वादों के दायरे और कुंवर नारायण

डॉ. अनंत विजय पालीवाल

अम्बेडकर विश्वविद्यालय दिल्ली में अध्यापन

ईमेल – avpaliwal25@gmail.com

फ़ोन नंबर – 7982058044

सारांश

हिंदी साहित्य की अन्य विधाओं की तरह ही कविता को भी ‘वाद’ के दायरे में संकुचित करने के प्रयास हुए हैं। रचनाकारों व आलोचकों के खेमे से गुजरती कविता पर किसी न किसी वाद की मुँहर चस्पा दी जाती है। गुट निरपेक्ष रचना या रचनाकार का अस्तित्व एक संकट का विषय है। कुंवर नारायण जैसे रचनाकार भी इस संकट से गुजर चुके हैं। इन्हे भी वादों के दायरे में समेटने के तमाम प्रयास किए गए। अस्तित्ववाद से लेकर मार्क्सवादी प्रभाव तक के तमगे उन्हें दिए जा चुके हैं। इस शोध आलेख में कुंवर नारायण की कविताओं पर ‘वादों’ के प्रभाव को विश्लेषित करने का प्रयास किया गया है।

बीज शब्द

साहित्य, कुँवर नारायण, रचनाकार, अस्तित्ववाद

शोध आलेख – हिन्दी कविता पर वादग्रस्त होने के आरोप नये नहीं हैं। साहित्यकारों व आलोचकों के अपने-अपने खेमे रहे हैं। यह प्रवृत्ति इस कदर हावी है कि गुट-निरपेक्ष रहकर कोई भी रचनाकार चर्चित नहीं हो सकता। हिंदी साहित्य में रचनाकारों को अक्सर उनके लिखे अनुसार इसमें बाँधने का प्रयास किया जाता रहा है। कुछ थोड़े से कवि जो इस गुटबंदी से दूर रहकर स्वतंत्र रचना को महत्व देते हैं उनमें कुँवर नारायण भी एक हैं। ऐसा नही है कि कुँवर नारायण पर वादग्रस्त होने के आरोप नहीं लगे। उनकी विभिन्न रचनाओं को भी अस्तित्ववाद, मार्क्सवाद, यथार्थवाद आदि दर्शनों के दायरे में बाँधने की कोशिश की गयी है। लेकिन कुँवर नारायण के विषय मैं यह स्पष्ट है कि जहाँ वे किसी दर्शन का नकार नहीं करते वहीं उसे अपने ऊपर लादना भी उन्हें पसंद नहीं है। तीसरा सप्तक के वक्तव्य में वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि -“कलाकार या वैज्ञानिक के लिये जीवन में कुछ भी अग्राह्य नहीं : उसका क्षेत्र किसी वाद या सिद्धांत विशेष का संकुचित दायरा न होकर वह संपूर्ण मानव-परिस्थिति है जो उसके लिये अनिवार्य वातावरण बनाती है और जिसे उसका जिज्ञासु स्वभाव बराबर सोचता-विचारता रहता है|”1

नंदकिशोर नवल जैसे कुछ आलोचकों ने कुँवर नारायण को अस्तित्ववादी कहा है मुख्यत: ‘चक़व्यूह’, ‘परिवेश : हम तुम’ और ‘आत्मजयी’ की कविताओं के आधार पर । लेकिन के. सच्चिदानन्द इसे संदेह की दृष्टि से देखते हैं। वे कहते हैं -“मैं इससे इंकार नहीं करता कि कुँवर नारायण ने भी कई दूसरे कवियों की तरह जो पाँचवें दशक के उत्तरार्ध और छठें दशक में उभर कर सामने आए किर्केगार्द , सात्र , मार्सेल और यास्पेरस को पढ़ा होगा और अस्तित्ववादी विचारधारा के प्रभाव में अस्थायी तौर पर निराशा, आशंका, स्वतंत्रता की चिंता और अनस्तित्व के विरुद्ध अस्तित्व के संघर्ष के साथ अपना तादात्म्य स्थापित किया होगा, तथापि स्वयं एक कवि के रूप में ऐसे वर्गीकरणों को मैं संदेह की दृष्टि से देखता रहा हूँ |”2.

