ऋता शुक्ल की कहानियों में चित्रित स्त्री-छवि

साक्षी कुमारी
शोधार्थी
हिंदी विभाग
मगध विश्वविद्यालय
बोधगया

परिवार, समाज की सबसे पहली और कई अर्थों में सबसे महत्वपूर्ण संस्था है। ऋता शुक्ल की कहानियों की भावभूमि परिवार नामक संस्था पर आश्रित है। परिवार की बुनावट से लेकर उसके भीतर परिवेशगत बदलावों के साथ उपस्थित समस्याओं का जितने कोणों से उन्होंने विवेचित किया है वह अन्यत्र दुर्लभ है। पीढ़ियों का अंतराल, उपेक्षित बुजुर्ग, संत्रास झेलती स्त्रियाँ आदि उनकी कहानियों की कथात्मक भूमि रही है। ‘स्त्री-जीवन’ और स्त्री-जीवन की त्रासदी को जितनी बारीकी से ऋता शुक्ल रचती और गढ़ती हैं, वह समकालीन हिन्दी-कहानी में मौजूद स्त्री-विमर्श की कोरि बहसों से दूर यथार्थ व अनुभव आधारित हैं जहाँ नारी-आंदोलनों और सशक्तिकरण के नारे प्रायः सुप्त नजर आते हैं। उनकी कहानियों में चित्रित मध्यवर्गीय और निम्नवर्गीय स्त्री-पात्र सहज रूप में अपनी त्रासदी और दुःख के साथ सिसकियाँ लेती उपस्थित हैं। इस रूप में उनकी स्त्री-उत्पीड़न संबंधी कहानियाँ आरोपित विद्रोह वादिता से मुक्ति और व्यावहारिक जीवन अनुभव से युक्त हैं। ग्राम और कस्बों में जीवन जीने वाली उनकी स्त्रियाँ विद्रोह या आंदोलन का झंडा भले ही हाथों में न उठायीं हों, परन्तु विद्रोह और आक्रोश को भीतर भीतर ही आग बना देने की आकांक्षा से भरी पड़ी हैं।

पुरुष सत्ता का दंश झेलती स्त्रियाँ आज भी अपने लिए असमान के ‘चौकोर’ रूप को त्याग ‘गोलाकार’ रूप की तलाश में जद्दोजहद करती नजर आ रही है। ऋता शुक्ल ने घर के चौखट से निकल शहर और कस्बे में अपने लिए जगह तलाशती स्त्रियों का जीवन संघर्ष्ज्ञ रूपायित किया है। आज भी ‘स्त्री’ को लेकर हमारा समाज भयंकर हीनता बोध से ग्रस्त है और स्त्रियों के प्रति शोषण व अत्याचार, शारीरिक व मानसिक हिंसा जारी है। हमने ‘नारों’ और ‘योजनाओं’ में भले ही ‘स्त्री-शक्ति’ का परचम लहरा लिया हो, व्यावहारिक धरातल पर यह अधूरा ही है। इंदिरा गाँधी ने भी कहा था- ‘‘6सिद्धांततः नारी ने समानता के अधिकार की लड़ाई जीत ली थी आजादी के बाद उसे हमारे संविधान का अंग भी बनाया गया परन्तु व्यवहार में स्थिति पूर्णतः भिन्न है।’’1

ऋता शुक्ल ने अपने कथा-साहित्य विशेषकर कहानियों में भारतीय सामाजिक व्यवस्था में ‘स्त्री’ की दशा, दुर्दशा और उसके संघर्षमयी जीवन-गाथा को सहृदयता के साथ वर्णित किया हैं प्रसंग चाहे पौराणिक हो या समकालीन दोनों दशाओं में स्त्री-जीवन की विडंबनाओं, उसके प्रश्नों और उसके त्रासद अवस्था का मनोवैज्ञानिक व मानवतावादी चित्रण में वे अपने समकालीन रचनाकारों से अलग और विशिष्ट हैं। उन्होंने स्त्री-जीवन को रचने में ‘नारीवाद’ और ‘उग्रनारीवादी भावना’ की जगह मानवतावादी समभाव दृष्टि को तरज़ीह दी है जहाँ मासूम सवाल मात्र ही पूरी पितृसत्ता के हृदय को छलनी-छलनी कर जाने में सक्षम है।

