चांद का मुंह टेढ़ा है: नये परिप्रेक्ष्य में
अमित कुमार
संप्रति-शोधार्थी,
हिन्दी विभाग, म. गां.काशी विद्यापीठ, वाराणसी।
शोध सारांश:
गजानन माधव जिन्हें ‘मुक्तिबोध’ के नाम से हिन्दी जगत में व्यापक लोकप्रियता मिली नयी कविता के विशिष्ट कवि हुए हैं। विशिष्ट इस अर्थ में कि उनकी काव्यदृष्टि ने आम आदमी के दु:ख, दर्द, पीड़ा और टूटन को साहित्यिक मंच पर विशेष फैंटसी शैली और खास तेवर के साथ काव्यात्मक अभिव्यक्ति दी है। अज्ञेय द्वारा संपादित तारसप्तक ‘1943’ई.के महत्त्वपूर्ण कवि होने के साथ ही मुक्तिबोध आधुनिक हिन्दी कविता के बहुसंदर्भित कवि रहें हैं ।‘चांद का मुंह टेढ़ा है’ को नये परिप्रेक्ष्य में देखना इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि उत्तर आधुनिक विमर्शों के इस दौर में जहाँ स्त्री, दलित, आदिवासी और जेंडर के सवाल खास संदर्भ में अपनी उदात्त उपस्थिति दर्ज करा रहें हों वहाँ इन हाशिये के समाज के प्रति मुक्तिबोध का दृष्टिकोण उनका नजरिया क्या था? बहरहाल, मुक्तिबोध के विराट सृजन लोक पर दृष्टिपात करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि मुक्तिबोध समाज के इस उपेक्षित तबके, श्रमशील जनों के प्रति समावेशी नजरिया रखते थे. समाज और राजनीति उनके कविता के दो अत्यंत जरुरी आयाम हैं.
बीज शब्द: फैंटसी, उत्तर आधुनिक विमर्श, मार्मिकता, आधुनिकता वाद, आत्मान्वेषण, विचारधारा
प्रस्तावना-
मुक्तिबोध की मार्मिकता:
13नवम्बर सन् 1917ई.श्योपुर(ग्वालियर) में जन्में मुक्तिबोध की आरंभिक शिक्षा उज्जैन में हुई थी। मुक्तिबोध ने छायावाद के अवसान के समय लिखना शुरू किया था,पर छायावाद की शक्तियों से वह भली-भांति परिचित थे।उनका पहला काव्य संग्रह ‘चांद का मुंह टेढ़ा है’शीर्षक से उनकी मृत्योपरांत भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली से सन् 1964 ई.में प्रकाशित हुआ।जिसकी अत्यंत मार्मिक और हृदयस्पर्शी भूमिका लिखी हिन्दी उर्दू के सुपरिचित कवि शमशेर बहादुर सिंह ने यह भूमिका ऐतिहासिक महत्व की है। मुक्तिबोध के यातनामय जीवन के दौर में ‘चांद का मुंह टेढ़ा है’ संग्रह का प्रकाशित होना एक महत्वपूर्ण साहित्यिक घटना साबित हुई जिसकी शिनाख्त कवि शमशेर ने की है।बकौल शमशेर, “एकाएक क्यों सन् 64 के मध्य में गजानन माधव मुक्तिबोध विशेष रूप से महत्वपूर्ण हो उठे क्यों धर्मयुग, ज्ञानोदय, लहर नवभारत टाइम्स- प्रायः: सभी साहित्यिक मासिक और दैनिक उनका परिचय पाठकों को देने लगे और दिल्ली की साहित्यिक हिंदी दुनिया में एक हलचल सी आ गई? इसलिए कि गजानन माधव मुक्तिबोध एकाएक हिन्दी संसार की एक घटना बन गए। कुछ ऐसी घटना जिसकी ओर से आंख मूंद लेना असंभव था।“(१)
