ मारी। काह कीट बपुरे नर नारी।। (अयोध्या काण्ड)

  1. अमरउ- संस्कृत के अमर शब्द से व्युत्पन्न यह विशेषण शब्द चिरजीवी के अर्थ में प्रयुक्त होता है। अमर शब्द है । मृ धातु से निष्पन्न यह शब्द हिन्दी के ‘अ’  उपसर्ग के योग से बना है जो यहाँ लोक में अमरउ के रूप में प्रयुक्त हुआ है। देव के स्त्रीलिंग रूप में यही अमरता, अमरा व अमरी रूप में प्रयुक्त हुआ। इसी से अमरत्व भाववाचक संज्ञा शब्द निर्मित होता है जिसका देशज प्रयोग अमरता है। देवता, पारा, अमरकोश आदि अर्थों में अमर शब्द प्रयुक्त होता है। यहाँ एक रोचक बात है कि अमर में यदि ख का योग हो कर ‘अमरख’ बना  दें तो इसका अर्थ क्रोध, रिस, गुस्सा हो जाता है।
  2. बरु-

रघुकुल रीति सदा चलि आई।

प्राण जाहुँ बरु बचन न जाई।। (रामचरितमानस) इसी तरह एक अन्य स्थान पर गोस्वामी लिखते हैं-

राम सरिस बरु दुलहिनि सीता। समधी दशरथु जनकु पुनीता।

वैसे तो चलि,जाहुँ,बचन, जाई आदि प्रयोग भी छंदानुकूल व देशज प्रभाव के कारण ही हैं परन्तु बरू शब्द पर देशज प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित है। अवधी का ‘बरु’ अव्यय शब्द संस्कृत के वरन् शब्द से निर्मित है। ‘बरू’ अव्यय भले ही, चाहे ही,कुछ हर्ज़ नहीं के अर्थ में प्रयुक्त होता है। जायसी ने भी ठेठ अवधी में लिखा है- मनहुँ कला शशिमान।

  1. जोरी-

सोहति सीय राम कै जोरी, छबि सिंगारु मनहूँ एक ठोरी।

अर्थ है सीताराम की जोड़ी इस प्रकार सुशोभित हो रही है मानो सुंदरता और शृंगार रस एकत्र हो गए हों। यहाँ जोरी और मनहूँ शब्द पर विशेष ध्यान देते हैं। जोड़ी संज्ञा शब्द जोड़ा से बना है जिसका अर्थ है एक ही जैसी दो वस्तुएँ, पदार्थ या सत्ता। जोरी शब्द तद्भव और देशज प्रयोग है।

मनहुँ शब्द देशज विशेषकर अवधी में मनहुँ रूप में प्रयुक्त होता है यहाँ गोस्वामी जी ने छंदानुसार दीर्घ का प्रयोग किया है। मनहुँ अव्यय शब्द है जो हिन्दी के मानों से निर्मित हुआ है जिसका अर्थ जैसे , यथा आदि हुआ।

  1. जाननिहारा

रामहि केवल प्रेमु पियारा, जानि लेउ जो जाननिहारा

यहाँ प्रेमु, पियारा, जाननिहारा आदि शब्द देशज रूप हैं। इस काव्यांश का अर्थ है श्रीरामचंद्रजी को केवल प्रेम प्यारा है; जो जानने वाला हो, वह जान ले। जाननिहारा शब्द जाननहार की ही परिपाटी पर प्रयुक्त हुआ है।

हम न मरि मरिहै संसारा,हमहु मिला है जियावनहारा। यहाँ कबीर ने भी ऐसी ही शब्दावली का प्रयोग किया है; मध्यकाल की भाषा के भाषिक अध्ययन में यह समत्व की स्थिति को परिलक्षित करता है।