ऋता शुक्ल ने अपनी कहानियों में स्त्री-जीवन के सभी पहलुओं पर दृष्टि केन्द्रित की है। उनकी कहानियों में एक ओर जहाँ अवला असहाय और पीड़ित स्त्री-जीवन चित्रित है वहीं दूसरी ओर संघर्ष्ज्ञ और प्रतिकार करती आधुनिक स्त्रियाँ हैं।

पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री रूप में पुत्री का जन्म अभिशाप माना जाता रहा है। भू्रण हत्या, प्रसव-पूर्व लिंग परीक्षण से लेकर पालन-पोषण में व्यापक अंतर इस तथ्य के प्रमाण हैं। ‘शर्मा गति हेतु सुमति’ कहानी की पात्र ‘चंपावती’ के द्वाराऋता शुक्ल ने इस सच्चाई को सहजतापूर्वक अंकित किया है- ‘‘क्या कहा, रोटी चाहिए, मालपुआ नहीं। बड़ी आयी है पटरानी बनकर। खेतिहर की बेटी और घमंड सातवें आसमान का। ठहर अभी तेरा झोंटा पकड़कर….।’’2 इस कहानी के कथानायक सुखदेव साहू के लिए पढ़ने-लिखने का अधिकार केवल लड़कों के लिए है, लड़कियों के लिए पढ़ना-लिखना वर्जित है। स्वंय पिता जब अन्यायकर्ता हो तो ऐसे में स्त्री-उद्धार की बात बेमानी ही हैं लेखिका कहती हैं- ‘‘पुरुष वृति का फैलाव सारे गाँव की चेतना को ग्रसित करता जा रहा है। चंपावती अकेली है और सारा गाँव उसके सामने विरोध की मुद्रा में खड़ा है। प्रतिपक्षियों की शक्ति उनकी सदियों पुरानी रूढ़ियाँ हैं और अपनी सही मुक्ति के लिए किसी नई दिशा का संधान करती चंपावती अकेली है, निपट अकेली!’’3 निपट अकेले होते हुए भी चंपावती हार मानने को तैयार नहीं है, वह जूझ रही है सदियों से पुरुष सत्ता द्वारा निर्मित बेड़ियों को तोड़ने के लिए। इसी प्रकार ‘ग्राम क्षेत्रे-कुरु क्षेत्रे’ कहानी में रम रतिया बलत्कृत होने के बावजूद पूरे समाज से अकेले लोहा लेती हुई खड़ी है।

ऋता शुक्ल ने अपनी कहानियों में प्रताड़ना ग्रसित स्त्रियों की मानसिक रूग्णता की अवस्था को भी संजीदगी से चित्रित किया है। दूर जाना है, शर्मा गति देहु सुमति आदि कहानियों में मानसिक विक्षिप्तता की स्थिति को प्राप्त स्त्रियों की करूण कथा वर्णित है। ‘दूर जाना है’ कहानी की सुनंदा की अवस्था अंकित करते हुए लेखिका लिखती हैं- ‘‘बेतरतीबी से पहनी गई नीली बनारसी साड़ी, निहायत बेढंगा सा प्रसाधन, नकली बालों की लंबी चोटी, जुड़े की शक्ल में समेटने की असफल कोशिशों के बाद उसकी वह खोखली हँसी….।3

