‘निर्मला जैन की आत्‍मकथा में चित्रित तत्‍कालीन समय और समाज’’-अंजू सिंह

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‘निर्मला जैन की आत्‍मकथा में चित्रित तत्‍कालीन समय और समाज’’

अंजू सिंह

बर्द्धमान विश्‍वविद्यालय 56/सी अब्‍दुल जब्‍बर रोड

कांचड़ापाड़ा उत्तर 24 परगनापिन : 743145ई-मेल- anjukpa3@gmail.com

(शोधसार : ‘जमाने में हम’ हिंदी की महिला आलोचक निर्मला जैन की आत्‍मकथा है। इसका प्रकाशन 2015 में हुआ। इस आत्‍मकथा के माध्‍यम से साहित्‍यकार ने पाठकों के समक्ष साहित्‍य के बौद्धिक वर्ग की एक ऐसी अकथ कहानी प्रस्‍तुत की है, जो आज़ादी के बाद हिंदी साहित्‍य की समीक्षा बन गयी है। यह आत्‍मकथा इतनी विविधता, सृजनात्‍मकता, विस्‍तार और गहराई लिए हुए है कि इसकी रोशनी में साहित्‍य, समाज की अवधारणा, भ्रम, प्रश्‍न, दशा, दिशा और उसकी चुनौतियों को सहजता को समझा जा सकता है। ‘जमाने में हम’ अपने शीर्षक को बहुत हद तक सार्थक करती है क्‍योंकि यह केवल निर्मला जी के जीवन की ही कहानी नहीं बल्कि दिल्‍ली की कहानी है। विश्‍वविद्यालय की कहानी है। साहित्‍यकारों की कहानी, छायावाद, प्रयोगवाद, नई कविता, राजनीतिक उठापटक की समक्ष पैदा करने में हमारी मदद करती है। आत्‍मकथा कुछ अन सुलझे प्रश्‍नों का भी समाधान करती है, जैसे- समीक्षात्‍मक लेखन क्‍यों बंद हो गया? काव्‍य शास्‍त्र की दिशा में लेखन क्‍यों बंद हो गया? क्‍यों सिर्फ निजी पुस्‍तकालय संस्‍करण निकले लगे? बाद की पीढ़ी साहित्‍य के प्रति संवेदनहीन क्‍यों हो गई? क्‍यों समकालीन रचनाकरों के बीच संवाद भंग हो गया। )

“जमाने में हम’ हिन्दी की जानी-मानी आलोचक निर्मला जैन की आत्मकथा है। इसका प्रकाशन 2015 में हुआ। इस आत्मकथा के माध्यम से लेखिका ने पाठकों के समक्ष साहित्‍य के बौद्धिक वर्ग की एक ऐसी अकथ कहानी प्रस्तुत की है, जो आज़ादी के बाद हिन्दी साहित्य की समीक्षा बन गयी है। यह आत्मकथा इतनी विविधता, सृजनात्मकता, विस्तार और गहराई लिए हुए है कि इसकी रोशनी में साहित्य समाज की अवधारणा, श्रम, प्रश्न, दशा, दिशा और उसकी चुनौतियों को सहजता से समझा जा सकता है। प्रस्तुत आत्मकथा साहित्यकारों, अकेडमिक साहित्यकारों और शिक्षा जगत के ज्चलंत मुद्दों को उजागर ही नहीं करती बल्कि साहित्यिक जगत की राजनीति, लेखन और प्रकाशन के अंतर्गिहित्‌ संबंधों को बारीकी से चित्रित भी करती हैं।

आत्मकथा का आरंभ “बचपन की वापसी’ शीर्षक से होता है। लेखिका दिल्‍ली के उस मकान में पहुँचती हैं, जहाँ उनका बचपन गुजरा था। लेकिन अब वह मकान उनका नहीं था। वहाँ पहुँचकर उनका समस्त बचपन उनके आँखों के सामने साकार हो उठता है। उदाहरणार्थ- “समय में वापसी अजीबो-गरीब सूत्रों के सहारे हो रही थी। हवेली के वर्तमान निवासी अब भी उसी पारिवारिक बनत में कँधे थे, जिसमें हमने होश संभाला था यानी तीन-चार भाइयों का संयुक्त परिवार, साझा रसोई नीचे ड्योढ़ी के सामने वाले बड़े से कमरे में फर्शी दरी पर बैठी एक प्रौढ़ महिला हाथ की मशीन पर खटाखट कुछ सिलाई कर रही थीं। वैसे ही जैसे पचहत्‍तर बरस पहले हमारी माँ किया करती थी।‘’1 पिता लाला मीरीमल का माता चंपा देवी से तीसरा अवैध विवाह, विवाह के कई वर्ष उपरान्त चंपा देवी का पिता के संयुक्त परिवार को तत्परता के साथ संभालना तथा पिता की मृत्‍यु बाद बच्चों की पढ़ाई-लिखाई एवं परिवार को निष्‍ठा से संभालने का वर्णन आत्मकथा में किया गया है। लेखिका की आरंभिक पढ़ाई इन्द्रप्रस्थ स्कूल से हुई। आगे चल कर मैट्रिक उन्‍होंने पंजाब के एक प्राइवेट स्कूल से इकोनॉमिक्‍स, हिस्‍ट्री और सिविक्स में किया। 1947 में लेखिका ने इन्‍द्रप्रस्‍थ कॉलेज में अर्थशास्‍त्र ऑनर्स बदल कर डॉ० सावित्री सिन्हा से प्रभावित होकर हिन्दी में ऑनर्स ले लिया। उदाहरणार्थ- “डॉ० सावित्री सिन्हा के हँसमुख और मिलनसार स्वभाव से प्रेरित होकर मैंने अपनी राह बदल ली।”2 लेखिका का जीवन भी उन्हीं साधारण परिवार में होनेवाली पारिवारिक जद्दोजहद से संघर्ष करता हुआ आगे बढ़ता है। जिस प्रकार एक आम महिला संघर्ष करती है। अपने परिवार के आर्थिक संकट का वर्णन करती हुई लेखिका लिखती हैं- “गृहस्थी के रोजमर्रा के खर्चों में भी उनका हाथ खिंचा रहने लगा था। यह तो हम महसूस करने लगे थे, पर इसके कारण और इसके निदान के संभावित रास्तों की समझ हमें नहीं थी।”3

