इक्कीसवीं सदी में सांस्कृतिक विस्थापन और समकालीन हिंदी उपन्यास-

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इक्कीसवीं सदी में सांस्कृतिक विस्थापन और समकालीन हिंदी उपन्यास

मो. साजिद हुसैन

शोधार्थी, हिन्दी विभाग

जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली

8506971742

readsajid@gmail.com

इक्कीसवीं शताब्दी वैज्ञानिक प्रगति, तकनिकी विकास और उत्तर औद्योगीकरण का समय है। यह वह समय है जहां वैचारिक जगत और जीवन पद्धति में अभूतपूर्व परिवर्तन देखने को मिलता है। यह भूमंडलीकरण का उत्तर समय है। प्रौद्योगिकी और तकनीक की अभूतपूर्व प्रगति, सूचना-क्रांति का तीव्र विस्फोट, कंप्यूटर और मोबाइल के क्षेत्र में अपूर्व क्रांतिकारी परिवर्तन ने सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक परिवेश को गहरे प्रभावित किया है। बाजारवाद और उपभोक्तावाद की संस्कृति का विकास हुआ जिसने मानवीय मूल्यों से विलगाव की स्थिति उत्पन्न कर दी। मनुष्य की जगह वस्तु केंद्र में आ गया। आधुनिकता के नाम पर पाश्चात्य मूल्यों का अंधानुकरण जीवन और मूल्यों में विकृतियाँ पैदा कर रही हैं। नए युग और नए स्वप्नों के साकार करने नाम पर पूँजीवाद के जटिल व्यवस्था ने सांस्कृतिक साम्राज्यवाद की स्थिति उत्पन्न की जिसने सांस्कृतिक विस्थापन को बढ़ावा दिया

सूचना और प्रौद्योगिकी के विकास ने समूचे विश्व को भौगोलिक स्तर पर संकुचित कर दिया। विश्व के सभी देश आपस में जुड़ गये जिससे न केवल पूँजी का प्रवाह और आवागमन संभव हुआ बल्कि विभिन्न देशों की संस्कृतियों का संमेलन भी हुआ। इस सांस्कृतिक परिवेश में व्यक्ति का जीवन यांत्रिक बनता जा रहा है। वैभव, बाजार और लालसा के दौड़ ने व्यक्ति को आत्मनिर्वासन की ओर प्रवृत्त किया है। इस असीम लालसा और बाज़ार पोषित महत्वाकांक्षा ने व्यक्ति के मानस में एक भौतिकता को आवश्यकता के रूप में स्थापित कर दी है। इस स्थापना से व्यक्ति की मानवीय संवेदनाएं लगातार क्षीण होती जा रही है। बड़ी संख्या में लोग अपनी लालसा को पूरा करने के उद्देश्य से गांव से शहरों की तरफ विस्थापित हो रहे हैं। शहर की ओर यह विस्थापन मात्र व्यक्ति का नहीं होता बल्कि अपने परिवार, गांव और समाज से भी होता है। इस क्रम में व्यक्तिक और भावनात्मक लगाव से भी विस्थापन होता जाता है। जो उसमें सामुदायिकता और परिवार से संबंध बनाए रखने के लिए आवश्यक प्रेम और स्नेह है वह भी लगातार छीजता चला जाता है। साथ ही व्यक्ति खुद लालसा के दौर में अंततः अकेलेपन का शिकार होने लगता है। एक अलगाव, उदासीनता और तनाव व्यक्ति को लगातार घेरे रहती है। वह यंत्रवत जीवन, भावशून्य जीवन जीने को विवश होता है। हमारे परस्पर प्रेम और सद्भाव कम से कम पर होते जाते हैं वस्तु ज्यादा महत्वपूर्ण होता जाता है।

