श्रृंखला की कड़ियाँ में निहित स्त्री-चेतना
*डॉ. चैताली सिन्हा
हिन्दी नवजागरण की महत्वपूर्ण लेखिका, कवयित्री, समाज सेविका, सशक्त वक्ता, संपादिका, दार्शनिक एवं आध्यात्मिक कृतियों से मानवीय दृष्टिकोण को प्रज्वलित करनेवाली चित्रकार महादेवी वर्मा की यह पुस्तक ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’ आधुनिक स्त्री-अस्मिता को अभिव्यक्त करने में मील का पत्थर सिद्ध हुई है। विरह और वेदना की रहस्यमयी कविताएँ लिखने वाली महादेवी ने गद्य का इतना सुंदर रूप साहित्य जगत में रखा, जिसे सदियों तक पढ़ा और गुना जाएगा। स्त्री-समाज के लिए अपनी चिंता व्यक्त कर महादेवी वर्मा एक प्रकार से पुरुष वर्चस्ववादी समाज को चुनौती भी देती हैं।
स्त्री स्वर को अभिव्यक्ति देने में उनके द्वारा संपादित ‘चाँद’ पत्रिका एक क्रांतिकारी पत्रिका मानी जाती है। प्रो. गरिमा श्रीवास्तव के अनुसार- “ ‘स्त्री धर्म’ और ‘चाँद’ सरीखी पत्रिकाओं में स्वाधीनता आंदोलन में स्त्रियों को भागीदारी के लिए प्रेरित किया गया और ‘चाँद’ में तो स्त्री को बौद्धिक चेतना संपन्न व्यक्ति मानकर पुरुषों के समकक्ष रखकर देखने की वकालत भी की गयी।”[1] ‘चाँद’ पत्रिका में स्त्री-समस्या पर आधारित अंकों को भी समय-समय पर निकाला जाता था। ‘चाँद’ (1923) मासिक पत्रिका का ‘मारवाणी’ अंक अपने समय में बहुत लोकप्रिय रहा था। स्त्री-जीवन की समस्याएं इसके केंद्र में रहती थीं। ‘चाँद’ पत्रिका साहित्यिक होते हुए भी समाज-सुधार के विषयों को तटस्थता के साथ रखने में सफल रही थी। इसका प्रमाण हमें ‘फाँसी’ नामक अंक में मिलता है। बतौर गरिमा श्रीवास्तव “‘चाँद’ पत्रिका सामाजिक जीवन में स्त्रियों की भागीदारी सुनिश्चित करने का प्रयास कर रही थी।”[2] हालाँकि औपनिवेशिक भारत में प्रकाशित होनेवाली इन स्त्री केंद्रित पत्रिकाओं में “उच्च एवं मध्यवर्ग की स्त्रियों की भागीदारी ही अधिक थी। कहीं भी ये पत्रिकाएं हाशिये की स्त्रियों के अधिकारों और उनकी अन्तश्चेतना के विस्तार की चर्चा करती नहीं दीखतीं।”[3] देखा जाए तो हाशिये की स्त्रियों के अधिकारों का विस्तार आज भी उस रूप नहीं हो पा रहा है, जिस रूप में होना चाहिए।
परंतु जहाँ तक महादेवी की स्त्री-चेतना की बात है, तो महादेवी वर्मा ने भारतीय समाज में स्त्री-अस्मिता के प्रश्न सीमोन द बउआर से भी बहुत पहले सन् 1942 में ही ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’ के माध्यम से उठाये थे। सीमोन की रचना ‘The Second Sex’ (अनु. ‘स्त्री उपेक्षिता’, प्रभा खेतान) सन् 1949ई. में प्रकाशित हुई और महादेवी वर्मा ने सन् 1942ई. में ही स्त्री-चिंतन पर आधारित महत्वपूर्ण पुस्तक ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’ को लिखने का बीड़ा उठाया था। यह पुस्तक एक प्रकार से स्त्री-अधिकारों का दस्तावेज़ है। इसका प्रमाण महादेवी वर्मा के इस कथन से ही मिलने लगता है, जब वह कहती हैं कि : “भारतीय नारी भी जिस दिन अपने संपूर्ण प्राणप्रवेग से जाग सके उस दिन उसकी गति रोकना किसी के लिए संभव नहीं। उसके अधिकारों के संबंध में यह सत्य है कि वे भिक्षावृत्ति से न मिले हैं, न मिलेंगे, क्योंकि उनकी स्थिति आदान-प्रदान योग्य वस्तुओं से भिन्न है।”[4]
जिस समय और समाज में महादेवी वर्मा यह बात कह रही थीं, वह समय स्त्रियों के हक़ की बात करने के अनुकूल तो कदापि नहीं था। ऐसे में उन्हें कितनी चुनौतियों और अपमान का सामना करना पड़ा होगा; इसका अनुमान वर्तमान समय में लगाना कठिन है।