लेखिका का विवाह देहरादून के एक सम्मानित परिवार के एकलौते पुत्र श्री विद्यासागर से होता है। विवाह के तत्काल बाद ग्राम जीवन से जुड़े कई कटु-मधुर प्रसंग का वर्णन लेखिका ने आत्मकथा में किया है। सहारपुर गाँव का वर्णन जीवन्त हो उठा है। इस संबंध में लेखिका लिखती हैं- “ग्रामीण परिवेश से जुड़े ऐसे अनेक अनुभव मेरी यादों में पैवस्त हैं। इतना ही नहीं, मेरे आचरण पर भी कहीं -न- कहीं उतने अंश की छाप है जिसे मैंने अनजाने में ही आत्मसात कर लिया था।”4 लेखिका का जीवन किसी-न-किसी पारिवारिक, सामाजिक और साहित्यिक संघर्षों से अछूता नहीं रह सका। जब हम लेखिका के उस दौर पर नजर डालते हैं तब जाकर महसूस होता है कि लेखिका ने आज से कहीं-कहीं ज्यादा जटिल समाज और अधिक चुनौतियों का सामना करते हुए अपने पैरों पर खड़ी हो पायीं। उदाहरणार्थ-‘’ उस दौर में लगभग डेढ़ घंटे का समय यात्रा के खाते में और तीन-चार घंटे का समय कक्षाओं के नाम लिखकर जो बाकी समय बचता था, उसमें मैं गृहस्थी की गाड़ी ढो रही थी। जब जैसी सुविधा होती, एकाघ घंटा पुस्तकालय गें बैठकर नोट्स बनाने के लिए भी जुटा ही लेती थी। ससुरालवालों की नज़र में मेरे पढ़ने-लिखने की कभी कोई कदर ही नहीं’ रही। दरअसल उनकी नजर में वह ज़रूरी थी ही नहीं। जैन साहब के लिए यह इसलिए कोई समस्‍या नहीं थी, क्योंकि उन्होंने हमेशा मेरी इच्छा का सम्‍मान किया। इस व्यवस्तता में भी पढ़ाई पूरी करने में मेरी खुशी थी, बस इतना भर उनके सहयोग के लिए काफी था।”5

1950 के दशक में शादी और दो बच्चे होने के बाद लेखिका औसत मध्यम वर्गीय जीवन जीने को मजबूर थी। इन हालातों में उनकी कठिनाईयों से किसी का कोई लेना देना नहीं था और लेखिका अंदर ही अंदर टूट रही थी। लेकिन अचानक एक दिन जिस प्रकार हनुमान को उसकी शक्ति का अहसास करा कर समुद्र पार भेज दिया जाता है, उसी प्रकार लेखिका की चाची ने हौसला अफजाई की और उनमें साहस भर दिया। लेखिका के शब्दों में- “बात मेरे मन में धँस गई, बहुंत गहराई तक। शायद एक कारण कहनेवाले की उम्र का तर्जुबा, हैसियत और मेरे प्रति उनका गहरा सरोकार था। वे सिर्फ़ कह नहीं रही थी, मेरी हौसला अफ़जाई कर रही थीं, मुझमें साहस भर रही थी, जिसमें कुछ चुनौती भी थी ही। मैं इस घटना को अपने जीवन का ऐतिहासिक क्षण मानती हूँ। मैंने उनसे तो इतना ही कहा कि में कोशिश करूँगी, पर मन-ही-मन साहस बटोरा, कुछ फ़ैसले किए। उन फ़ैसलों को कार्यान्वित करने के संकल्प के साथ जब दिल्‍ली लौटी तो मैं ठीक वही नहीं थी , जो वहाँ नाने से पहले थी।‘’6

जीवन की जद्दोजहद ने लेखिका को निडर साहसी और स्पष्टवादी व्यक्तित्व का धनी बना दिया। इसी वजह से उन्होंने उस दौर के मशहूर कला विभाग अध्यक्ष डॉ० नगेन्द्र के बारे में तरह-तरह के किस्से को भी बड़ी सहजता के साथ प्रस्तुत किया है। उदाहरणार्थ – “ जब हमने दिल्‍ली विश्वविद्यालय में एंट्री ली तो वहाँ हिन्दी के संदर्भ में जो कुछ थे, बस डॉ० नगेन्द्र थे और था उनका आभा मंडल-अविधा और लक्षणा दोनों अर्थों में….. एक अर्थ में वे किंवदन्ती पुरुष थे, उनके बारे में प्रसिद्ध था कि आगरा विश्वविद्यालय में सीधे डी.लीट. की उपाधि दी थी पी. एच.डी लांघकर, दूसरी प्रसिद्धि यह थी कि वे तत्कालीन राष्ट्रपति बाबू राजेन्द्र प्रसाद की अनुकम्पा के पात्र थे… यह संबंध बाद में डॉ० साहब की पदोन्नति में बहुत कारगर साबित हुआ।”7 शुरूआत में डॉ० नगेन्द्र को निर्मला जैन अच्छी छात्रा नहीं लगी। जिसकी चर्चा डॉ० सावित्री के माध्यम से की गई है कि जब डॉ० सावित्री ने लेखिका का उल्लेख उनके सामने किया तो डॉ० नगेन्द्र की प्रतिक्रिया थी- “हमें तो कुछ जंची नहीं। शी इड मोर स्मार्ट। क्योंकि डॉ० नगेन्द्र की नजरों में सबसे होनहार लड़की उनके सहयोगी मित्र अंग्रेजी के कुंवर लाल वर्मा की छोटी बहन थी।‘’8 विश्‍वविद्यालय में पढ़ते हुए लेखिका ने यह भी अनुभव किया कि डॉ० नगेन्द्र उनके साथ पक्षपात्‌ करते हैं। उदाहरणार्थ- “मेरा वह पर्चा बहुत अच्छा हुआ था। मैं आश्‍वत थी सबसे ज्‍यादा अंक मुझे ही मिलेंगे, जब अंकतालिका हाथ आई तो संतोष को मुझसे दो नंबर ज्यादा मिले थे। मैं समझ गयी डॉ. साहब ने मित्र धर्म का निर्वाह किया है।‘’9 अपने विद्यार्थी जीवन में लेखिका ने छायावाद के दो प्रसिद्ध कवियों के दर्शन का भी वर्णन किया है। दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय में पढ़ते हुए डॉ. नगेन्द्र की सहयोगिता से विद्यार्थियों को महादेवी वर्मा और सुमित्रानंदन पंत के सुलभ दर्शन होते हैं। लेखिका पंत जी के संबंध में लिखती’ हैं – “वह व्‍यस्‍क चोले में प्रच्छन्न सरल बाल गोपाल है। अपने तीनों सहयात्रियों में सबसे अलग कुछ विशिष्ट और शायद एक हत तक आत्ममुग्ध भी।‘’10 महादेवी जी के संबंध में लिखती हैं- ‘बड़ा भारी –भरकम व्यक्तित्व था उनका -अभिधा और लक्षणा, दोनों में।”11 लेखिका का अध्यापन की दुनिया में पहला सफर दिल्‍ली के लेडी श्रीराम कॉलेज से आरंभ होता है। लेडी श्रीराम कॉलेज में नियुक्ति से लेकर हिन्दी विभाग के अध्यक्ष के पद पर चौदह वर्षों (1956-70) तक आसीन रहने का वर्णन लेखिको ने बड़ी रोचकता के साथ किया है। उदाहरणार्थ- “कुल मिलाकर लेडी श्रीराम कॉलेज में जीवन बहुत हँसी-खुशी बीत रहा था। विभाग का विस्तार हो गया था। हर साल एक नया चेहरा आकर जुड़ जाता था। औरों के अलावा, कई सदस्यों का संबंध हिन्दी साहित्य के ख्यातनामा रचनाकारों से था। उनमें क्रमशः उपन्यासकार कृष्णचन्द्र शर्मा ‘भिक्‍खु’ की पत्नी शकुन्तला शर्मा, कवि भारतभूषण अग्रवाल की पत्नी डॉ० बिन्दु अग्रवाल, डॉ० नगेन्द्र की छोटी बेटी प्रतिमा, कवि गिरिजा कुमार माथुर की बेटी बीना और मनोहर श्याम जोशी की पत्नी भगवती नैसे तमाम नाम शामिल थे। इनके अलावा कवयित्री इन्दु जैन भी आते-आते रह ही गई थीं। इन सबके विभाग में होने से अकादमिक दुनिया के बाहर कै साहित्यिक परिदृश्य से भी कमोबेश संबंध बना रहता था। उस समय अध्यक्ष पद रोटेट नहीं होता था, हसलिए मैं चौदह वर्ष (1950-70) तक लेडी श्री राम कॉलेज के हिन्दी विभाग के आध्यक्ष-पद पर बनी रही। कॉलेज में यों भी हिन्दी साहित्‍य-सभा बेहद सक्रिय रही। यादगार कार्यक्रमों का सिलसिला पहले ही वर्ष दरियागंज से शुरु हो गया था।‘’12