दरअसल अस्तित्ववाद पर उस पुराने तर्कवाद का प्रभाव है जो द्वंदवाद का विरोधी है। आत्मगत और वस्तुगत यथार्थ सम्बद्ध न होकर उसके लिये अलग हैं, भूत और चेतना, व्यक्ति और समाज इसी तरह विच्छिन्न इकाइयाँ हैं। अस्तित्ववाद पर सामन्तकालीन धार्मिक अंधविश्वासों का गहरा असर है। इस नज़रिये से देखा जाए तो कुँवर नारायण किसी भी तरह अस्तित्वादी नहीं ठहरते। दरअसल किसी भी लेखन के पीछे वक़्ती हालात बहुत हद तक असर डालते हैं। भारत स्वतंत्र हो चुका था लेकिन भविष्य को लेकर अभी भी कई आशंकाएँ शेष थीं। भयानक गरीबी, भुखमरी और बेरोजगारी से निराशा, कुंठा,आशंका का उभरना स्वाभाविक था। गांव से महानगरों की ओर पलायन, परिवार और सामाजिक संबंधों का टूटना और इससे उत्पन्न मानसिक पीड़ा के मद्देनजर लोगों का आत्महत्या तक के लिये प्रेरित हो जाना, ये कुछ ऐसी चीजें थीं जो हिंदी के ‘नई कविता’ के दौर में उभर कर सामने आ रही थीं जर्मन, फ्रेंच और अंग्रेज़ी साहित्य में तो आत्महत्या की ओर नजर दौड़ाने वालो की एक लम्बी परम्परा है लेकिन हिन्दी के ‘नई कविता’ के दौर में भी इस परिपाटी को ढोने वाले कवियों की कमी नहीं है। कुँवर नारायण के समकालीन अधिकतर कवियों ने इस अस्तित्ववादी दर्शन को अपनाया। अस्तित्ववादी दर्शन में भले ही वस्तुजगत मृत हो, मानव-चेतना ही सत् ‌हो लेकिन व्यवहार में कवि के लिये मुर्दा चीज़ें जानदार हैं और जानदार चीज़ें मुर्दा हैं।

लक्ष्मीकांत वर्मा लिखते हैं-

“आज मैं प्रेत हूँ

क्योंकि मैं अपनी मौत से नहीं मरा हूँ

मैंने की है आत्महत्या जान-बूझकर!”

गिरिजाकुमार माथुर –

“किसी ने भी

मेरी अंतिम आत्महत्या नहीं देखी|”

अशोक वाजपेयी –

“लगातार –

मैं मर रहा हूँ

मर रहा है एक – संसार|”

वहीं कुँवर नारायण “आत्मजयी’ के “मृत्यु मुखात्प्रयुक्तम’ में लिखते हैं –

“नचिकेता को लगा

वह प्रतिभा अभी मरी नहीं ,

न कठोर हुई,

न उसमें काल की अनन्तता व्यापी है:

उसमें अपनत्व की

एक सघन व्यथा अभी बाकी है”