  1. राम-राम कहि जे जमुहाहीं, तिन्हहि न पाप पुंज समुहाहीं

अर्थात् जो लोग राम-राम कहकर जमुहाई लेते हैं अर्थात् आलस्य में भी जिनके मुँह से राम-नाम का उच्चारण हो जाता है, पापों के समूह उनके सामने नहीं आते। यहाँ समुहाहीं शब्द पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। समुहा वस्तुतः तत्सम शब्द सम्मुख से बना है। मुख शब्द से निर्मित सम्मुख हुआ, मुख का तद्भव मुँह हुआ इसी से समुहा निर्मित हुआ । समुहा विशेषण के रूप में सामने का अर्थ में ध्वनित हो रहा है यही अकर्मक क्रिया के रूप में समुहाना बना। इसी से अवधी में समुहाहीं बना।

जमुहाहीं भी स्त्रीवाचक संज्ञा तद्भव रूप है जो तत्सम शब्द जँभाई से बना है जो संस्कृत के जृंभा से निर्मित है। सामान्य भाषा में इसे ही उबासी भी कहा जाता है।  

 

 

  1. ‘राम तुम्हहि प्रिय तुम्ह प्रिय रामहि। यह निरजोसु दोसु विधि बामहि।।’

अर्थात् श्रीराम  भक्तों को प्यारे हैं और आप भक्त श्रीराम को प्यारे हैं। दोष तो प्रतिकूल विधाता को है। यहाँ निरजोसु शब्द का अर्थ निचोड़ या निर्णय है जो संस्कृत के निर्यास से बना है।

 

इस प्रकार भाषिक दृष्टि से मानस में तद्भव शब्दों का भण्डार है। रामकाव्य का मूल ही वस्तुतः वाल्मीकि रामायण है। परंतु, इसके विभिन्न प्रसंगों में नवीन उद्भावनाओं का समावेश, भाषिक दृष्टि से परिवर्तन संस्कृत के परवर्ती रामकाव्य से प्रेरणा लेकर होता रहा है; गोस्वामी ने स्वयं लिखा है-

“नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद्रामायणे निगदितं व्वचिदन्यतोपि।

स्वान्तःसुखाय तुलसीरघुनाथगाथा भाषानिबंधमतिमंजुलमातनोति।।” -मानस

 

कथाओं के साथ-साथ भाषा में भी तुलसी ने समन्वय दिखाया है। अपने ज्ञान और अनुभव को उन्होंने कुछ ही व्यक्तियों तक सीमित न रखकर उन्होंने किसी एक भाषा को महत्त्व नहीं दिया। “का भाषा का संस्कृत, प्रेम चाहिए साँच”, कहकर उन्होंने कही जाने वाली बात को अधिक महत्त्व दिया। इतना ही नहीं उन्होंने एक व्यापक राष्ट्रभाषा के विकास का मार्ग भी दिखाया है। वे इस अवधारणा पर अड़े रहते हैं कि सर्वाधिक प्रचलित भाषा और उसके प्रयोगों का  ढाँचा लेकर हमें आवश्यकतानुसार उसके रूप को भरने,सजाने,सँवारने के कार्य में विभिन्न भाषाओं के उपयुक्त शब्दों को लेते रहना चाहिए, पर यह कार्य मूल भाषा को बिगाड़ने वाला न होकर उसे अधिक प्रांजल और समृद्ध बनाने वाला होना चाहिए। अपने ग्रंथों में अवधी या ब्रज के मूल रूप को लेकर उसमें उन्होंने संस्कृत, अरबी, फारसी, बँगला, गुजराती, मराठी आदि भाषाओं के शब्दों को यथास्थान स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं किया। उन्होंने मानस में भी मुख्य पारिभाषिक शब्दावली संस्कृत से लेकर उन्होंने उसे लोक-भाषा में ढालकर प्रस्तुत किया है; अतः वे हमारी वर्तमान भाषिक समस्याओं को सुलझाने में भी हितकारी है। यही समन्वयात्मक दृष्टिकोण और दर्शन गांधी-दर्शन के भी निकट है।

 

संदर्भ

 1.तुलसी ग्रंथावली,तृतीय खण्ड- नागरीप्रचारिणी सभा,मानस का देशज शब्दभंडार लेख से पृ. 408-409)

 2.(20, अयोध्याकाण्ड)

3.(वही)

  1. 4. वही(2.191.5)
  2. वही (24.2, अयोध्याकाण्ड)
  3. वही 2.143.6
  4. 7. वही(1.279.7)

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