वास्तव में यह मानसिक विक्षिप्तता हमारे समाज की है जहाँ स्त्रियाँ क्रूर हँसी का शिकार बन आज भी दोयम दर्जे की नागरिक होने और बने रहने पर विवश है। ‘चारूलता’, ‘चंपावती’, ‘सुनंदा’, ‘लावण्य प्रभा’ आदि की स्त्री-पात्रों की शारीरिक और मानसिक विकलांगता पुरुष-प्रदत्त है न कि प्रकृति प्रदत्त। ऐसे में हमें यह सोचना होगा कि समाज के एक पहिए को विकलांग बनाकर हम किस विकास-गति को पाना चाहते हैं? ऋता शुकल की स्त्रियाँ अपनी विकलांगता से हताश निराश होकर चुप्पी नहीं साध लेती बल्कि वह समाज से तीखा प्रतिकार करती है- ‘‘मुझे सचमुच कोई क्लेश नहीं है….। मेरे चारों तरफ अखंड आस्थाओं की एक दुनिया है। खंडित स्वप्नों की साकारता का संकल्प जिनमें है, मैं उन्हीं अबोध जिन्दगियों की नींद सोती जागती हूँ। तुम्हारे इस विकलांग समाज से लड़ने की ताकत इन्हें देनी है। मेरे इस भरे पूरे संसार को तुम्हारे सद्भाव के सिवा और कुछ भी नहीं चाहिए।’’5

यहाँ कहानीकार ने साफ कर दिया है कि समाज विकलांग हो गया है, स्त्रियाँ नहीं। विकलांग नार को घृणा से देखने वाला समाज स्वंय विकलांगता का शिकार है, उसकी सोच विक्षिप्तता का शिकार है। स्त्री-समाज में आयी जागृति और उसके फलस्वरूप पैदा हुई विद्रोह भावना को भी ऋता शुक्ल ने अपनी कहानियों में स्वर दिया है। ‘ह बे प्रभात ह बे’ कहानी की ‘प्रिया’, छुटकारा कहानी की ‘इमली’, ‘ग्राम-क्षेत्रे कुरु क्षेत्रे’ की ‘रमरतिया फुआ’ आदि पात्र विद्रोह स्वर का प्रतिनिधित्व करती है- ‘‘केहु साथ ना दीदी न हम अकेले लड़ब, काका, आपन हक खातिर आपन कलंक मरावे खातिर….।’’6

ऋता शुक्ल के स्त्री-पात्र नारीवादी आंदोलन की उग्रता धारण नहीं करती वरन् सहज नारीत्व के साथ अपना हक माँगती नजर आती है, यही कारण है कि दांपत्य जीवन के संगिनी रूप में भी वे अपना दायित्व निष्ठापूर्वक निभाती नजर आती हैं उनका मानना है कि स्त्री और पुरुष में समानता का उद्घोष तब होगा जब देनें के बीच परस्पर प्रेमपूर्ण सद्भाव और समभाव पनपेगा। ‘कल्पांतर’ कहानी की ‘अरूणा’ ‘कनिष्ठा उँगली का पाप’ कहानी की ‘अनुराधा’ ‘पुनरावतरण’ कहानी की ‘सुलेखा’ ‘दंड-विधान’ कहानी की ‘रत्ना श्री’ आदि पात्र ऋता शुक्ल के आदर्श पात्र हैं जो अपने पति के साथ समभाव के तराजू पर खड़ी नजर आती है बिना किसी प्रतिस्पर्ध के ‘‘नारी अपने आपको मिटाकर पुरुष की उस संकल्प शक्ति को सार्थक बनाती हैं उसका दायित्व पुरुष से लक्ष गुना अधिक है।’’7

