हिन्दी ग़ज़ल में फ़िक्र और ज़िक्र

-डा. जियाउर रहमान जाफरी*

अगर आप पिछले दस वर्षों के काव्य साहित्य का इमानदारी पूर्वक अध्ययन करें, तो यह निष्कर्ष स्वतः निकाला जा सकता है कि हिंदी कविता के पाठक जहां घटे हैं, वहीं गजल पर पाठकीय प्रतिक्रिया अधिक आई है. कभी उर्दू में कविता का मतलब ही ग़ज़ल समझा जाता था. हिंदी की स्थिति भी कमोबेश ऐसी ही है. गजल को छोड़कर कविता का पाठक उस रूप में नजर नहीं आता. गजल पाठकों की संवेदना और उसकी समझ दोनों के नजदीक है.आलोचक जो भी कहते रहें साधारण पाठक यह मानकर चलता है कि कविता और कहानी में कुछ न कुछ तो अंतर होना ही चाहिए. ग़ज़ल उस तकाज़े पर खरी उतरती है. छंद को कविता की आत्मा मानने का एक अर्थ यह भी है कि गद्य और पद्य दोनों की शैली अलग है.

हिंदी ग़ज़ल की स्थिति और बेहतर होती अगर वह अभिमान, आत्म प्रशंसा, अहंकार और गुट बंदे का शिकार न हो गई होती. हिंदी का हर दो में से एक ग़ज़ल कार अपने को श्रेष्ठ और दूसरे की ग़ज़लों का अवमूल्यन करने में लगा हुआ है. ग़ज़ल के विशेषांक आ रहे हैं, लेकिन ये भी जबरदस्त भेदभाव और किलाबंदी का शिकार है. उसके विशेषांक में कई महत्वपूर्ण गज़लगो छोड़े जा रहे हैं, और जिन्हें गज़ल का अता पता भी नहीं है वह जुगाड़ टेक्नोलॉजी से शामिल हो रहे हैं. हिंदी के किसी बड़े दो ग़ज़लकार के बीच संवाद नहीं है, यह स्थिति जो ग़ज़ल की है वह कविता की किसी धारा छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, या अन्य वाद में भी कभी नहीं देखी गई. फिर भी हिंदी की ग़ज़ल विकास पर गामज़न है उसकी वजह है कि हिंदी में वाकई अच्छी ग़ज़लें लिखी जा रही हैं. ग़ज़ल का स्वरूप और तकनीक को समझने की कोशिश की जा रही है. उसके मुहावरे और मिजाज को महसूस किया जा रहा है. कुछ लोग हिंदी ग़ज़ल का मतलब हिंदी शब्दों की ग़ज़ल समझ रहे हैं. इस पूर्वाग्रह के कारण उनके एक शेर भी अच्छी नहीं बन रहे हैं. इस सच्चाई से भी इंकार नहीं है कि दुष्यंत की ग़ज़लें हिंदी ग़ज़ल की भाषा को समझने के लिए काफी है. दुष्यंत अपनी आक्रामकता में भी अपने ग़ज़लों का लहजा नहीं बदलते. भवानी प्रसाद मिश्र ने लिखा है कि दुष्यंत बेलौस चोट करने वाला आदमी था.1 असल में दुष्यंत गजल में इसलिए आए कि उन्हें महसूस हुआ कि ग़ज़ल के माध्यम से वह अपने आप को बेहतर ढंग से व्यक्त कर सकते हैं. इसलिए उन्होंने अपनी ग़ज़लों की घोषणा पत्र भी जारी की और कहा सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं

मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए2

उन्हें पता था कि वतन के जो हालात हैं उस मसले का हल खामोशी से होने वाला नहीं है इसलिए उन्होंने फिर वह बात दोहराई जो एक बार कह चुके थे-

पक गई है आदतें बातों से सर होगी नहीं

कोई हंगामा करो ऐसे गुज़र होगी नहीं 3

हंगामा करने का जो नतीजा निकलेगा वह उन्हें पता था लेकिन वो ऐसे दिये नहीं थे जो हवाओं से बुझ सकते थे, इसलिए उन पर जब भी प्रहार हुआ उन्होंने दोहरी ताकत लगा कर फिर से कहा..

एक बार ऊपर गया जब से

और ज्यादा वजन उठाता हूं4

ऐसा नहीं है कि उनका यह रूप इकाइक ग़ज़ल में आ गया था, वह अपनी कविताओं में भी इस बेचैनी का इजहार कर चुके थे और ऐसी तमाम समस्याओं के सामने मजबूती के साथ खड़े थे..