महादेवी वर्मा ने स्वयं अपने जीवन में भी उन्हीं सिद्धांतों एवं विचारों का अनुपालन किया, जो उन्होंने अपने लेखन के माध्यम से समाज के समक्ष प्रस्तुत किया। उनमें निहित यह शक्ति कहीं-न-कहीं उनके अपने जीवनानुभवों का ही परिणाम कहा जाना चाहिए।
छायावाद के प्रमुख शीर्ष चार कवियों में एक नाम महादेवी वर्मा का होना भी उनके नारी सशक्तिकरण की छवि को प्रस्तुत करता है। हालाँकि यह बात अलग है कि मध्यकाल की भक्त कवयित्री मीरा की ही तरह उन्हें भी इस क्रम में सबसे निचले पायदान पर रखा गया। इसे एक साहित्यिक षड्यंत्र माना जाना चाहिए, विशेषकर स्त्री रचनाकारों के प्रति। परंतु फ़िर भी महादेवी वर्मा की एक विशिष्ट छवि बन चुकी थी। बतौर अनामिका “महादेवी वर्मा छायावादी कविता की इकलौती बेटी हैं, सात भाइयों वाली चम्पा की तरह अकेली, गंभीर और मातृमना।”[5]
छायावाद एवं रहस्यवाद की काव्यधारा से निकलकर महादेवी वर्मा उस समय यथार्थ के धरातल पर उतरती हैं, जब वह ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’ जैसी महत्वपूर्ण पुस्तक हिन्दी जगत में लेकर आती हैं। यह केवल एक पुस्तक नहीं है, वरन् स्त्री-अधिकारों के लिए लिखे गये दस्तावेज़ हैं। जिनके भीतर प्रवेश करते ही श्रृंखला की ये एक-एक कड़ियाँ टूटती नज़र आती हैं। पितृसत्तात्मक समाज की बेड़ियों में जकड़ी हुई स्त्रियों का जीवन क्योंकर मुक्त हों; इसके अनेक उपाय महादेवी वर्मा इस पुस्तक में सुझाती हैं। जैसे कि स्त्रियों का उच्च शिक्षित होना इत्यादि। सन् 1942 ई. में ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’ जैसी पुस्तक की रचना करना किसी दुस्साहस से कम नहीं रहा होगा और महादेवी वर्मा उस समय यह दुस्साहस करती हैं। एक सामाजिक कार्यकर्त्ता होने के अतिरिक्त महादेवी वर्मा का परिचय राजनीति के गलियारों से भी रहा है। एक सशक्त वक्ता और स्त्री जाति की पुरोधा के रूप में महादेवी वर्मा की जो पहचान और योगदान है, वह उन्नीसवीं सदी में शायद ही किसी और स्त्री रचनाकार की रही होगी। वैसे भी इतिहास में उन्नीसवीं सदी का दौर कई कारणों से बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। इस सदी में कई स्त्री-आंदोलन हुए।
राधा कुमार के अनुसार “उन्नीसवीं सदी को स्त्रियों की शताब्दी कहना बेहतर होगा, क्योंकि इस सदी में सारी दुनिया में उनकी अच्छाई-बुराई, प्रकृति, क्षमताएं एवं उर्वरा गर्मागर्म बहस का विषय थे। यूरोप में फ्रांसीसी क्रांति के दौरान और उसके बाद भी स्त्री जागरूकता का विस्तार होना शुरू हुआ और शताब्दी के अंत तक इंग्लैंड, फ़्रांस तथा जर्मनी के बुद्धिजीवियों ने नारीवादी विचारों को अभिव्यक्ति दी।”[6]
हालाँकि भारत में नारी-शक्ति एवं उनकी क्षमताओं की पहचान देखा जाए, तो यहाँ यह पश्चिम से बहुत पहले ही हो चुकी थी। यहाँ तक कि स्त्री-विमर्श की परंपरा भी हमारे यहाँ पश्चिम से पहले ही दिखलाई पड़ती है। इस संदर्भ में ‘थेरी’ गाथाओं को देख सकते हैं; जहाँ सर्वप्रथम स्त्री-अस्मिता और स्त्री-विमर्श के प्रमाण मिलते हैं। जिनकी संख्या 500 से अधिक हैं। इन गाथाओं में सैकड़ों थेरियों के उद्गार मिलते हैं। इतना ही नहीं इन गाथाओं में ई.पू. छठी शताब्दी की कविताओं का एक ऐतिहासिक रूप भी हम देख सकते हैं। इन थेरी गाथाओं में भिक्षुणियों का अपना आत्म है, जिसे उन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से प्रकट किया है। इस संदर्भ में सुमंगलमाता नामक भिक्षुणी का यह उद्गार देख सकते हैं। उदाहरणार्थ :