ऋता शुक्ल की स्त्री-चेतना की विशिष्ट ता यह है कि वे केवल ‘स्त्री’ पक्ष की पैरोकार नहीं है बल्कि स्त्रियों द्वारा स्त्रियों के शोषण की वास्तविकता को भी रेखांकित करना नहीं भूलतीं। ‘पुरुष-सत्ता’ निश्चित रूप से स्त्री-दासता का एक बड़ा कारण रहा है परन्तु इस सत्ता संरचना के पोषण-पल्लवन में स्त्रियों का भी योग कम नहीं है। इस कटु तथ्य को ऋता जी ने अपनी कई कहानियों में रेखांकित किया है जो उनकी तटस्थ्ता और लेखकीय ईमानदारी को संकेतितकरता है। ‘अमरो’ कहानी की ‘अमरो की दादी’ ‘दुभिसंधि्’ कहानी की ‘मिसेस प्रसाद’, ‘मिसेस राय’, ‘दंड विधान’ कहानी की ‘सुलक्षणा’ आदि पात्रों के माध्यम से ऋता शुक्ल ने उपरोक्त समस्या को उद्घाटित किया है। दूर जाना है ‘कहानी में अपनी पढ़ी लिखी बेटी सुनंदा का विरोध करने वाली माँ का चित्रण करते हुए लेखिका ने इस विरोधाभास को प्रकट किया है- ‘‘बाभन बिसुन के धिया मुँह उधर ले उकालतखाना में बडठी, केस मुकदमा फरियाई। ना ए बचिया, गाँव-गँवार में सभे हँसी कुबोल कढाई। हम कइसे सहब?’’8 खासकर शिक्षित महिलाएं उपरोक्त दंश का लगातार शिकार होती रही हैं, जहाँ उनके अपने ही उसका विरोध करते नजर आते हैं- ‘‘यह लड़की सहर से ऊँची विधा पाकर लौटी न जाने क्या क्या लीला दिखावे।’’9 इसी प्रकार ‘दंड-विधान’ कहानी में जबरन रत्ना श्री को उसकी भाभी द्वारा नए बनावटी दुनिया में धकेलने का चित्र अंकित है- ‘‘इस घर के अपने तौर तरीके हैं। सोसाइटी में रहना है तो किसी पार्टी क्लब, फ्लश, हौजी, इनसे परहेज तो नहीं किया जा सकता ना…. तुम्हारा घर से निकलना बहुत जरूरी है।’’10 कहानीकार ने अपनी कहानियों में नारी का विरोध करती हुई उस नारी का भी चित्र अंकित किया है जो स्वयं दुःख झेलती हुई भी दूसरे नारी के दर्द को समझ नहीं पा रही है या उसी पुरुष जालसाजी का शिकार है जिसने उसे यह मानसिक पृष्ठभूमि दी है। ऋता शुक्ल की कहानियों में ऐसी नारी पात्रों की अभिव्यक्ति समाज संरचना के एक अलग पहलू को हमारे सामने प्रकट करती है।

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि ऋता शुक्ल ने अपनी कहानियों में नारी जीवन के विविध आयामों को यथार्थवादी मुहावरे में अंकित किया है जहाँ एक ओर पितृसत्ता का दंश और शोषण झेलती स्त्रियाँ हैं, तो कहीं आदर्श दांपत्य को संभालती हुई देवियाँ, तो कहीं विकलांगता के बावजूद प्रतिरोध और संघर्ष करती नई स्त्रियाँ हैं तो कहीं स्वयं नारी होकर नारी का ही विरोध व शोषण करती हुई अबोध स्त्रियाँ हैं।

संदर्भ सूचीः-

1. अन्तर्राष्ट्रीय महिला वर्ष 1975 के अवसर पर प्रसारित रेडियो संदेश : इंदिरा गाँधी।

2. शर्मा गति देहु सुमति : मानुस तन, ऋता शुक्ल, प्रतिभा प्रतिष्ठान, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 1999, पृ. 31

3. वही, पृ. 38

4. दूर जाना है : कायांतरण, ऋता शुक्ल, प्रतिभा प्रतिष्ठान प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2003, पृ. 33

5. बृहन्नला : मानुस तन, ऋता शुक्ल, पृ. 28

6. ग्राम क्षेत्रे – कुरुक्षेत्र’ : मानुसतन, ऋता शुक्ल, पृ. 77

7. कनिष्ठा उँगली का पाप : ऋता शुक्ल, ज्ञान गंगा प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण 1994, पृ. 16

8. दूर जाना है, कायांतरण : ऋता शुक्ल, पृ. 31

9. ग्राम क्षेत्रे – कुरु क्षेत्रे : मानुस तन, ऋता शुक्ल, पृ. 84

10. दंड विधान : कायांतरण, ऋता शुक्ल, पृ. 124

 

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.