आत्मकथा में लेखिका ने वरिष्ठ साहित्‍यकारों के साथ अपने मधुर एवं खटूटे-मीठे अनुभवों का वर्णन किया हैं । मैथिलीशरण गुप्त, हरिवंशराय बच्चन, बालकृष्‍ण शर्मा(नवीन), सियारामशरण गुप्त, भरतभूषण अग्रवाल,अज्ञेय,सर्वश्‍वेवर दयाल सक्सेना और रघुवीर सहाय, राजेन्द्र यादव, मन्‍नू भंडारी, नामवर सिंह जैसे विख्यात साहित्यकारों के साथ अपने संबंर्धों का वर्णन आत्मकथा में बड़ी निश्च्छलता के साथ लेखिका ने किया है। खैर खट्टे-मीठे अनुभव के बाद उनकी साहित्यिक गतिविधियाँ प्रारंभ हो जाती हैं। निर्मला जैन एक ऐसा नाम था जिन्हें अपने समय के नये-पुराने साहित्यकारों के साथ काम करने का अवसर मिला। जिस कारण उनकी साहित्यिक चेतना भी विकसित होने लगी थी। इसीलिए ज़माने में हम’ में लेखिका इस बात का भी साहस और सहजता से वर्णन करती हैं कि – “वे दर्शक को आकर्षित नहीं, आतंकित ज्यादा करते थे – अपनी सुपर बौद्धिक छाप से । यह समझने में लम्बा समय लगा कि वह उनका सहज नहीं अर्जित-आरोपित व्यक्तित्व था, जिसे उन्होंने बड़े यत्न से साधा था।‘’13 आत्मकथा में साहित्यिक जगत में होनेवाले सम्मेलनों की गतिविधियों की बारीकी से जॉच-पड़ताल की गई है। प्रबुद्ध वर्ग कहे जाने वाले इस समाज में भी चापलूसी, पिछलग्गूपन महत्वपूर्ण रथान रखता है। लेखिका का मानना है कि एक तरफ अज्ञेय के पिछललग्‍गुओं के रूप में सर्वेश्‍वर दयाल सक्‍सेना और रघुवीर सहाय नजर आते है तो वही दूसरी तरफ अज्ञेय को पुन: मंच सुलभ कराने का अभियान सर्वेश्‍वर जी ने चला रखा था। उदाहरणार्थ “छोटे भाई ने उन दिनों ‘बड़े भाई’ को मंचों पर सुलभ कराने का अभियान चला रखा था, क्योंकि काफ़ी दिन नखरा दिखाने के बाद अज्ञेय जी की समझ में यह बात आ गई थी कि इस चक्‍कर में वे धीरे-धीरे अलभ्य नहीं, अलोकप्रिय होते जा रहे हैं। लोगों ने उन्हें आमंत्रित करना ही छोड़ दिया है। इस अप्रत्याधित रिथति में उन्हें पुनः मंच-प्रतिष्ठित करने की जिम्मेदारी सर्वेश्वर जी ने ले ली थी।‘’14

आत्मकथा में लेखिका इस बात का खुलासा भी करती है कि हिन्दी साहित्य में चयन समिति कैसे काम करती है। अपनी लॉबी को बड़ा करने के लिए किस प्रकार अध्यापकों की नियुक्ति की जाती है। क्‍यों पदोन्नति रोक दी जाती है। किस प्रकार साहित्यकार को साहित्य बिरादरी से बाहर किया जा सकता है। समझौता परस्ती और तानाशाही साहित्य जगत में एक साथ कैसे काम करती है। दिल्‍ली विश्वविद्यालय में नयी नियुक्तियों एवं पदोन्नति को लेकर चल रहे षड़यत्र का भांडा-फोड़ करते हुए लेखिका लिखती हैं- “ऐसा एक दुर्भाग्यपूर्ण प्रसंग विभाग के भीतर घटित हुआ। डॉ० उदयभानु सिंह मध्यकालीन कविता, विशेषकर तुलसीदास के जाने-माने विशेषज्ञ थे। विभाग में उनकी नियुक्ति आरंभ में ही हो गई थी- ‘लेक्चरर’यानी एसिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर। अध्यापक भी बहुत अच्छे थे। सालों-साल डॉ० नगेन्द्र ने उनकी पदोन्नति विभाग में नहीं होने दी। स्थानीय कॉलेजों से एक के बाद एक लोग लाए जाते रहे जो किसी अर्थ में उनसे अधिक योग्य नहीं थे। सिर्फ डॉ० नगेन्द्र की निजी पसंद-नापसंद के कारण, ‘सीनियरिटी’ के लचर तर के सहारे। अन्‍तत: डॉ. सिंह का धैर्य जवाब दे गया। उन्‍होंने विद्रोह का बीड़ा उठा लिया, पर विश्‍वविद्यालय और हिंदी जगत में डॉ. नगेन्‍द्र का इस कदर दबदबा था कि न कुलपति और नहीं विषय के विशेषज्ञ इस मामे में डॉ० उदयभानु सिंह की सहायता कर पा रहे थे। गोकि सहानुभूति बहुतों की उनके साथ थी। …… सबसे दुखद बात पूरे प्रसंग भी यह थी कि डॉ० नगेन्द्र ने विश्वविद्यालय के हिन्दी समाज में भी उनकी स्थिति ‘बिरादरी बाहर’ की-सी कर दी थी।‘’15 उस समय के इस विभागीय षड़यंत्र के शिकार केवल उदयभानु सिंह ही नहीं’ हुए बल्कि लेखिका को भी लेडी श्रीराम कॉलेज से दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय में नियुक्ति के लिए अनेक षड़यंत्रों का सामना करना पड़ा। वर्तमान समय के महान आलोचक एवं विख्यात साहित्यकार नामवर सिंह दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय में नियुक्ति के षड़यत्र को झेलने वाले जीवन्त उदाहरण हैं । उस समय के शिक्षा मंत्री डॉ० नूरल हसन दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय में डॉ० सावित्री सिन्हा के खाली पद पर नामवर जी की नियुक्ति चाहते थे लेकिन विभागाध्यक्ष डॉ० विजयेन्द्र स्नातक, वाईस चांसलर डॉ० सरूप सिंह तथा डॉ० नगेन्द्र भी, सभी नामवर-विरोधी मोर्चे में शामिल थे। उदाहरणार्थ- “अनुमान लगाया जा सकता था कि अगले दिन की बैठक के लिए स्ट्रैटेजी तैयार की जा रही होगी। डॉ० स्नातक की टेक थी, कि अगर नामवर सिंह विभाग में आ गए तो सबसे पहले उनका एक्सटेंशन रोकने की दिशा में कदम उठएँगे। यह गुहार उन्होंने कई लोगों से समर्थन और सहानुभूति बटोरने के लिए लगाई थी। डॉ० सरूप सिंह के साथ यों भी उनका जाति -संबंध था। नामवर सिहं की आमद रोकने के अभियान में वे उनके साथ थे।”16