“सुमुत्तिका सुमुत्तिका, साधुमुत्तिकाम्हि मुसलस्स।
अहिरिको मे छत्तकं वा पि, उक्खलिका मे देडडुभं वा ति।l(23)”
अर्थात् “अहो ! मैं मुक्त नारी ! मेरी मुक्ति कितनी धन्य है ! पहले मैं मूसल लेकर धान कूटा करती थी, आज उससे मुक्त हुई ! मेरी दरिद्रावस्था के वे छोटे-छोटे (खाना पकाने के) बर्तन ! जिनके बीच में मैं मैली-कुचैली बैठती थी, और मेरा निर्लज्ज पति मुझे उन छातों से भी तुच्छ समझता था, जिन्हें वह अपनी जीविका के लिए बनाता था।l(23)”[7]
उपर्युक्त संक्षिप्त विवरण भारतीय साहित्य एवं समाज में स्त्रियों की दशा और दिशा; दोनों पर प्रकाश डालता है। इस कथन से स्त्री का अतीत और उसका भविष्य दोनों का पता मिलता है। इतिहास के नए पन्ने खुलते हैं।
महादेवी वर्मा की पुस्तक ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’ इसी इतिहास से हमारा परिचय कराती हैं; जब वह कहती हैं कि “प्राचीन आर्य नारी के सहधर्मचारिणी तथा सहभागिनी के रूप में कहीं भी पुरुष का अंधानुसरण या अपने आपको छाया बना लेने का आभास नहीं मिलता।”[8]
महादेवी वर्मा के उक्त कथन से प्राचीन काल में स्त्रियों की सम्मानीय स्थिति का परिचय मिलता है। हमें ज्ञात होना चाहिए कि वैदिक काल में स्त्रियों का बहुत अधिक सम्मान था। उन्हें प्रत्येक शुभ कार्य में आमंत्रित किया जाता था, यहाँ तक कि बिना उनके प्रवेश के कोई भी शुभ कार्य आरंभ नहीं की जाती थी। परंतु उत्तर वैदिक काल में स्त्रियों की दशा में उस समय परिवर्तन आने लगा जब शासन् एवं सत्ता की बागडोर पुरुषों के हाथों में आने लगी। प्रत्येक क्षेत्र में पुरुष वर्चस्व क़ायम होते ही स्त्रियों के सम्मान में भारी गिरावट आयी। अब गृहस्थ जीवन के निर्णय लेने से लेकर गृहस्थ के बाहर के भी सभी निर्णय पुरुष ही लेने लगे थे। जिससे स्त्री की स्थिति न केवल दोयम दर्जे की हो गयी वरन् वह दोहरे शोषण की भी शिकार हुईं।
इस संदर्भ में महादेवी का निम्नलिखित कथन बहुत महत्वपूर्ण लगता है; जब वह कहती हैं कि: “स्त्री को अपने अस्तित्व को पुरुष की छाया बना देना चाहिए, अपने व्यक्तित्व को उसमें समाहित कर देना चाहिए, इस विचार का पहले कब आरंभ हुआ, यह निश्चयपूर्वक कहना कठिन है, परंतु इसमें संदेह नहीं कि यह किसी आपत्तिमूलक विषवृक्ष का ही विषमय फल रहा होगा।”[9] स्पष्ट है कि यह ‘विष-वृक्ष’ वह पितृसत्तात्मक समाज है जिसकी ओर महादेवी वर्मा संकेत करती हैं। यानी स्त्रियों को महापुरुषों एवं पुरुषों की छाया बनना चाहिए, पुरुष के हर उचित-अनुचित कार्य में स्त्री को उसकी संगिनी बनकर साथ खड़े रहना चाहिए; यह सीख हमें हमारा समाज आरंभ से ही देता आया है। जबकि अकेली स्त्री भी पुरुष के सहयोग के बिना, उसकी छाया बने बिना अपने जीवन-कर्तव्य को बखूबी निभा सकती है और निभाती है। इसका प्रमाण हमें यशोधरा के संदर्भ में भी मिलता है। इस संदर्भ में महादेवी वर्मा लिखती हैं – “महापुरुषों की छाया में रहनेवाले कितने ही सुंदर व्यक्तित्व कांति-हीन होकर अस्तित्व खो चुके हैं, परंतु उपेक्षिता यशोधरा आज भी स्वयं जीकर बुद्ध के विरागमय शुष्क जीवन को सरस बनाती रहती है।”[10]
