विद्यानिवास मिश्र के मूल्य-बोध का समकालीन संदर्भ: (तुम चंदन हम पानी के विशेष संदर्भ में)

रोशन कुमार प्रसाद

पीएच.डी हिंदी

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय

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सारांश

समकालीन सन्दर्भ में विद्यानिवास मिश्र का चिंतन हमारे परंपरागत् नैतिक मूल्यों को मात्र समझने का माध्यम ही नहीं है, अपितु मनुष्य को एक स्वच्छ जीवन जीने की प्रेरणा देने वाला विचारात्मक सूत्र भी है। दरअसल मिश्र का मूल्य-बोध प्राचीन वांङ्मय से प्रेरणा पाकर नवीन चिंतन-धारा से केवल प्रभावित ही नहीं हुआ है, बल्कि और भी अधिक विकसित हुआ है। इस रूप में वे भारतीय सांस्कृतिक चिंतनधारा के पुरोधा भी माने जाते हैं। भारतीय संस्कृति व चिंतन आज विज्ञान व तकनीक के युग में क्या प्रासंगिकता रखता है अथवा मनुष्य में सहयोग व भावनात्मक संवेदना का ह्रास किस स्तर तक हो उठा है इसकी स्पष्ट झलक वउनके लेखन व चिंतन में देखने को मिलती है। मिश्र के लेखन में मात्र भारतीय संस्कृति का शास्त्रीय और लोक पक्ष ही प्रस्तुत नहीं होता, अपितु इसमें जीवन जीने की नई दृष्टि भी समाहित नज़र आती है। भाषा, साहित्य, संस्कृति, समाज, राजनीति, दर्शन इत्यादि मानवीय संदर्भों के व्यापक दर्शन उनके निबंधों में होते रहते हैं। विद्यानिवास मिश्र के लेखन की विशेषता भी यही है; जो परंपरागत मनुष्य को आधुनिकता से व आधुनिक मनुष्य को उसकी परंपरा की जड़ से जोड़ती है।

सन् 1957 में प्रकाशित मिश्र के निबंध-संग्रह ‘तुम चंदन हम पानी’ पर आधारित यह शोध आलेख उनकी चिंतनधारा के माध्यम से मानवीय मूल्यों की परख व उसकी पहचान को रेखांकित करता है। साथ ही समकालीन सन्दर्भ में उनके मूल्य-बोध की प्रासंगिकता का विश्लेषण भी प्रस्तुत करता है।

बीज शब्द

मूल्य-बोध, समकालीनता, दान-धर्म, गुटनिर्पेक्ष, आनंदवाद, सौंदर्य-बोध

शोध आलेख

जब हम मानवीय मूल्यों के परिवर्तमान स्थिति पर विचार करते हैं; तो अनायास ही हमारा ध्यान; मानव-जीवन के विकास के उस ऐतिहासिक काल-खण्ड की ओर चला जाता है; जहाँ से उसकी जय-यात्रा प्रारंभ होती है। आदिम मनुष्य द्वारा कृषि के आविष्कार किये जाने से सबसे पहला काम यह हुआ कि इस क्रांतिकारी उपलब्धि के परिणामस्वरूप मानव-मानव के मध्य परस्पर आर्थिक सहयोग की भावना का जन्म हुआ। पर क्या? मात्र आर्थिक उपादानों के सहारे जीवन को टिकाऊ बनाया जा सकता था? नहीं। अस्तु उसने आर्थिक-सहयोग के साथ-साथ परस्पर मानवीय संबंधों को सशक्त आधार देने या यों कहें कि अपने जीवन को व्यवस्थित करने के लिए कबीलों व कुनबों का निर्माण किया। कहना न होगा कि जैसे-जैसे वह सभ्यता का विकास करता गया, प्रकारांतर से उसके जीवन-स्तर में निरंतर बदलाव आता गया। वह अपनी दुर्दम जिजीविषा के बल पर आदि मानव से मानव और मानव से महामानव के रूप में अपने को स्थापित करने के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहा। आज मनुष्य ने अपनी प्रबल इच्छा शक्ति और बौद्धिक कौशल के बल पर विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के साथ-साथ ज्ञान की एक वृहत् परंपरा का विकास किया है। यह मानव की महान उपलब्धि का एक पहलू है। दूसरा पक्ष यह है कि भले ही आज उसने ज्ञान–विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में असाधारण उपलब्धियाँ क्यों न प्राप्त कर ली हों, परंतु आज के इस यांत्रिक युग में कहीं-न-कहीं हमारी संवेदनाएं, मनुष्य को आपस में जोड़ने वाली परस्पर सहयोग, समन्वय एवं परोपकार की भावनाएं निरंतर समाप्त होती जा रही हैं।

