19वीं शताब्दी में हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन में भाषा संबंधी बहसें
संजय कुमार*
यह सच है कि 19वीं सदी से पहले हिन्दी भाषा के नाम पर कुछेक पद्यात्मक रचनाएँ तथा एकाध गद्यात्मक रचना के अलावा कुछ नहीं मिलता है। आज हम ब्रजभाषा, अपभ्रंश, अवधी तथा अन्य देशी भाषाओं को भी हिन्दी की पूर्ववर्ती मानकर इसका इतिहास लम्बा-चैड़ा करने में लगे हुए हैं, परन्तु दूसरी तरफ यह विडम्बना है कि हम 18वीं सदी के अंत से ही ऐसी हिन्दी को हिन्दी मानने के लिए बेताब हैं जो संस्कृत से निष्ट तथा भाषा में विशिष्ट हो। यह हिन्दी की बोलियों की बदकिस्मती ही है कि हिन्दी भाषा को जिस मेहनत से उन्होंने सींचा है, बड़ा किया है तथा आगे बढ़ाया है, वही 19वीं सदी के अंत में आकर उन पर हावी हो गई, न केवल हावी हुई बल्कि उनके अस्तित्व से अपने अस्तित्व को पूरी तरह अलग करने के लिए प्रयत्नशील दिखाई देने लगी। समय के साथ और देशी भाषाओं की उपेक्षा बड़ी तथा वर्तमान में तो यह स्थिति है कि देशी शब्दों तक हिंदी भाषा में विद्वानों को अखरने लगे।
भारतेन्दु काल के बाद मानो हिन्दी ने अपने माता-पिता (देशी भाषा) को लात मार ढकेल दिया तथा उनकी पूर्ण उपेक्षा करते हुए स्वयं को तत्कालीन समाज का प्रतिनिधि घोषित कर दिया। समय के साथ यह प्रवृत्ति बढ़ती ही गई। वर्तमान में हिन्दी, संस्कृत के भारी भरकम शब्दों से दब सी गई। आज हिन्दी की यह स्थिति हो गई अगर आमफ़हम की शब्दावलियों का उसमें पुट किया जाए तो हिन्दी के बड़े-बड़े धुरंधर नाक सिकोड़ने लगते हैं।
जिसे हम आज हिन्दी कहते हैं वास्तव में वह अपभ्रंश की संचित सांस्कृतिक परिवेश की निरन्तर चली आ रही धारा है। इसे हम संस्कृत, पाली, प्राकृत एक से जोड़ सकते हैं आरम्भ से ही भाषाओं का इतिहास देखकर यह जाना जा सकता है कि “एक निरन्तर लड़ी में ही भाषा का विकास संभव है, चाहे वह अपभ्रंश हो या पाली या फिर प्राकृत सभी में अपनी पूर्ववर्ती भाषाओं से शब्दावलियाँ तथा तत्कालीन सांस्कृतिक परिवेश को ग्रहण किया है।”1 हिन्दी भाषा की निर्मिति भी प्राचीन भाषिक परिवेश से ही संभव हुई है। 19वीं सदी से पहले आधुनिक खड़ी बोली की क्रमागत विकास के कुछ क्रम देखे जा सकते हैं। पद्य में संभवतः सबसे पहले खड़ी बोली का प्रयोग अमीर खुसरो ने किया। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अमीर खुसरो की भाषा की तरफ ध्यानाकषर्ण करते हुए लिखा है- “खुसरो की हिन्दी रचनाओं में भी दो प्रकार की भाषा पाई जाती है। ठेठ खड़ी बोल चाल की भाषा व ब्रजभाषा।”2 आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने जिसे खड़ी बोल चाल की भाषा कहा है असल में उसी का विकसित रूप 19वीं सदी के आरम्भ में जाते-जाते आमफ़हम की भाषा के रूप में उभरती हुई देखी जा सकती है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल खुसरो के भाषा बोध का गहराई से अवलोकन करते हुए कहते हैं- “खुसरो के समय में बोलचाल की स्वाभाविक भाषा घिसकर बहुत कुछ उसी रूप में आ गई थी जिस रूप में खुसरो में मिलती है कबीर की अपेक्षा खुसरो का ध्यान बोलचाल की भाषा की ओर अधिक था।“3 इस तरह आचार्य शुक्ल का प्रत्यक्ष रूप से इशारा उस समय के भाषा परिवेश की तरफ है। 19वीं सदी से ही हिन्दी की कुछ टूटी-फूटी शब्दावलियाँ आम जन में प्रचलित थी। मुगलकाल में फारसी भले ही राजभाषा रही पर आम जन में आम बोलचाल की भाषा (जिसे आज हम खड़ी बोली कहते हैं) उसी का प्रचलन था। उदाहरणार्थ अमीर खुसरो की पहेलियों में प्रयुक्त होने वाली शब्दावलियों को देखा जा सकता है-