यह सही है कि कुँवर नारायण के आत्मजयी में कई जगहों पर अस्तित्ववादी लक्षण दिखाई दे जाते हैं किन्तु यह पूरी रचना अस्तित्ववादी नहीं कही जा सकती। दरअसल कुँवर नारायण नयी कविता के भीतर अस्तित्ववाद की भारतीय व्याख्या में लगे हुए थे। अस्तित्ववादी नयी कविता में मृत्यु, निराशा, आक्रोश, उबकाई लिजलिजापन, दुर्गनध, वमन आदि जैसे मनुष्य के स्थायी भाव बन गए थे। इस लिहाज स कुँवर नारायण संभवत: उस दौर के अकेले ऐसे कवि थे जिन्होंने आधुनिक अस्तित्वबोध को दर्शन, परंपरा व इतिहास में खोजने का सार्थक प्रयास किया। आत्मजयी की भूमिका में कुँवर नारायण ने यह स्वीकार किया है कि उसका धार्मिक या दार्शनिक पक्ष विशेष चिंता का विषय नहीं, बल्कि मानवीय अनुभव ज़्यादा महत्वपूर्ण है। आज का मनुष्य जिस दबाव से गुजर रहा है नचिकेता उसका प्रतीक है। दरअसल आत्मजयी काव्य का विस्तार कुछ इस प्रकार का है कि उसमें भारतीय वेदान्त के साथ अस्तित्वादी पक्ष भी जुड़े हुए लगते हैं लेकिन प्रक्रिया में दोनों ही पक्षों में अन्तर है। कहा जाए तो यह अस्तित्ववाद के बजाए अस्तित्व-बोध के ज़्यादा निकट है। उनका मनुष्य कबीर के मनुष्य के करीब है जो प्रतिक्षण संप्रदायवाद , बाह्माचार और बाहरी भेदभाव पर कठोर आघात करता रहता है। कुँवर नारायण अपनी प्रारम्भिक कविताओं में अस्तित्ववादी उपमानों से पूर्णतः मुक्त नहीं कह जा सकते जैसे इस कविता में –

समय के केंचुल सरीखा रास्ता

मारकर खाया हुआ-सा पड़ा

चारों ओर खाली नगर-पंजर…

लुंज दीवारें…

सहारे

डरी, सिकुड़ी पड़ी

कुछ परछाइयाँ। …

तत्कालीन कविता की ऐसी परिपाटी को देखते हुए रामविलास शर्मा ने अस्तित्ववादी दर्शन में न्यूरोसिस के कुछ हल्के-फुल्के लक्षणों की पहचान की है। वे लिखते हैं – “सड़कों का उछलना-कूदना, लैम्प पोस्टों की बातें करना न्यूरोसिस को छूने वाले दिवास्वप्न मात्र हैं…… जब सड़कों का यह हाल है तब दीवारें दूसरो की बातें करें उन पर विचार करें यह वाज़िब ही है। उनके कान बहुतदिनों से हैं।”3 उनके इस तंज में कुंवर जी की यह कविता भी शामिल थी-

मुंडेरों के कंधे हिलते हैं

झरोखे झाँकते हैं

दीवारें सुनती हैं

मेहराबें जमुहाई लेती हैं।

( अनात्मा देह : फतेहपुर सीकरी )

रामविलास शर्मा ने संभवत: यह पंक्ति व्यंग्यात्मक रूप में लिखी कि ‘उनके (दीवारों) बहुत दिनों से कान हैं।’ दरअसल यह कविता उन खण्डहरों का मानवीकरण मात्र नहीं है। इसमें अतीत की वे मानवीय संवेदनाएँ हैं जो आज उपेक्षित हैं। उनमें वह खामोश स्पंदन है जो अतीत को वर्तमान से जोड़ती हैं।

कुँवर नारायण ने अपनी कविताओं को लेकर किसी पक्ष या खेमे की जरूरत कभी महसूस नहीं की। यह उस दौर में बड़े जोखिम की चीज थी, जिसमें हर दूसरा कवि किसी न किसी वाद’ का झंडा थामे खड़ा था। अपना स्वर ऊँचा रखने के लिये दूसरों से तेज चीखना, वेदना या संत्रास व्यक्त करने के लिये लिजलिजे और अश्लील शब्दों का चयन करना उन्हें कभी गँवारा नहीं हुआ। कुँवर नारायण की कविताएँ किसी की नीयत पर शक नहीं करती हैं लेकिन उन्हें पता है दूसरों की सोच इससे विपरीत है। इसलिये वे बार-बार गलत समझे जाने, पीड़ित किये जाने, बेदखल किये जाने के चित्र अपनी कविताओं मे ले आते हैं –

वे सब मिलकर

मेरी बहस की हत्या कर डालते हैं

ज़रूरतों के नाम पर

और पूछते हैं कि जिंदगी क्या है

जिंदगी को बदनाम कर।

( जरूरतों के नाम पर )