पण्डित विद्यानिवास मिश्र का निबंध साहित्य ऐसे ही मानवीय मूल्यों की पड़ताल करता है। वैसे तो मिश्र के निबंध साहित्य में विषय वैविध्य की प्रधानता है, किंतु उनकी समस्त चिंतन दृष्टि भारतीय संस्कृति की मूल मान्यताओं, हमारे आराध्यों और हमारे मांगलिक प्रतीकों को उद्घाटित करने के साथ-साथ मानवीय संवेदनाओं, परस्पर सहयोग की भावनाओं इत्यादि को अक्षुण्ण बनाए रखने में भी बख़ूबी रमी है। मिश्र का निबंध साहित्य मात्र भारतीय संस्कृति के लोक और शास्त्रीय पक्ष को ही उद्घाटित नहीं करता; प्रत्युत हमें जीवन जीने की नई दृष्टि भी प्रदान करता है। गौरतलब है कि मिश्र के निबंध साहित्य का जब हम अवलोकन करते हैं तो पाते हैं कि यह अपने में विविध संदर्भों को समेटे हुए है। भाषा, साहित्य, संस्कृति, समाज, राजनीति, दर्शन इत्यादि मानवीय संदर्भों के व्यापक दर्शन मिश्र के निबंधों में अकसर होते रहते हैं। विद्यानिवास मिश्र के मूल्य-बोध को समकालीन संदर्भ में देखने से पूर्व यहाँ मूल्य एवं समकालीनता का परिचयात्मक ज्ञान प्राप्त कर लेना अत्यंत समीचीन प्रतीत होता है। अध्ययन की इसी कड़ी में वर्तमान संदर्भ में उनके चिंतन की प्रासंगिकता पर सूक्ष्मता से विचार करने का प्रयास किया जायेगा।

मूल्य का अविच्छिन्न रूप से संबंध किसी वस्तु की उपादेयता या अनुपादेयता से है। अर्थात् जब मानव अपनी सद् या असद् प्रवितियों के द्वारा किसी वस्तु की उपयोगिता या अनुपयोगिता का निर्धारण करता है, समझिये कि वही मूल्य है। वैसे तो इस शब्द का प्रयोग अर्थ-शास्त्र में सर्वाधिक होता है, किंतु दर्शन और साहित्य के क्षेत्र में भी इसका प्रयोग अधिकाधिक होने लगा है। मान, प्रतिमान, निकश इत्यादि शब्द भी इसके पर्याय के रूप में हमें देखने को मिलते हैं। इनका अर्थ भी वस्तुओं के गुण-दोष अथवा माप-परिमाप से है। प्रसिद्ध दार्शनिक पैरिंग ने “प्रत्येक वस्तु, छोटी-छोटी क्रियाएँ, सृजन, मनोविकार”[1] इत्यादि को मूल्य की कोटि में स्थान दिया है।

बोध शब्द ज्ञान के अर्थ को द्योतित करता है। साथ ही यह अनुभूति, सोच, विचार, चिंतन और विमर्श के अर्थ को भी द्योतित करता है। किसी सुंदर वस्तु को देखकर हमारा मन अनायास ही उसकी ओर आकृष्ट होता चला जाता है साथ ही स्थिति और भावानुरूप हमारे ऐंद्रिक ज्ञान के स्वरूप में भी परिवर्तन दिखाई देने लगता है। मसलन यह कि प्रसन्न होकर हँसना, दुखी होकर रोना ये मनुष्य के परिस्थितिजन्य स्वभाव हैं यही ऐंद्रिक परिवर्तन है क्योंकि मानवीय संवेदनाओं और भावनाओं का प्रत्यक्ष संबंध हमारी इंद्रियों से होता है। प्रकृति और परिस्थिति में जब भी परिवर्तन होता है, उसका प्रभाव हमारी इंद्रियों पर अवश्य पड़ता है। मनुष्य जब किसी वस्तु या पदार्थ के गुण-धर्म और मूल्यों से प्रभावित होता है तब वह उनके प्रति आकृष्ट होता चला जाता है। परिणाम स्वरूप वह वस्तुओं या पदार्थों से तादात्म्य स्थापित करने की चेष्टा करता है और जब वह अपने को उनके साथ एकाकार कर लेता है तभी हमारी इंद्रियाँ संवेदित हो उठती हैं। मानवीय इंद्रियों के संवेदित होने की इसी अवस्था को साहित्य की भाषा में बोध कहा गया है।