इस संग्रह में मुक्तिबोध की कुल मिलाकर अट्ठाईस(28) कविताएं शामिल हैं।इन कविताओं में भूल-गलती,ब्रह्मराक्षस, दिमागी गुहान्धकार का ओरांगउटांग!, लकड़ी का बना रावण,चांद का मुंह टेढ़ा है,एक अन्त:कथा, ओ काव्यात्मन फणिधर,चकमक की चिंगारियां,एक श्वप्न-कथा,अंत:करण का आयतन,’चंबल की घाटी में’ और अंत में है मुक्तिबोध की समग्र चेतना विवेक की संवाहक कविता ‘अंधेरे में’। इसके अलावा मुक्तिबोध का एक और महत्वपूर्ण काव्य संग्रह ‘भूरी भूरी खाक धूल’ शीर्षक से सन् 1980ई.में प्रकाशित हुआ। यहां खास बात यह है कि इस दूसरे संग्रह में संकलित कविताएं ‘चांद का मुंह टेढ़ा है’ में संकलित कविताओं से पहले लिखीं गयीं थी। मुक्तिबोध बहुमुखी प्रतिभा के लेखक हैं इसलिए उन्होंने अपने को सिर्फ कविता लेखन तक ही सीमित नहीं किया वरन् कहानी, उपन्यास,डायरी, इतिहास और आलोचनात्मक लेखन में भी खास प्रतिमान स्थापित किए हैं। ‘कामायनी एक पुनर्विचार’, ‘नयी कविता का आत्मसंघर्ष’ और ‘नये साहित्य का सौंदर्य शास्त्र’ मुक्तिबोध के आलोचनात्मक विवेक के साक्ष्य ग्रंथ हैं,तो ‘एक साहित्यिक की डायरी’ उनके आरंभिक जीवन की अनेक उधेड़बुनों और अंतर्विरोधों को जानने का सार्थक उपक्रम है। कहानियां उनकी कविताओं के काव्य बोध को समझने के लिए सूत्रवत हैं। मुक्तिबोध अंधेरे के बरक्स उजाले के कवि हैं,उनकी कविताओं में भारतीय मध्यवर्ग की दकियानूसी प्रवृत्ति के बरक्स गहरी, वाजिब और मार्मिक चिंताएं हैं।
जाहिर है, कि मुक्तिबोध नयी कविता के दौर के कवि हैं ।नयी कविता का युग अत्यधिक ऊहापोह का युग था।एक तरफ छायावादी कवियों की उत्तरार्द्ध रचनाएं प्रकाशित हो रही थीं, जिनमें वे कमोबेश यथार्थपरकता की ओर उन्मुख दिखाई पड़ते हैं।छायावादी कवियों में सर्वप्रथम महाप्राण निराला की ‘कुकुरमुत्ता’ कविता में नयी चेतना की अनुगूंज मुखरित होती है। दिलचस्प तथ्य है कि’कुकुरमुत्ता’निराला की सर्वाधिक विवादास्पद कविता रही है।निराला की देखा-देखी प्रकृति के चितेरे कवि पंत ने अपने छायावादी संस्कारों को परखा, “परिस्थितियों की वास्तविकता को स्वीकारते हुए पंत को सन 1938 के रूपाभ के संपादकीय में स्पष्ट घोषणा करनी पड़ी थी कि इस युग की वास्तविकता ने जैसा उग्र रूप धारण कर लिया है इससे प्राचीन विश्वासों में प्रतिष्ठित हमारे भाव और कल्पना के मूल हिल गए सन 1936 के आसपास कविता किसी ठोस यथार्थवादी धरातल को तलाशने लगी थी और यह धरातल उसे प्रगतिवाद के रूप में मिला।“(२) प्रगतिवादी काव्य एक खास राजनीतिक पक्षधरता से संचालित था। प्रगतिवादी काव्यधारा के कवियों में नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल और त्रिलोचन खास तेवर के साथ सर्वहारा के हितों के लिए चिंतित दिखाई पड़ते हैं।