वर्तमान समय में बहुत सी साहित्‍यकारों द्वारा साहित्य अकादमी पुरस्‍कार लौटाया जा रहा है। साहित्‍य जगत में इस प्रतिक्रिया के पक्ष और विरोध में लोग खड़े हो गए है लेकिन साहित्य अकादमी की विश्वसनीयता पर पहले से ही प्रश्न चिन्ह लगे हुए है। डॉ० नगेन्द्र को साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया जबकि अधिकतर साहित्यकार मुक्तिबोध को मरणोपरांत साहित्य अकादमी पुरस्कार देने के पक्ष में थे। उदाहरणार्थ- “अधिकांश की हार्दिक इच्छा थी कि साहित्य अकादमी का पुरस्कार उस वर्ष मुक्तिबोध को मिले। ज़हिर है, नामवर सिंह भी यही चाहते थे और हार्दिक इच्छा भारतभूषण अग्रवाल की भी यही थी, भले ही वे डॉ० नगेन्द्र के आतंक के कारण ऐसा कह नहीं पा रहे थे।….. कुल मिलाकर नतीजा यह हुआ कि मोर्चे कुछ इस कदर तन गए अन्ततः भारत जी से कुछ करते नहीं बना। बेहद विवश लगभग रुआँसे होते हुए उन्होंने अपनी ईमानदारी को स्थगित कर पुरस्कार का फैसला डॉ० नगेन्द्र के पक्ष में करा दिया। पर इस पूरे घटना-चक्र में बड़े महारथी कहे-समझे जानेवाले विद्वानों के चेहरों से ईमानदारी का मुखौटा उतरते देखा मैंने।”17

आत्मकथा में लेखक-प्रकाशक संबंधों को भी पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया गया है। लेखक -प्रकाशक का आपसी संबंध पुस्तक प्रकाशन में कितना महत्त्वपूर्ण रोल निभाती है, इसका वर्णन भी आत्मकथा किया गया है। यह भी स्पष्ट रूप से संकेत किया गया है कि किसी बड़े लेखक का प्रकाशन से जुड़ना उनके शिष्यों के लिए राह आसान कर देता है। हिन्दी साहित्य के नामी राजकमल प्रकाशन का विक्रय प्रसंग भी लेखक, प्रकाशक और प्रकाशक के संबंधों को बहुत ही बारीकी से पाठकों के साथ साझा किया है। उदाहरणार्थ – “शीला जी का आग्रह था कि जब तक यह सौदा पूरा न हो जाए, मैं उनके साथ एक्जीक्यूटीव

डाइरेक्टर की हैसियत से राजकमल में बैठूँ।‘’18

आलोच्य आत्मकथा नई कहानी आन्दोलन की साहित्यिक राजनीतिक उठापटक की समझ पैदा करने में हमारी मदद कर सकती हैं। राजेन्द्र यादव, नामवर सिंह,मन्‍नू भंडारी, कमलेश्वर और देवीशंकर अवस्थी जैसे नामों के बीच वैचारिक, राजनीतिक और साहित्यिक चर्चाओं ने संपादन, प्रकाशन और पत्रिका आदि के औचित्य पर कई प्रश्नों को जन्म दिया है। आत्मकथा कुछ अनसुलझे प्रश्नों का भी समाधान करती है जैसे- समीक्षात्मक लेखन क्यों बंद हो गया? काव्य शास्त्र की दिशा में लेखन क्यों बंद हो गया? क्यों सिर्फ निजी पुस्तकालय संस्करण निकलने लगे ? बाद की पीढ़ी साहित्य के प्रति संवेदनहीन क्यों हो गयी? क्‍यों समकालीन रचनाकारों के बीच संवाद भंग हो गया ?

आत्मकथा की विश्वसनीयता स्थापित करने के लिए लेखिका ने इसके अन्त में कई साहित्यकारों के पत्रों का उल्लेख किया है। जिसने आत्मकथा को और अधिक रोचक बना दिया है। ‘ज़माने में हम’ अपने शीर्षक को बहुत हद तक सार्थक करती है क्योंकि यह केवल निर्मला जी के जीवन की ही कहानी नहीं बल्कि दिल्‍ली की कहानी है। विश्‍वविद्यालय की कहानी है। साहित्यकारों की कहानी, छायावाद, प्रयोगवाद, नई कविता, नई कहानी की कहानी है। संपादक, संपादन और प्रकाशक तथा प्रकाशन की कहानी है। यह गुरू-शिष्य के साथ-साथ राजनीति के संबंधों की भी कहानी है।

संदर्भ सूची :

  1. जैन,निर्मला, ज़माने में हम, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्‍ली, पहला संस्करण- 2015, पृ. सं०-13-14
  2. जैन,निर्मला, ज़माने में हम, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्‍ली, पहला संस्करण- 2015, पृ० सं० -51
  3. जैन,निर्मला, ज़माने में हम, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्‍ली, पहला संस्करण- 2015, पृ० सं० -54
  4. जैन,निर्मला, ज़माने में हम, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्‍ली, पहला संस्करण- 2015, पृ० सं० -73
  5. जैन,निर्मला, ज़माने में हम, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्‍ली, पहला संस्करण- 2015, पृ० सं० -77
  6. जैन,निर्मला, ज़माने में हम, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्‍ली, पहला संस्करण- 2015, पृ० सं० -87
  7. जैन,निर्मला, ज़माने में हम, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्‍ली, पहला संस्करण- 2015, पृ० सं० -92
  8. जैन,निर्मला, ज़माने में हम, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्‍ली, पहला संस्करण- 2015, पृ० सं० -96
  9. जैन,निर्मला, ज़माने में हम, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्‍ली, पहला संस्करण- 2015, पृ० सं० -96
  10. जैन,निर्मला, ज़माने में हम, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्‍ली, पहला संस्करण- 2015, पृ० सं० -101
  11. वहीं , पृ० सं० -102
  12. जैन,निर्मला, ज़माने में हम, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्‍ली, पहला संस्करण- 2015, पृ० सं० -127-128
  13. जैन,निर्मला, ज़माने में हम, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्‍ली, पहला संस्करण- 2015, पृ० सं० -138
  14. जैन,निर्मला, ज़माने में हम, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्‍ली, पहला संस्करण- 2015, पृ० सं० -138
  15. जैन,निर्मला, ज़माने में हम, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्‍ली, पहला संस्करण- 2015, पृ० सं० -142
  16. जैन,निर्मला, ज़माने में हम, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्‍ली, पहला संस्करण- 2015, पृ० सं० -209
  17. जैन,निर्मला, ज़माने में हम, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्‍ली, पहला संस्करण- 2015, पृ० सं० -173
  18. जैन,निर्मला, ज़माने में हम, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्‍ली, पहला संस्करण- 2015, पृ० सं० -307

