दारगे नरबू : शव काटने वाला आदमी

विजय कुमार*

जीव अपने पूर्वजन्म में किए गए सद्कर्म के आधार पर मानव योनि में जन्म लेता है, पूर्वजन्म के पुण्य-परोपकार के हिसाब से इस जन्म में सुख-सुविधा प्राप्त करता है, इस जन्म में किए गए सद्कार्य मनुष्य के लिए मुक्ति का रास्ता बनते हैं, अंत्येष्टि हो जाने पर आत्मा ईश्वर की शरण में चली जाती है अर्थात् मुक्ति मिल जाती है, मृत शरीर का क्रिया-कर्म रीति-रिवाजानुसार न होने पर आत्मा भटकती है और लोगों का अहित करती है। ऐसी अनेक मान्यताएं मानव समाज में भिन्न-भिन्न आवरणों में प्रचलित हैं। इन तमाम सामाजिक धारणाओं, मान्यताओं व विश्वासों के चलते मनुष्य अपने कार्यों को अंजाम देते हैं। जैसा की विदित है हिन्दू धर्म में सोलह संस्कारों का प्रावधान किया जाता है जो जन्म पूर्व से मृत्यु पर्यन्त चलते हैं। ‘अंत्येष्टि संस्कार’ अंतिम संस्कार होता है जो मृत्यु के बाद किया जाता है। जिसके अंतर्गत शव को पूर्व निर्धारित कर्मकांड व विधि अनुसार अग्नि के हवाले किया जाता है और जल चुके शव की राख को बहते जल में प्रवाहित कर यह संस्कार संपन्न किया जाता है। मुस्लिम धर्म के अनुयायी शव को जमीन में दफनाते है और इसी तरह ईसाई धर्म में भी शव को एक ताबूत में बंद करके जमीन में दफना दिया जाता है। यह बात सभी जानते हैं लेकिन जो बात सभी नहीं जानते वह यह है कि भारतवर्ष के पूर्वोत्तर में बसने वाली ‘मनपा’ जनजाति में शव को न दफनाया जाता है और न ही उसे जलाया जाता है बल्कि यह जनजाति शव को 108 टुकड़ों में काट कर नदी में प्रवाहित कर अंत्येष्टि का कार्य सम्पन्न करती है। उपन्यास ‘शव काटने वाला आदमी’ में इस परम्परा को करीब से दिखाया गया है।

पद्मश्री येसे दरजे थोंगछी द्वारा असमिया भाषा में लिखित उपन्यास ‘शव कटा मानुह’ का हिंदी अनुदित संस्करण है- ‘शव काटने वाला आदमी’। जिसका अनुवाद दिनकर कुमार ने किया है। यह उपन्यास अरुणाचल प्रदेश में बसने वाली मनपा जनजाति की रोचक व भयावह अंत्येष्टि क्रिया के माध्यम से इस जनजाति की समाजशास्त्रीय व्याख्या प्रस्तुत करता है। बौद्ध धर्म में अपनी आस्था रखने वाले मनपा समुदाय में परम्परा है कि शव को 108 टुकड़ों में काट कर नदी में प्रवाहित किया जाता है। शव काटना पुण्य का काम माना जाता है। शव किसी बड़े लामा या संन्यासिन का होने की स्थिति में सिर को कपड़े में लपेटकर जमीन में गाड़ दिया जाता है। निकट भविष्य में शुभ मुहूर्त में पूजा-पाठ करने के बाद खोपड़ी को निकाल लिया जाता है और बाद में खोपड़ी को पूजा के समय मदिरा रखने के लिए प्रयोग किया जाता है। उपन्यास का नायक ‘दारगे नरबू’ शव काटने का यही काम करता है परिणामस्वरूप समस्त अंचल में वह ‘थांपा’ के नाम से प्रसिद्ध है। मनपा भाषा में ‘थांपा’ का अर्थ है- ‘शव काटने वाला’। यह उपन्यास दारगे नरबू के बनते-बिगड़ते-संवरते-अंत होते जीवन का चिट्ठा है। यह इतिहास मिश्रित एक काल्पनिक उपन्यास है। कथानक में आये केवल तीन पात्र दलाई लामा, टी. के. मूर्ति और लेफ्टिनेंट जनरल निरंजन प्रसाद वास्तविक किरदार हैं बाकि समस्त पात्र काल्पनिक है। उपन्यास का कथानक 1950 का भयानक भूकंप, 1952 में तवांग का प्रशासन तिब्बत सरकार से भारत सरकार को हस्तांतरण एवं 1962 में भारत-चीन युद्ध के ऐतिहासिक घटनाक्रम को लिए हुए है।