मुक्तिबोध की चेतना का निर्माण प्रगतिवाद और आधुनिकता वाद के मेल से हुआ था। दिलचस्प तथ्य है कि मुक्तिबोध कविता को एक सांस्कृतिक प्रक्रिया मानते हैं केवल भावाभिव्यक्ति नहीं। कविता ने हर युग में अपने समय के जीवन मूल्यों के आधार पर अपने समय की संस्कृति को रचने और बनाने की पुरजोर कोशिश की है। किसी भी समय की कविता से हम जान सकते हैं कि उस समय के भाव बोध और चिंतन व्यवहार का स्तर कैसा था? लोगों के आपसी रिश्ते कैसे थे? बहरहाल, मुक्तिबोध की पक्षधरता यह है कि ज्ञान और बोध के आधार पर ही भावना की इमारत खड़ी होती है।ज्ञान के बिना जो भावना निर्मित होगी उसका कोई आधार नहीं होगा।इसी आधार पर उन्होंने संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदना सूत्र ईजाद किया था। मुक्तिबोध लंबी, प्रदीर्घ कविताओं के कवि माने जाते हैं। इस तथ्य को उन्होंने अपनी बहुचर्चित डायरी ‘एक साहित्यिक की डायरी’ में यों रेखांकित किया है, “यथार्थ के तत्व परस्पर गुम्फित होते हैं, साथ ही पूरा यथार्थ गतिशील होता है।अभिव्यक्ति का विषय बनकर जो यथार्थ प्रस्तुत होता है वह भी ऐसा ही गतिशील है,और उसके तत्व भी परस्पर गुम्फित हैं यही कारण है कि मैं छोटी कविता लिख नहीं पाता और जो छोटी होती है वे वस्तुतः: छोटी ना होकर अधूरी होती है।( मैं अपनी बात कह रहा हूं )और इस प्रकार की ना मालूम कितनी कविताएं मैंने अधूरी लिखकर छोड़ दी हैं।उन्हें खत्म करने की कला मुझे नहीं आती यही मेरी ट्रेजडी है।“(३)
मुक्तिबोध मध्यवर्ग के सबसे सजग कवि हैं कारण स्पष्ट है कि मुक्तिबोध भी उसी मध्यवर्ग से ताल्लुक रखते हैं।जिसके व्यक्तित्वांतरण की वकालत वे अपनी कविताओं में बार-बार करते हैं। इसलिए भारतीय मध्यवर्ग की कमजोरी और ताक़त दोनों से वह भली-भांति वाकिफ थे।वह जानतें थे कि बौद्धिक क्रीतदास यह वर्ग चाहे तो बड़ी-बड़ी क्रांतियां कर सकता है।सारी समस्याओं के होते हुए मुक्तिबोध बार- बार आह्वान करते हैं कि ‘पार्टनर तुम्हारी पालिटिक्स क्या है?
यहां मुक्तिबोध की कविता ‘अंत:करण का आयतन’ से निम्न पंक्तियां दृष्टव्य् हैं- “अंत:करण का आयतन संक्षिप्त है, आत्मीयता के योग्य, मैं सचमुच नहीं! पर,क्या करुं,यह छांव मेरी सर्वगामी है!… चमकता है अंधेरे में,प्रदीपित द्वन्द्व चेतस एक,सच-चित-वेदना का फूल।”(४)
मुक्तिबोध की कविताओं में बरगद, अंधेरा, बावड़ियों और तालाबों का उल्लेख जगह-जगह देखना को मिलता है। इससे प्रभावित होकर एक आलोचक ने उनकी तुलना बरगद तक से कर डाली तो शमशेर को सफाई में कहना पड़ा कि, “किसी ने मुक्तिबोध की एक बरगद से तुलना की है; जो अवश्य ही उनका एक प्रिय इमेज़ है। मगर वह बरगद नहीं -चट्टान एक ऊंची, सीधी चट्टान है। शिलाओं पर शिलाएं। झरने कहीं बिरले ही। केवल गहरी बावलियां, सूखे कुएं, झाड़ झंखाड़, ऊंची- नीची अनंत पगडंडियां।.. जैसे मालवा के पठार और मध्य प्रदेश की ऊबड़-खाबड़ धरती और इस धरती के आतंकमय, रहस्यमय इतिहास और उनके बीच लहूलुहान मानव। मुक्तिबोध हमेशा एक विशाल विस्तृत कैनवास लेता है: जो समतल नहीं होता: जो सामाजिक जीवन के धर्म क्षेत्र और व्यक्ति चेतना की रंगभूमि को निरंतर जोड़ते हुए समय के कयी काल- क्षणों को प्रायः एक साथ आयामित करता है।(५)