आलोचना के क्षेत्र में प्रयोग की जाने वाली समकालीनता वह अवधारणा है, जिसको किसी एक परिभाषा के चौखटे में बांधकर नहीं रखा जा सकता। यह शब्द एक कालवाचक संज्ञा है, प्रत्यय है। समकालीन का सतही अर्थ है, एक ही समय में रहने वाला व सामान युग में रहने वाला। यह अंग्रेजी के ‘कान्टेम्पोरेरी’ (Contemporary) का हिंदी पर्याय है। वास्तव में ‘सम’ शब्द का अर्थ ‘एक ही’ व ‘एक साथ’ और ‘कालीन’ का अर्थ ‘समय’ व ‘काल’ है। इस प्रकार समकालीन का स्पष्ट अर्थ एक ही समय में होने व रहने वाला है। मानक हिंदी शब्दकोश के अनुसार समकालीन का अर्थ है, “जो उसी काल या समय में जीवित अथवा वर्तमान रहा हो, जिसमें कुछ और लोग भी विशिष्ट रहे हों। एक ही समय में रहने वाला। जैसे महाराणा प्रताप अकबर के समकालीन थे।”[2] वस्तुतः समकालीनता के अर्थ स्वरूप व उसकी परिभाषा को लेकर विद्वानों में मतभेद देखने को मिलता है; किन्तु समकालीनता को लेकर श्री कल्याण चन्द्र का मत विशेष रूप से उल्लेखनीय है, जिनके अनुसार “समकालीनता में वर्तमान बोध के साथ ही अतीत और भविष्य का विवेकसम्मत बोध होता है। यह विशिष्ट वर्तमान बोध ही समकालीनता को अभिव्यक्ति देता है।”[3] इस प्रकार समकालीनता का सम्बन्ध अतीत से होते हुए भी अपने विशिष्ट मूल्यों के कारण वर्तमान से बना रहता है। विद्यानिवास मिश्र ने अपने निबंधों में सत्य-धर्म, दान-धर्म, दया-धर्म, आनंद तत्त्व एवं प्राकृतिक सौंदर्य की रक्षा पर अत्यधिक बल दिया है जो समकालीन सन्दर्भ में विलुप्त होती नैतिक मूल्यों का आधार स्तम्भ है। उपर्युक्त बिंदुओं पर विचार करते हुए मिश्र के मूल्य-बोध को समझना इस शोध आलेख का मूल प्रयोजन है।

  1. भारतीय चिंतन परंपरा में सत्य-धर्म का स्वरूप और इसके प्रति विद्यानिवास मिश्र का दृष्टिकोण

सत्य के वास्तविक रूप को समझना किसी भी भारतीय एवं पाश्चात्य दार्शनिक के लिये सहज नहीं रहा है। इसका सर्वाधिक कारण यह है कि प्रत्येक वस्तु का अपना ही एक स्वरूप होता है। उदाहरण के तौर पर देखा जाए तो सत्य की वस्तुगत सत्ता को भौतिक विकासवाद , यथार्थवाद या द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के चश्मे से देखने का प्रयास यह सिद्ध करने के लिए किया गया कि समस्त जीव की व्युत्पत्ति सिर्फ और सिर्फ अनेक जैविक क्रियाओं के घात-प्रतिघात से हुई है। जीवन की वस्तु स्थिति यही है कि दो परस्पर विरोधी शक्तियों के मध्य होने वाले संघर्ष से एक तीसरी शक्ति का जन्म होता है। इस प्रकार जीवन का क्रम ऐसे ही चलता रहता है तो आत्मा-परमात्मा के स्वरूप का प्रश्न उठ खड़ा हुआ। जैन दर्शन उपर्युक्त समस्याओं का समाधान ढूँढने का प्रयास करता है। उसके अनुसार सत्य अनेक धर्मगुणयुक्त होता है। वह इस सिद्धांत पर अधिक बल देता है कि कोई भी विचार निरपेक्ष सत्य नहीं होता। हाँ, एक ही वस्तु के संबंध में दृष्टि-अवस्था, गुण आदि भेदों या परिवर्तन के कारण भिन्न-भिन्न विचार सत्य हो सकते हैं। “अनन्तधर्मकम् वस्तु”[4]

पण्डित विद्यानिवास मिश्र अपने निबंधों के माध्यम से सत्य के विविध रूपों में समन्वय स्थापित करने की चेष्टा करते हैं। मिश्र जब सत्य के स्वरूप पर विचार करते हैं; तो उनके चिंतन का दार्शनिक पक्ष हमें दिखायी देता है। वे सत्य और असत्य को पृथक-पृथक करके देखना कोरा बौद्धिक श्रम का निरर्थक व्यय मानते हैं। वे किसी भी राष्ट्र को एक आदर्श रूप प्रदान करने के लिए ऐसे सत्य की वकालत करते हैं; जो अखण्ड हो, कर्तव्य की भावना से युक्त हो तथा मनुष्य-मनुष्य के मध्य समन्वय स्थापित करने की उसमें अपार शक्ति हो। सत्य संबंधी मान्यताओं को उनके निबंध ‘अहं अनृतात् सत्यम् उपैमि’ में सहज ही देखा जा सकता है; जिसमें उन्होंने भारतीय संस्कृति की ग्रहणशीलता (द्रविड़ों के पूजा विधान, निषाद की विनयशीलता तथा विजातीय सत्य) के सम्मिलित रूप को रेखांकित कर उसे ‘एकम् सद्विप्रा बहुधा वदन्ति’ के रूप में स्वीकार किया है। इस संदर्भ में उन्होंने लिखा है, “सत्य एक है और खण्ड है। इसके पहलू कई हो सकते हैं। देश और काल के भेद से उन पहलुओं के कई नक्शे भी हो सकते हैं; पर सत्य अनेक नहीं हो सकता और उसके खण्ड नहीं किये जा सकते। सत्य के बारे में शुद्ध-अशुद्ध का अनुपात नहीं निकाला जा सकता। इंद्र, वायु, वरुण, अग्नि और सूर्य यदि सत्य हैं तो शिव, उमा, विष्णु और दुर्गा भी उतने ही सत्य हैं, निराकार और निरंजन भी उतने ही सत्य हैं, कम-बेशी कोई नहीं। हमारी सत्य-साधना ने यह सीखा ही नहीं सत्य का सत्य से विरोध होता है, सत्य का सत्य से खण्डन होता है, सत्य का सत्य से भेद होता है। इस लिए जब द्रविड़ों ने पूजा विधान दिया, हमने उसे सिर आँखों लिया। निषाद ने विनय दिया, हमने उसे हृदय से लगाया। हमने विजातीय सत्य को भी स्वीकार किया। किसी सत्य से इनकार नहीं किया। सत्य का पैमाना है, सत्य की खोज, सत्य को पाने की कोशिश। सत्य को कायरता का, पलायन का और वंचना का कवच नहीं पहनाया जा सकता।[5]