‘निर्मला जैन की आत्‍मकथा में चित्रित तत्‍कालीन समय और समाज’’

अंजू सिंह

बर्द्धमान विश्‍वविद्यालय 56/सी अब्‍दुल जब्‍बर रोड

कांचड़ापाड़ा उत्तर 24 परगनापिन : 743145ई-मेल- anjukpa3@gmail.com

(शोधसार : ‘जमाने में हम’ हिंदी की महिला आलोचक निर्मला जैन की आत्‍मकथा है। इसका प्रकाशन 2015 में हुआ। इस आत्‍मकथा के माध्‍यम से साहित्‍यकार ने पाठकों के समक्ष साहित्‍य के बौद्धिक वर्ग की एक ऐसी अकथ कहानी प्रस्‍तुत की है, जो आज़ादी के बाद हिंदी साहित्‍य की समीक्षा बन गयी है। यह आत्‍मकथा इतनी विविधता, सृजनात्‍मकता, विस्‍तार और गहराई लिए हुए है कि इसकी रोशनी में साहित्‍य, समाज की अवधारणा, भ्रम, प्रश्‍न, दशा, दिशा और उसकी चुनौतियों को सहजता को समझा जा सकता है। ‘जमाने में हम’ अपने शीर्षक को बहुत हद तक सार्थक करती है क्‍योंकि यह केवल निर्मला जी के जीवन की ही कहानी नहीं बल्कि दिल्‍ली की कहानी है। विश्‍वविद्यालय की कहानी है। साहित्‍यकारों की कहानी, छायावाद, प्रयोगवाद, नई कविता, राजनीतिक उठापटक की समक्ष पैदा करने में हमारी मदद करती है। आत्‍मकथा कुछ अन सुलझे प्रश्‍नों का भी समाधान करती है, जैसे- समीक्षात्‍मक लेखन क्‍यों बंद हो गया? काव्‍य शास्‍त्र की दिशा में लेखन क्‍यों बंद हो गया? क्‍यों सिर्फ निजी पुस्‍तकालय संस्‍करण निकले लगे? बाद की पीढ़ी साहित्‍य के प्रति संवेदनहीन क्‍यों हो गई? क्‍यों समकालीन रचनाकरों के बीच संवाद भंग हो गया। )

“जमाने में हम’ हिन्दी की जानी-मानी आलोचक निर्मला जैन की आत्मकथा है। इसका प्रकाशन 2015 में हुआ। इस आत्मकथा के माध्यम से लेखिका ने पाठकों के समक्ष साहित्‍य के बौद्धिक वर्ग की एक ऐसी अकथ कहानी प्रस्तुत की है, जो आज़ादी के बाद हिन्दी साहित्य की समीक्षा बन गयी है। यह आत्मकथा इतनी विविधता, सृजनात्मकता, विस्तार और गहराई लिए हुए है कि इसकी रोशनी में साहित्य समाज की अवधारणा, श्रम, प्रश्न, दशा, दिशा और उसकी चुनौतियों को सहजता से समझा जा सकता है। प्रस्तुत आत्मकथा साहित्यकारों, अकेडमिक साहित्यकारों और शिक्षा जगत के ज्चलंत मुद्दों को उजागर ही नहीं करती बल्कि साहित्यिक जगत की राजनीति, लेखन और प्रकाशन के अंतर्गिहित्‌ संबंधों को बारीकी से चित्रित भी करती हैं।

आत्मकथा का आरंभ “बचपन की वापसी’ शीर्षक से होता है। लेखिका दिल्‍ली के उस मकान में पहुँचती हैं, जहाँ उनका बचपन गुजरा था। लेकिन अब वह मकान उनका नहीं था। वहाँ पहुँचकर उनका समस्त बचपन उनके आँखों के सामने साकार हो उठता है। उदाहरणार्थ- “समय में वापसी अजीबो-गरीब सूत्रों के सहारे हो रही थी। हवेली के वर्तमान निवासी अब भी उसी पारिवारिक बनत में कँधे थे, जिसमें हमने होश संभाला था यानी तीन-चार भाइयों का संयुक्त परिवार, साझा रसोई नीचे ड्योढ़ी के सामने वाले बड़े से कमरे में फर्शी दरी पर बैठी एक प्रौढ़ महिला हाथ की मशीन पर खटाखट कुछ सिलाई कर रही थीं। वैसे ही जैसे पचहत्‍तर बरस पहले हमारी माँ किया करती थी।‘’1 पिता लाला मीरीमल का माता चंपा देवी से तीसरा अवैध विवाह, विवाह के कई वर्ष उपरान्त चंपा देवी का पिता के संयुक्त परिवार को तत्परता के साथ संभालना तथा पिता की मृत्‍यु बाद बच्चों की पढ़ाई-लिखाई एवं परिवार को निष्‍ठा से संभालने का वर्णन आत्मकथा में किया गया है। लेखिका की आरंभिक पढ़ाई इन्द्रप्रस्थ स्कूल से हुई। आगे चल कर मैट्रिक उन्‍होंने पंजाब के एक प्राइवेट स्कूल से इकोनॉमिक्‍स, हिस्‍ट्री और सिविक्स में किया। 1947 में लेखिका ने इन्‍द्रप्रस्‍थ कॉलेज में अर्थशास्‍त्र ऑनर्स बदल कर डॉ० सावित्री सिन्हा से प्रभावित होकर हिन्दी में ऑनर्स ले लिया। उदाहरणार्थ- “डॉ० सावित्री सिन्हा के हँसमुख और मिलनसार स्वभाव से प्रेरित होकर मैंने अपनी राह बदल ली।”2 लेखिका का जीवन भी उन्हीं साधारण परिवार में होनेवाली पारिवारिक जद्दोजहद से संघर्ष करता हुआ आगे बढ़ता है। जिस प्रकार एक आम महिला संघर्ष करती है। अपने परिवार के आर्थिक संकट का वर्णन करती हुई लेखिका लिखती हैं- “गृहस्थी के रोजमर्रा के खर्चों में भी उनका हाथ खिंचा रहने लगा था। यह तो हम महसूस करने लगे थे, पर इसके कारण और इसके निदान के संभावित रास्तों की समझ हमें नहीं थी।”3