मुक्तिबोध एक प्रखर बौद्धिक कवि हैं लेकिन उनके लिए बौद्धिकता एक आरोपित विचारधारा या ओढ़ लिया गया दर्शन नहीं है।वे उसकी आंतरिकता में जाने की ईमानदार कोशिशें करते हैं। “मुक्तिबोध पूंजीवाद के सबसे तीखे आलोचक हैं लेकिन उसके रचनात्मक पहलुओं के समर्थक भी हैं।भयानक गैर बराबरी है।जब तक सभी बराबर न हों जाएं, मध्यवर्गीय संवेदनशील व्यक्ति का ऐश करना अपराध है।यह एक प्रकार का प्रोटेस्टेंट तत्व है। मुक्तिबोध की कविता बार-बार उन प्रसंगों को लाती है जहां नायक (उदाहरण के लिए ‘अंधेरे में’ का नायक) अपराधबोध से ग्रस्त नजर आता है।“(६) जाहिर तौर पर मुक्तिबोध की मार्मिकता का सबसे सशक्त प्रमाण उनकी कविताएं हीं हैं।हर बड़े लेखक की पहचान उसकी कोई एक अमर रचना होती है। उदाहरण के लिए प्रेमचंद का कालजयी उपन्यास ‘गोदान’ है तो जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी’ , निराला की’राम की शक्तिपूजा’ अज्ञेय की “असाध्यवीणा”आदि । कहने का आशय यह कि इन अमर कृतियों की तो खूब चर्चा होती है लेकिन इनके अलावा भी कई छोटी रचनाएं भी अत्यंत मार्मिक और महत्वपूर्ण होती हैं।प्राय:इन अमर और कालजयी कृतियों ने इन लेखकों की छोटी रचनाओं को दबाने का काम किया हैं इसमें दो राय नहीं है। यही हस्र मुक्तिबोध की लघु रचनाओं के साथ हुआ है। उनकी प्रदीर्घ कविताओं की जिनमें ‘अंधेरे में’ ,’चांद का मुंह टेढ़ा है’,’ब्रह्मराक्षस’, ’भूल गलती’ आदि की तो खूब चर्चा हुई है लेकिन कई सारी उनकी छोटी और मार्मिक कविताएं हैं जो आलोचकों को हतोत्साहित नहीं कर सकीं।।
ज्ञातव्य हो “चांद का मुंह टेढ़ा है” में शामिल कतिपय कविताएं ऐसी ही हैं, जिनकी चर्चा हिन्दी आलोचना जगत में अपेक्षाकृत कम हुई है। मसलन,’लकड़ी का बना रावण’,’मुझे पुकारती हुई पुकार’,’मेरे सहचर मित्र’,’एक अंत:कथा’, ‘ओ काव्यात्मन् फणिधर’,एक स्वप्न कथा इत्यादि। उक्त कविताएं मुक्तिबोध के काव्य विवेक के साथ ही उनके जीवन विवेक की अनेक अंतर्दृष्टियों और अंतर्विरोधों को उजागर करने की सार्थक अभिव्यक्ति हैं।
गौरतलब, हो कि अज्ञेय ने मुक्तिबोध की शोक सभा में जो वक्तव्य पढ़ा उसमें उन्हें ‘आत्मान्वेषण’ के कवि आकलित किया- “मुक्तिबोध (मेरी समझ में, और कई समीक्षकों की राय के बावजूद)आत्मान्वेषण के कवि हैं। मैं तो इस बात को उनके काव्य और उनके कविता -सम्बंधी वक्तव्यों से प्रमाणित मानता हूं।“(७)
मुक्तिबोध की कविताओं में भारतीय राजनीति की विद्रूपताओं की विरल उपस्थिति है। कवि,समीक्षक अशोक वाजपेई की उनकी कविताओं की स्थापत्य शैली पर यह टिप्पणी उचित ही मालूम होती है-“मुक्तिबोध की कविताओं का स्थापत्य स्थिर और सुपरिभाषित नहीं है। एक अर्थ में उनकी कविता का कोई पूर्वज नहीं है। उन्हें उस समय हिंदी में जो मॉडल सुलभ थे, उनसे उनका काम नहीं चल सकता था। इसलिए उन्होंने कष्ट पूर्वक एक बिल्कुल नया स्थापत्य अपने लिए गढ़ा। उनकी कविताएं सोचती-विचारती कविताएं हैं।”(८)
