साहित्य के समाजशास्त्र की दृष्टि से मार्क्सवाद की उपयोगिता
*रमन कुमार
साहित्य, समाजशास्त्र और मार्क्सवाद तीनों समाज में अपना स्वतंत्र रूप निर्धारित करते हैं, किन्तु यह भी एक सत्य है कि समाज के बिना साहित्य का और साहित्य के बिना समाज का वजूद नाम मात्र होगा। अब सवाल यह बनता है कि जब साहित्य और समाज दोनों अलग-अलग हैं तो साहित्य के समाजशास्त्र का क्या अर्थ बनता है? और यदि साहित्य और समाज दोनों एक दूसरे के पूरक हैं तो साहित्यिक समाजशास्त्र को साहित्य से अलग करके क्यों देखा जाए? इस विषय पर जिन विद्वानों ने अपनी लेखनी चलाई और विचार प्रस्तुत किए, उनके मतों से साहित्यिक समाजशास्त्र को समझने पर हम देखते हैं कि शुरुआत से ही साहित्य में समाजशास्त्रीय पद्धति विवादित तर्कों के साथ आगे बढ़ी और आज भी इस स्थिति में कुछ ज्यादा बदलाव देखने को नहीं मिलता। साहित्यिक विचारक इसे साहित्य की स्वतंत्र विधा मानते हैं तो समाजशास्त्री इसे समाजशास्त्र की शाखा मात्र समझते हैं। पी. फॉस्टर और सी. केनफोर्ड अपने एक लेख में साहित्यिक समाजशास्त्र को समाजशास्त्र का एक प्रकार मानते हुए लिखा हैं कि “आजकल साहित्य के समाजशास्त्र के नाम पर जो कुछ लिखा और पढ़ाया जा रहा है उसमे से अधिकांश साहित्यिक समाजशास्त्र है। उसे ऐसी साहित्यिक आलोचना कहना उचित होगा जो समाजशास्त्र के सामान्य ज्ञान के सहारे काम करती है। उसके मूल में सक्रिय समाजशास्त्री दृष्टि इतनी दुर्बल होती है कि उसके साहित्य विवेचन को समाजशास्त्रीय कहना कठिन है।”1
साहित्य में मार्क्सवाद किस प्रकार आया? साहित्य में इसे कैसे और क्यों स्वीकारा गया? आइए देखते हैं- हम सबको यह मत स्वीकार्य है कि समय परिवर्तनशील होता है। जैसे-जैसे समय परिवर्तित होता चलता है वैसे-वैसे समाज की विकास प्रक्रिया में बदलाव आता रहता है, लेकिन कई बार हमे यही परिवर्तन साहित्य में अचानक हुआ जान पड़ता है। लेकिन समय के साथ साहित्यिक विकास की प्रक्रिया निरंतर बढ़ती चलती है। शुरुआत में हिन्दी में साहित्य के नाम पर केवल कविता होती थी। क्योंकि उस समय साहित्य के अन्य रूप विकसित नहीं हुए थे, लेकिन आधुनिक काल में विभिन्न विधाओं का विकास होने के बाद यह धारणा नहीं रही। इसी विकसित धारणा का सदैव साहित्य से जुड़ाव रहा है। इस संदर्भ में डॉ. मैनेजर पाण्डेय लिखते हैं- “जातीय साहिय की धारणा और विश्व साहित्य की धारणा का विकास आधुनिक युग के सामाजिक विकास का परिणाम है।”2 जुलाई 1881 ई. में हिन्दी प्रदीप में बालकृष्ण भट्ट ने एक लेख लिखा जिसका शीर्षक ही था- “साहित्य जनसमूह के हृदय का विकास है।”3 उस समय इस लेख का शीर्षक ही तत्कालीन साहित्य की धारणा को व्याख्यायित करता प्रतीत होता है। आगे चले तो हम देखते हैं कि महावीर प्रसाद द्विवेदी का युग ज्ञान-विज्ञान के प्रसार का युग बना, तो उन्हें इस साहित्यिक धारणा को भावना तक सीमित ना रखते हुए लिखा कि- “ज्ञान राशि के संचित कोश का नाम साहित्य है।”4 लेकिन छायावादी युग की रचनाशीलता को “साहित्य जनसमूह के हृदय का विकास है” या “ज्ञान राशि के संचित कोश का नाम साहित्य है” कहकर सीमित रखना कठिन था। इसीलिए आचार्य शुक्ल को लिखना पड़ा- “साहित्य जनता की चितवृति का संचित प्रतिबिंब है।”