लेखिका का विवाह देहरादून के एक सम्मानित परिवार के एकलौते पुत्र श्री विद्यासागर से होता है। विवाह के तत्काल बाद ग्राम जीवन से जुड़े कई कटु-मधुर प्रसंग का वर्णन लेखिका ने आत्मकथा में किया है। सहारपुर गाँव का वर्णन जीवन्त हो उठा है। इस संबंध में लेखिका लिखती हैं- “ग्रामीण परिवेश से जुड़े ऐसे अनेक अनुभव मेरी यादों में पैवस्त हैं। इतना ही नहीं, मेरे आचरण पर भी कहीं -न- कहीं उतने अंश की छाप है जिसे मैंने अनजाने में ही आत्मसात कर लिया था।”4 लेखिका का जीवन किसी-न-किसी पारिवारिक, सामाजिक और साहित्यिक संघर्षों से अछूता नहीं रह सका। जब हम लेखिका के उस दौर पर नजर डालते हैं तब जाकर महसूस होता है कि लेखिका ने आज से कहीं-कहीं ज्यादा जटिल समाज और अधिक चुनौतियों का सामना करते हुए अपने पैरों पर खड़ी हो पायीं। उदाहरणार्थ-‘’ उस दौर में लगभग डेढ़ घंटे का समय यात्रा के खाते में और तीन-चार घंटे का समय कक्षाओं के नाम लिखकर जो बाकी समय बचता था, उसमें मैं गृहस्थी की गाड़ी ढो रही थी। जब जैसी सुविधा होती, एकाघ घंटा पुस्तकालय गें बैठकर नोट्स बनाने के लिए भी जुटा ही लेती थी। ससुरालवालों की नज़र में मेरे पढ़ने-लिखने की कभी कोई कदर ही नहीं’ रही। दरअसल उनकी नजर में वह ज़रूरी थी ही नहीं। जैन साहब के लिए यह इसलिए कोई समस्‍या नहीं थी, क्योंकि उन्होंने हमेशा मेरी इच्छा का सम्‍मान किया। इस व्यवस्तता में भी पढ़ाई पूरी करने में मेरी खुशी थी, बस इतना भर उनके सहयोग के लिए काफी था।”5

1950 के दशक में शादी और दो बच्चे होने के बाद लेखिका औसत मध्यम वर्गीय जीवन जीने को मजबूर थी। इन हालातों में उनकी कठिनाईयों से किसी का कोई लेना देना नहीं था और लेखिका अंदर ही अंदर टूट रही थी। लेकिन अचानक एक दिन जिस प्रकार हनुमान को उसकी शक्ति का अहसास करा कर समुद्र पार भेज दिया जाता है, उसी प्रकार लेखिका की चाची ने हौसला अफजाई की और उनमें साहस भर दिया। लेखिका के शब्दों में- “बात मेरे मन में धँस गई, बहुंत गहराई तक। शायद एक कारण कहनेवाले की उम्र का तर्जुबा, हैसियत और मेरे प्रति उनका गहरा सरोकार था। वे सिर्फ़ कह नहीं रही थी, मेरी हौसला अफ़जाई कर रही थीं, मुझमें साहस भर रही थी, जिसमें कुछ चुनौती भी थी ही। मैं इस घटना को अपने जीवन का ऐतिहासिक क्षण मानती हूँ। मैंने उनसे तो इतना ही कहा कि में कोशिश करूँगी, पर मन-ही-मन साहस बटोरा, कुछ फ़ैसले किए। उन फ़ैसलों को कार्यान्वित करने के संकल्प के साथ जब दिल्‍ली लौटी तो मैं ठीक वही नहीं थी , जो वहाँ नाने से पहले थी।‘’6

जीवन की जद्दोजहद ने लेखिका को निडर साहसी और स्पष्टवादी व्यक्तित्व का धनी बना दिया। इसी वजह से उन्होंने उस दौर के मशहूर कला विभाग अध्यक्ष डॉ० नगेन्द्र के बारे में तरह-तरह के किस्से को भी बड़ी सहजता के साथ प्रस्तुत किया है। उदाहरणार्थ – “ जब हमने दिल्‍ली विश्वविद्यालय में एंट्री ली तो वहाँ हिन्दी के संदर्भ में जो कुछ थे, बस डॉ० नगेन्द्र थे और था उनका आभा मंडल-अविधा और लक्षणा दोनों अर्थों में….. एक अर्थ में वे किंवदन्ती पुरुष थे, उनके बारे में प्रसिद्ध था कि आगरा विश्वविद्यालय में सीधे डी.लीट. की उपाधि दी थी पी. एच.डी लांघकर, दूसरी प्रसिद्धि यह थी कि वे तत्कालीन राष्ट्रपति बाबू राजेन्द्र प्रसाद की अनुकम्पा के पात्र थे… यह संबंध बाद में डॉ० साहब की पदोन्नति में बहुत कारगर साबित हुआ।”7 शुरूआत में डॉ० नगेन्द्र को निर्मला जैन अच्छी छात्रा नहीं लगी। जिसकी चर्चा डॉ० सावित्री के माध्यम से की गई है कि जब डॉ० सावित्री ने लेखिका का उल्लेख उनके सामने किया तो डॉ० नगेन्द्र की प्रतिक्रिया थी- “हमें तो कुछ जंची नहीं। शी इड मोर स्मार्ट। क्योंकि डॉ० नगेन्द्र की नजरों में सबसे होनहार लड़की उनके सहयोगी मित्र अंग्रेजी के कुंवर लाल वर्मा की छोटी बहन थी।‘’8 विश्‍वविद्यालय में पढ़ते हुए लेखिका ने यह भी अनुभव किया कि डॉ० नगेन्द्र उनके साथ पक्षपात्‌ करते हैं। उदाहरणार्थ- “मेरा वह पर्चा बहुत अच्छा हुआ था। मैं आश्‍वत थी सबसे ज्‍यादा अंक मुझे ही मिलेंगे, जब अंकतालिका हाथ आई तो संतोष को मुझसे दो नंबर ज्यादा मिले थे। मैं समझ गयी डॉ. साहब ने मित्र धर्म का निर्वाह किया है।‘’9 अपने विद्यार्थी जीवन में लेखिका ने छायावाद के दो प्रसिद्ध कवियों के दर्शन का भी वर्णन किया है। दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय में पढ़ते हुए डॉ. नगेन्द्र की सहयोगिता से विद्यार्थियों को महादेवी वर्मा और सुमित्रानंदन पंत के सुलभ दर्शन होते हैं। लेखिका पंत जी के संबंध में लिखती’ हैं – “वह व्‍यस्‍क चोले में प्रच्छन्न सरल बाल गोपाल है। अपने तीनों सहयात्रियों में सबसे अलग कुछ विशिष्ट और शायद एक हत तक आत्ममुग्ध भी।‘’10 महादेवी जी के संबंध में लिखती हैं- ‘बड़ा भारी –भरकम व्यक्तित्व था उनका -अभिधा और लक्षणा, दोनों में।”11 लेखिका का अध्यापन की दुनिया में पहला सफर दिल्‍ली के लेडी श्रीराम कॉलेज से आरंभ होता है। लेडी श्रीराम कॉलेज में नियुक्ति से लेकर हिन्दी विभाग के अध्यक्ष के पद पर चौदह वर्षों (1956-70) तक आसीन रहने का वर्णन लेखिको ने बड़ी रोचकता के साथ किया है। उदाहरणार्थ- “कुल मिलाकर लेडी श्रीराम कॉलेज में जीवन बहुत हँसी-खुशी बीत रहा था। विभाग का विस्तार हो गया था। हर साल एक नया चेहरा आकर जुड़ जाता था। औरों के अलावा, कई सदस्यों का संबंध हिन्दी साहित्य के ख्यातनामा रचनाकारों से था। उनमें क्रमशः उपन्यासकार कृष्णचन्द्र शर्मा ‘भिक्‍खु’ की पत्नी शकुन्तला शर्मा, कवि भारतभूषण अग्रवाल की पत्नी डॉ० बिन्दु अग्रवाल, डॉ० नगेन्द्र की छोटी बेटी प्रतिमा, कवि गिरिजा कुमार माथुर की बेटी बीना और मनोहर श्याम जोशी की पत्नी भगवती नैसे तमाम नाम शामिल थे। इनके अलावा कवयित्री इन्दु जैन भी आते-आते रह ही गई थीं। इन सबके विभाग में होने से अकादमिक दुनिया के बाहर कै साहित्यिक परिदृश्य से भी कमोबेश संबंध बना रहता था। उस समय अध्यक्ष पद रोटेट नहीं होता था, हसलिए मैं चौदह वर्ष (1950-70) तक लेडी श्री राम कॉलेज के हिन्दी विभाग के आध्यक्ष-पद पर बनी रही। कॉलेज में यों भी हिन्दी साहित्‍य-सभा बेहद सक्रिय रही। यादगार कार्यक्रमों का सिलसिला पहले ही वर्ष दरियागंज से शुरु हो गया था।‘’12