उपर्युक्त पंक्तियों के माध्यम से महादेवी वर्मा ने केवल यशोधरा के महत्त्व को ही नहीं दर्शाया है, अपितु संपूर्ण स्त्री जाति के स्वाभिमानी और स्वावलंबी चरित्र को उकेरने की चेष्टा की है। स्त्री-पुरुष का सामंजस्य एकहरी न होकर दोहरी होनी चाहिए अर्थात् गृहस्थ जीवन से लेकर प्रेम प्रसंग में भी दोनों में समानता का भाव स्थापित होना आवश्यक है। इस बात का उल्लेख करते हुए लियो तोलस्तोय ने ‘स्त्री और पुरुष’ नामक पुस्तक में लिखा है कि – “स्त्री और पुरुष का वह मेल अच्छा है जिसका उद्देश्य परमात्मा की और मनुष्य जाति की सेवा है।”[11]
परंतु यहाँ तो पति भी पुरुष और परमात्मा भी पुरुष है। ऐसे में मेल कैसे समानता का हो ! जबकि “स्त्री का मानसिक विकास पुरुषों के मानसिक विकास से भिन्न परंतु अधिक द्रुत, स्वभाव अधिक कोमल और प्रेम-घृणादिभाव अधिक तीव्र तथा स्थायी होते हैं। इन्हीं विशेषताओं के अनुसार उसका व्यक्तित्व विकास पाकर समाज के उन अभावों की पूर्ति करता रहता है जिनकी पूर्ति पुरुष-स्वभाव द्वारा संभव नहीं। इन दोनों प्रकृतियों में उतना ही अंतर है जितना विद्युत और झड़ी में।”[12]
स्त्री-पुरुष की प्रकृति में जिस अंतर की बात महादेवी वर्मा करती हैं, यह बात हमें सीमोन द बउआर की पुस्तक ‘स्त्री-उपेक्षिता’ में भी मिलती है। सीमोन ने इस पुस्तक में स्त्री-पुरुष से संबंधित उन सभी विषयों को रेखांकित किया है, जो तत्कालीन समय और समाज में प्रचलित था। यहाँ तक कि स्त्री के प्रति अलग-अलग समुदाय एवं धर्मों में जो मान्यताएं थीं, उनका भी बहुत प्रामाणिक विश्लेषण किया है। सीमोन इस पुस्तक में स्त्री-संबंधी सभी कानूनों की पड़ताल करती हैं। वह लिखती हैं कि किस प्रकार सामंती व्यस्था ख़त्म हो जाने के बाद भी जो क़ानून बने उसका उद्देश्य था कि स्त्री को पुरुष के समान अधिकार न मिल पाये और वह सभी नागरिक अधिकारों से वंचित रहे। इतना ही नहीं यदि स्त्री अविवाहित है, तो पिता के संरक्षण में रहे या फ़िर उसे धार्मिक मठों में भेज दिया जाए और यदि विवाहित है, तो वह अपनी संपत्ति और संतान के साथ पूरी तरह से पति के अधीन रहे। सीमोन द बउआर के अनुसार संत थॉमस अपनी परंपरा के प्रति बहुत ईमानदार थे; जिस कारण उन्होंने कहा है कि – “यह औरत की नियति है कि वह पुरुष की अधीनता में रहे, इसे परिवर्तित नहीं किया जा सकता, उसको प्रभु से कोई सत्ता नहीं मिली।”[13] इसी संदर्भ में एक अन्य स्थान पर सीमोन ने संत पॉल के मत को उजागर किया है कि संत पॉल ने स्त्री से आत्म-विलोपन और विवेकवान होने की अपेक्षा की। उन्होंने कहा कि – “ पुरुष औरत के लिये नहीं बना है, औरत बनी है पुरुष के लिये। जैसे चर्च के स्वामी यीशू हैं, वैसे ही स्त्री का स्वामी पुरुष है।”[14]
उपर्युक्त कथन से स्त्री के अस्तित्व को सीधे-सीधे नकारने का बोध होता है। अर्थात् स्त्री की अपनी कोई स्वतंत्र सत्ता, उसकी अपनी कोई पहचान (अस्मिता) है ही नहीं। उसकी पहचान बस इतनी है कि वह किसी की पुत्री है, किसी की माता है और किसी की पत्नी है ! उपर्युक्त विचारकों के मतों से इस बात का प्रमाण मिलता है कि स्त्री को पराधीन बनाये रखने की परंपरा केवल भारतीय समाज में नहीं रही है, वरन् रोमन समाज से लेकर ईसाई धर्म में भी रही है। स्त्री को शैतान का दरवाज़ा, शैतान की खाला कहने से लेकर नरक का द्वार तक माना गया है। इस संदर्भ में टर्टयूलियन लिखते हैं कि – “औरत तुम शैतान का दरवाज़ा हो। जहाँ शैतान सीधा आक्रमण करने से हिचकता है, वहां वह औरत का सहारा लेकर पुरुष को मिट्टी में मिला देता है। यह तो औरत की गलती है, जिससे प्रभु के पुत्र को मरना पड़ा। तुम औरतों को हमेशा शोक-संतप्त रहना होगा।”[15]
