दीर्घतपा : एक विश्लेषणात्मक अध्ययन
*शेषांक चौधरी
फणीश्वर नाथ रेणु हिंदी आलोचना को “आंचलिक उपन्यास” का विशेषण देने वाले स्वातंत्र्योत्तर ग्रामीण जीवन तथा भारतीयता के सफल कथाकार हैं। फणीश्वर नाथ रेणु का जन्म 4 मार्च 1921 को पूर्णिया (बिहार) जिले के ‘औराही हिंगना’ गांव के एक मध्यम वर्गीय किसान परिवार में हुआ। रेणु का पूरा नाम ‘फणीश्वर नाथ रेणु मंडल’ है। रेणु के इस नाम की भी एक कथा है। स्वयं रेणु के शब्दों में – “जब मैं पैदा हुआ था तो घर वालों पर कुछ कर्ज हो गया था। दादी बोली अरे यह तो ‘रिणुआ’ है। घर पर ऋण हो गया, बाद में ‘रिणुआ’ से ‘रिणु’ और फिर ‘रुणु’ हो गया। बड़ा हुआ तो पिताजी के मित्र ने कहा इसे ‘रेणु’ कहो और मैं ‘रेणु’ हो गया।”(1)
‘रेणु’ मिट्टी के एक बहुत छोटे से, नगण्य से कण को कहते हैं। प्रत्येक कण में आकाश को छूने की शक्ति सन्निहित होती है तथा उसका अपनी धरती के प्रति भी कुछ दायित्व होता है, अपने अंचल के प्रति भी कुछ दायित्व होता है। इसी दायित्वबोध को, ऋण को रेणु हमेशा महसूस करते रहे।
रेणु ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा फारबिसगंज के अररिया स्कूल में, माध्यमिक शिक्षा नेपाल (विराटनगर) में कोइराला परिवार के साथ रहकर और उच्च शिक्षा काशी हिंदू विश्वविद्यालय वाराणसी से प्राप्त की।
रेणु के औपन्यासिक कृतियों की चर्चा करें तो उन्होंने ‘मैला आँचल’ (1954), ‘परती परिकथा’ (1957), ‘दीर्घतपा’ (1963), ‘जुलूस’ (1965), ‘कितने चौराहे’ (1979) और ‘पलटू बाबू रोड’ (1979) जैसे उपन्यासों की सर्जना की।
11 अप्रैल 1977 को रेणु ने इस संसार को अलविदा कहा। ‘दीर्घतपा’ उपन्यास दिसंबर सन् 1963 में प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास का लेखन दिसंबर सन् 1961 को पूरा हो चुका था। रेणु ने ‘पंचकन्या’ नाम से पंचकन्याओं को अलग-अलग रूपायित करने वाला ‘अलबमनुमा उपन्यास’ उन कन्याओं के संक्षिप्त वक्तव्यों को गूँथकर प्रस्तुत करने का विचार किया था। उनकी यह योजना सफल ना हो सकी। इसीलिए उन्होंने उन कन्याओं को अलग-अलग उपन्यासों के रूप में ही क्रमश: प्रकाशित करने का निश्चय किया। इस मालिका का केवल एक ही उपन्यास उन्होंने लिखा शेष उपन्यास किन्हीं कारणों से वह नहीं लिख सके।
दीर्घतपा रेणु का तीसरा आंचलिक उपन्यास है। इसकी भूमिका में वे लिखते हैं – “यह उपन्यास…..नहीं, आंचलिक…..नहीं…..हां, आंचलिक ही……किंतु……अर्थात् यह उपन्यास, उपन्यास है।”(2)
प्रस्तुत उपन्यास ‘दीर्घतपा’ कुमारी बेला गुप्त के ह्रदय के यथार्थ रूप की पहचान प्रकट करता है। जीवन और संसार की मंगलकामना से प्रेरित होकर बेला गुप्त ने अपना संपूर्ण जीवन समाज की सेवा में अर्पित कर दिया है। बेला के माध्यम से लेखक ने यह पूछना चाहा है कि क्या यही वह आजादी है जिसके लिए अनगिनत लोगों ने जेलें काटीं और अपने प्राणों की आहुति दी ? जिस समाजवाद की चर्चा गला सूखने तक सभी पार्टियां करती रहती हैं, क्या उसकी सामाजिक रूपरेखा उस व्यंग्य-चित्र में पर्यवसित नहीं हो गई हैं, जो ‘सत्यमेव जयते’ के ध्येय वाक्य की विडंबना को उजागर करता है और पुकार-पुकार कर कहता है कि सच्चाई का लोप होता जा रहा है। स्वार्थ सिद्धि के लिए लोग किसी भी शर्त पर अपनी आत्माएं बेचने लगे हैं। अच्छाई पर से विश्वास उठता जा रहा है और चारों ओर व्यर्थता का राज फैला हुआ है।