“एक थाल मोती से भरा। सबके सिर पर औंधा धरा।।
चारों ओर वह थाली फिरे। मोती उससे एक न गिरे।”4
अमीर खुसरो की इस भाषा को भला कौन खड़ी बोली हिन्दी नहीं कहेगा। 19वीं सदी तक हिन्दुस्तान के उत्तरी भाग में ऐसी ही भाषा का प्रचलन था। अन्य समकालीन भाषाओं ब्रज, अवधी, डिंगल, मालवी, भोजपुरी आदि के प्रारम्भिक रूप भी 19वीं सदी के बाद उभरने लगे थे, भाषा में आपसी प्रतिस्पर्धा थी पर मतभेद नहीं था। एक-दूसरे के सहयोग से, अपने को विकसित करने में लगी हुई थी। 19वीं सदी से पहले के भाषा सम्बन्धी दृष्टिकोण की निर्मिति किसी एक भाषा को वरीयता देकर नहीं बनाया जा सकता। सबके मूल्यबोध अलग-अलग तरंगों में आगे बढ़ रहे थे, ‘ब्रजभाषा’ यदि सूरदास व केशवदास जैसे बड़े रचनाकारों के संरक्षण में फलफूल रही थी तो वही ‘अवधी’ तुलसीदास, ‘राजस्थानी’ चन्दबरदाई, मालवी संत किनाराम आदि देशी भाषाओं का प्रगामी धाराओं का सोता 19वीं सदी से पहले हिन्दी की बोलियों के नाम पर बहता आया है। सही मायने में विद्वानों ने इस विशाल सोते को हिन्दी भाषा में समाहित करके इसकी अलग से पड़ताल करने की आवश्यकता नहीं समझी।
20वीं सदी के बाद इस दृष्टिकोण से भाषाओं का आकलन शुरू हुआ। डॉ.रामविलास शर्मा ने 19वीं सदी की भाषा को हिन्दी की सहोदरी भाषा का दर्जा प्रदान किया है। राम विलास शर्मा ने खड़ी बोली का पक्ष लेते हुए इसे 10वीं सदी के करीब से ही बोलचाल की भाषा सिद्ध करने का प्रयास किया है। भाषा और समाज पुस्तक में वे लिखते हैं- “खड़ी बोली मुसलमानों के आने से पहले भी थी, उनके शासन काल में भी रही और आज भी है।”5
इस तरह खड़ी बोली की प्राचीनता को सिद्ध करने के लिए हिन्दी के आलोचकों ने उन्नीसवीं सदी से प्रचलित सभी उत्तर भारत की रचनाओं से हिन्दी के तार जोड़ने का प्रयास किया। 19वीं सदी से पहले का भाषा संबंधी दृष्टिकोण सभी सिद्धान्तों का कुछ हेर-फेर के साथ एक जैसा दिखाई देता है। रामविलास शर्मा ने जहाँ 19वीं सदी से पहले की भाषा को हिन्दी की सहोदरी भाषा कहकर उसकी उपयोगिता को स्वीकार किया है वही नामवर सिंह ने ‘हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग’ नामक पुस्तक में 19वीं सदी से पहले के भाषायी परिदृश्य की तरफ इशारा करते हुए लिखते हैं- “अपभ्रंश से हिन्दी साहित्य का क्या संबंध है? इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि हिन्दी साहित्य के प्रायः सभी इतिहासकारों ने आदिकाल के अन्तर्गत अपभ्रंश साहित्य को रखा अपभ्रंश से निकली हुई अन्य भाषायी बोलियों से ही बाद की हिन्दी भाषा का पुख्ता निर्माण संभव हुआ।”6