टर्टयूलियन का यह कथन संपूर्ण स्त्री-जाति का, स्त्री-समाज का अपमान है। स्त्री की छवि को यहाँ जिस रूप में प्रस्तुत करने की चेष्टा की गई है; वह सामंती समाज और संकुचित मानसिकता का ही परिणाम है, किसी आधुनिक विचारधारा को मानने वालों का नहीं। ऐसी मानसिकता के साथ स्त्री की दुर्गति होना तय है।
इसीलिए महादेवी वर्मा लिखती हैं कि – “वे (स्त्रियाँ) शून्य के समान पुरुष की इकाई के साथ सबकुछ हैं, परंतु उससे रहित कुछ नहीं। उनके जीवन के कितने अभिशाप उसी बंधन से उत्पन्न हुए हैं, इसे कौन नहीं जानता !”[16] इससे भी आगे महादेवी वर्मा ने स्त्रियों की दुर्दशा का कारण स्त्रियों को चहारदीवारी के भीतर सीमित कर दिए जाने को माना है। वह कहती हैं कि – “पुरुष ने उसे गृह में प्रतिष्ठित कर वनवासिनी की जड़ता सिखाने का जो प्रयत्न किया है उसकी साधना के लिए वन ही उपयुक्त होगा।”[17]
यद्यपि इसीलिए महादेवी वर्मा ने स्त्रियों के लिए शिक्षित होना आवश्यक माना है। स्त्रियों को उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अपनी पकड़ बनाने की आवश्यकता है। महादेवी वर्मा उस शिक्षा व्यवस्था की भी आलोचना करतीं हैं, जिनमें स्त्रियों को केवल अक्षर ज्ञान और गृह विज्ञान की शिक्षा दी जाती थी। स्त्रियों को कौन से गृह काज आने चाहिए, शिशुओं का कैसे पालन-पोषण किया जाना चाहिए, पति की सेवा और घर में उनका स्थान क्या होना चाहिए इत्यादि, स्त्रियों की शिक्षा का दायरा इन बातों तक ही सीमित रहा था। वह इस बात से अपनी असहमति जताते हुए लिखती हैं कि – “हमारे यहाँ विद्यार्थिनियां प्राथमिक शिक्षा के उपरांत ही अध्ययन का अंत कर देती हैं, कुछ माध्यमिक के उपरान्त। जिन्हें प्राथमिक शिक्षा देने का हम गर्व करते हैं, ऐसे शिक्षकों-द्वारा शिक्षा मिलती है जो उन्हें जीवन के उपयोगी सिद्धांतों से भी अनभिज्ञ रहने देते हैं।”[18]
महादेवी वर्मा यहीं नहीं ठहरतीं बल्कि इससे भी आगे वह उन शिक्षाविदों पर भी प्रश्न-चिन्ह लगाती हैं, जो स्त्रियों को आत्मनिर्भर बनाना न सिखाते हों। उन्हें अपने भविष्य को सुखी कैसे बनाया जाए इस बात का ज्ञान न देते हों ! जबकि शिक्षित होकर ही स्त्रियों का भविष्य बेहतर हो सकता है। महादेवी वर्मा लिखती हैं – “जीने के लिए ही शिक्षा की आवश्यकता है, परंतु जो व्यक्ति जीना ही नहीं जानता उससे न संसार को कुछ लाभ हो सकता है और न वह शिक्षा का कोई सदुपयोग ही कर पाता है।”[19]
स्पष्ट है कि महादेवी वर्मा यहाँ उन शिक्षकों से भी अपनी असहमति दर्ज़ कराती हैं, जो न तो सही ज्ञान प्रदान कर सकते हैं और न ही स्वयं पढ़ना-लिखना चाहते हैं। महादेवी के अनुसार पढ़ी-लिखी महिलाओं की संख्या बहुत कम है और जो हैं भी, उनमें भारतीय संस्कृति के अनुसार शिक्षिताएं बहुत कम हैं।
वैसे देखा जाए तो स्त्रियों की स्थिति वैदिक काल में अधिक मज़बूत एवं सम्मानजनक रही है। इस काल में पितृसत्ता नहीं बल्कि मातृसत्ता थी। स्त्रियों का समाज में हर कहीं मान-सम्मान था। प्रत्येक शुभ कार्य में स्त्री का प्रवेश अनिवार्य माना जाता था। इस संदर्भ में महादेवी वर्मा लिखती हैं- “उस समय जाति की विधात्री होने के कारण स्त्री आवश्यक और आदरणीय तो थी ही, साथ ही, उसके जीवनचर्या संबंधी नियम भी अधिक कठोर नहीं बनाये जा सके। वह मत्स्योदरी होकर भी राजरानी के पद पर प्रतिष्ठित हो सकती थी, कुंती होकर भी मातृत्व की गरिमा से गुरु रह सकती थी और द्रौपदी होकर भी पतिव्रता के आसन् से नहीं हटाई जा सकती थी।”[20]