बहरहाल,अब “चांद का मुंह टेढ़ा है” में संकलित कुछ बेहद महत्वपूर्ण और ज़रूरी कविताओं पर नये परिप्रेक्ष्य में विचार-विमर्श अपेक्षित है। उक्त संकलन में संकलित कविता “ब्रह्मराक्षस” एक तरह से प्रतिनिधि कविता है। बल्कि ‘अंधेरे में’ के बाद यह कविता आलोचकों द्वारा सर्वाधिक व्याख्यायित की गई कविता है।इस कविता का नायक एक पिशाच है, क्योंकि मरने के बाद उसे मोक्ष-लाभ नहीं हुआ। जिसके पीछे तीन प्रधान कारण निम्न हैं-“एक तो यह कि वह कर्म से विरत रहकर अपने विचार और कार्य में सामंजस्य स्थापित करना चाहता था, दूसरे, वह अतिरेक के बिंदु पर जाकर भव्य नैतिक मानो को आत्मसात करते हुए पूर्णता प्राप्त करना चाहता था और तीसरे,वह अपने व्यक्तित्व के बिल्कुल निषेध के पक्ष में था। यह तीनों कमजोरियां अपरिपक्व चिंतन की देन हैं, जो मध्य वर्ग की विशेषता है। ब्रह्मराक्षस की आकांक्षाओं से सहानुभूति रखते हुए कविता के प्रायः अंत में कवि कहता है”(९)
“ पिस गया वह भीतरी
औ’ बाहरी दो कठिन पाटों के बीच,
ऐसी ट्रैजिडी है नीच!!”(१०)
यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि, मुक्तिबोध की कविता के दो प्रधान और उदात्त पहलू हैं एक भारतीय राजनीति और दूसरा मध्यवर्ग। उनकी राजनीतिक कविताओं की एक खास विशेषता यह रही है कि उनकी राजनीति इतिहास और अर्थ-व्यवस्था के ज्ञान से अलग नहीं है।बल्कि परस्पर बृहत्तर आयामों को आयामित करने वाली राजनीतिक दूरदृष्टि मुक्तिबोध के कवि व्यक्तित्व की विरल विशेषता है।
प्रसंगवश यहां मुक्तिबोध की अमर कविता “अंधेरे में” को नये परिप्रेक्ष्य में एवं ज्ञानात्मक अनुशासनों की नयी रोशनी में आकलित किया जाएगा। चूंकि यह कविता”मुक्तिबोध”के कवि विवेक को स्थापित करने में ऐतिहासिक महत्व की है, इसलिए इस कविता के प्रकाशन के इतिहास को जानना बेहद रोचक होगा। मसलन,श्री कांत वर्मा ने “चांद का मुंह टेढ़ा है”के प्रथम संस्करण में रेखांकित किया है कि- “बीमारी के दौरान मुक्तिबोध ने इच्छा जाहिर की कि इस संकलन में उन की दो कविताएं –‘चंबल की घाटियां’ और ‘आशंका के द्वीप: अंधेरे में’ जरूर शामिल की जाएं। दोनों एक के बाद दूसरी छापी जाएं और दूसरी का शीर्षक बदल दिया जाए। उन्होंने कहा था कि ‘आशंका के द्वीप: अंधेरे में’शीर्षक एक विशेष मन:स्थित के प्रवाह में मैंने दिया था उनकी इच्छा के मुताबिक शीर्षक से मैंने ‘आशंका के द्वीप’ हटा दिया है,हालांकि मुझे लगता है यह शीर्षक इस कविता के अर्थ को अधिक अच्छी तरह व्यंजित करता है।”(११)
“अंधेरे में” कविता आधुनिक हिन्दी कविता में एक तरह से प्रस्थान बिंदु साबित हुई। ठीक वैसे ही जैसे जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी’, निराला की ‘राम की शक्ति पूजा’ य फिर अज्ञेय की ‘असाध्यवीणा’आदि।नये परिप्रेक्ष्य में देखने के निमित्त यहां समकालीन और जरुरी आलोचक सुधीश पचौरी का मत गौरतलब है।