सभी मायने में 19वीं सदी से पहले की हिन्दी भाषा अलग-अलग धाराओं में बह रही थी, एक निष्ठता के अभाव में तथा हिन्दी की एक रूपता दिखाने के लिए ज्यादातर आलोचकों ने उन्नीसवीं सदी की भाषा को वर्तमान हिन्दी की सहचर व सहयोगी भाषा के रूप में माना है। 19वीं सदी से पहले ही भाषा में शब्दों का आदान-प्रदान तीव्रता से हुआ है तभी तो भाषायी संरचना में उनकी प्रकृति की एकरूपता की झलक स्पष्ट देखी जा सकती है। कहने का मतलब यह है कि 19वीं सदी से पहले की भाषा किसी एक धारा में न चलकर अनन्त धारा में प्रवाहित थी, उसके बावजूद आमफ़हम की भाषा लोगों में ज्यादा लोकप्रिय थी। अन्ततः यही 19वीं सदी में जाकर खड़ी बोली के रूप में विकसित हुई।
भाषा सम्बन्धी बहसों का तीव्र शोरगुल उन्नीसवीं सदी से पहले बड़ी मात्रा में नहीं दिखाई देता। 19वीं सदी से पहले खड़ी बोली का बीज-वपन काल था तथा 19वीं सदी के बाद इसकी परिपक्वता शुरू हुई। सही मायने में इसके स्वरूप का सैद्धान्तिक अवयवों के विकास से ही भाषा संबंधी बहसें जोर-शोर से शुरू हुई। 19वीं सदी से पहले भाषा में सौहाद्रर्ता एवं एकरूपता के गुण बहुतया देखे जा सकते हैं। इसी का परिणाम है कि 19वीं सदी तक आते-आते हिन्दी भाषा जैसी शक्तिशाली भाषा का जन्म हुआ। कहना न होगा कि 19वीं सदी का काल हिन्दी खड़ी बोली भाषा का शैशवकाल था। ऐसे में बहसों की बजाय उस समय भाषा की प्रकृति के लिए सहयोगात्मक प्रवृत्ति की जरूरत थी तथा इसी का निर्वाह इस काल में दिखाई देता है।
19वीं सदी के आरम्भ तक आते-आते आमफ़हम की भाषा का मानक स्वरूप उभरना शुरू हो गया था परन्तु इसको पूरी तरह से विशुद्ध भाषा का परिमार्जित स्वरूप नहीं कहा जा सकता। विभिन्न बोलियों तथा अरबी फारसी से सदी आमफ़हम की भाषा 1800 ई. के आस पास आम प्रचलन में थी। हालांकि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की माने तो “भोज के समय से लेकर हम्मीरदेव के समय तक अपभ्रंश काव्यों की जो परम्परा चलती रही उसके भीतर खड़ी बोली के प्राचीन रूप की भी झलक अनेक पद्यों में मिलती है।”7
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भक्तिकाल में निर्गुण धारा के संत कवियों को खड़ी बोली का प्रयोग कत्र्ता स्वीकार किया है- “भक्तिकाल के आरम्भ में निर्गुण धारा के संत कवि खड़ी बोली का व्यवहार अपनी सधुक्कड़ी भाषा में किया करते थे।”8
इसी तरह आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अकबर के समय के कवि गंग, जहाँगीर के दरबार में प्रयोग होने वाली भाषा तथा भाषा योगवशिष्ठ तक की एक खड़ी बोली की शृंखला अपने इतिहास में दर्शाते हैं। 19वीं सदी तक समस्त उत्तर भारत की प्रमुख बोली बनकर खड़ी बोली उभर चुकी थी। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने स्वयं स्वीकार किया कि “जिस प्रकार अंग्रेजी राज्य भारत में प्रतिष्ठित हुआ उस समय सारे उत्तर भारत में खड़ी बोली व्यवहार में शिष्ट भाषा हो चुकी थी।”9