परंतु उत्तर वैदिक काल में स्त्रियों की दशा धीरे-धीरे दयनीय होती गयी। समाज में उनकी प्रतिष्ठा में भी धीरे-धीरे कमी आने लगी। उनके अधिकार भी उनसे एक-एक करके छीना जाने लगा। भिन्न-भिन्न परिस्थितियों के कारण जैसे ही स्त्री की सामाजिक उपयोगिता एवं प्रतिष्ठा घटने लगी वैसे ही पुरुष, व्यक्तिगत अधिकार भावना से उसे घेरता गया। इस प्रसंग में महादेवी वर्मा लिखती हैं कि – “अंत में यह स्थिति ऐसी पराकाष्ठ को पहुँच गई जहाँ वक्तिगत अधिकार-भावना ने स्त्री के सामाजिक महत्त्व को अपनी छाया से ढक लिया। एक बार पुरुष के अधिकार की परिधि में पैर रख देने के पश्चात् जीवन में तो क्या, मृत्यु में भी वह स्वतंत्र नहीं।”[21]
महादेवी की यह चिंता वास्तव में संपूर्ण स्त्री-जाति की चिंता है। केवल महादेवी वर्मा ही नहीं मध्यकाल में गोस्वामी तुलसीदास ने भी स्त्रियों की पराधीनता को लेकर चिंता व्यक्त की है – कत विधि सृजि नारी जग माही, पराधीन सपनेहु सुख नाही।
दरअसल महादेवी वर्मा स्त्रियों की दयनीय अवस्था के लिए विवाह संस्था और रीति-रिवाजों को भी एक हद तक दोषी मानती हैं। उनका प्रश्न है कि हमारे समाज में स्त्रियाँ भी कबतक केवल एक रमणी अथवा भार्या बनकर स्वयं को संतुष्ट रख सकेंगी। महादेवी लिखती हैं – “विवाह मनुष्य जाति की असभ्यता की भी सबसे प्राचीन प्रथा है और सभ्यता की भी। हमारे समाज के पुरुष के विवेकहीन जीवन का सजीव चिन्ह देखना हो तो विवाह के समय गुलाब-सी खिली हुई स्वस्थ बालिका को पांच वर्ष बाद देखिये। उस समय कौन-सी रुला देनेवाली करुणा न मिलेगी !”[22]
उपर्युक्त कथन को महादेवी वर्मा की क्रांतिकारी विचारधाराओं एवं उनके अनुभवों का ही हिस्सा कहा जाना चाहिए। सामाजिक कार्यकर्ता एवं राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय रहने के कारण उनके जीवनानुभवों का दायरा भी बहुत विस्तृत रहा होगा, इसमें कोई संदेह नहीं। महादेवी वर्मा का वैवाहिक जीवन भी सफल नहीं हो पाया था। स्वयं के जीवन के इस कड़वे अनुभव ने भी महादेवी वर्मा को बहुत कुछ अलग सोचने पर अवश्य विवश किया होगा। वह स्वयं के वैवाहिक जीवन के बारे में कहती हैं कि – ‘अविवाहित वैवाहिक जीवन है।’ (संदर्भित कथन डी.डी.आर्काइव्स की चर्चा से।)
महादेवी वर्मा के संबंध में यह कहा जाता है कि उन्हें भी अपने पति से उपेक्षा मिली। जिसके उपरांत वह बौद्ध धर्म की ओर आकृष्ट हुईं परंतु बौद्ध धर्म से भी शीघ्र ही उनका मोहभंग हो गया था। अनामिका जी के अनुसार- “उनके (महादेवी) निजी जीवन के बारे में तो बस अटकलें ही लगायी जाती रही हैं। पर सार्वजनिक जीवन में उनके जग ज़ाहिर मनचीते पुरुष हैं : बुद्ध और गाँधी, जो कहीं से भी ‘मैचो’ अतिपुरुष नहीं।”[23] हालांकि एक अटकल तो यह भी लगायी जाती हैं कि महादेवी का बौद्ध धर्म से भी मोहभंग हो चुका था ! क्योंकि बौद्ध धर्म में भी स्त्री से परहेज़ किये जाने की बात कही गयी है। इसमें भी स्त्री को पुरुष के विकास मार्ग में बाधक माना गया है। उदाहरण के रूप में हम यशोधरा की निम्नांकित पंक्तियाँ देख सकते हैं, जिसे मैथिलीशरण गुप्त ने यशोधरा से कहलवाया है कि – सखि ! यदि वे मुझसे कहकर जाते, कहते तो क्या पथ बाधा ही पाते !