इस व्यर्थता का ही एक सामाजिक रुप ‘वर्किंग विमेंस हॉस्टल’ के बंद होने की घटना के द्वारा लेखक ने उपन्यास में प्रस्तुत किया है। यह हॉस्टल बंद ही नहीं हुआ है बल्कि इसके भावी काल में खुलने की संभावना भी लगभग नहीं है। भावी पीढ़ी के अंदर सामाजिक संस्कार लुप्त होते चले जा रहे हैं। जिसका प्रमाण हमें उस ग्यारह वर्ष के किशोर में दिखाई देता है जिसने हॉस्टल के बंद फाटक पर कोयले के टुकड़े से एक अश्लील वाक्य लिख दिया है।
इस उपन्यास में आरंभ से अंत तक नारी जीवन के यथार्थ चित्र को प्रकट किया गया है। नारी अब घर की चारदीवारी में बंदी रहकर केवल बच्चे पैदा करने की मशीन नहीं कहलाना चाहती अपितु वह भी अपने ह्रदय से उठने वाली अभिलाषाओं और इच्छाओं को सच्चे रूप में प्रस्तुत करना चाहती हैं।
कुमारी वीणा (उपन्यास की एक पात्र) के शब्दों में – “रमला मौसी नहीं होती तो अब तक किसी साहू के आध दर्जन बच्चों की बीमार मां होती और रमला मौसी के किसी मेटरनिटी सेंटर में दवा के लिए रिरियाती फिरती।”(3) विभावती सेवा की भावना से प्रेरित होकर हॉस्टल में आई है और वह अपने गांव के लोगों की सेवा ही सबसे बड़ी सेवा समझती है। बेला के पिता का भी कथन है – “बेटी ! अबला नहीं, शक्ति की आराधना करके सबला बनना है तुम्हें।”(4) बेला की सहचरी फातिमा भी ‘बुर्का पर्दा मुर्दाबाद’ करके, इंकलाब करके घर से निकल पड़ती है। तारा, गौरी और श्यामा भी वर्तमान प्रगति के पथ पर नित्यप्रति अग्रसर हो रही नारियों के उज्जवल उदाहरण हैं।
‘दीर्घतपा’ एक आंचलिक उपन्यास है अतः अंचल की एक-एक विशेषता इसमें स्वयमेव उजागर हो यह स्वाभाविक है। दीर्घतपा जिस अंचल से संबद्ध है वहाँ योग और तंत्र के प्रति गहरी आस्था भावना आज भी विद्यमान है। श्री-सुंदरी की साधना में तत्पर रहने वाले ‘काम’ को वर्ज्य न मानकर आचरणीय और उपयोगी मानते रहे हैं। उसके साथ ही स्वतंत्रता संग्राम की उथल-पुथल और 1947 के देश विभाजन के बाद पश्चिमी सभ्यता के अभिशाप स्वरूप चारित्रिक गिरावट, तिकड़म, सुरा-सुंदरी के प्रति नितांत उच्छृंखल और भोगवादी आचरण आदि कुप्रवृत्तियां बहुत तेजी से बढ़ी हैं। रेणु ने ‘वीमेंस वेलफेयर बोर्ड’ के चित्रण में ‘देश’ और ‘काल’ की इस वृत्ति को बड़ी सफाई से चित्रित किया है। काम, कामुकता और कामी-कामिनिओं के व्यभिचारी आचरणों के चित्रण इस दृष्टि से बड़े यथार्थ बन पड़े हैं। बेला की सारी पीड़ा, मिसेज आनंद का चकलाधर्मी आचरण, अंजू-मंजू की गतिविधियां, प्रोफेसर रमा निगम की रेडियो प्रोग्राम के चक्कर में लाल भाई के साथ व्यभिचारी केलि-क्रीड़ा, अंजू-मंजू को लेकर सुखमय घोष का ‘वाइफ एंड हसबैंड’ जैसी कामोत्तेजक नृत्यनाटिका का आयोजन, बागे का मिसेज आनंद के साथ व्यभिचार और नाटिका देखने गई हुई विभावती और गौरी के साथ यौनहिंसा आदि में देश और काल-व्यापी कामुकता मुखर है।