इस उद्धरण में निबंधकार ने सत्य को अविभाज्य, कायरता, पलायनता एवं प्रवंचना रहित मानकर इसे कालबद्ध चेतना के साथ अंतर्भूत करके देखने का प्रयास किया है। उनकी दृष्टि में सत्य का चाहे कोई भी रूप क्यों न हो, इसका मुख्य ध्येय मानवीय मूल्यों की रक्षा करना ही होना चाहिए। सही अर्थों में देखा जाए तो साहित्य ही वह क्षेत्र है, जो इनकी रक्षा भावात्मक और विचारात्मक दोनों ही स्तर पर भली-भांति करने का प्रयास करता है। राजनीति शायद यह नहीं कर पाती; इसलिये वह कलुषित हो जाती है। कहना न होगा कि सत्य बड़े साहस से आता है। अपना हृदय निःसंकोच भाव से किसी के समक्ष खोलकर रख देना बड़े ही साहस का काम है और यह साहस हमारी राजनीति की प्राचीन परम्परा में देखने को मिलता है। कहा जाता है कि शकुंतला-दुष्यंत-पुत्र भरत ने अपने सात पुत्रों में से किसी एक में भी राजा का गुण न पाकर दत्तक पुत्र भरद्वाज भिमन्यू को हस्तिना पुर का युवराज नियुक्त कर एक स्वच्छ लोकतंत्र की स्थापना की थी।

शीत युद्ध के दौरान जब विश्व दो गुटों में विभाजित हो गया तब हमने गुटनिरपेक्षता की नीति को अपनाकर विश्व को एक संदेश दिया था कि गुटनिर्पेक्षता विश्व को संतुलित करती है, जबकि गुटबंदी असंतुलित। हमारी प्राचीन, किंतु स्वच्छ लोकतांत्रिक व्यवस्था को अघोषित साम्राज्यवादी शक्तियों को अपनाने का आह्वान करते हुए विद्यानिवास मिश्र लिखते हैं–“तुम्हारी शक्ति, तुम्हारा वैभव, तुम्हारा अभिमान, तुम्हारा दावा झूठा है। दूसरों को आश्रित बनाकर आश्रयदाता बनाने वाली तुम्हारी सभ्यता मिथ्या है। उसे छोड़ो, सत्य को स्वीकार करो। एक-दूसरे से दुराव, एक-दूसरे से छुपाव छोड़ो। एक-दूसरे पर विश्वास करना सीखो। एक-दूसरे को सच्चा जानना सीखो।”[6]

उल्लेखनीय है कि पश्चिम के शक्तिशाली देशों ने अपने मिथ्याभिमान एवं झूठे आश्वासन से तीसरी दुनिया के देशों के प्राकृतिक संसाधनों पर एकाधिकार करने की चेष्टा की। मिश्र ने इस उद्धरण के माध्यम से ऐसे शक्तिशाली देशों द्वारा छल-छद्म की प्रवृत्ति को त्यागकर उनसे एक-दूसरे के मध्य आत्मीय संबंध कायम करने का आग्रह किया है। जैसाकि विद्वानों द्वारा उन्हें पलायनवादी करार देते हुए जीवन की परिवर्तमान स्थिति के प्रति उदासीन होने का उनपर आरोप लगाया जाता रहा है, इस सम्बन्ध में मिश्र जी का उक्त राजनीतिक चिंतन ऐसे भ्रामक धारणाओं का सटीक खण्डन करता है।