खड़ी बोली के विकास एवं प्रचार-प्रसार में ईसाई मिशनरियों खासकर सिरामपुर में संचालित मिशनरियों का प्रमुख योगदान था। 1800 ई. में फोर्ट विलियम कॉलेज खुलने से खड़ी बोली के प्रचार-प्रसार में तेजी से बढ़ोत्तरी हुई। पद्म सिंह शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘हिन्दी, उर्दू और हिन्दुस्तान’ में लिखा है- “हालांकि फोर्ट विलियम कॉलेज के अन्योपदेश ज्यादा थे फिर भी प्रारम्भिक हिन्दी की ज्वलंत अग्नि को द्वार-द्वार पहुँचाने में इसका महत्त्वपूर्ण हाथ है। आज हिन्दी का जो रूप उभरा है उसमें उन महाशयों का काम भूलाया नहीं जा सकता।”10
18वीं सदी के प्रारम्भ तक हिन्दी व उर्दू दो अलग-अलग भाषाएँ हिन्दुस्तानी से उभरकर अलग ढंग से होने लगी थी। तभी तो गिलक्राइस्ट ने हिन्दी खड़ी बोली तथा उर्दू की पुस्तकों का अलग-अलग अनुवादक चुने थे। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ‘हिन्दी साहित्य के इतिहास’ में लिखा है- “खड़ी बोली गद्य को एक साथ आगे बढ़ाने वाले चार महानुभाव हुए- मुंशी सदासुखलाल, इंशा अल्ला खाँ, लल्लू लाल और सदल मिश्र।“11 इनमें सदल मिश्र फोर्ट विलियम कॉलेज के भाषा अधिकारी थे तथा लल्लूलाल मुंशी पद पर नियुक्त थे। दोनों महानुभावों ने खड़ी बोली की प्रारम्भिक रूपरेखा के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
फोर्ट विलियम कॉलेज ने हिन्दी पद्य की रूपरेखा पर उतना कार्य नहीं किया जितना हिन्दी गद्य की आरम्भिक रूपरेखा को तैयार करने के लिए किया। वास्तव में 1857 से पहले कुछेक किताबों को छोड़ दिया जाए तो हिन्दी की रूपरेखा का प्रचलित रूप नहीं बन सका था। हिन्दी भाषा (खड़ी बोली) के प्रचलित रूप को विकसित करने में फोर्ट विलियम के विद्वानों की अनुशंसा सराहनीय है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल खड़ी बोली गद्य की उन विशेषताओं की तरफ हमारा ध्यान खिंचा है जो 19वीं के प्रारम्भ में प्रचलित थी, सदा सुखलाल, इंशा अल्ला खां, लल्लूलाल तथा सदल मिश्र इन चारों विद्वानों की भाषा संबंधी विशेषताओं को रामचन्द्र शुक्ल ने बड़े स्पष्ट शब्दों में व्यक्त किया है-
- मुंशी सदासुख लाल की भाषा संस्कृत मिश्रित या शिष्ट बोलचाल की भाषा के करीब थी।
- इंशा अल्ला खाँ की भाषा चटकीली, मटकीली, मुहावरेदार और चलती भाषा थी। आचार्य शुक्ल ने उनकी भाषा की प्रशंसा करते हुए लिखा है- “इंशा का उद्देश्य ठेठ हिन्दी लिखने का था जिसमें हिन्दी को छोड़कर और किसी बोली का पुट न रहें।”12
- लल्लूलाल की भाषा कृष्णोपासक व्यासों की ब्रजरंजित खड़ी बोली है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लल्लूलाल की भाषा की गहराई को खोदते हुए लिखा है- “अकबर के समय में गंग कवि ने जैसी खड़ी बोली लिखी थी वैसी ही खड़ी बोली लल्लूलाल ने भी लिखी। दोनों की भाषाओं में अंतर इतना ही है कि गंग ने इधर-उधर फारसी-अरबी के प्रचलित शब्द भी रखे है पर लल्लूलाल ने ऐसे शब्द बचाए है। भाषा की सजावट भी प्रेमसागर में पूरी है।“13