इक्कीसवीं सदी में वर्चस्ववादी संस्कृति के प्रभाव के बढ़ने के साथ व्यक्ति लगातार अपनी सांस्कृतिक जड़ों से कटता जा रहा है। जिस सामुदायिक एकजुटता से सामाजिकता और नैतिकता जैसे मूल्य संवर्धित हो रहे थे, वह क्षीण होता जा रहा है। अपनी परंपराओं और सामजिक संबंधों से अलगाव होता जा रहा है। इसकी हमें भनक तक नहीं लगती। यह दरअसल अमानवीयता की ओर प्रस्थान है। जहां हम सब से कटकर अलग नितांत अकेलेपन की तरफ निर्वासित होते जा रहे हैं और उपभोग द्वारा उस उत्पन्न शून्यता को पूरा करने की व्यर्थ कोशिश करने लगते हैं। फलस्वरूप सांस्कृतिक विस्थापन की प्रक्रिया आरम्भ होने लगती है । यह विस्थापन अपने भीतर या बाहर आस-पास की चीजों में परिलक्षित होता है। हमे इस विस्थापन का आभास भी नहीं होता लेकिन यह घट रहा होता है। सतत। दरअसल यह प्रक्रिया धीमी गति से किन्तु सतत रूप से प्रसारित होती रहती है। पुरानी चीजे धीरे-धीरे नई चीजों द्वारा विस्थापित की जा रही होती है। यह विस्थापन विचार, मान्यता, व्यवस्था, परंपरा, शब्द, भाषा, वस्तु आदि कई स्तरों पर घटित होती हैं। हमारी निगाह से वह ओझल होती जाती हैं। बहुत बार मनुष्य उन्हें खुद अपदस्थ कर रहा होता है। वस्तुओं का विस्थापन मनुष्य जनित होता है। मशीनीकरण और सुविधाओं के बाज़ार ने ऐसी ही बहुत सारी वस्तुओं को विस्थापित किया। देसी आम, सिल लोढा, बरतन, लालटेन, सिकहर आदि ऐसी ही वस्तुएं हैं जो अब नज़र से ओझल कर दी गयीं हैं। इनका ग़ायब होना नैसर्गिक मान लिया गया है। लेकिन ऐसा नहीं है । “वे गायब नहीं हुई हैं।..वे अपनी जगह से धकेल दी गयी हैं।..ये देसी आम, ये बरतन, ढिबरी, लालटेन, ये सिकहर, ये सिल-लोढ़ा, ये सब इसी भारत देश में हैं पर अपनी जगह से धक्का दे दिए गए हैं। ये ऐसे अँधेरे में गिर गये हैं कि तुम लोगों को दिखाई नहीं देते। पर ये हैं”।1 यह अन्धेरा बाज़ार की जगमगाहट ने पैदा किया है। बाजारवाद ने अपनी चकाचौंध से व्यक्ति को आकर्षित किया है। इस आकर्षण में उसे बर्तन नहीं ‘क्रॉकरी’ दिखता है। लालटेन की जगह इलेक्ट्रिक लैंप, फानूस दिखता है। ‘सिल-लोढ़ा’ की जगह ‘मिक्सर-ग्राइंडर’ दिखता है। आधुनिकता के लैंप में आज बाज़ार ही प्रकाशित दिखता है। बाकी जगह अन्धेरा पसरता जा रहा है। इन वस्तुओं का गायब होना बाज़ार का ज्यादा प्रकाशमान होते जाना है। विकास और रफ़्तार की निर्जीव चमक ही अब ध्यानाकर्षण का विषय बन गया है।