वाक् पत्रिका की भूमिका में वे इस कविता की पूर्व में हुई व्याख्याओं से असहमति के स्वर दर्ज कराते प्रतीत होते हैं- “अंधेरे में कविता के साथ सबसे बड़ा अन्याय नामवर सिंह ने किया ।‘अभिव्यक्ति की खोज’ को नामवर सिंह ने अपनी मौलिकता के प्रदर्शन के चक्कर में ‘अस्मिता की खोज’ बना दिया और बाकी लोग इसे ही लेकर उड़ चले। किसी ने भी ‘अस्मिता’ के इस तरह के गलत उपयोग पर प्रश्न नहीं उठाया। किसी ने भी अस्मिता जैसी समाजशास्त्री ‘कोटि'(केटेगरी)की सही परिभाषा या अवधारणा के बारे में जानने की कोशिश नहीं की।…मुक्तिबोध अपने लेखन में ‘अभिव्यक्ति’ से संबंधित प्रश्न बार- बार उठाते हैं‘ अंधेरे में’ कविता किसी ‘परम अभिव्यक्ति’ की खोज की प्रक्रिया की कविता है।”(१२)
शमशेर बहादुर सिंह ने मुक्तिबोध की कविताओं का सर्वाधिक मार्मिक और ऐतिहासिक मूल्यांकन किया है,इसमें दो राय नहीं हो सकती। ‘’अंधेरे में’ कविता को वे यों मूल्यांकित करते हैं- “यह कविता देश के आधुनिक जन -इतिहास का स्वतंत्रता पूर्व और पश्चात का एक दहकता हुआ इस्पाती दस्तावेज है। इसमें अजब और अद्भुत रूप से व्यक्ति और जन का एकीकरण है।”(१३)
सुप्रसिद्ध समीक्षक डॉ. नामवर सिंह ने “कविता के नये प्रतिमान” चर्चित किताब में मुक्तिबोध की इस सबसे चर्चित कविता की विशिष्टता के लिए रेखांकित किया है कि-“कथन शैली की दृष्टि से ‘अंधेरे में’ एक स्वप्न कथा है।“(१४) इसी लेख में आगे डा. सिंह ने “अंधेरे में” की संरचना पर भी सारगर्भित विचार किया है- “ ‘अंधेरे में’ की संरचना की सबसे बड़ी विशेषता है परस्पर विरोधी भावचित्रों का धूप- छांही मेल ।जिसे आचार्य शुक्ल विरुद्धों का सामंजस्य कहते हैं। अंधकार की गहरी पट भूमि पर एक आलोक- रेखा खींचकर कालजयी काव्य- कृतित्व का जो प्रतिमान किसी समय निराला की राम की शक्ति पूजा ने उपस्थित किया था, ‘अंधेरे में’ के द्वारा मुक्तिबोध ने उसी तरह की दूसरी काव्य कृति प्रस्तुत की । ‘अंधेरे में’ के अंतर्गत सर्वत्र अंधेरा ही नहीं है, बल्कि चमकती हुई रंग- बिरंगी मणियां भी हैं:”(१५)
इसी क्रम में महत्वपूर्ण आलोचक और वागर्थ पत्रिका के संपादक शंभूनाथ सिंह ने “अंधेरे में” कविता के महत्त्व को नये परिप्रेक्ष्य में इस प्रकार विश्लेषित किया है-“मुक्तिबोध की कविता “अंधेरे में” में किसी पुरानी दीवार का प्लास्तर और चुने भरी रेत गिरने से एक बड़ा सा चेहरा बनता है। वह चेहरा ‘कामायनी’ के नुकीली नाक और भव्य ललाट वाले उसी व्यक्तिवादी मनु का है, जो पश्चिम की ढहती सभ्यता के कचरे से निकला था- ‘कौन वह दिखाई जो देता, पर नहीं जाना जाता है!’ पूंजीवादी आधुनिकता का तिलिस्म ऐसा ही है।”(१६) कहने का आशय की मुक्तिबोध पूंजीवादी आधुनिकता के तिलिस्म से भली-भांति वाकिफ थे।वह पूंजीवादी संस्कृति के दुष्परिणामों से सचेत रहने की बार-बार वकालत करते हैं।
बहरहाल, ‘अंधेरे में’ कविता मुक्तिबोध की समग्र चेतना विवेक को आलोकित करती कविता है जिसमें अंधेरे के साथ उजाले की आभा भी मौजूद है। यहां इस ऐतिहासिक,उदात्त और मार्मिक कविता की ये अमर पंक्तियां उद्धृत हैं- “खोजता हूं पठार…पहाड़…समुन्दर