- सदल मिश्र की भाषा को आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने पूरबीपन लिए हुए खड़ी बोली स्वीकार किया है- “गद्य की एक खास परम्परा चलाने वाले उपर्युक्त चार लेखकों में से आधुनिक हिन्दी का पूरा-पूरा आभास मुंशी सदासुख लाल और सदल मिश्र की भाषा में मिलता है। व्यवहारोपयोगी इन्हीं की भाषा ठहरती है। इन दो में भी मुंशी सदासुख लाल की साधु भाषा अधिक महत्त्व की है।”14 इस तरह आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने खड़ी बोली की आरम्भिक भाषा की प्रचलित स्थितियों का पूरा ब्यौरा दिया है। सदासुख लाल की भाषा आचार्य शुक्ल को खासकर आकर्षित करती है। इसका कारण स्पष्ट है कि वे ऐसी ही भाषा जिसमें हिन्दी के अलावा अन्य भाषा का पुट न हो। सदासुख लाल भी उर्दू को चलती भाषा से अधिक नहीं मानते थे तथा उसको मिलाकर लिखने वालों की निंदा करने से नहीं चुकते- “रस्मौ रिवाज भाषा का दुनिया से उठ गया।”15
इस तरह 1800 ई. के प्रारम्भ तक हिन्दी भाषा का स्पष्ट स्वरूप निर्मित होना शुरू हो गया था। पद्य भाषा तो पहले से ही विभिन्न शैलियों में गतिमान थी परन्तु गद्यात्मक रचनाओं की विधिवत् परम्परा का विकास 1800 ई. के बाद से ही देखा जा सकता है। 19वीं सदी के प्रारम्भ से ही भाषायिक झगड़े प्रारम्भ होने लगे थे। ख़ासकर हिन्दी एवं उर्दू दोनों ही अपने को श्रेष्ठ कहलाने के लिए अपने आप को विशिष्ट बनाने में लगे हुए थे। दोनों के विद्वान एक-दूसरे की भाषा को नीचा दिखाने में लगे हुए थे। उर्दू को यामिनी भाषा, मलेच्छ भाषा, जैसी विभिन्न उपाधियों से विदूषित करके उसकी साख गिराने का हर संभव प्रयास किया गया। वहीं हिन्दी को भी गद्यों की भाषा, नीरस भाषा जैसे कितने ही अपमानजनक शब्दों से विदूषित किया जाने लगा था। कहने का मतलब 1857 के बाद जो हिन्दू-उर्दू को लेकर हमें तल्खी दिखाई देती है। उसकी शुरुआत 1857 से 50 साल पहले ही शुरू हो गई थी।
समय के साथ खड़ी बोली हिन्दी की दुरवस्था होने लगी। विद्वानों ने खड़ी बोली को प्रासंगिक व विशिष्ट भाषा बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। हालांकि हिन्दी विद्वानों में भी दो गुट बने जिन्होंने हिन्दी भाषा की दशा व दिशा को अलग-अलग रूप में संचालित करने का फैसला किया। एक गुट राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद का था जो देवनागरी लिपि की महत्ता को स्वीकार करते हुए आमफ़हम की भाषा को मान्यता देने के लिए प्रयत्नशील था तो वहीं दूसरा गुट भारतेन्दु मण्डली का था जो आमफ़हम की प्रचलित सरल अरबी फारसी शब्दों को खड़ी बोली से निकालने के लिए कर्तव्य निष्ठ बने हुए थे। तथा संस्कृत के शब्दों से लादकर हिन्दी को संस्कृत की परम्परा से जोड़ने के लिए प्रयत्नशील थे। यह वाक्युद्ध समय के साथ गहराता गया। जल्द ही भाषा की रूपरेखा में भी साम्प्रदायिक रूप की झलक देखी जाने लगी। मुसलमानों ने अरबी फारसी से अपनी परम्परा जोड़ने के लिए उर्दू को नीरस व बोझिल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी तो वहीं हिन्दी विद्वानों में हिन्दी को संस्कृतनिष्ठ बनाकर ही दम लिया। रही सही कसर नागरी प्रचारिणी सभा, खड़ी बोली आंदोलन जैसे संगठनों ने पूरी कर दी। 19वीं सदी के अंत तक जाते जाते हिन्दी की खड़ी बोली पूर्णतः संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली की पर्याय बन चुकी थी। द्विवेदी काल के किसी भी लेखक की रचनाओं को उठाकर देखा जा सकता है। उदाहरणार्थ द्विवेदी काल के प्रमुख रचनाकार अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ के प्रियप्रवास की पंक्तियाँ द्रष्टव्य है। इसे खड़ी बोली का पहला महाकाव्य भी माना जाता है-