कोई गश्त लगा रहा है मेरी यादों में –

मैं पहरे में हूँ। ( विकल्प-2 )

कहीं यह भी कोई जुर्म न हो

बहुतों के मामले में

बहुतों से अलग राय रखना! ( आसन्न संकट में )

झूठ या सच से नहीं

इस तरह यकीन रखने वालों के बहुमत से

डरता हूँ

आज भी! (आज भी)

इस प्रकार कुँवर नारायण के अस्तित्ववादी दर्शन के बारे में विष्णु खरे की यह पंक्तियाँ ज्यादा सटीक लगती हैं कि – “कुँवर नारायण की यह और ऐसी कविताएँ कोई काफ़्का-काम्यूनुमा छद्म नहीं है, वे दरअसल एक बर्फीला चीत्कार हैं जो चीजों को देख समझ पाने वाले बीसवीं सदी के मस्तिष्क में लगातार गूँजता रहता है।”4

यहाँ देखने की बात यह है कि कुँवर नारायण विचारधाराओं को अस्वीकार करते हए भी विचार पक्ष पर बल देते हैं। कुछ इसी तरह मार्क्सवाद से पूर्णतः: सहमत न होते हुए भी मार्क्सवाद की जरूरत पर बल दते हैं। क्योंकि उनका मानना है कि ऐसी अनेक विचारधाराएँ आज भी हैं जो एक देश नहीं पूरी मानव-जाति के लिये महत्व रखती हैं। मार्क्स , फ्रायड, आइन्सटीन आदि के विचारों का दायरा उनके ही देश नहीं बल्कि उनके विषयों के बाहर भी उस पूरे चिंतन में व्याप्त है जिसे हम आधुनिक कहते हैं।5 कुँवर नारायण मार्क्स के इसी आधुनिक चिंतन के पक्षधर हैं जिसके केन्द्र में मानव-जाति है। वह उस वर्ग-व्यवस्था के खिलाफ हैं जहाँ व्यक्ति ऊँचे और नीचे पायदानों से पहचाना जाता है। वह शोषक और शोषित की पहचान भलीभांति जानते है साथ ही इस शोषण के खिलाफ तीखी बेचैनी भी ज़ाहिर करते हैं –

कया हम अभी भी

उन्हीं नीचाइयों में खड़े हैं

जहाँ ऊँचाइयों का असर

पड़ता है?

रूसी क्रांति के इतने दशक बाद और भारत में चले तमाम आंदोलनों के बावजूद भी ऊँचाइयों का नियम बदस्तूर जारी है। समाज में मौजूद स्तरीकरण ही हर आदमी की नियति को तय करता है। ‘लापता आदमी का हुलिया’ कविता में कुँवर नारायण इस मुल्क के एक आदमी की वर्तमान स्थिति को इसी संदर्भ में बयाँ करते हैं –

रंग गेहूँआ, ढंग खेतिहर

उसके माथे पर चोट का निशान

उम्र पूछो तो हज़ार साल से कुछ ज़्यादा बतलाता है।

देखने में पागल-सा लगता-है नहीं

कई बार ऊँचाइयों से गिरकर टूट चुका है

इसलिये देखने पर जुड़ा हुआ लगेगा

हिन्दुस्तान के नक्शे की तरह।

( लापता का हुलिया )

दरअसल यह ऐसी सत्ता है जो कबीलाई संस्कृति से आज तक सिर्फ अपने मुखौटे बदलती आई है। वर्ग-संघर्ष का यह इतिहास आदिम युग से वर्तमान तक आज भी स्थायी है। सत्ता की ऐसी ही नुमाइश को वे इतिहास से वर्तमान तक लेकर आते हैं –

अब किसी बात को लेकर चिंता

करना व्यर्थ है

वे आ गए हैं।

उन्होंने फिर एक बार हमें जीत लिया है।

उनके जत्थे अब

लूट की खुली छूट के लिये बेताब

हैं।

( बर्बरों का आगमन )