  1. दाम्यत्, दत्त, दयध्वम् की प्रतिष्ठा और विद्यानिवास मिश्र

दाम्यत्, दत्त, दयध्वम् (इंद्रिय निग्रह, उदारता दयालुता) अपने और पराये को जोड़ने वाली प्रवृत्ति है। इसका वास्तविक अर्थ अपनेपन का दावा छोड़ना है। उदाहरणार्थ: भौतिक वस्तुओं के प्रति मोह को त्यागकर निःस्वार्थ भाव से न केवल उसे दूसरे को अर्पित कर देना है, प्रत्युत समस्त मानव-जाति के हृदय में सहिष्णुता की भावना को जागृत करना भी है। भारतीय संस्कृति में दान धर्म की प्रतिष्ठा का उत्कृष्ट उदाहरण हमें महाभारतकाल में देखने को मिलता है। इस काल में ययाति और कर्ण जैसी दान-वीर के रूप में विभूतियाँ हुईँ, जिन्होंने जन कल्याणार्थ अशेष हृदय से अपना सर्वस्व अर्पित कर दिया। विद्यानिवास मिश्र भारत की इसी दान-धर्म की परंपरा को परखते हुए इसे आधुनिक संदर्भ में व्याख्याइत करने का प्रयास किया है। उन्होंने ‘दाम्यत्, दत्त दयध्वम्’ नामक निबंध में अपने उद्गारों को इस प्रकार व्यक्त किया है- “मानव का जीवन-मंत्र दान है। दान की परिभाषा है, अपनेपन का दावा छोड़ना। जिसे अपनी मानकर ममता रखी उस वस्तु को सहज भाव से दूसरे को अर्पित कर देना, यह दान अपने और पराये को जोड़ने वाली संधि है। यह दान मानव का उसकी समस्त दुर्बलताओं से उद्धार है क्योंकि दान देकर मनुष्य एकदम बड़ा हो जाता है।”[7]

मिश्र दान-धर्म की सार्थकता तभी सिद्ध मानते हैं, जब वह अपनेपन के दावे से रहित समयानुकूल व राष्ट्रोचित हो। उदाहरण के तौर पर देवकी और वासुदेव को कंस के कारागृह से मुक्ति दिलाने व उसके अत्याचार का प्रतिकार करने हेतु तरुणों, सुहागिनों, माताओं, पिताओं के संयुक्त त्याग व बलिदान को सहज ही देखा जा सकता है। आततायी कंस के अत्याचार से मथुरा वासियों को मुक्ति दिलाना बिना उनके संयुक्त त्याग व बलिदान के असंभव था। आधुनिक संदर्भ में जब हम इसका विश्लेषण करते हैं तो ज्ञात होता है कि आज इसका संबंध निश्चित रूप से श्रम से जुड़ा हुआ है। किसी भी राष्ट्र को सशक्त बनाने के लिये उसके प्रति मनसा, वाचा, कर्मणा समर्पित होना पड़ता है, तब कहीं एक विकसित राष्ट्र का निर्माण होता है। परतंत्रता की बेड़ियों से मुक्त भारत को वैश्विक मंच पर प्रतिष्ठित देशवासियों द्वारा श्रम-दान करके ही किया जा सकता था। मिश्र ने अपने इसी निबंध में तत्कालीन भारतवासियों से श्रम-दान का आह्वान करते हुए लिखा है, “श्रम दो, श्रम दो, श्रम दो। अपने अशेष हृदय से देश के निर्माण की ईंट एक के ऊपर एक बिठलाने के लिये अपने पसीने का गारा दो, भवन अचल हो जायेगा। पसीना मलिन होता है। पर उस पसीने का दान उस मलीनता के लिये चुनौती होता है।”[8] कहने का आशय यह है कि कोई भी परिवार, समाज व राष्ट्र अपना विकासात्मक स्वरूप तभी धारण कर सकता है, जब व्यक्ति अपने आप को उसके कल्याणार्थ मनसा, वाचा, कर्मणा प्रतिबद्ध हो जाए।

  1. विद्यानिवास मिश्र का आनंदवादी दृष्टिकोण

पण्डित विद्यानिवास मिश्र दाम्यत्, दत्त, दयध्वम् की ही भांति आनंद तत्त्व को एक ऐसी वस्तु के रूप में स्वीकार करते हैं, जिसे आत्मसात करके समस्त वादों-प्रतिवादों से मुक्त होने के साथ ही एक स्वस्थ किंतु कल्याणकारी विचारधारा की स्थापना की जा सकती है। आनंदवादी विचारधारा मात्र भोगवाद को प्रश्रय नहीं देती, वह ‘परांतः सुखाय’ की भावना को लेकर चलने वाली शक्ति भी है। उनकी दृष्टि में आनंद वह तत्त्व है, जो व्यष्टि विशेष की नहीं वरन् समष्टि के कल्याण की बात करता हो। उनके अनुसार वह विचारधारा जो मात्र व्यष्टि की मुक्ति का समर्थन करती हो; वह खोखली है। मिश्र की दृष्टि में ‘अस्तित्त्ववादी’ विचारधारा उनमें से एक है। वे अस्तित्ववाद के उस सिद्धांत के प्रबल विरोधी प्रतीत होते हैं; जो ईश्वरीय सत्ता को महत्व न देकर व्यक्ति की सत्ता को केवल स्वीकार ही नहीं करता, वरन् मनुष्य जाति के विकास की सर्वोत्तम सामाजिक संस्था की अवधारणा का खंडन भी करता है। ‘व्यष्टि और समष्टि की संधि’ नामक निबंध में उनकी आस्थावादी और आनंदवादी दृष्टि अत्यंत मुखर हो उठी है। उन्होंने शिव को आनंद के रूप में न केवल स्वीकार किया है, वरन् आनंद रूपी ईश्वर के प्रति अपनी गहरी आस्था भी प्रकट की है। इस संदर्भ में उनके निबंध से एक उद्धरण को देखा जा सकता है “हम ईश्वर या समाज के स्थान पर मानव को प्रतिष्ठित करने की बात क्यों करते हैं? ईश्वर, समाज और व्यक्ति में आनंद को प्रतिष्ठित करने की बात क्यों नहीं करते? संप्रदाय से संप्रदाय का जन्म होगा, उससे अनावस्था आएगी। आनंद या भूमा ऐसी स्थिति है, जहाँ से पुनरावर्तन नहीं होता फिर उसी के ऊपर क्यों न बल दिया जाए?”[9]