इसका दूसरा प्रमाण हमें जातक कथाओं में भी मिलता है, जिसमें भिन्न-भिन्न कथाओं के माध्यम से स्त्री-पुरुष के संबंधों एवं उसके लाभ-हानि को बताने की चेष्टा की गई है। जातक कथाओं में एक कथा का शीर्षक है – ‘स्त्री का आकर्षण।’ इस कथा में एक राजा, एक नटी, एक तपस्वी एवं एक राजकुमार की कहानी है। इसमें एक वर्णन आता है जब वह तपस्वी नटी के प्रति आकर्षित होकर अपना नियंत्रण खोने लगता है। परंतु उसी समय राजकुमार वहां आ जाता है और उसे आता देख तपस्वी भाग खड़ा होता है परंतु उसकी सिद्धि नष्ट होने के कारण वह समुद्र में गिर जाता है जिसे बाद में राजकुमार बचा लेता है। उस समय राजकुमार (जिसे स्त्रियों का सान्निध्य पसंद नहीं था।) तपस्वी को जो उपदेश देता है वह समझने योग्य है – “ औरत पुरुषों को ठगनेवाली महामाया होती हैं। औरत ब्रह्मचर्य को भी डिगा देती हैं। उसके सारे जन्म का पुण्य नष्ट कर देती हैं। यह पुरुषों से संबंध बना उसके पुरुषत्व को ठीक उसी प्रकार जला डालती हैं जैसे अग्नि अपने जलनेवाले स्थान को जला देती है।”[24] इस कथा के माध्यम से कथाकार ने यहाँ स्त्री का कामुक और छली रूप दिखाने की चेष्टा की है। यानी केवल रोमन समाज एवं ईसाई धर्म में ही स्त्रियों को नरक का द्वार नहीं कहा गया वरन् भारतीय प्राचीन काल से लेकर बौद्ध धर्म तक में भी स्त्रियों को माया और ठगिनी के रूप में चित्रित किया गया है। इसके प्रमाण हमें कबीर की वाणी में भी मिलने लगता है ; जब वह कहते हैं कि – माया महा ठगिनी हम जानी। कबीरदास तो इससे भी आगे कहते हैं कि – नारी तन की झाईं परत, अँधा होत भुजंग। कबीर के ये कथन स्त्री विरोधी कथन हैं। हालांकि कोई अपने तर्क में यह कह सकता है कि कबीर ने यह उक्ति परकीया नारी के लिए कहा है। दूसरे, उक्त कथन में माया का अर्थ धन से है। परंतु पहला अर्थ तो नारी से ही है न ! नारी चाहे स्वकीया हो अथवा परकीया; नारी के परकीया स्थिति के लिए भी क्या हमारा समाज उत्तरदायी नहीं है ! समस्या यह है कि हमारे समाज के पुरुष को आदिकाल से ही बहुत सभ्य और संयमी स्थापित करने एवं स्त्री को चरित्रहीन, ठगिनी और नरक का द्वार सिद्ध करने की चेष्टा की गई है। चाहे कोई भी धर्मग्रंथ उठाकर देख लिया जाए। अब कुछ लोगों का तर्क हो सकता है कि तुलसीदास ने सीता का चरित्र कितना सम्मानजनक दिखाया है, परंतु तुलसीदास स्वयं स्त्री की स्वतंत्रता से डर जाते हैं – जिमि स्वतंत्र होहिं, बिगरहिं नारी। यानि एक तरफ़ तो आपको स्त्री की पराधीनता से दुःख होता है वहीं दूसरी तरफ़ आपको स्त्री के स्वतंत्र हो जाने से डर लगता है। हालांकि इस कथन का विश्लेषण किया जाना चाहिए कि तुलसीदास को स्त्री के स्वतंत्र हो जाने पर उनके बिगड़ने का जो भय है, वह कौन-सा भय है और उनकी दृष्टि में यह बिगड़ना भी किस प्रकार का बिगड़ना है। मध्यकाल के महान कवि तुलसीदास यदि यह बात कहते हैं, तो अवश्य उसकी पड़ताल की जानी चाहिए।
परंतु कुल मिलाकर निष्कर्ष यही निकलता है कि आदिम युग से लेकर रीतिकाल तक और उसके बाद आधुनिक काल तक भी स्त्री को दोयम दर्जे का समझा जाता था और वर्तमान में भी स्थितियां बहुत अच्छी नहीं समझी जायेगी। अभी भी स्त्री को समानता का वह अधिकार नहीं मिल पाया है, जिसकी वकालत हमारा संविधान करता है। स्त्रियों को कहने के लिए भले ही आरक्षण मिल गया है परंतु घर में और कार्य क्षेत्र में आज भी उसकी स्थिति चिंताजनक है।