जहां मिल सके मुझे
मेरी वह खोई हुई
परम अभिव्यक्ति अनिवार
आत्म सम्भवा।“(१७)
निष्कर्ष:
सर्जनात्मक भाषा असल मायने में मुक्तिबोध की कविताओं की प्राण वायु है।उनका शिल्प उनके यातनामय और दारुण जीवन की गंध से निर्मित शिल्प है जिसके केन्द्र में लहूलुहान मनुष्यता के साक्ष्य हैं। मुक्तिबोध ने हिंदी कविता में फैंटसी शैली के नये गवाक्ष खोले और भाषा की सर्जनात्मकता के नये मयार स्थापित किए। समग्र रुप में नये परिप्रेक्ष्य में मुक्तिबोध को देखना उनके काव्य में बिखरी मणियों से मोती खोजना हैं।उनकी प्रासंगिकता की चमक दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। आत्मा के शिल्पी मुक्तिबोध आज भी प्रासंगिक हैं और कल भी प्रासंगिक बने रहेंगे।
संदर्भ:
(१).गजानन माधव ‘मुक्तिबोध’, चांद का मुंह टेढ़ा है, भारतीय ज्ञानपीठ,१८, इंस्टीट्यूशनल एरिया लोदी रोड,नई दिल्ली, तेईसवां संस्करण:२०१५.पृष्ठ;११।
(२). देवराज,नयी कविता, वाणी प्रकाशन,२१-ए, दरियागंज, नई दिल्ली,संस्करण:२००२, पृष्ठ;५५।
(३). गजानन माधव ‘मुक्तिबोध’, एक साहित्यिक की डायरी, भारतीय ज्ञानपीठ,१८, इंस्टिट्यूशन एरिया, लोदी रोड, नई दिल्ली, सोलहवां संस्करण:२०१९, पृष्ठ;२९-३०।
(४). गजानन माधव मुक्तिबोध, चांद का मुंह टेढ़ा है, भारतीय ज्ञानपीठ,१८, इंस्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड,नयी दिल्ली,तेईसवां संस्करण:२०१९, पृष्ठ:२००।
(५). पूर्ववत्, पृष्ठ;२१।
(६).सुधीश पचौरी सं., वाक्; सितंबर २०१८, संयुक्तांक ३०-३१, वाणी प्रकाशन,२१-ए, दरियागंज, नई दिल्ली, संपादकीय से उद्धृत।
(७).लीलाधर मंडलोई सं.,नया ज्ञानोदय,अंक १७७, नवंबर २०१७, भारतीय ज्ञानपीठ,नयी दिल्ली, पृष्ठ;८-९
(८). अशोक वाजपेई, मुक्तिबोध प्रतिनिधि कविताएं, राजकमल पेपर बैक्स,नयी दिल्ली, आवृत्ति:२०१०, भूमिका से उद्धृत।
(९). नंदकिशोर नवल, आधुनिक हिन्दी कविता का इतिहास,, भारतीय ज्ञानपीठ,नयी दिल्ली,दूसरा संस्करण:२०१४, पृष्ठ;३९३।
(१०). गजानन माधव मुक्तिबोध, चांद का मुंह टेढ़ा है, भारतीय ज्ञानपीठ,नयी दिल्ली, तेईसवां संस्करण:२०१९, पृष्ठ;४२।
(११). पूर्ववत्, भूमिका से उद्धृत।
(१२).सुधीश पचौरी सं., वाक्, सितंबर २०१८, संयुक्तांक ३०-३१, वाणी प्रकाशन,नयी दिल्ली, संपादकीय से उद्धृत।
(१३). गजानन माधव मुक्तिबोध, चांद का मुंह टेढ़ा है, भारतीय ज्ञानपीठ,नयी दिल्ली,तेईसवां संस्करण:, पृष्ठ;२७।
(१४). नामवर सिंह, कविता के नये प्रतिमान, राजकमल प्रकाशन,नयी दिल्ली, उन्नीसवां संस्करण:२०१९, पृष्ठ;२२४।
(१५). पूर्ववत्, पृष्ठ;२२७।
(१६). शंभूनाथ,कवि की नयी दुनिया, वाणी प्रकाशन,नयी दिल्ली, आवृत्ति:२०१७, पृष्ठ;१४४।
(१७). गजानन माधव मुक्तिबोध, चांद का मुंह टेढ़ा है, भारतीय ज्ञानपीठ,नयी दिल्ली, तेईसवां संस्करण:२०१९, पृष्ठ;२९६।