अब मेरे कोमल व्यक्तित्व को

पहाड़ों ने कड़ा कर दिया है5

 

जाहिर है दुष्यंत की शायरी उस दौर की शायरी से अलग थी जो साकी, पैमाना, मैखाना के आगे नहीं बढ़ सकी थी-

दूर से आए थे साकी सुन के मैखाने को हम

बस तरसते ही चले अफसोस पैमाने को हम6

– नजीर अकबराबादी

यह अलग बात है कि उस समय भी फैज अहमद फैज और इंशा जैसे शायर अपने ग़ज़लों को जन समस्याओं की तरफ जोड़ चुके थे—

यह जो महंत बैठे हैं राधा के कुंड पर

अवतार बनके बैठे हैं परियों के झुंड पर7

-इंशा

तुम्हारी याद के जब जख्म भरने लगते हैं

किसी बहाने तुम्हें याद करने लगते हैं8

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

हिंदी में ग़ज़ल खुसरो, कबीर, भारतेंदु, निराला, त्रिलोचन, शमशेर से होते हुए दुष्यंत तक पहुंचती है.इस तरह हिंदी गजल अपना सफर तो तय करती है लेकिन उसकी फिक्र राज दरबारों और जमींदारों से आगे नहीं बढ़ पाती. रीतिकालीन साहित्य का उस पर जबरदस्त प्रभाव दिखलाई देता है. जहां यह या तो प्रणय निवेदन करती है या अपने आका की खुशामद में लगी रहती है. कुछ शेर देखने योग्य है-

दाग दिल पर यह रहेगा कि तेरे कूचे तक

थी रसा की ना रसाई मेरा जी जानता है9

भारतेंदु हरिश्चंद्र

क्या कहूं बात आंखों की इन्हें पर्दा नहीं आता

कहीं कुछ वेदना देखी के आंसू बह निकलता है

त्रिलोचन

लेकिन यह गजल जैसे ही हिंदी के समकालीन गजल कारों तक पहुंची उन्होंने अपनी फिक्र बदल ली उन्हें लगा दुनिया सिर्फ स्त्री से गप्पें लड़ाने का नाम नहीं है बल्कि इस जमाने में मोहब्बत के सिवा और भी गम हैं. हिंदी की प्रगतिवादी साहित्य की तरह ग़ज़ल रोजमर्रा की जरूरतों और जनसमस्याओं तक पहुंची, जहां आना इसके पहले मुमकिन न हो सका था. हिंदी ग़ज़ल की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि उसने समाज को अपना वर्ण्य विषय बनाया, और उससे पलायन कर शायरी नहीं की. कुछ शेर देखने योग्य हैं –

समय ने जब भी अंधेरों से दोस्ती की है

जला के अपना ही घर हमने रोशनी की है

नीरज

अरे दोस्त जिंदगी से ना इतना निराश हो

झूठी भी है नदी तो समझ रास्ता हुआ

सूर्य भानु गुप्त

मुझको देखा तो शैतान चिल्ला उठा

आदमी आदमी बाप रे आदमी

निरंकार देव सेवक

यह हमको नचाता है इशारों पर रात दिन

यारों हमारा पेट मदारी की तरह है

कुंवर बेचैन

गजल महल से निकलकर गांव तक गई. उसमें किसानों की फिक्र और दुनियादारी आई व्यवस्था के प्रति रोष उत्पन्न हुआ देखें कुछ शेर..

दिन निकलते ही रात के सपने

दाल रोटी में डूब जाते हैं

भवानी शंकर

मजूरी को गया होरी शहर में

उसी की बाट धनिया जोहती है

रामचरण राग

सोचता हूं मैं कि अच्छे वो ज़माने थे बहुत

गांव की चौपाल पर जब नाच गाने थे बहुत

मधुरेश

चाय बिस्कुट से नहीं करते बिदा

गांव में है मेजबानी आज भी

डॉ भावना

हिंदी ग़ज़ल के इस चिंतन का प्रभाव उर्दू शायरी में भी दिखलाई पड़ी और वह शेर जो शराब और शबाब को अपना विषय बना रहे थे वह भी जनता की जरूरतों और रोजमर्रा की तकलीफों से जुड़ गई

जिंदगी तू कब तलक दर-दर फिराएगी हमें

टूटा फूटा ही सही घर बार होना चाहिए

मुनव्वर राना

कोई बचने का नहीं सब का पता जानती है

किस तरफ आग लगाना है हवा जानती है

मंजर भोपाली

पलट कर फिर नहीं आ पाएंगे हम

वह देखे तो हमें आजाद करके

परवीन शाकिर

अपने होने का हम इस तरह पता देते थे

राख मुट्ठी में उठाते थे उड़ा देते थे

राहत इंदौरी

कोई किसी की तरफ है कोई किसी की तरफ

कहां है शहर में अब कोई आदमी की तरफ

निदा फ़ाज़ली

ऐसे ही बदले हुए हालात का वर्णन हिंदी गजल आरंभ से करती आई है. गांव समाज और देश की जैसी भी स्थितियां हो हिंदी गजल उसे पूरी ताकत के साथ उठाती है. यही कारण है कि समाज के हर तबके को लगता है कि हिंदी ग़ज़ल में उसी की बात उठाई गई है. उसकी अपनी संवेदना भी इस ग़ज़ल के साथ जुड़ जाती है. कुछ शेर देखे जा सकते हैं.