ध्यातव्य है कि पण्डित विद्यानिवास मिश्र की यह उक्ति आज कितनी प्रासंगिक दिखाई देती है, यह कहने की आवश्यकता नहीं। हमारे धार्मिक और राजनीतिक मठाधीश अपनी-अपनी विचारधारा और अपने-अपने संप्रदाय को केवल श्रेष्ठ सिद्ध करने में ही नहीं लगे हुए हैं, बल्कि इन्होंने कट्टरवाद को पल्लवित और पुष्पित करने का कार्य भी किया है।

  1. विद्यानिवास मिश्र का सौंदर्य-बोध

मिश्र सौंदर्य और कला के पारखी माने जाते हैं। ‘तुम चंदन हम पानी’ निबंध संग्रह में अवर-सृष्टि और मानव-सृष्टि के सौंदर्य के विविध रूपों के दर्शन होते हैं। उनके द्वारा इस रचना में कई ललित शब्दावली प्रयुक्त की गई है; जो हमारे अंतःकरण में स्थित लालित्य-तत्त्व को संस्पर्श करती हैं। यथा- प्रफुल्ल, मनोहर, सुंदर, उदात्त, सुषमा, दीप्ति, प्रीति इत्यादि।

विधाता ने जब मानव की रचना की तो उन्होंने उसे बुद्धि-विवेक प्रदान करने के साथ-साथ उसे दृढ़ निश्चयी और अदम्य साहसी भी बनाया। उसकी यही अपराजेय शक्ति समय-समय पर प्रकृति प्रदत्त समस्त उपादानों में उसे एक सौंदर्यात्मक कृति के रूप में प्रतिष्ठापित करती रही है। तमाम सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनीतिक विप्लवों या मिथकीय संदर्भ को देखें तो महाकाल द्वारा सृष्टि को जलमग्न कर देने के बावजूद भी उसकी दुर्दम जिजीविषा कभी समाप्त नहीं हुई। उसकी आत्मा पवित्र और दीप्ति की प्रखरता अक्षुण्ण बनी हुई है। यही कारण है कि आज के इस घोर निराषावादी युग में भी विद्यानिवास मिश्र को उसकी अपराजेय शक्ति पर अटूट विश्वास है। उन्होंने ‘कला के पलने के पास’ नामक निबंध में लिखा है, “मनुष्य की आत्मा कितनी अपराजेय होती है कि वह पीढ़ी-दर-पीढ़ी उपेक्षित रहकर भी अपनी प्रखरता दीप्त किए रहती है।”[10] आज के सन्दर्भ में मिश्र जी का उक्त विचार व्यक्ति को न सिर्फ आत्मबल प्रदान करता है बल्कि उसे सकारात्मक बल भी देता है।

पंडित विद्यानिवास मिश्र मानवीय सौंदर्य की महत्ता को तो स्वीकार करते हैं किंतु उनकी दृष्टि में सौंदर्य के उत्कर्ष के रूप में जगदीश वर ही हैं। समस्त चराचर जगत में ईश्वरीय सत्ता सौंदर्य के रूप में विद्यमान रहती है। मनुष्य के सुख-दुख में, आशा-निराशा में, प्रत्येक वस्तु में ईश्वरीय सत्ता का अनुभव हमारा सामूहिक चेतन सदियों से करता आया है। यही इस देश की मूल भावना है। मिश्र ने सौंदर्य की एक मात्र प्रतिमूर्ति ईश्वरीय सत्ता को स्वीकार कर उससे भारतीय भाव या मनोविकारों को संश्लिष्ट करते हुए लिखा है, “जगत के प्रति भाषित सौंदर्य को जगदीश वर से पृथक देखकर उसे अमंगल मानने वाले विचारकों की दृष्टि भारत की मूल संस्कृति के लिए एक अपरिचित और अनात्मीय दृष्टि है। वस्तुतः चराचर जगत के प्रत्येक अंश में मंगलमय प्रभु के अस्तित्व और उल्लास की भावना ही भारत की मूल भावना है।”[11] विद्यानिवास मिश्र ईश्वरीय सत्ता को भारतीय संस्कृति का वाहक मानते हैं जिसे हमारे सभ्यता के विकास में देखा भी जा सकता है। इसलिए वे जगदीश वर को भारतीय संस्कृति से अलग करने की कल्पना का पुरजोर खंडन करते हैं। इस रूप में वे भारतीय संस्कृति एवं सौन्दर्य को ईश्वर का ही प्रतिरूप मानते हैं। सार रूप में कहा जाए तो मनुष्य के विकास में संस्कृति का महत्त्वपूर्ण योगदान है, किन्तु आज पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव में अपनी ही संस्कृति की उपेक्षा को विद्यानिवास मिश्र असंगत ठहराते हैं। उनकी स्पष्ट धारणा है कि सभ्यता के विकास में जितना महत्व हमारी प्राचीन संस्कृति का है, उतना ही महत्व ईश्वरीय सत्ता का भी है।