आत्मकथा में लेखिका ने वरिष्ठ साहित्‍यकारों के साथ अपने मधुर एवं खटूटे-मीठे अनुभवों का वर्णन किया हैं । मैथिलीशरण गुप्त, हरिवंशराय बच्चन, बालकृष्‍ण शर्मा(नवीन), सियारामशरण गुप्त, भरतभूषण अग्रवाल,अज्ञेय,सर्वश्‍वेवर दयाल सक्सेना और रघुवीर सहाय, राजेन्द्र यादव, मन्‍नू भंडारी, नामवर सिंह जैसे विख्यात साहित्यकारों के साथ अपने संबंर्धों का वर्णन आत्मकथा में बड़ी निश्च्छलता के साथ लेखिका ने किया है। खैर खट्टे-मीठे अनुभव के बाद उनकी साहित्यिक गतिविधियाँ प्रारंभ हो जाती हैं। निर्मला जैन एक ऐसा नाम था जिन्हें अपने समय के नये-पुराने साहित्यकारों के साथ काम करने का अवसर मिला। जिस कारण उनकी साहित्यिक चेतना भी विकसित होने लगी थी। इसीलिए ज़माने में हम’ में लेखिका इस बात का भी साहस और सहजता से वर्णन करती हैं कि – “वे दर्शक को आकर्षित नहीं, आतंकित ज्यादा करते थे – अपनी सुपर बौद्धिक छाप से । यह समझने में लम्बा समय लगा कि वह उनका सहज नहीं अर्जित-आरोपित व्यक्तित्व था, जिसे उन्होंने बड़े यत्न से साधा था।‘’13 आत्मकथा में साहित्यिक जगत में होनेवाले सम्मेलनों की गतिविधियों की बारीकी से जॉच-पड़ताल की गई है। प्रबुद्ध वर्ग कहे जाने वाले इस समाज में भी चापलूसी, पिछलग्गूपन महत्वपूर्ण रथान रखता है। लेखिका का मानना है कि एक तरफ अज्ञेय के पिछललग्‍गुओं के रूप में सर्वेश्‍वर दयाल सक्‍सेना और रघुवीर सहाय नजर आते है तो वही दूसरी तरफ अज्ञेय को पुन: मंच सुलभ कराने का अभियान सर्वेश्‍वर जी ने चला रखा था। उदाहरणार्थ “छोटे भाई ने उन दिनों ‘बड़े भाई’ को मंचों पर सुलभ कराने का अभियान चला रखा था, क्योंकि काफ़ी दिन नखरा दिखाने के बाद अज्ञेय जी की समझ में यह बात आ गई थी कि इस चक्‍कर में वे धीरे-धीरे अलभ्य नहीं, अलोकप्रिय होते जा रहे हैं। लोगों ने उन्हें आमंत्रित करना ही छोड़ दिया है। इस अप्रत्याधित रिथति में उन्हें पुनः मंच-प्रतिष्ठित करने की जिम्मेदारी सर्वेश्वर जी ने ले ली थी।‘’14

आत्मकथा में लेखिका इस बात का खुलासा भी करती है कि हिन्दी साहित्य में चयन समिति कैसे काम करती है। अपनी लॉबी को बड़ा करने के लिए किस प्रकार अध्यापकों की नियुक्ति की जाती है। क्‍यों पदोन्नति रोक दी जाती है। किस प्रकार साहित्यकार को साहित्य बिरादरी से बाहर किया जा सकता है। समझौता परस्ती और तानाशाही साहित्य जगत में एक साथ कैसे काम करती है। दिल्‍ली विश्वविद्यालय में नयी नियुक्तियों एवं पदोन्नति को लेकर चल रहे षड़यत्र का भांडा-फोड़ करते हुए लेखिका लिखती हैं- “ऐसा एक दुर्भाग्यपूर्ण प्रसंग विभाग के भीतर घटित हुआ। डॉ० उदयभानु सिंह मध्यकालीन कविता, विशेषकर तुलसीदास के जाने-माने विशेषज्ञ थे। विभाग में उनकी नियुक्ति आरंभ में ही हो गई थी- ‘लेक्चरर’यानी एसिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर। अध्यापक भी बहुत अच्छे थे। सालों-साल डॉ० नगेन्द्र ने उनकी पदोन्नति विभाग में नहीं होने दी। स्थानीय कॉलेजों से एक के बाद एक लोग लाए जाते रहे जो किसी अर्थ में उनसे अधिक योग्य नहीं थे। सिर्फ डॉ० नगेन्द्र की निजी पसंद-नापसंद के कारण, ‘सीनियरिटी’ के लचर तर के सहारे। अन्‍तत: डॉ. सिंह का धैर्य जवाब दे गया। उन्‍होंने विद्रोह का बीड़ा उठा लिया, पर विश्‍वविद्यालय और हिंदी जगत में डॉ. नगेन्‍द्र का इस कदर दबदबा था कि न कुलपति और नहीं विषय के विशेषज्ञ इस मामे में डॉ० उदयभानु सिंह की सहायता कर पा रहे थे। गोकि सहानुभूति बहुतों की उनके साथ थी। …… सबसे दुखद बात पूरे प्रसंग भी यह थी कि डॉ० नगेन्द्र ने विश्वविद्यालय के हिन्दी समाज में भी उनकी स्थिति ‘बिरादरी बाहर’ की-सी कर दी थी।‘’15 उस समय के इस विभागीय षड़यंत्र के शिकार केवल उदयभानु सिंह ही नहीं’ हुए बल्कि लेखिका को भी लेडी श्रीराम कॉलेज से दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय में नियुक्ति के लिए अनेक षड़यंत्रों का सामना करना पड़ा। वर्तमान समय के महान आलोचक एवं विख्यात साहित्यकार नामवर सिंह दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय में नियुक्ति के षड़यत्र को झेलने वाले जीवन्त उदाहरण हैं । उस समय के शिक्षा मंत्री डॉ० नूरल हसन दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय में डॉ० सावित्री सिन्हा के खाली पद पर नामवर जी की नियुक्ति चाहते थे लेकिन विभागाध्यक्ष डॉ० विजयेन्द्र स्नातक, वाईस चांसलर डॉ० सरूप सिंह तथा डॉ० नगेन्द्र भी, सभी नामवर-विरोधी मोर्चे में शामिल थे। उदाहरणार्थ- “अनुमान लगाया जा सकता था कि अगले दिन की बैठक के लिए स्ट्रैटेजी तैयार की जा रही होगी। डॉ० स्नातक की टेक थी, कि अगर नामवर सिंह विभाग में आ गए तो सबसे पहले उनका एक्सटेंशन रोकने की दिशा में कदम उठएँगे। यह गुहार उन्होंने कई लोगों से समर्थन और सहानुभूति बटोरने के लिए लगाई थी। डॉ० सरूप सिंह के साथ यों भी उनका जाति -संबंध था। नामवर सिहं की आमद रोकने के अभियान में वे उनके साथ थे।”16