ये थकी भेड़ें कहां तक जाएंगी

गांव की सड़कें अभी भी गर्म है

अनिरुद्ध सिन्हा

उडी पुरखों की वो पगड़ी हवा में खानदानी भी

था खाली पेट पहले ही गई खेती किसानी भी

विनय मिश्र

रहज़नों की बस्ती में नेकियाँ नहीं मिलती

प्यार और शराफत की बोलियां नहीं मिलती

विकास

एक ज़रा सी दुनिया घर की

लेकिन चीज़ें दुनिया भर की

विज्ञान व्रत

ये कैसा दौर है जादूगरी का

मदारी को जमूरे बेचते हैं

ज़हीर कुरैशी

हम देखते हैं कि हिन्दी ग़ज़ल जब राजघराने को छोड़कर अपने ग़रीबखाने की तरफ लौटती है, तो उसका असर दूसरी भाषाओं की ग़ज़लों पर भी होता है, और वो ग़ज़लें भी अब इश्क़ मुश्क के चक्कर में सिर्फ नहीं पड़ती, बल्कि हालात के मुताबिक अपनेआप को ढाल लेती है.कुछ शेर मुलाहिजा हो..

मैं अपने आप को इतना समेट सकता हूं

कहीं भी क़ब्र बना दो मैं लेट सकता हूं

मुनव्वर राना

उनसे कह दो हमें खामोश ही रहने दें वसीम

लब पे आएगी तो हर बात गिरां गुज़रेगी

वसीम बरेलवी

मेरे बढ़ने से जल गए हो तुम

दोस्त कितने बदल गये हो तुम

उर्मिलेश

ये बनाया जायेगा अब देवताओं का नगर

और मारे जायेंगे वो लोग जो इंसान हैं 10

महेश्वर तिवारी

लौट आती है मेरे पास मेरी आवाज़े

बंद कमरे भी कई बार सज़ा देते हैं11

ज्ञानप्रकाश विवेक

 

कहना न होगा कि कविता की खूबसूरती का प्रश्न ग़ज़ल पर आकर हल होता है. हिन्दी ग़ज़ल के पास आज शायर भी है और उनके अपने आलोचक भी. ये अलग बात है कि हिन्दी कविता के आलोचक को ग़ज़ल वाली विधा पच नहीं रही है, पर वो ग़ज़ल से हटकर अपनी बात भी पूर्ण नहीं कर पा रहे. हिन्दी के कई समकालीन ग़ज़लकारों -ज़हीर कुरैशी, विनय मिश्र, विज्ञान व्रत, कुंवर बेचैन, उर्मिलेश, चन्द्रसेन विराट, अनिरुद्ध सिन्हा, मधुवेश, रामकुमार कृषक, हरेराम समीप इत्यादि ने हिन्दी ग़ज़ल को वहां लाकर खड़ा कर दिया है, जहां ये विधा समकालीन काव्य साहित्य में पूरी ताक़त के साथ ख़डी है.

संदर्भ ग्रंथ

1. दुष्यंत रचनावली भाग 1-पृष्ठ 57, संपादक -विजय बहादुर सिंह

2. साये में धूप, दुष्यंत कुमार, पृष्ठ 51

3. वही……पृष्ठ 51

4. वही….. पृष्ठ 49

5. जलते हुए वन का वसंत, दुष्यंत, पृष्ठ 90

6. उर्दू की बेहतरीन शायरी, प्रकाश पंडित, पृष्ठ 76

7. उर्दू भाषा और साहित्य, फिराक गोरखपुरी, पृष्ठ 54

8. फैज़ अहमद फैज़ और उनकी शायरी, प्रकाश पंडित, पृष्ठ 80

9. भारतेन्दु ग्रंथावली, भाग 2, ब्रजरत्न दास, पृष्ठ 220

10. आजकल, पृष्ठ 3जून 1990

11. दरवाज़े पर दस्तक, ज्ञानप्रकाश विवेक, पृष्ठ 20

*स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग

मिर्ज़ा ग़ालिब कॉलेज गया, बिहार

9934847941

 

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