मानव-सौंदर्य की ही भांति प्रकृति के प्रति विद्यानिवास मिश्र का अगाध प्रेम उनके निबंधों में स्थान-स्थान पर दिखायी देता है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि सौंदर्य के आस्वादन के लिये उन्होंने अपने अहं को त्यागने पर अधिक बल दिया है। यही कारण है कि लेखक विंध्य प्रदेश की सुषमा की पोर की सघनता में खो सा गया है। लेखक का प्रकृति के प्रति जो अगाध प्रेम है; वह इस बात की ओर प्रेरित करता है कि हम प्रकृति के समस्त उपादानों से प्रेम कर इनकी रक्षा कर पारिस्थितिकी तंत्र को संतुलित बनाये रखने के लिये सदैव प्रयत्नशील रहना चाहिए क्योंकि यदि प्रकृति सुरक्षित रहेगी; तो मानव-सृष्टि सुरक्षित रहेगी और यदि मानव-सृष्टि सुरक्षित रहेगी तो ही हमारे जीवन-मूल्य भी सुरक्षित रहेंगे।

प्राकृतिक या कलात्मक सौंदर्यानुभूति के लिए समस्त ज्ञान और अहंकार को त्यागना पड़ता है। ईश्वर प्रदत्त उन समस्त उपादानों से एकाकार होना पड़ता है, जो हमारे अंतःकरण में चिर स्थित आनंद-तत्त्व को जागृत करती रहती हैं। सौंदर्य की साकारता तभी हो सकती है, जब हम उनके साथ तदाकार हो जाते हैं। प्रकृति के साथ हमारा सामंजस्य तभी संभव हो सकता है जब हममें ग्रहणशीलता, उत्कंठा के साथ-साथ हमारे व्यक्तित्व में मौनशीलता, धैर्यशीलता और विनम्रता हो। विद्यानिवास मिश्र इस संदर्भ में लिखते हैं- “जब तक अपने को ग्रहणशील और उत्कंठित बनाकर हम विजन का सौंदर्य निरखने नहीं जाते, तब तक वह सौंदर्य हमारे लिए अगोचर बना रहता है। हमारे मौन रहने पर ही वह बोल पड़ता है। हमारे ठहर जाने पर वह गतिशील हो जाता है और हमारे विनीत हो जाने पर ही वह स्फीत हो उठता है।”[12] प्राकृतिक सौंदर्य के प्रति इतनी सूक्ष्म दृष्टि विद्यानिवास मिश्र जैसे कला मनोवैज्ञानिक की ही हो सकती है। मिश्र सौंदर्यानुभूति की उसी तदाकारिता की बात करते हैं; जिनका उल्लेख आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने निबंध-संग्रह ‘चिंतामणि’ के प्रथम भाग के निबंध ‘कविता क्या है’ में किया है, मुक्तिबोध ने भी अपनी रचना ‘एक साहित्यिक की डायरी’ के प्रथम लेख ‘तीसरा क्षण’ में भी इसी तदाकारिता की बात की है। यह तदाकारिता ही ईश्वर, प्रकृति, और मनुष्य के मध्य समन्वय स्थापित करती है।

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि विद्यानिवास मिश्र का मूल्य-बोध आदर्श मूलक दृष्टि से परिचालित है; किंतु यह जीवन की परिवर्तमान स्थितियों-परिस्थितियों को नये रूप में व्याख्यायित भी करता है। आदर्श मूलक प्रवृत्ति, जिसमें (सत्य, दान, दया, करुणा, प्रेम) के भाव अंतर्निहित होते हैं; उनकी रक्षा पर अत्यधिक बल देने के साथ ही “धारयति इति धर्मः” सूक्ति से प्रेरित होकर उन्होंने भारतीय संस्कृति के भाव-पुरुष कहे जाने वाले ‘राम’ और ‘युधिष्ठिर’ को कर्तव्यनिष्ठ और सत्य-धर्म के प्रतीक के रूप में स्वीकार कर वर्तमान पीढ़ी को उनके आदर्शों पर चलते रहने का संदेश भी दिया है; ताकि व्यष्टि और समष्टि द्वारा अपने राष्ट्र के कल्याणार्थ मनसा, वाचा, कर्मणा समर्पित हुआ जा सके।