5 वहीं साहित्य के संदर्भ में निर्मला जैन ‘साहित्य का समाजशास्त्रीय चिंतन’ में लिखती हैं कि- “साहित्य को एक हद तक अपने आप में बंद, आत्मनिर्भर रचना माना जाए तो बल मूलतः उसकी आंतरिक रचना पर होगा- यानि बिम्ब-विधान, चरित्रांकन, कथानक की द्वंद्वात्मकता, लय, भाषा आदि विचार पर।”6 साहित्य अपने भीतर समाज की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और धार्मिक आदि गतिविधियों एवं परिणामों को समाहित किए रहता है। यही तत्व साहित्य में समाजशास्त्रीय अध्ययन पद्धति को शोध के अंतिम बिन्दु तक लेकर जाते हैं।
उपर्रोक्त व्याख्याओं के अध्ययन के आधार पर हम कह सकते हैं कि साहित्य सामान्यतः विकासशील सामाजिक धारणा का एक रूप है जो समय के साथ परिवर्तित होती रहती है। इसके परिवर्तन का मूल केंद्र समाज है। चाहे वह जनसमूह के हृदय की बात करे या संचित ज्ञान राशि की बात करे या फिर जनता की चितवृतियों की। साहित्य और समाज आपस में सीधा संबंध रखते हैं। दोनों किसी साईकिल के टायरों की भांति एक साथ आगे बढ़ते हैं। यदि एक टायर खराब हो जाए तो दूसरा टायर भी ठीक तरह से नहीं चल सकता और टायरों के बिना साईकिल का अपना कोई अस्तित्व नहीं होगा। वह साईकिल ठीक तरह से तब तक आगे बढ़ती रहेगी जब तक साईकिल के दोनों टायर अबाध गति से सकुशल आगे बढ़ते रहेंगे। इसे हम इस प्रकार समझ सकते हैं कि सम्पूर्ण समाजकीय प्रक्रिया हमारा साईकिलनुमा ढांचा है तथा साहित्य और समाज उसके दोनों पहिये। हमारी समाजकीय प्रक्रिया समयानुरूप परिवर्तित और विकसित होती रहे, इसके लिए आवश्यक है साहित्य और समाज का एक साथ आगे बढ़ना। अतः समाज तभी आगे बढ़ेगा जब साहित्य का विकास होगा और साहित्य तभी आगे बढ़ेगा जब समाज का विकास होगा।
आगे चलकर साहित्य में समाजशास्त्रीय विवेचन प्रक्रिया बहस का मुद्दा बनी। इस बहस की मूल जड़ में साहित्य की स्वायतता और उसकी स्वतन्त्रता थी। यह बहस साहित्य के तत्त्ववादी, रूपवादी, अनुभववादी और मीमांसावादी दृष्टिकोण के आधार पर आगे बढ़ती है। रूपवादियों ने साहित्य में विभिन्न प्रकार की धारणाओं का निर्माण किया और वे उन धारणाओं के अनुरूप साहित्य की व्याख्या करने लगे। इन धारणाओं के आधार पर न तो साहित्य का इतिहास लिखा जा सकता है और न साहित्य के समाजशास्त्र को विश्लेषित किया जा सकता है। इस संदर्भ में अनुभववाद और मीमांसावाद के बारे में डॉ. मैनेजर पाण्डेय लिखते हैं- “अनुभववादी साहित्य के समाजशास्त्र के लिए पहले से बनी-बनाई किसी धारणा की जरूरत नहीं मानते, क्योंकि उनके अनुसार साहित्य की धारणा के पीछे मूल्य चेतना भी काम करती है जिसका वे विरोध करते हैं। अनुभववादी साहित्यिक कृति की अस्मिता को भी महत्वपूर्ण नहीं मानते। लेकिन मीमांसावादी समाजशास्त्री साहित्य की इस धारणा को जरूरी मानते हैं, उन्होंने साहित्य की ऐसी धारणा निर्मित की है जिससे समाज के साथ साहित्य के बहुस्तरीय संबंध की व्याख्या संभव होती है।”