“दिवस का अवसान समीप था। गगन कुछ लोहित हो चला।।
तरु-शिखा पर थी अब राजती। कमलिनी कुल-वल्लभ की प्रभा।।”16
इन पंक्तियों को देखकर ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि 19वीं सदी के अंत तक किस प्रकार हिंदी संस्कृतनिष्ठ शब्दों से पटी पड़ी थी।
19वीं सदी में भाषा संबंधी आये इस बडे बदलाव के पीछे अपेक्षाकृत अस्मिता का सवाल भी छुपा हुआ था। प्रांतों में वर्चस्व की रणनीति तथा अंग्रेजों से अपनी भाषा की प्रतिष्ठा के लिए दोनों ही वर्ग (हिन्दी व उर्दू) जी जान से लगे हुए थे। अपनी भाषा को ‘राजभाषा’ का दर्जा दिलाने के लिए दोनों ही वर्ग के विद्वान भाषा की महत्ता को बढ़ाचढ़ा कर पेश करने लगे थे। कई नयी-नयी संस्थाएँ बनाई गई मुसलमानों ने अंजुमने हिमायते उर्दू, उर्दू डिफेंस एसोसिएशन जैसे संगठनों का निर्माण कर उर्दू को ‘राजभाषा’ का दर्जा दिलाने का भरसक प्रयास किया तो वहीं हिन्दी प्रेमियों में भारतेन्दु मण्डल, हिन्दी नवजागरण मंच, हिन्दी-हिन्दु-हिन्दुस्तान जैसे विभिन्न बुनियादी संगठनों के द्वारा हिन्दी की मजबूत कड़ी को सामने लाने का प्रयास किया। डॉ. नामवर सिंह ने ‘देसी भात में खुदा का सांझा’ नामक लेख में इस विवाद की गहराई से पड़ताल की है साथ ही हिंदी की हिमायत करते हुए वे लिखते हैं- “कहां तो समस्या अंग्रेजी के प्रभुत्त्व को हटाने की थी और कहाँ चर्चा हो रही है हिंदी को थोपे जाने की ‘थोपी हुई’ अंग्रेजी से कोई एतराज नहीं, लेकिन ‘थोपी जाने वाली’ हिन्दी पर इतना हंगामा।”17
19वीं सदी के आरम्भ से शुरू हुआ यह हिन्दी-उर्दू वैमनस्य आज भी जारी है। इसके चलते ही न तो हिन्दी को राष्ट्रभाषा का गौरव प्राप्त हो सका और न ही उर्दू की स्पष्ट छवि विकसित हो सकी। दोनों की बन्दरबांट में 19वीं सदी के पूरे सौ साल में खींचतान का माहौल बना रहा। वर्तमान में भी कुछ हद तक बढ़ते हुए स्वरूप में जारी है।
सन्दर्भ सूचीः
- चतुर्वेदी, रामस्वरूप, हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास, पृ.- 105
- शुक्ल, आचार्य रामचन्द्र, हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ.- 35
- वही, पृ.- 35
- वही, पृ.- 35
- शर्मा, रामविलास, भाषा और समाज, पृ.- 284
- सिंह, नामवर, हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग, पृ.- 219
- शुक्ल, आचार्य रामचन्द्र, हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ.- 282
- वही, पृ-282
- वही, पृ.-284
- शर्मा, पद्मसिंह, हिन्दी, उर्दू और हिन्दुस्तान, पृ.- 93
- शुक्ल, आचार्य रामचन्द्र, हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ.- 285
- वही, पृ.- 287
- वही, पृ.- 289
- वही, पृ.- 29
- वही, पृ.- 286
- सिंह, बच्चन, आधुनिक हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ.- 114
- हंस पत्रिका, मार्च 1987
*शोधार्थी पीएच.डी, हिंदी
जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय,
नई दिल्ली
ईमेल: sanjayk2210@gmail.com
मो. 9650946058