मिश्र के मूल्य-बोध की एक अन्य महत्त्वपूर्ण उपलब्धि यह भी है कि वे अखण्डतावादी दृष्टि को सर्वाधिक उपयुक्त मानते हैं; तभी तो उनके चिंतन में विश्वबंधुत्त्व की भावना सर्वाधिक दिखायी देती है। दरअसल विश्व की दो धुरी शक्तियाँ जब एक-दूसरे को तोल रही थीं; तब भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पण्डित नेहरू द्वारा गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाये जाने को उन्होंने उचित ठहराते हुए महात्त्वाकांक्षी शक्तियों की दंभभरी प्रचेष्टाओं की कटु आलोचना की है। उनकी दृष्टि में मानव धर्म वही है; जो लोलुपता को त्यागकर परिवार से समाज, समाज से राष्ट्र तथा राष्ट्र से विश्व कल्याण की भावना को अपना सके। हमारे विचार से ऐसा व्यापक दृष्टिसंपन्न निबंधकार न तो मात्र अतीतोन्मुखी ही हो सकता है और न ही वह समकालीन चुनौतियों से घबरा ही सकता है। विद्यानिवास मिश्र मात्र अतीत या वर्तमान के विषय में ही नहीं सोचते, बल्कि अतीत से सीख लेकर भविष्य के परिणामों के विषय में भी चिंतनशील दिखाई देते हैं।

यह कहने में तनिक भी हिचक नहीं कि विद्यानिवास मिश्र के लेखन का मूल्य बोध आज विलुप्त होती नैतिक मूल्यों की आधारशिला है। आधुनिकीकरण के इस दौर में, जहाँ मानवीय संवेदनाओं का पतन व वैयक्तिक स्वार्थ का चरम देखने को मिलता है, ऐसे में विद्यानिवास मिश्र के मूल्य बोध को आत्मसात करने की आवश्यकता जान पड़ती है। इतना ही नहीं, विद्यानिवास मिश्र की चिंतन दृष्टि राष्ट्रवाद के रूप में सदैव राष्ट्रीय एकता व राष्ट्र हित का ही समर्थन करती है जो वर्तमान समय में किसी भी राष्ट्र के विकास व उन्नति के लिए परम आवश्यक है। इस रूप में विद्यानिवास मिश्र का मूल्य बोध आज न सिर्फ प्रासंगिक है अपितु अत्यंत आवश्यक भी जान पड़ता है।

संदर्भ-ग्रंथ सूची

चन्द्र, कल्याण, 1996. समकालीन कवि और काव्य, चिंतन प्रकाशन, कानपुर, उत्तर प्रदेश

तेज इंद्र पाल कौर, (1993), ‘आधुनिक हिंदी साहित्य चिंतन में मूल्य दृष्टि का अंतरभाव: (भारतीय और पाश्चात्य साहित्य चिंतन में निहित मूल्य दृष्टि के आधार पर)’, इलाहाबाद विश्वविद्यालय द्वारा डी.फिल. की उपाधि हेतु प्रस्तावित शोध-प्रबंध

  1. मिश्र, विद्यानिवास, 2000. तुम चंदन हम पानी, नेश्नल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, प्रथम संस्करण

मुक्तिबोध, गजाननमाधव, 2008. एक साहित्यिक की डायरी, भारतीय ज्ञान-पीठ, दिल्ली, आठवाँ संस्करण

वर्मा, रामचन्द्र (संपादक), 1993. मानक हिंदी कोश (पांचवा खंड), हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, उत्तर प्रदेश

शुक्ल, रामचंद्र, 2002. ‘चिंता-मणि’ (भाग 1), लोक भारती प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण[13]

  1. ‘आधिनिक हिंदी साहित्य चिंतन में मूल्य दृष्टि का अंतरभाव: (भारतीय और पाश्चात्य साहित्य चिंतन में निहित मूल्य दृष्टि के आधार पर)’, तेज इंद्रपाल कौर, पृ. -39,
  2. संपादक वर्मा रामचन्द्र, मानक हिंदी कोश, पांचवा खंड, पृ.-298
  3. चन्द्र कल्याण, समकालीन कवि और काव्य, पृ.-10
  4. ‘भारतीय दर्शन’, सैलेशचंद्र चटोपाध्याय एवं धीरेंद्र मोहन दत्त, पृ. -112
  5. मिश्र विद्यानिवास, (अहं अनृतात् सत्यम् उपैमि), ‘तुम चंदन हम पानी’, पृ.- 3
  6. वही, पृ.-3
  7. मिश्र विद्यानिवास, (दाम्यत्, दत्त दयध्वम्), ‘तुम चन्दन हम पानी’, पृ- 5
  8. वही, पृ.-5
  9. मिश्र, विद्यानिवास, (व्यष्टि और समष्टि की संधि), ‘तुम चन्दन हम पानी’, पृ.-98
  10. वही, पृ.-76
  11. वही, पृ.-79
  12. मिश्र, विद्यानिवास, (कला के पलने के पास), ‘तुम चन्दन हम पानी’, पृ.-79

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