“सन् 1956 में लागू ‘हिन्दू कोड बिल’ तथा भारतीय संविधान की धारा 15 तथा 16 ने हालांकि क़ानूनी एवं संवैधानिक तौर पर भारतीय स्त्री के मानवीय एवं मौलिक अधिकारों की रक्षा का दायित्व लिया है।”[25] परंतु वस्तुस्थिति क्या है; इससे कोई अनभिज्ञ नहीं। आज भी स्त्री मात्र एक ‘ऑब्जेक्ट’ समझी जाती है। अच्छी बात यह है कि अब स्त्रियाँ अपनी बातों को खुलकर कहने का साहस करने लगीं है। हालाँकि इसकी संख्या अभी भी कम है जो अपनी बात को निडर होकर कह सकें। जो स्त्रियाँ बेबाक होकर अपनी बातें कहती हैं अथवा अधिक प्रगतिशील एवं मुखर होती हैं ऐसी स्त्रियों से पुरुष समाज डरता है। आधुनिक शिक्षा प्राप्त स्त्रियों के प्रति समाज की जो धारणा है। इस संदर्भ में महादेवी वर्मा लिखती हैं – “आधुनिक शिक्षाप्राप्त स्त्रियाँ अच्छी गृहिणियां नहीं बन सकतीं ; यह प्रचलित धारणा पुरुष के दृष्टिबिन्दु से देखकर ही बनाई गई है, स्त्री की कठिनाई को नहीं।”[26]
उपर्युक्त कथन आज भी प्रासंगिक है। आज भी अमूमन लोगों की यही धारणा है कि अधिक पढ़ी-लिखी स्त्रियाँ गृहस्थ जीवन संभालने में असफल होती हैं। परंतु अनेक ऐसे उदाहरण हमारे समाज में देखने को मिल जायेंगे, जहाँ यह धारणा खंडित होती है। एक शोध में इस बात की पुष्टि की गई है कि एक स्त्री एक साथ कई कार्य कर सकती हैं, क्योंकि उनका मस्तिष्क ‘मल्टी डायमेंशनल’ होता है। स्त्रियाँ घर एवं दफ़्तर हर कहीं अपना संतुलन कायम करने में सफल हुई हैं। ऐसे में स्त्री का दायित्व पुरुष से कई गुना अधिक समझा जाना चाहिए। जहाँ तक महादेवी वर्मा की भाषा शैली की बात है तो उनमें हिन्दी खड़ी बोली के अतिरिक्त देशज शब्दों का भी प्रयोग मिलता है। कहीं–कहीं संस्कृत के श्लोकों का प्रयोग मिलता है। बहुमुखी प्रतिभा की धनी महादेवी वर्मा न केवल एक सशक्त स्त्री रचनाकार हैं वरन् स्त्री अधिकारों पर मुख्यधारा में आकर बात करने वाली स्त्रियों की पुरखिन भी हैं। महादेवी आधुनिक स्त्री समाज की आदर्श हैं। उनके अमूल्य योगदान के लिए हिन्दी साहित्य जगत उनका सदैव ऋणी रहेगा।
“वह पवित्र देव-मंदिर की अधिष्ठात्री देवी भी बन चुकी है
और अपने गृह के मलिन कोने की बंदिनी भी।”[27]
संदर्भ-ग्रंथ-सूची
- samalochan.blogspot.com/2020/11/blog-post_2.html (गरिमा श्रीवास्तव, ‘स्त्री-दर्पण : नवजागरण और स्त्री-पत्रकारिता’)।
वही
वही
- महादेवी वर्मा, ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’, लोकभारती प्रकाशन, पहली मंज़िल, दरबारी बिल्डिंग, महात्मा गाँधी मार्ग, इलाहाबाद, तीसरा संस्करण : 2008 ; पृष्ठ. (अपनी बात) 9.
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वही
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महादेवी वर्मा, ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’, लोकभारती प्रकाशन, पहली मंज़िल, दरबारी बिल्डिंग, महात्मा गाँधी मार्ग, इलाहाबाद, तीसरा संस्करण : 2008. पृष्ठ. 58
वही, पृष्ठ. 11
*(पीएचडी, हिन्दी)
भारतीय भाषा केंद्र (jnu)
(chaitalisinha4u@gmail.com)
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