21 वी सदी का हिंदी उपन्यास इस वर्चस्वादी संस्कृति के इस प्रकरण को सूक्ष्मता से चित्रित करती है। अपने करह चिंतन में वस् इस सांस्कृतिक विस्थापन को प्रमुखता से जगह देता है। यह विस्थापन व्यक्ति को उसकी संस्कृति और परंपरा की जड़ों से काट देती है। यह काट कर अलग करने की प्रक्रिया ही है जो समाज में असहाय ‘रघुनाथ मास्टर’ की संख्या बढ़ती जा रही है। ‘रघुनाथ मास्टर’ इस नियती को समझते हैं। वे इस सम्रयावादी आक्रमण को समझते हैं। यही कारण है कि किसी भी कीमत पर अपनी पैतृक जमीन बेचने के लिए राजी नहीं होते। लेकिन वही पत्रिक जमीन बाजार के मोहासक्त और विज्ञापन की बताई जीवन-शैली को ही श्रेष्ठ मानने वाले पीढ़ी के रूप में पुत्र के लिए वह मात्र एक जमीन का टुकड़ा भर है। इस भोगवादी संस्कृति का हिस्सा होने के नाते उनके बेटे की राय बिलकुल उनसे अलग है। इसीलिए वह साफ़ कहते हैं “क्यों मरे जा रहे हैं जमीन के लिए को लेकर। छोड़िए उसे”। लेकिन इस बात पर रघुनाथ मास्टर का उत्तर है “जाने कहां से इतने नालायक और निकम्मा लड़के पैदा हो गए-साले। पिछले जन्म के पाप। इस जमीन ने तुम्हारे आजा को खिलाया। तुम्हारे दादा-परदादा को खिलाया। यही नहीं तुम्हारे बेटों और नाती-पोतों को भी खिलायेगी। तुम करोड़ों कमाओगे लेकिन रुपया-डॉलर नहीं खाओगे। भगवान ना करे वह दिन आए जब बैंक चावल, दाल के लिए लोन बांटे। साले तुम लोग बड़े हुए हो अपनी मां का दूध पीकर और तुम्हारी मां की महतारी है यह जमीन और बोलते हो..छोड़िए उसे।2 बाजार की शरण में आ चुकी पीढ़ी के लिए वह जमीन एक टुकड़ा भर है। वह जानता है कि वह मॉल से अनाज खरीद लेगा। लेकिन रघुनाथ जानते हैं कि यह धरती ही अनाज देगी। अन्न यहीं से उपजेगा और न जाने कितनी पीढ़ी से यह परिवार का पोषण कर रही है। और इसे मात्र जमीन मानकर कर छोड़ दें। रघुनाथ मास्टर के लिए अपनी जमीन छोड़ना अपनी परंपरा और संस्कृति को छोड़कर बिना जड़ के आगे बढ़ने जैसा है। उसे अपने सांस्कृतिक जड़ों से लगाव और उसकी अपनी व्यक्तिक और सामुदायिक पहचान और उसके खत्म होने की भरपाई ना होने का आभास है। उसके लिए अपने लगाव, संबंध और परंपरागत सांस्कृतिक संबंध को छोड़ना आत्मनिर्वासन से गुजरने जैसा है। यह वही वर्चस्ववादी सांस्कृतिक हस्तक्षेप है जिसमें मानवीय संबंध और सरोकार क्षीण होते जा रहे हैं। आत्मीयता का क्षरण होता जा रहा है।