7 अनुभववादी विचारधारा साहित्य में सामाजिक स्थिति की विवेचना करती है और मीमांसावादी विचारधारा साहित्य में समाज की अभिव्यक्ति की खोज करती है। इसी मीमांसावादी विचारधारा के अंतर्गत मार्क्सवादी, संरचनावादी और आलोचनात्मक समाजशास्त्रीय दृष्टियां सक्रिय रूप में कार्य करती हैं। जेने उल्फ साहित्य के समाजशास्त्र के तीन पक्ष बताते हैं- कृति की व्याख्या, कृति में विचारधारा की पहचान और विचारधारा के सौंदर्यबोध का विवेचन। पिछले कई दशकों से साहित्य के समाजशास्त्र की महत्वपूर्ण विकास यात्रा साहित्य की मीमांसावादी दशा में हुई है। इसी साहित्यिक विकासशील प्रक्रिया में आगे चलकर मार्क्सवादी विचारधारा साहित्य में आती है।
साहित्य में मार्क्स का दर्शन द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद नाम से प्रसिद्ध है। इस भौतिकवाद को तीन तत्वों- अवस्थान (थीसिस), प्रत्यवस्थान (ऐन्टीथीसिस) और साम्यावस्था (सिनेथीसिस) के माध्यम से समझाने का प्रयास किया गया है। मार्क्स का मानना है कि इस जगत में प्रत्येक वस्तु में विरोधी तत्व विद्यमान रहते हैं और उनमें निरंतर द्वंद चलता रहता हैं। इस निरंतर द्वंद के चलते एक समय ऐसा आता है कि इन विरोधी तत्वों में संतुलन स्थापित हो जाता है- “अवस्थावान (थीसिस) अपने ही सन्नहित विरोधी तत्वों से द्वंद्व करता हुआ प्रत्यावस्थान (ऐन्टीथीसिस) में परिणत हो जाता है और आगे चलकर दोनों में संतुलन स्थापित हो जाता है, तो वह साम्यावस्था (सिन्थेसिस) की स्थिति में आ जाती है, किन्तु यह स्थिति अधिक समय तक नहीं रह पाती। विरोधी तत्त्व पुनः उद्भूत होते हैं, द्वंद्व चलने लगता है।”8 मार्क्स इसी प्रक्रिया को आधार बनाकर वर्तमान समय को व्याख्यायित करते हुए बताता है कि- “पूंजीवादी वर्ग प्रस्तुत अवस्थावान (थीसिस) है। सर्वहारा वर्ग प्रत्यवस्थावान (ऐन्टीथीसिस) है। इन दोनों का द्वंद्व अनिवार्य है। द्वंद्व के पश्चात साम्यवाद के रूप में साम्यावस्थान (सिन्थिसिस) की स्थिति आना अवश्यम्भावी है।”9 इसके अलावा साहित्य में वस्तु-जगत, जड़-जगत और विचार-जगत ये तीनों तत्त्व मार्क्सवादी चिंतन का हिस्सा है। वस्तु-जगत चरम सत्यता पर कायम है। चेतन-जगत का निर्माण जड़-जगत के दुख उत्पन्न होने के कारण होता है। मानव विचार भौतिक जगत के रूप में मानव मस्तिष्क में पड़े हुए प्रतिबिंब हैं।
मार्क्स की अवधारणा ईश्वर के अस्तित्व को और उसकी न्यायिक व्यवस्था को सिरे से नकारती है। मार्क्सानुसार ईश्वर न्याय का नहीं बल्कि मानव स्वार्थ का परिणाम है। इस प्रक्रिया को वे इस प्रकार समझाते हैं कि- “आरंभ में एक प्रकार कि साम्यवादी व्यवस्था थी जिसे ‘आदिम साम्यवाद’ कहा जा सकता है। इस ‘आदिम साम्यवाद’ की परिणति ‘दास प्रथा’, ‘दास प्रथा’ की परिणति ‘सामंतशाही’ और ‘सामंतशाही’ की परिणति आधुनिक पूंजीवाद में हुई।”10 इसी पूंजीवादी व्यवस्था के कारण समाज में दुर्व्यवस्था बढ़ती जा रही है। इस पूंजीवाद को समाप्त करने से ही साम्यवाद को फिर से स्थापित किया जा सकता है। इसके लिए शोषित वर्ग को शोषक वर्ग द्वारा किए गए अत्याचारों का एहसास करवाकर उसका स्वाभिमान जगाना होगा। यही स्वाभिमान पूंजीवाद को ध्वस्त कर साम्यवाद को स्थापित कर सकता है। इसके अलावा जो रचना शोषक या शाषक वर्ग की निंदा करते हुए शोषित वर्ग को न्याय दिलाने की बात करती है, मार्क्सवादी दृष्टि से ऐसी रचना ‘मानवतावादी’ होती है।