कामुकता का सर्वाधिक विकृत रूप, समलिंगी कामाचार भी लेखक की पैनी दृष्टि से अछूता नहीं रहा है। विभावती मिस बेला से शिकायत करती है कि – “ रुक्मिणी और कुंती देवी हमेशा खराब-खराब बातें करती हैं। वह हम लोगों के पास आकर सो जाती हैं……उनकी आदत ठीक नहीं है…… हम लोगों को रात में सोने नहीं देती।”(5) हॉस्टल का संपूर्ण वातावरण कामुकता से परिपूर्ण है। एक समय ऐसा भी था कि सेंटर की इज्जत गली के बच्चे तक भी करते थे परंतु अब तो हर लड़की छेड़ी जा रही है।डॉ.गोपाल राय के अनुसार -“इस उपन्यास में इन छात्रावासों के अन्दर पनपने वाले भ्रष्टाचार, स्त्रियों के काम-शोषण आदि का अंकन हुआ है।”(6)
श्रीमती आनंद अपनी हीन एवं गर्हित (Discreditable) वृत्ति के कारण निकृष्ट-से-निकृष्ट कार्य करने में भी नहीं हिचकतीं। एक तरफ तो वह रमला बनर्जी के प्रभाव को समाप्त करना चाहती हैं तो दूसरी ओर वह बेला को भी पथभ्रष्ट करना चाहती हैं। मिस्टर आनंद को तो इसकी लेशमात्र चिंता नहीं कि उनकी पत्नी क्या करती रहती हैं, उसे तो बस रुपए चाहिए चाहे इसके लिए उसकी पत्नी दूसरों के साथ रंगरलियां क्यों ना मनाती फिरे।
रमला बनर्जी के रूप में रेणु ने स्त्री की उदार सेवावृत्ति द्वारा सम्बद्ध अंचल की नारियों की समस्याओं का समाधान प्रस्तुत किया है। रमला का विभिन्न शिल्प-केंद्र खुलवाना, नारी को साहस देकर अपने पैरों पर खड़े होने के लिए प्रेरित करना तथा बाढ़ और भूकंप आदि में पीड़ितों की सहायता करना विभिन्न समस्याओं का अप्रत्यक्ष रूप में समाधान ही तो है। सामाजिक पक्ष के समाधान के रूप में बेला को मूर्त किया गया है।
हॉस्टल के वातावरण में जाति-पाति के स्वाभाविक चित्रण रेणु की लेखनी से पूर्ण स्पष्ट होकर उभर सके हैं। श्रीमती आनंद जातिवादी मानसिकता से भरी हैं। हॉस्टल का क्लर्क तो अंजू-मंजू से केलि करने में जाति-पाति को बाधक नहीं समझता परंतु जब श्रीमती आनंद उसे शादी करने के लिए कहती हैं तो वह कहता है – “उससे कैसी शादी ! ऊ हिंदुस्तानी है।”(7)
अंधविश्वास पिछड़े समाज का अनिवार्य गुण होते हैं। ‘दीर्घतपा’ में चित्रित अंचल भी इससे अछूता नहीं है। वैसे सभ्यता के विकास तथा शिक्षा के प्रसार के कारण लोगों में अंधविश्वासों की गांठें कुछ ढीली तो पड़ गई हैं परंतु ऐसा नहीं कि वह समाप्त हो गई हों। उपन्यास में हॉस्टल के पास के मोहल्ले में रहने वाली बूढ़ी औरतें ‘परिवार नियोजन’ को अपने अंधविश्वासों के कारण ही अपशगुन समझती हैं। इसीलिए कहती हैं – “खूब कोख खाती फिरो, घूम-घूम कर डायन, सब कहती हैं कम बच्चा पैदा करो।”(8) माताएं अपने बच्चों की सुख-सुविधा के लिए अनेक प्रकार की मनौतियां कबूलती हैं, और भरे गले से – “जै मैया काली माता, काला छागल चढ़ाऊँगी भगवती।”(9) जैसी प्रार्थनाएं भी करती हैं। इस प्रकार के अंधविश्वासों का उपन्यास में यथार्थ अंकन हुआ है।