विज्ञान और प्रौद्योगिकीय विकास ने इस यांत्रिकता को और बढ़ाया है। जिसने आपसी संबंधों को बदल कर रख दिया है। बदलते समय में मनुष्य के रिश्ते भी तेजी से बदले और जटिल हुए हैं। इन सब के पीछे सांस्कृतिक विस्थापन अवश्यंभावी होता जा रहा है। एक समूची स्थानीयता पूँजी के कुचक्र का शिकार होती जाने को अभिशप्त है। अपनी विस्तार वादी नीति के तहत अधिग्रहण की आड़ में पूरी की पूरी जनजातीय चिन्ह को खत्म करने में भी संकोच नहीं करती है। इस प्रक्रिया में एक पूरी संस्कृति के विलोपन का खतरा पैदा हो जाता है। “आरा से तीन किलोमीटर दूर बकरी गांव बकासुर द्वारा बसाया कहा जाता है और इसी प्रकार गया को गयासुर नामक असुर द्वारा बसाया बताया जाता है। इस प्रकार पूरे देश में असुर संस्कृति के चिन्ह मिलते हैं। इन्हें खदेड़ कर सीमान्त क्षेत्र में पहुंचा दिया गया। लेखक की चिंता यह है कि ‘ग्लोबल गांव के देवता’ बहुराष्ट्रीय कंपनियां पूरी तरह यहां से भी खदेड़ देना चाहती है। यहां से उजड़कर अब ये कहां जाएंगे। सैंतीस गांवों में बसे हजारों परिवार आखिर कहां जाएंगे”।3 इस प्रक्रिया में विस्थापित होते हुए परिवारों के साथ उनकी साझी संस्कृति, साझी जमीन और साझी विरासत के लोप का खतरा भी बढ़ता जा रहा है। यह मात्र किसी वस्तु, व्यक्ति या परिवार का विस्थापन नहीं होता बल्कि उसके साथ विस्थापित होती है- “श्रम रस से डूबते, उभरते सरहुल, हरिअरी सोहराय, सडसि-कुटासी पर्व त्योहारों में, अखरा में जदुरा,झूमर कर नाचते, अपने बैगा-पुजार-पाहन के साथ सामुदायिक जीवन” का भी विस्थापन है।4 समूची लोक संस्कृति, तीज-त्यौहार, लोकगीत, खान-पान, रहन-सहन, भाषा आदि के विस्थापन का संकट इस सांस्कृति साम्राज्यवाद का सबसे व्यापक संकट है। शहरी और नगरीय या कस्बाई संस्कृति का लगातार बढ़ता हुआ संकट सांस्कृतिक विविधता को खत्म करता है।

विज्ञापन और बाजार के पहुंच गांव तक हो गई है। वहां की गवई संस्कृति, गावपन को भी वैश्विक संस्कृति के तर्ज पर तैयार किया जा रहा है। अपसंस्कृति का प्रसार, उपभोक्तावाद की बढ़ती सनक, फास्ट-फूड का बढ़ता प्रचलन, फास्ट सक्सेस की लालसा, और उसके लिए शोर्टकट, उपभोग की बढ़ती प्रवृति सांस्कृतिक मूल्यों को प्रभावित कर रहा है। यही वजह है कि ‘रतन’ जैसे गांव में रहने वाले युवा के आदर्श भी विज्ञापन द्वारा बनाए गए प्रतिमान ही बनाने लगे हैं – ‘फिल्मी हीरो या फिर अंबानी जैसा कोई उद्योगपति’। ‘दस बरस का भंवर’ का पात्र रतन उसी नई पौध का प्रतिनिधित्व करता है। गांव तक में यह पात्र देखने को मिल जाता है। मनोचिकित्सक डॉक्टर ‘पांडे’ इस बढ़ते सांस्कृतिक परिदृश्य में रतन जैसे युवाओं की स्थिति को सही ही बताते हैं कि “रतन अपनी पीढ़ी का नौजवान है। वह जल्दी में है। उसे फास्ट फूड की तरफ फास्ट सक्सेस चाहिए। वह इंतजार नहीं कर सकता। वह सीधा पहले नंबर की सीढ़ी पर उछल जाना चाहता है।.. नौकरी छोड़कर वह अंबानी और आमिर के सपने देखता है”।5 डॉक्टर पांडे बाजार के इस प्रभाव को जानते हैं। उनका यह कहना भी कि इस ‘प्रभाव से उन्हें बचा पाना मुश्किल है’ उपभोग की उस संस्कृति की व्यापकता और प्रभाव को दर्शाता है। इसीलिए वह कहते हैं “लेकिन अब बाजार बहुत जुझारू होता जा रहा है। इन लड़कों को बचाना मुश्किल होगा।..बाजार इन्हें भड़काता है”।6 यह भौतिकवादी दृष्टि, उपभोक्तावाद, बाजार, बाजार की ब्रांडिड संस्कृति ही है जो उन्हें क्रेज़ी बना रहा है। विज्ञापन की विकसित होती संस्कृति ही है जो व्यक्ति को उसकी वास्तविकता से विस्थापित सम्मोहक सपने दिखाकर अपने बाजार के चकाचौंध मे मतिभ्रम की स्थिति पैदा करती है।