इस तरह मार्क्सवादी चेतना से प्रभावित कुँवर नारायण की कई अन्य कविताएँ भी हैं। लेकिन उनका मानना है कि लेखक विचारधाराओं से तटस्थ रहते हुए भी उनसे विचारतत्व ग्रहण कर सकता है, ताकि उसकी मेधा में विचार स्वातंत्र्य की जगह हमेशा सुरक्षित रहे। ‘परिवेश : हम तुम’ की भूमिका में वे कहते हैं -“मानवीय मूल्यों की रक्षा के लिये कुछ सामाजिक नियमों को मानना अनिवार्य हो जाता है, लेकिन ये नियम चाहे समाज के हों, चाहे राज्य के, इस सीमा तक मान्यनहीं हो सकते कि व्यक्ति की स्वतंत्रता में बाधक हो जायें।”6 व्यक्ति स्वतंत्रता को लेकर मार्क्स की यह खीझ भी प्रसिद्ध है कि, मुश्किल तो यह है कि मैं मार्क्सवादी नहीं, मार्क्स हूँ।

इस प्रकार कुँवर नारायण ‘मार्क्सवाद’ को पूरी तरह खारिज कभी नहीं करते बल्कि साहित्य में उसकी जबरदस्त उपस्थिति को वे स्वीकार करते हैं क्योंकि यह भी सत्य है कि जितनी आलोचना मार्क्सवाद ने आकृष्ट की उतनी शायद किसी और विचारधारा ने नहीं की। अन्तत: कुँवर नारायण की वाम-विचारधारा के संबंध में ‘विष्णु खरे’ की यह पंक्तियाँ ज़्यादा सटीक लगती हैं “वे वामपंथी नहीं है लेकिन यदि अन्याय, अत्याचार, बर्बरता , तानाशाही तथा फासीवादी मानसिकता के विरुद्ध बिना गुर्राए, रेंके या छुँछआए खड़ा रहना प्रतिबद्धता है तो कुँवर नारायण की पक्षधरता असंदिग्ध है।”7.

‘तीसरा सप्तक’ में प्रकाशित वक्तव्य में कुँवर नारायण ने सन्‌ 1959 में ही कहा था कि कविता मेरे लिए कोई भावुकता की हाय-हाय न होकर यथार्थ के प्रति एक प्रौढ़ प्रतिक्रिया की मार्मिक अभिव्यक्ति है। सम्भवतः इसलिये कुँवर नारायण की कविताएँ चीख-पुकार से दूर यथार्थ को उसकी संवेदना के साथ प्रस्तुत करती हैं। उनके यहाँ यथार्थ केवल वो नहीं जो नजरों के समक्ष है या जो स्वयं भोगा हुआ है। बल्कि उनका मानना है कि “कविता यथार्थ को नज़दीक से देखती मगर दूर की सोचती है। वह एक बारीक मगर ज़रूरी फर्क करती है जीवन-यथार्थ और जीवन-सत्य के बीच।… एक कवि में अगर दूर तक सोच सकने की ताकत नहीं है तो उसकी कविता या तो यथार्थ की सतह को खरोंचकर रह जाएगी, या किसो भी आदर्श से चिपककर।”8 कविता में यह दूर तक सोच सकने की ताकत केवल इस पर निर्भर नहीं करती कि कवि अपने चारों ओर की जिंदगी का कितना सही-सही चित्रण करता है बल्कि इस पर कि वह अपने बाह्य और आन्तरिक यथार्थ का कितना संशिलष्ट रूप हमें दे पाता है। साधारण शब्दों में कहें तो कविता यथार्थपरक होते हुए भी अत्यंत आत्मीय और निजी भी हो सकती है जैसे निराला की सरोज-स्मृति। आत्मीयता या निजता यथार्थवाद का एक हिस्सा हो सकते हैं किंतु आवश्यक शर्त नहीं। यहाँ यथार्थ को लेकर कवियों के अपने नजरिये भी देखे जा सकते हैं जहाँ अज्ञेय कहते हैं कि ‘जितना तुम्हारा सच है, उतना ही कहो’ वहीं कुँवर नारायण कहते हैं कि –

क्या वह हाथ

जो लिख रहा है

उतना ही है

जितना दिख रहा?