‘दीर्घतपा’ में पूंजीपतियों की मनोवृत्ति का उद्घाटन यथार्थ के कुरूप चेहरे को उजागर करके रख देता है। इनके मत से – “पार्टी पावर में आए जातीयता फूलेगी ! फेवरटिज्म मिटेगा नहीं भाई-भतीजावाद भी कायम रहेगा।…… रूलिंग पार्टी का अदना कार्यकर्ता जिला के कलेक्टर की कलम पकड़ने का साहस तब भी करेगा।…… सत्य की विजय नहीं होती है कभी, इसीलिए ‘सत्यमेव जयते’ लिखकर टांगने वाला वाक्य हो गया है। इस वाक्य का प्रथम अक्षर ‘अ’ लुप्त है।”(10) इस प्रकार पूंजीपतियों ने समाज के हर क्षेत्र में अपना आधिपत्य जमा लिया है। भ्रष्टाचार का जोर तो हॉस्टल में इस सीमा तक बढ़ चुका है कि पूंजीपति हॉस्टल के प्रबंधकों से मिलकर किसी भी लड़की को अपने मनोरंजन के लिए अपने घर बुला सकते हैं और उन्हें हफ्तों गायब भी कर सकते हैं। रिश्वतखोरी के लिए तो यहाँ की औरतें भी कहती हैं – “रामरती और उसकी मां बड़ी लालची हैं। हर महीने हम ‘परबी’ कहाँ से लावें ? पैसा नहीं पाती हैं तो सताती हैं, ‘छिनाल’।”(11) हॉस्टल के नियमानुसार तो अंजू-मंजू को हॉस्टल में स्थान मिलना नहीं चाहिए था। बेला के लाख विरोध करने पर भी उन्हें स्थान मिला इसलिए कि श्रीमती आनंद ऐसा चाहती हैं। अतः स्थिति ऐसी बन चुकी है कि यहाँ सब बालू की दीवार बना रहे हैं।
कुमारी बेला गुप्त जैसी समाज सेविकाओं के प्रयत्नों को सार्थक बनाने के लिए यह नितांत आवश्यक है की विपरीततम परिस्थितियों में भी अच्छाई के लिए श्रद्धा पैदा की जाए। यह उपन्यास इस दृष्टि से सफल है। उपन्यास में ‘बागे’ नाम का पात्र कहता है – “जहां सभी बालू की दीवार बना रहे हैं वहाँ ईट सीमेंट का घर कोई पागल ही बना देगा। सदर बाजार का जमाना चला गया।”(12) अपने को ‘दलाल’ कहने में बागे लजाता नहीं। वह श्रीमती आनंद से साफ-साफ कहता है – “दलाली मेरा पेशा है।” यही बागे श्रीमती आनंद का सहायक होने के बावजूद उसे देखकर घृणा से मुंह बिगाड़ लेता है। इन दोनों पात्रों के असामाजिक रूप के विरुद्ध पाठकों के मन में घृणा भर आती है। यह उपन्यास का वर्जनात्मक उद्देश्य है और इस उद्देश्य में लेखक सफल हुआ है।
उपन्यास का विधेयात्मक उद्देश्य अच्छाई में आस्था को बनाए रखना है। उपन्यास की नायिका कुमारी बेला गुप्त अपने समाज सेवा के कार्य में कभी-कभी कष्टों के असह्य होने पर सोचने लगती है कि रमला मौसी के बिना कष्ट झेलने की क्षमता उसमें नहीं रह गई है। किंतु इसके बावजूद वह टूटती नहीं। बेला के मन में बसी रमला मौसी ने ‘सिस्टर निवेदिता’ का आदर्श सामने रखकर जीने की प्रेरणा दी है। सिस्टर निवेदिता का संदेश उसके ह्रदयाकाश में सहसा कौंध जाता है-
“And the Majesty of the soul comes fourth,
Only when someone is wounded to his depths.”