साहित्य में समाजशास्त्र और मार्क्सवादी अवधारणा का अपना-अपना महत्त्व है। कई मायनों में साहित्य में समाजशास्त्रीय अध्ययन पद्धति और मार्क्सवादी अवधारणा एक समान प्रतीत होती है किन्तु ऐसा नहीं है। साहित्य में समाजशास्त्रीय पद्धति समाज के आंतरिक-बाह्य सम्बन्धों की जीवन प्रक्रिया के मध्य विविध सामाजिक पक्षों को साहित्य के माध्यम से रूपायित करती है। समाजशास्त्री साहित्य को संस्थात्मक रूप में देखते हैं। जिस प्रकार सामाजिक संस्थाए अपने सदस्यों को दिशा-निर्देश देकर उन्हें सामाजिक मूल्यों और आदर्शों का पाठ पढ़ाती है ठीक वैसे ही साहित्यकार भी अपनी रचनाओं के माध्यम से व्यक्ति और समाज के बीच आपसी सम्बन्धों की स्थापना करने की कोशिश करते हैं। सामाजिक संस्थाएं सीधे व स्पष्ट रूप में बाते अपने सदस्यों तक पहुँचाती हैं, लेकिन साहित्यकार अपनी बाते बिम्बों, प्रतीकों, मिथकों, लोकोक्तियों और मुहावरों के माध्यम से पहुंचाता है।
समान्यतः कहा जा सकता है कि ‘साहित्य का समाजशास्त्र’ एक ऐसी साहित्यिक प्रक्रिया का नाम है जो परिवारवाद, क्षेत्रवाद को नकारते हुए समाज को अबाध गति से निरंतर आगे बढ़ाती चलती है। इसे उन सभी बंधनों से मुक्ति का घोषणा पत्र समझा जा सकता है जो आमजन की स्वतंत्रता और उनकी इच्छाओं को बांधने या दबाने का प्रयास करते हैं। अतः साहित्य का समाजशास्त्र पिछली दो-तीन सदियों पर पर प्रकाश डालते हुए वर्तमान समय की यथास्थिति को सुधारने की बात करता है। यह नई क्रांति का प्रतीक है। माना जाता है इसका जन्म ही क्रांति से हुआ था। 1776 की अमेरिका में उपनिवेशवाद के विरोध में हुई क्रांति,1789 की फ्रांसीसी क्रांति और अठारहवीं सदी के समय ब्रिटेन में हुई औद्योगिक क्रांति इसके उदाहरण हैं।
साहित्य में मार्क्सवादी अवधारणा एवं उसकी उपयोगिता पर बात करें तो हम देखते हैं कि मार्क्सवादी समीक्षा में साहित्यकार को एक सामाजिक प्राणी माना गया है। किन्तु साहित्यिक तत्त्वों और सामाजिक परिस्थितियों के आंतरिक एवं बाह्य सम्बन्धों की व्याख्या मार्क्सवादी जीवन दर्शन के आधार पर करती है। डॉ. रामचन्द्र तिवारी मार्क्सवादी समीक्षा को समाजशास्त्रीय समीक्षा की धारा मात्र समझते है। हिन्दी साहित्य में समाजशास्त्रीय संबंधी समीक्षा एवं विचार-विवेचन ‘आलोचना पत्रिका’ द्वारा विश्लेषित किए गए। उस समय यह बहस का मुद्दा बनकर उभरा था और आज भी यह बहस थमी नहीं है। साहित्य में इन बहसों की शुरुआत पश्चिमी साहित्य से होती हुई विश्वसाहित्य के रास्ते समाजशास्त्र पर आकर रुकती है। आजकल यहीं से खड़े होकर हिन्दी साहित्य का समाजशास्त्रीय अध्ययन किया जा रहा है, लेकिन हमें यह बात भी समझनी होगी कि साहित्य का समाजशास्त्र से गहरा संबंध रहा है। साहित्य के बिना समाज और समाज के बिना साहित्य व्यर्थ है। एक अच्छा साहित्य अच्छे समाज के निर्माण में काफी हद तक अपनी