‘शव काटने वाला आदमी’ का नायक दारगे नारबू दिरांगजंग गाँव से बाहर नदी किनारे निर्जन स्थान पर अपनी गृहस्थी बसाये है। परिवार में तीन सदस्य है पत्नी ‘गुईसेंगमू’, एक विकलांग बेटी ‘रिजोम्बा’ और स्वयं दारगे। वह शव काटने का काम करता है। यह काम उसे पिता से विरासत में मिला है। मनपा लोग मुख्य रूप से कृषि एवं पशुपालन करते हैं किन्तु दारगे मुख्य रूप से शव काटने का काम करता है और उसकी पत्नी पेट पालने के लिए खेती के काम में लगी रहती है। उपन्यास के आरम्भ में दारगे एक घिनौने पात्र के रूप में आता है जिससे कोई भी ग्रामीण नजदीकी नहीं बढ़ाता और न ही सामाजिक व्यवहार रखना चाहता है। वह दिन-रात नशे की हालत में रहता है और लोगों को गालियां देता भटकता है। वह शवों को काटते-काटते घृणित भेष अपना चुका है- “लोगों के शव काटते समय खून, पीप, सडा हुआ मांस, चर्बी, पेशाब, मल आदि के छींटों की वजह से कपड़ों पर एक मोटी परत जम चुकी है और उसके ऊपर अनगिनत जुओं ने अपना प्रजनन क्षेत्र और विचरण भूमि तैयार कर लिया है।”[1] उसका पूरा परिवार घृणित जीवन-शैली अपनाये हुए है- “खाने के बाद बरतन धोने की कोई जरूरत नहीं। खाने से पहले भी बरतन धोने की कोई जरूरत नहीं। उन लोगों की जीभ ही चाट-चाटकर यह काम कर देती है।…उनके खाने की थाली, खाना पकाने के बरतन, घर में लाए जाने के बाद एक बार भी पानी से धोये नहीं गए हैं।”[2] दरअसल परिवार की ऐसी हालत के पीछे दारगे की मानसिक स्थिति है, वह अपने जीवन में घटित त्रासदी से आहत है। अचानक, एक दिन अपनी विकलांग बेटी ‘रिजोम्बा’ के प्रति उमड़े स्नेह और दायित्व बोध ने दारगे के जीवन को नया मोड़ दिया। इस प्रकरण के बाद धीरे-धीरे दारगे और उसका परिवार सभ्य होता चला जाता है और सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त करता है। शनैः शनै: कथा खुलती है तथा दारगे के परिवार की वर्तमान स्थिति के कारणों का विस्तृत एवं सिलसिलेवार तरीके से वर्णन करते हुए उसका समाज से जुडाव बनाते हुए धर्म-कर्म से जुड़ने की कथा कहती है। कथा वर्त्तमान और पूर्वदीप्ति (फ्लैशबैक) में चलती है।

लेखक ने इस उपन्यास के माध्यम से मनपा जनजाति की इस अनोखी अंत्येष्टि परंपरा को साहित्यिक पटल पर दर्ज करते हुए विश्व के समक्ष प्रस्तुत किया है। शव को काटने की प्रक्रिया का एक नमूना देखिये- “लाश की गर्दन के नीचे एक तख्ता रखकर दाव के प्रहार से सिर को धड़ से अलग किया जाता है उसे बाद की प्रक्रिया के तहत मर्द की लाश को औंधा करके रखना चाहिए, औरत की लाश होने पर उसे चित्त रखना चाहिए।…मर्द होने पर पहले दायाँ पैर, दायें हाथ से काटना शुरू करना चाहिए, औरत होने पर बायीं तरफ से शुरूआत करनी चाहिए सिर के साथ एक सौ आठ टुकड़े करने चाहिए।”[3] मनपा लोगों का घोर विश्वास है कि इस प्रकार शव संस्कार ने हो पाने की स्थिति में मृतक को ‘अईपेमे’ (स्वर्ग) की प्राप्ति नहीं होती। शव संस्कार करने वाले को पुण्य मिलता है। उपन्यास में कई बार वीभत्स वर्णन किया गया है जो भयानक भी हैं और पाठक के मन में सिहरन पैदा कर जाते हैं। “फूफा ने इस बार दाव रखते हुए नुकीली कटारी निकाली और शव की नाभि के नीचे घुसेडते हुए पेट को चीर दिया। पेट के भीतर से अंतड़ियाँ, आधा हजम खाद्य पदार्थ और मल बाहर निकल आये।”[4] उपन्यास दारगे के शव काटने के अनुभव को विस्तार से वर्णन करता है। कथानक का अधिकांश भाग दारगे के जीवन पर आधारित है किन्तु तत्कालीन भारतीय राजनीतिक परिदृश को समेटे हुए है। भूकंप और चीनी आक्रमण के कारण दारगे और उसके परिवार पर पड़े प्रभाव की मार्मिक कहानी को बारीकी से दर्शाया गया है। तवांग के रास्ते दलाई लामा का भारत आना एक ऐतिहसिक घटना है जिसे उपन्यासकार ने कहानी में सहज रूप से पिरोते हुए पेश किया है।

पूरा उपन्यास सैंतीस अध्यायों में विभाजित है। चूँकि उपन्यास हिंदी में अनुदित है और मनपा समुदाय से सम्बन्धित है इसलिए मनपा भाषा के शब्दों का यथोचित प्रयोग होने की स्थित्ति में उनके शब्दार्थ अध्याय के अंत में दिए गए हैं। जो उपन्यास को अधिक पठनीय एवं सहज बना देते हैं। संवाद सहज एवं छोटे हैं जिससे कथानक में गति बनी रहती है। कुछ एकालाप बड़े होते हुए भी बोझिल नहीं हैं। यह उपन्यास अपने रंग-ढंग का अनोखा एवं रोमांचक दस्तावेज है। जिसमें भारत के सुदूर पूर्वोत्तर में बसने वाले मनपा समुदाय की सुन्दर झांकी मिलती है जिन्हें कभी किसी ने प्रकाश में लाने का प्रयास नहीं किया।

*शोधार्थी, हिंदी विभाग

राजीव गाँधी विश्वविद्यालय, ईटानगर

vijayvipakshi@gmail.com

  1. शव काटने वाला आदमी, येसे दरजे थोंगछी, वाणी प्रकाशन, 2015, पृष्ठ-10

  2. वही,पृष्ठ 16
  3. वही, पृष्ठ 93-94
  4. वही, पृष्ठ 95

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