कुमारी बेला गुप्त विपरीत परिस्थितियों में भी दुनिया में ऐसा ही होता है, कहकर बुराइयों की ओर से न आंखें मूंद लेती है और न ही प्रतिक्रियास्वरुप स्वयं को अपने में ही कैद कर डालती है। वह यथार्थ के घने अंधकार के बीच परमार्थ के प्रकाश को बिखेरती रहती है। वह गबन करने, व्यभिचार का अड्डा चलाने आदि के अभियोग को स्वीकार करना पसंद करती है, किंतु नई खेलती हुई विभावती की विभा को मंद होते देखना नहीं चाहती। मात्र इसलिए नहीं की विभावती उसकी मौसेरी बहन है, इस नाते के अतिरिक्त व्यापक मानवीयता के कारण भी वह विभावती को अपमानित देखने की बजाय स्वयं जेल काटना अधिक श्रेयकर समझती है। बेला चाहती तो ज्योत्सना आनंद, बांके, रमाकांत आदि के कारनामों को बता कर स्वयं मुक्त हो सकती थी, लेकिन ऐसा करने पर विभावती और गौरी जैसी सच्चरित्र लड़कियों के बलात्कार कांड पर भी प्रकाश पड़ता जो उनके लिए उचित नहीं था। बेला जेल जाते-जाते भारत के समाज – सुधारकों और अपने शुभचिंतकों पर व्यंग्य भी करती जाती है ठीक उसी तरह का व्यंग्य जो निराला के ‘तोड़ती पत्थर’ कविता की मजदूरिन उनसे (कवि से) करती है –
“देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार
देखकर कोई नहीं
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं
सजा सहज सितार
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार।”(13)
बेला ने किसी की ओर आंख उठाकर देखा नहीं। वह चुपचाप कटघरे में खड़ी रही होंठों पर हल्की मुस्कान लेकर।
भाषा की दृष्टि से अन्य उपन्यासों के समान ही रेणु ने इस उपन्यास में भी स्थानीय शब्द, उच्चारण और ध्वनियों के वैचित्र्य को पूर्ण रूप से प्रस्फुटित करने का प्रयत्न किया है। भाषा में स्थानीय बोली के शब्द कहीं-कहीं प्रयुक्त हुए हैं। उनके कारण उपन्यास का वातावरण अधिक सजीव एवं यथार्थ रूप में उपस्थित हो सका है। उदाहरणार्थ – ‘जुलुम बात’, ‘मनुस पिटना’, ‘छिनरपनी’, ‘मउगी’, ‘हरपटाही’, ‘परबी’ आदि। स्थानीय शब्दों के अतिरिक्त उर्दू (‘सुरूर’, ‘चश्मदीद’, ‘नूर’ आदि) और अंग्रेजी (‘लोन’, ‘रिकमेंड’, ‘केनाइन ट्रुथ’, ‘हंटर’ आदि) के अनेक शब्द में प्रयुक्त हुए हैं। कहीं-कहीं क्रिया-विशेषण ‘स्मूथली’ है तो कहीं विशेषण ‘अरजेन्टी’ भी है। कहीं-कहीं ‘सर्वदर्दहर ग्रंथ’ जैसे समास भी हैं, जिसमें संस्कृत और उर्दू दोनों के समस्त शब्द एक-दूसरे के निकट आ गए हैं।
उपन्यास में मुहावरों का भी प्रसंगानुकूल प्रयोग हुआ है। ‘आंखों के आगे जुगनू उड़ना’, ‘बालू की दीवार बनाना’ आदि मुहावरे तो हैं ही किंतु ‘डगरे का बैंगन होना’- जैसे व्यंजक स्थानीय मुहावरे भी हैं।
उपन्यास के संवाद पात्रों एवं प्रसंगों के अनुकूल हैं। गांव की रहने वाली गौरी देवी कुत्ते को ‘कूकड़’ बोलती है। रामरति को डोरोथी के शुभचिंतक मित्र भरसक ‘पियेले’ दीख पड़ते हैं। वह एक स्थान पर कहती है – “गली के लड़के सभी चलित्तर देखते-देखते अब छुछुआने लगे हैं…..।….. लीला खेला देखकर बदमाश लोग जरूर बमकेंगे।”(14) कुंती देवी तो ‘सलीमा’ देखने के लिए छटपटा उठती है। शारदा कुमारी को ‘अथि’ लगाकर बोलने की आदत है।