भूमिका अदा कर सकता है और एक अच्छा समाज एक अच्छे साहित्य को निर्मित कर सकता है। ये दोनों समाज में सांस और शरीर की भांति कार्य करते हैं। यह सत्य है कि साहित्यिक सामाजशास्त्रीय प्रक्रिया एवं समाजशास्त्र में बहुत हद तक समानताएं देखने को मिल सकती हैं। ये समानताएँ ठीक वैसी हैं जैसे किसी व्यक्ति के गुण-दोष किसी अन्य व्यक्ति में देखने को मिल जाते हैं लेकिन ऐसा जरूरी नहीं है कि उनका कोई आपसी संबंध हो।
अंततः कहा जा सकता है कि साहित्यिक समाजशास्त्रीय अध्ययन प्रक्रिया को समाजशास्त्र की एक शाखा माना जा सकता है, क्योंकि रचनाकार भी प्रकारान्तर से सजग समाजशास्त्री ही होता है। यह बात अलग है कि इन दोनों में दृष्टिकोण, सौंदर्यबोध, विचारधारा और यथास्थिति के खंडन-मंडन में भेद-विभेद देखने को मिल जाता है। इस विषय की जटिलता को समझने के लिए श्रीराम मेहरोत्रा कृत ‘साहित्य का समाजशास्त्र’, डॉ. बच्चन सिंह कृत ‘साहित्य का समाजशास्त्र और रूपवाद’ तथा डॉ. नगेन्द्र कृत ‘साहित्य का समाजशास्त्र’, एंथनी गिडेन्स कृत ‘समाजशास्त्र का आलोचनात्मक परिचय’ आदि पुस्तके उल्लेखनीय हैं, लेकिन इन पुस्तकों के आधार पर समाजशास्त्रीय दृष्टि से साहित्यिक रचनाओं का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। मूल्यांकन की दृष्टि से यह सामग्री पर्याप्त नहीं है। इसे अभी और अधिक विकसित करने की आवश्यकता है।
संदर्भ सूची
1. पाण्डेय, ड. म. (2006). साहित्य के समाजशास्त्र कि भूमिका. पंचकूला: हरियाणा साहित्य अकादमी. पृ. स.4
2. पाण्डेय, ड. म. (2006). साहित्य के समाजशास्त्र कि भूमिका. पंचकूला: हरियाणा साहित्य अकादमी. पृ. स.7
3. पाण्डेय, ड. म. (2006). साहित्य के समाजशास्त्र कि भूमिका. पंचकूला: हरियाणा साहित्य अकादमी. पृ. स.7
4. पाण्डेय, ड. म. (2006). साहित्य के समाजशास्त्र कि भूमिका. पंचकूला: हरियाणा साहित्य अकादमी. पृ. स.8
5. पाण्डेय, ड. म. (2006). साहित्य के समाजशास्त्र कि भूमिका. पंचकूला: हरियाणा साहित्य अकादमी. पृ. स.8
6. जैन, न. (1986). साहित्य का समाजशास्त्रीय चिंतन. दिल्ली: हिन्दी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय. पृ.स.2
7. पाण्डेय, ड. म. (2006). साहित्य के समाजशास्त्र कि भूमिका. पंचकूला: हरियाणा साहित्य अकादमी. पृ. स.9
8. तिवारी, ड. र. (2016). हिन्दी का गद्य-साहित्य . वाराणसी : विश्वविद्यालय प्रकाशन पृ.स.134
9. तिवारी, ड. र. (2016). हिन्दी का गद्य-साहित्य . वाराणसी : विश्वविद्यालय प्रकाशन . पृ.स.134
10. तिवारी, ड. र. (2016). हिन्दी का गद्य-साहित्य . वाराणसी : विश्वविद्यालय प्रकाशन . पृ.स.134
अन्य पुस्तकें
1. यशपाल. (2018). मार्क्सवाद. इलाहाबाद: लोकभारती प्रकाशन .
2. सांकृत्यायन, र. (2020). कार्ल मार्क्स . नई दिल्ली: किताब घर पब्लिशर्स.
3. सिंह, ब. (2007). साहित्य का समाजशास्त्र. इलाहाबाद : लोकभारती.
4. गिडेन्स, ए. (2008). समाजशास्त्र का आलोचनात्मक परिचय. नई दिल्ली: ग्रंथ शिल्पी.
*पीएच.डी शोधार्थी, हिंदी
अम्बेडकर विश्वविद्यालय दिल्ली
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