यह विस्थापन लगातार जारी है। यह मात्र ‘ब्रेन-ड्रेन’ नहीं बल्कि ‘संस्कृति का ड्रेन’ भी है। इस सांस्कृतिक विस्थापन की गति तेजी से बढ़ रही है जो स्थानीय संस्कृति को गहरे प्रभावित कर रही है। हम तेजी से एकल संस्कृति की तरफ बढ़ते जा रहे हैं। समूचा जीवन परिवेश तेजी से बदलता जा रहा है। होना यह चाहिए था कि सांस्कृतिक विविधता के साथ पूरे विश्व को पहचान मिलती। “लेकिन पूरा विश्व एकल संस्कृति, अमेरिकी संस्कृति में ढलता जा रहा है। इसे एक उदाहरण से स्पष्ट किया जा सकता है। किसी भी देश में चले जाइए, उनकी राजधानियों, महानगरों का जो विकास हुआ है वह सब जगह एक सा ही दिखाई देता है। चौड़ी-चौड़ी सड़कों के साथ खड़े माचिस की डिब्बी नुमा बहुमंजिला अपार्टमेंट्स, आकाशचुंबी एक सी ईमारतें, एक से मॉल और यहां तक कि सब मॉलों में लगभग एक जैसे ब्रांडों का माल, प्रसाधन सामग्री हो, हाथ में लटकाने वाले पर्स हो, इत्र-परफ्यूम हो, सब जगह उनही प्रसिद्ध ब्राण्डों के उत्पाद की भरमार रहती है। पूरी दुनिया के बाजार, मॉल इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पादों से भरे हुए हैं”।7 यानी पूरे विश्व में इन कंपनियों का अप्रत्यक्ष नियंत्रण स्थापित होता जा रहा है। इसकी पहुंच का ही परिणाम है कि उन आयातित बाजारवादी संस्कृति से अपनी निजता, सांस्कृतिक मूल्यों, परंपरिकता के स्वरूप लगातार विस्थापित होते जा रहे हैं। इस प्रक्रम में उत्पन्न जटिलताएं मानवीय मूल्यों को भी विस्थापित करती हैं। इन स्थितियों ने ‘गायब होता देश’ जैसी स्थितियों को बढ़ाया है। वर्चस्व की यह संस्कृति आदिवासियों को अपने कथित विकास की भेंट चढ़ाता है। इस संदर्भ में एक समूचा समाज विस्थापन का शिकार होता जाता है। आदिवासी जीवन-दर्शन और संस्कृति आज बड़े पैमाने पर विलुप्ति के कगार पर है। ‘सरना वनस्पति जगत गायब हुआ, मरांग-बुरु बोंगा, पहाड़ देवता गायब हुए, गीत गाने वाली, धीमे बहने वाली, सोने की चमक वाली, हीरो से भरी सारी नदियां जिनमें ईकिर बोंगा जल देवता का वास था, गायब हो गई। मुंडाओं की बेटे-बेटियां भी गायब होने शुरू हो गए। ‘सोना, लेकन, दिसुम’ गायब होने वाले देश में तब्दील हो गए’। यह ‘गायब होता देश’ दरअसल सांस्कृतिक साम्राज्यवाद द्वारा विस्थापन की संस्कृति का ही परिणाम है। अब जीवन का कोई हिस्सा नहीं है जहां इस संस्कृति का हस्तक्षेप नहीं है। बाजार की व्यापकता के साथ इसके सांस्कृतिक मूल्य स्वयं स्थापित होते जाते हैं और हमें पता भी नहीं चलता। लेकिन विस्थापन की प्रक्रिया सतत रूप से जारी रहती है। 21वीं सदी में इसकी पहुंच लगातार बढ़ी है। काशीनाथ सिंह बाजार की पहुंच को अपने उपन्यास ‘काशी का अस्सी’ में लोक संस्कृति के विस्थापन को सूक्षमता से विश्लेषित करते हैं। बाजार के प्रसार, उसकी पहुंच को स्वीकारते हुए वह लिखते हैं “बाजार वह नही है जो सड़क पर है, दुकान में है, नुक्कड़ में है, शोकेस में है। बाजार वह है जो तुम्हारे दरवाजे पर है, पोर्टिको में है, ड्राइंग रूम में है, बेडरूम में अलमारी में है, किचन में है, टॉयलेट में है और यहीं क्यों तुम्हारे बदन पर है, सिर पर बालों से लेकर पैर के नाखून तक है। ऐसा कि जो तुम्हारे घर जाए या तुम्हें देखे, उसके लार टपकने लगे। उसके नींद और उसका चैन छिन जाए, तड़प उठे कि वह चीज जो तुम्हारे पास है, उसके पास क्यों नहीं है, उसके पास सुबह नहीं तो शाम तक आ ही जाए और जब तक ना आ जाए तब तक न खाना अच्छा लगे, न पीना, न जीना”।8 21वीं सदी में बाजारवादी संस्कृति के प्रसार और उससे उत्प्रेरित सनक ही है जो ‘पण्यीकरण’ और ‘ब्रांड संस्कृति’ को एक आवश्यकता के रूप में स्थापित कर दिया है। भले ही इसकी कीमत परंपरागत मूल्यहीनता हो या विस्थापित होती जीवन और संस्कृति।