उपन्यास में बंगला भाषा का प्रयोग संवादों में कई जगह हुआ है। श्रीमती रमला बनर्जी हिंदी और बांग्ला के समानार्थक वाक्य साथ-साथ बोल जाती हैं – “….. कोनो भय नेई।…..डरने की कोई बात नहीं।” इसी प्रकार उपन्यास का पात्र सुखमय घोष श्रीमती आनंदी को ‘छागली’ का अर्थ बताते हुए कहता है – “छागली माने बोक्री”
फणीश्वरनाथ रेणु की श्रुतिसंवेदना अत्यंत सूक्ष्म है, इसलिए इस संवेदना के अनुकूल प्रयोग उनकी शैली की विशेषता है। उपन्यास के प्रारंभ में ही इसका परिचय मिल जाता है – “…..खो-लो-ओ-ओ ! ढन-ढन-ढन-ढन ! कें-कें-कें-कें ! भौं-भौं ! के है-ए-ए !”(15)
रेणु के उपन्यास में कहीं लोकगीत का प्रसंग ना आए, यह कैसे संभव है ? प्रस्तुत उपन्यास में एक स्थान पर रेणु ने फिल्मी लोकगीत पर व्यंग्य कसते हुए कहा है कि –“ हैयो-रे-हैयो” या “हजी-ओ-ओ-ओ” के जोड़ देने मात्र से कोई गीत, लोकगीत नहीं बन जाता है। गौरी के मुख से जँतसार गीत सुनकर बेला बहुत देर तक गीत की चक्की जैसी घूमती गति पर चक्कर खाती हुई चित्रित की गई है –
“के तोरा देलकउ सुन्दरि दस सेर गेंहूंआ
के तोरा भेजलकउ एकसरि जँतसारे ना-कि।” (16)
रेणु ने इस उपन्यास के माध्यम से आजादी के बाद बढ़ते हुए भ्रष्टाचार और सद्वृत्तियों पर कुवृत्तियों की विजय को दिखाया है। जिस बेला की आजादी के बाद आरती उतारी जानी चाहिए थी वह बेला जेल में डाल दी गई। श्रीमती आनंद जैसी पथभ्रष्ट और पतित स्त्री स्वच्छंद विचरण कर रही है, जब ‘अन्याय जिधर है उधर शक्ति’ होगी तो यही हाल होगा। देश के बड़े-बड़े अधिकारी जब सुरा और सुंदरी के कदमों पर शीश झुकाते हैं तो देश के भविष्य का क्या होगा ? रेणु का यह उपन्यास आरोपित यथार्थ नहीं है। इस उपन्यास के संदर्भ में बकौल मन्मथ नाथ गुप्त – “अमानवीय स्पर्श जहाँ-तहाँ बहुत अधिक है, व्यंग्य भी है और सबसे बड़ी बात यह है कि समाज के घाव को खोलकर रख दिया गया है, पर घाव की हालत को देखकर डर लगता है कि घाव कैंसर तो नहीं है। रेणु का यह उपन्यास विश्व-साहित्य के किसी अच्छे उपन्यासकार की कृति के साथ एक तराजू में रखा जा सकता है।”(17)
सन्दर्भ-ग्रंथ सूची –
- धर्मयुग, 25 मार्च 1975 में प्रकाशित रेणु से साक्षात्कार
- भूमिका-दीर्घतपा, फणीश्वरनाथ रेणु, संस्करण-2008,राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली।
- वही, पृ.सं.25
- वही, पृ.सं.53
- वही, पृ.सं.58
- गोपाल, राय, हिन्दी उपन्यास का इतिहास, संस्करण-2014, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली पृ.सं.251
- वही, पृ.सं.22
- वही, पृ.सं.72
- वही,पृ.सं.72
- वही,पृ.सं.90
- वही, पृ.सं.35
- वही, पृ.सं.50
- राग-विराग , संपादक-रामविलास शर्मा, संस्करण-2014, लोकभारती प्रकाशन, पृ.सं.118
- दीर्घतपा, फणीश्वरनाथ रेणु, संस्करण-2008,राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली, पृ.सं.95
- वही, पृ.सं.74
- वही, पृ.सं.46
- आलोचना-पत्रिका, सम्पादक-नन्ददुलारे बाजपेई, जुलाई-1984,पृ.सं.121
*शोधार्थी
हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय
पता- म.नं.1/100/30, गोपनपल्ली, हैदराबाद, तेलंगाना-500019
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