या उसके पीछे एक और हाथ भी है

उसे लिखने के लिये बाध्य करता हुआ?

( सतहें )

कुल मिलाकर नयी कविता के यथार्थ ने जहाँ शिल्प की अभिजात्यता को तोड़ा वहीं कविता में संज्ञाएँ भी ‘आमजन’ के बीच से ही ली जाने लगीं। सर्वेश्वर, नागार्जुन, धूमिल और रघुवीर सहाय ने इसे और ज़्यादा सावधानी से निभाया। “हरचरना’, “मुसद्दीलाल” या “रामदास’ जैसे चरित्र रघुवीर की कविता में बराबर आए। कुँवर नारायण की कविता में भी ऐसे चरित्र हमसे टकराते हैं, जैसे ‘सम्मदीन’, ‘रहमत अली शाह’, ‘ढोढ़ूँ भाई’ आदि। दरअसल यह नई कविता का यथार्थ है जिसके देखने के चश्मे अलग हैं। उसमें अतीत का विरोध नहीं बल्कि उससे संवाद है, तर्क है। उनका यह संवाद, यह तर्क उन सभी वादों, विचारधाराओं से भी है जिन्होंने अतीत से लेकर वर्तमान तक मनुष्यता को युद्ध और उन्माद दिये हैं। सभ्यताएँ तब भी थीं, आज भी हैं, पतन तब भी हुआ था और आज भी हो रहा है। ऐसे मैं नचिकेता के माध्यम से कवि केवल इतना ही वरदान चाहता है –

यह दुनिया- यह भविष्य

तुमको सादर वापस

मिल सके अगर तो

एक दृष्टि चाहिये

जीवन बच सके

अंधेरा हो जाने, से- बस।

दरअसल इन स्थापित वादों , दर्शनों के बीच और उनसे इतर भी कुँवर नारायण का अपना रचना संसार है जो केवल मनुष्य पर शुरु होता है और लगातार उसी के साथ चलता रहता है। उनके लिये यह समाज, इसमें होने वाले युद्ध, सत्ता की दौड़, मारकाट, हिंसा, सांप्रदायिकता इन सभी के बाद जो अंतिम हद है, वह है घर। यह किसी भी लक्ष्य की अंतिम हद है, किसी भी जीत का अंतिम प्रमाण। इस परिप्रेक्ष्य में कुँवर नारायण पूरी मनुष्यता के लिये यही बयान दर्ज करना चाहते हैं कि-

घर रहेंगे, हमी उनमैं न रह पाएँगे

समय होगा, हम अचानक बीत जाएँगे।

संदर्भ

।) मिश्र, यतीन्द्र(सं), कुँवर नारायण उपस्थिति-2, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण, 2002, पृ. 424.

2) मिश्र, यतीन्द्र(सं), ‘कुँवर नारायण उपस्थिति-2’, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण-2002, पृ.377.

3) शर्मा, रामविलास , नई कविता और अस्तित्ववाद , राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण-2012, पृ. 22-23.

4) खरे, विष्णु, ‘मुझे एक मनुष्य की तरह पढ़ो’, आलोचना की पहली किताब, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, प्रथम सं- 1983, पृ. 84.

5) श्रीवास्तव, परमानंद, ‘समकालीन हिंदी आलोचना’ , “आधुनिक समय-रचनात्मकता”, कुँवर नारायण, साहित्य अकादेमी, पृ. 178.

6) नारायण, कुँवर, भूमिका- परिवेश : हम तुम, वाणी प्रकाशन, तृतीय संस्करण, 2006, पृ. 07.

7) खरे, विष्णु, ‘मुझे एक मनुष्य की तरह पढ़ो’, आलोचना की पहली किताब, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, प्रथम सं- 1983, पृ. 91.

8) नारायण, कुँवर, ‘सामाजिक यथार्थ और कविता का आत्मसंघर्ष: कुछ नोट्स’, समकालीन हिंदी आलोचना, संपादक- परमानंद श्रीवास्तव, साहित्य अकादेमी, पृ. 179.

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