बाजारवाद की आड़ में आधुनिकीकरण, यांत्रिकता, और उपभोगवाद सहज जीवन पद्धति को क्षरित कर रहा है। मूल्यों के ह्रास से संस्कृति के विरूपीकरण की स्थिति जन्म लेती है। 21वीं सदी का हिंदी उपन्यास इन पूरे प्रकरण पर अपनी पैनी नजर रखता है और उसे सूक्षमता से अपनी कथा चेतना में जगह देता है।

कथाकार का यह कहना कि ‘अस्सी यहां से उठा के ज्यों का त्यों उठाकर कहीं और ले जाया गया है उन गुरुओं समेत। अब यह मोहल्ला नहीं, म्यूजियम है’। मोहल्ले का म्यूजियम में तब्दील होते जाने की कारुणिक परंपरागत परिवर्तन को बताता है। हमारी संस्कृति अब अंश मात्र में बचे धरोहर की तरह बाज़ार द्वारा अलग हटा कर सजा दी गई है। हमारे मूल्य शनैः-शनैः बाजार में घुलते जा रहे हैं। अस्सी चौराहा का ‘तुलसी नगर’ में बदलते जाना, वहां के हँसी-ठहाकों का खत्म होते जाना, इसी बात की ओर इशारा करता है।

अलका सरावगी का उपन्यास ‘एक ब्रेक के बाद’ इन सांस्कृतिक स्थितियों को और अधिक विस्तार और गहराई से स्पष्ट करता है। वह स्पष्ट देखती हैं कि अभी जिस संस्कृति को बढ़ावा मिल रहा है, वहां जमाना “दिल मांगे मोर का है। बस्तर के गांव में अपनी झोपड़ी में बैठकर आदिवासी टीवी पर वाशिंग मशीन में कपड़े धोते देख रहा है और डबल डोर फ्रिज में जाने कब से ताजी लौकी, टमाटर की गाथा सुन रहा है। इस देश की एक अरब जनता अब एक साथ सपने देख रही है। फर्क यही है कि किसी के सपने छोटे तो किसी के सपने ज्यादा बड़े हैं”।9 इस संस्कृति ने सपने दिखाने और उसे कैश कराने की अद्भुत क्षमता विकसित कर ली है। सपनों की वजह से ही बाज़ार आज किसी न किसी रूप में हमारे दैनिक जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा लगता है। यह हमें नियंत्रित करने लगा है। उसकी जटिलताओं और प्रभाव की चिंता उसे बिल्कुल भी नहीं है। इस उपभोक्तावादी संस्कृति ने वास्तविकता की अपेक्षा विलासिता के सपने बुनने और उसे पूरा करने के लिए रातो-रात करोड़पति बनने के लिए उकसाता है। वह भी सब कुछ दांव पर लगा कर। इन विज्ञापनी महत्वाकांक्षाओं ने ‘शिजोफ्रेनिया’ की स्थिति पैदा की है। जिसका अंत अवसाद और कुंठा की आजीवन वेदाना से होती है। ‘रतन’ की संख्या अपने आदर्श और बाजारवादी सपनों के कारण लगातार बढ़ती जा रही है। इस स्थिति के करण ही आत्मनिर्वासन जैसी स्थिति पैदा होती है।