वर्तमान समय में बहुत सी साहित्‍यकारों द्वारा साहित्य अकादमी पुरस्‍कार लौटाया जा रहा है। साहित्‍य जगत में इस प्रतिक्रिया के पक्ष और विरोध में लोग खड़े हो गए है लेकिन साहित्य अकादमी की विश्वसनीयता पर पहले से ही प्रश्न चिन्ह लगे हुए है। डॉ० नगेन्द्र को साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया जबकि अधिकतर साहित्यकार मुक्तिबोध को मरणोपरांत साहित्य अकादमी पुरस्कार देने के पक्ष में थे। उदाहरणार्थ- “अधिकांश की हार्दिक इच्छा थी कि साहित्य अकादमी का पुरस्कार उस वर्ष मुक्तिबोध को मिले। ज़हिर है, नामवर सिंह भी यही चाहते थे और हार्दिक इच्छा भारतभूषण अग्रवाल की भी यही थी, भले ही वे डॉ० नगेन्द्र के आतंक के कारण ऐसा कह नहीं पा रहे थे।….. कुल मिलाकर नतीजा यह हुआ कि मोर्चे कुछ इस कदर तन गए अन्ततः भारत जी से कुछ करते नहीं बना। बेहद विवश लगभग रुआँसे होते हुए उन्होंने अपनी ईमानदारी को स्थगित कर पुरस्कार का फैसला डॉ० नगेन्द्र के पक्ष में करा दिया। पर इस पूरे घटना-चक्र में बड़े महारथी कहे-समझे जानेवाले विद्वानों के चेहरों से ईमानदारी का मुखौटा उतरते देखा मैंने।”17

आत्मकथा में लेखक-प्रकाशक संबंधों को भी पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया गया है। लेखक -प्रकाशक का आपसी संबंध पुस्तक प्रकाशन में कितना महत्त्वपूर्ण रोल निभाती है, इसका वर्णन भी आत्मकथा किया गया है। यह भी स्पष्ट रूप से संकेत किया गया है कि किसी बड़े लेखक का प्रकाशन से जुड़ना उनके शिष्यों के लिए राह आसान कर देता है। हिन्दी साहित्य के नामी राजकमल प्रकाशन का विक्रय प्रसंग भी लेखक, प्रकाशक और प्रकाशक के संबंधों को बहुत ही बारीकी से पाठकों के साथ साझा किया है। उदाहरणार्थ – “शीला जी का आग्रह था कि जब तक यह सौदा पूरा न हो जाए, मैं उनके साथ एक्जीक्यूटीव

डाइरेक्टर की हैसियत से राजकमल में बैठूँ।‘’18

आलोच्य आत्मकथा नई कहानी आन्दोलन की साहित्यिक राजनीतिक उठापटक की समझ पैदा करने में हमारी मदद कर सकती हैं। राजेन्द्र यादव, नामवर सिंह,मन्‍नू भंडारी, कमलेश्वर और देवीशंकर अवस्थी जैसे नामों के बीच वैचारिक, राजनीतिक और साहित्यिक चर्चाओं ने संपादन, प्रकाशन और पत्रिका आदि के औचित्य पर कई प्रश्नों को जन्म दिया है। आत्मकथा कुछ अनसुलझे प्रश्नों का भी समाधान करती है जैसे- समीक्षात्मक लेखन क्यों बंद हो गया? काव्य शास्त्र की दिशा में लेखन क्यों बंद हो गया? क्यों सिर्फ निजी पुस्तकालय संस्करण निकलने लगे ? बाद की पीढ़ी साहित्य के प्रति संवेदनहीन क्यों हो गयी? क्‍यों समकालीन रचनाकारों के बीच संवाद भंग हो गया ?

आत्मकथा की विश्वसनीयता स्थापित करने के लिए लेखिका ने इसके अन्त में कई साहित्यकारों के पत्रों का उल्लेख किया है। जिसने आत्मकथा को और अधिक रोचक बना दिया है। ‘ज़माने में हम’ अपने शीर्षक को बहुत हद तक सार्थक करती है क्योंकि यह केवल निर्मला जी के जीवन की ही कहानी नहीं बल्कि दिल्‍ली की कहानी है। विश्‍वविद्यालय की कहानी है। साहित्यकारों की कहानी, छायावाद, प्रयोगवाद, नई कविता, नई कहानी की कहानी है। संपादक, संपादन और प्रकाशक तथा प्रकाशन की कहानी है। यह गुरू-शिष्य के साथ-साथ राजनीति के संबंधों की भी कहानी है।

संदर्भ सूची :

  1. जैन,निर्मला, ज़माने में हम, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्‍ली, पहला संस्करण- 2015, पृ. सं०-13-14
  2. जैन,निर्मला, ज़माने में हम, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्‍ली, पहला संस्करण- 2015, पृ० सं० -51
  3. जैन,निर्मला, ज़माने में हम, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्‍ली, पहला संस्करण- 2015, पृ० सं० -54
  4. जैन,निर्मला, ज़माने में हम, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्‍ली, पहला संस्करण- 2015, पृ० सं० -73
  5. जैन,निर्मला, ज़माने में हम, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्‍ली, पहला संस्करण- 2015, पृ० सं० -77
  6. जैन,निर्मला, ज़माने में हम, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्‍ली, पहला संस्करण- 2015, पृ० सं० -87
  7. जैन,निर्मला, ज़माने में हम, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्‍ली, पहला संस्करण- 2015, पृ० सं० -92
  8. जैन,निर्मला, ज़माने में हम, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्‍ली, पहला संस्करण- 2015, पृ० सं० -96
  9. जैन,निर्मला, ज़माने में हम, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्‍ली, पहला संस्करण- 2015, पृ० सं० -96
  10. जैन,निर्मला, ज़माने में हम, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्‍ली, पहला संस्करण- 2015, पृ० सं० -101
  11. वहीं , पृ० सं० -102
  12. जैन,निर्मला, ज़माने में हम, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्‍ली, पहला संस्करण- 2015, पृ० सं० -127-128
  13. जैन,निर्मला, ज़माने में हम, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्‍ली, पहला संस्करण- 2015, पृ० सं० -138
  14. जैन,निर्मला, ज़माने में हम, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्‍ली, पहला संस्करण- 2015, पृ० सं० -138
  15. जैन,निर्मला, ज़माने में हम, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्‍ली, पहला संस्करण- 2015, पृ० सं० -142
  16. जैन,निर्मला, ज़माने में हम, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्‍ली, पहला संस्करण- 2015, पृ० सं० -209
  17. जैन,निर्मला, ज़माने में हम, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्‍ली, पहला संस्करण- 2015, पृ० सं० -173
  18. जैन,निर्मला, ज़माने में हम, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्‍ली, पहला संस्करण- 2015, पृ० सं० -307

 

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