विस्थापन से उपजे रूपांतरण की इस प्रक्रिया में सांस्कृतिक परिवेश का विस्थापन होता जता है। इसके जरिये मनुष्य से उसके सामाजिक संबंध का विस्थापन, भावनात्मक लगाव का विस्थापन होता जाता है। यह उपभोक्तावाद का वही उपक्रम है जिसमें मनुष्य के भावनात्मक संवेदनाओं को समाप्त कर बाजारवादी मूल्यों को स्थापित किया जा रहा है। पूंजीवादी तंत्र यह जानता है कि जब तक व्यक्ति से इन भावनात्मक लगाव और यादों को समाप्त नहीं किया जायेगा तब तक बाजारवाद की संस्कृति को जगह नहीं मिलेगी। इसीलिए वह अपने विभिन्न उपक्रमों द्वारा इस विस्थापन की कोशिश को अंजाम दे रहा है। इस आत्मनिर्वासन से उपजा यह असह्य अकेलापन इतना कचोटता है, इतना भयानक है कि ‘किसी को अपना हाल कह न सको’। सभी इस वैश्विक पटल पर छाई उपभोक्तावादी संस्कृति के इस वैश्वीकृत संसार के समक्ष स्वयं को निहायत कमज़ोर असहाय और भोंथरा महसूस करते है। स्थापित मूल्यों ने विस्थापन को और भयावह बना दिया। व्यक्ति स्वयं से निर्वासित होकर पूर्ण प्रवास की ओर प्रेरित होता है। उसके अंदर ऐसा ध्वंस होता है जिससे सबकुछ तहस-नहस हो जाता है। अंदरूनी दुनिया का इलाका खंडहर में तब्दील हो जाता है। ऐसा खंडहर जिसकी बुनियाद पर कोई सृजन संभव नहीं हो सकता। यह इस समय की सबसे बड़ी त्रासदी है। बाजारवाद उस त्रासदी का जनक है। समकालीन हिन्दी उपन्यास इस सांस्कृतिक विस्थापन और उसकी त्रासदी को सूक्षमता से चित्रित कर सचेत और स्वस्थ्य दृष्टि से भौतिकवाद की टूलना में मानवीयता के प्रति भावनात्मक संवेदनशीलता को एक पूंजी के रूप में अभिव्यक्त करता है ।

संदर्भ :

  1. अखिलेश, (2016), निर्वासन, दिल्ली, राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ सं. 44,
  2. सिंह, काशीनाथ, (2008), रेहन पर रग्घू, दिल्ली, राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ सं. 85
  3. सिंह,पुष्पपाल, (2015), 21वीं सदी का हिंदी उपन्यास, दिल्ली, राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ सं.367
  4. रणेंद्र, (2010), ग्लोबल गाँव के देवता, दिल्ली, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, पृष्ठ सं.61
  5. वर्मा, रवींद्र, (2007), दस बरस का भंवर, दिल्ली, राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ सं.76
  6. वही, पृष्ठ सं.77
  7. सिंह,पुष्पपाल, (2015), 21वीं सदी का हिंदी उपन्यास, दिल्ली, राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ सं.19

दिल्ली, राजकमल प्रकाशन

  1. सिंह, काशीनाथ, (2003), काशी का अस्सी, दिल्ली, राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ सं.142
  2. सरावगी, अलका, (2008) एक ब्रेक के बाद, दिल्ली, राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ सं.11

 

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